बारिश के मौसम से जुड़ी कुछ स्मृतियाँ

बारिश की कुछ स्मृतियाँ | लेख

बारिश का मौसम चल रहा है। जबसे वर्क फ्रॉम होम चल रहा है तब से बारिश में कहीं आना जाना रुक गया है। बारिश होती है तो अक्सर घर पर ही रहते हैं। पर बारिश थमने के बाद जब निकलते हैं तो गुरुग्राम में तो गलियों और सड़कों में भरा पानी आपका इंतजार करता ही दिखता है। वर्क फ्रॉम होम में इस गलियों में भरे पानी से बचना मुश्किल है। दुकान में रोजमर्रे के जीवन से जुड़ी चीजों को लाते समय सच में बारिश से कोफ्त होती है और कभी कभी लगता है कि बारिश के साथ जो रूमानियत या खूबसूरती जुड़ी है क्या वो यहाँ रहते हुए खो सी गयी है।

पर जब भी ऐसा सोचता हूँ तो यादों के पिटारे से बारिश से जुड़ी कुछ ऐसी स्मृतियाँ निकल आती हैं जो मुस्कुराने पर विवश कर देती हैं। ऐसी यादें जिनको जीकर ज़िंदगी की खूबसूरती बढ़ गयी थी।

चाय और दूध के गदेरे


सबसे पुरानी याद मेरे गृहनगर पौड़ी की है। उन दिनों हम लोग स्कूल बस से अपने स्कूल जाया करते थे। बारिश के दिनों में पौड़ी सुबह सुबह कोहरे से तो ढक जाया करता था। साथ साथ कई बार कुछ सड़के भी धँस जाया करती थी लेकिन उन दिनों हमें इसकी क्या परवाह होनी थी। उन दिनों तो हम स्कूल की बस से स्कूल तक जाने का इंतजार करते थे। चूँकि पौड़ी पहाड़ है तो बारिश के मौसम में कई जगह से गदेरे बहते हुए हमें दिखाई देते थे। अक्सर ये गदेरे दूसरे मौसमों में सूखे पड़े रहते थे या इनमें पानी इतना कम रहता है कि नजरंदाज कर दिया जाता है। पर बरसात आते ही इन गदेरे में पानी की मात्रा काफी बढ़ जाती है।

यह गदेरे चाय के जैसे मटमेले रंग के होते हैं या फिर दूध के जैसे झक्क सफेद। उन दिनों हम इसी फिराक में रहते कि स्कूल जाते हुए हमें उस तरफ की खिड़की मिले जहाँ से हम इन गदेरों को निहार सकें। बस जब सड़क से उनके बगल से गुजरती तो मन होता कि बस रुक जाए तो हम इन गदेरो को बहते देखते रहे। बहते पानी की बूँदों को अपने चेहरे पर महसूस कर पाएँ। उस गदेरे में अपने छोटे छोटे हाथ डाल पाएँ और अंजुलि भर पानी को एक दूसरे पर फेंक पाएँ। पर ऐसा कभी मुमकिन न हो पाता। बस से जाते हुए जो गदेरे हाथ की दूरी पर दिखते वो अक्सर सड़क से काफी दूर होते और स्कूल बस का काम बच्चों को यूँ मजे कराना भी तो न होता था। उसे तो जल्द से जल्द बच्चों को सुरक्षित स्कूल तक पहुँचाना था। ऐसे हम बस एक ही खेल खेल पाते।

हम स्कूल पहुँचने के रास्ते तक ये गिनते चले जाते कि रास्ते में कितने चाय के गदेरे आये थे और कितने दूध के। इन गदेरों को गिनते गिनते बाकियों का पता नहीं लेकिन मैं तो चाय और मीठे दूध का स्वाद अपने मुँह में महसूस कर पाता था।

बारिश में स्नैच बॉल

बारिश से जुड़ी दूसरी याद दिल्ली की है। मैंने दसवीं तक तो पौड़ी में ही पढ़ाई की लेकिन दसवीं बारहवीं के लिए हॉस्टल चला आया था। हॉस्टल हमारा स्कूल कैंपस के अंदर था। ऐसे में खेलने के लिए हमें बड़ा ग्राउंड भी हासिल था। घास से ढका ये ग्राउंड वैसे तो फुटबाल, हैंड बाल खेलने के काम आता था लेकिन छुट्टी के दिन जब बारिश होती तो सभी लड़के बास्केटबॉल लेकर ग्राउंड पहुँच जाते और पानी भरे मैदान पर स्नैच बॉल का खेल शुरू हो जाता।

दो टीमें बँट जाती और फिर शुरू होता बॉल पास करने और छीनने का खेल। इस छीना झपटी पर पानी भरे मैदान में कई बार फिसलते, कई बार लुढ़कते, कई बार अपने पैर के अँगूठे और घुटने छिलवाते, एड़ियाँ मुड़वाते और भीग कर तर बतर हो जाते लेकिन जब तक थक कर चूर नहीं हो जाते तब तक ये खेल जारी रहता। चोटों का असर तब ही महसूस होता जब लौटकर अपने अपने कमरें में पहुँचते और नहाने जाते।

ये खेल इतना मजेदार होता कि मेरा जैसा नॉन अथलेटिक बंदा भी बड़े जोशो खरोश से इसमें भाग लेता। वो अलग बात है कि ऐसे खेलों के बाद कई लड़के शाम के वक्त थोड़ा लँगड़ाते भी दिख जाते थे। उनको चोट जो ज्यादा लग चुकी होती थी लेकिन चेहरे पर मुस्कान हमेशा रहती। कभी कभी मैं भी उन लँगड़ाते लड़कों में शामिल रहता था। लेकिन फिर अगली बार जब भी मौका मिलता तब दोबारा इस खेल में वो उसी जोशो खरोश में सभी शामिल हो जाते थे। बड़ा मज़ा आता था।

भट्टा फॉल की यात्रा

कॉलेज के दिनों की बात है। मैं उस वक्त कॉलेज के तीसरे साल में रहा होऊँगा। बारिश का मौसम था लेकिन बारिश के आसार लग नहीं रहे थे। मैं उन दिनों लाल पुल के नजदीक रहता था। आसमान में हल्के बादल छाए हुए थे और मौसम बड़ा खूबसूरत हो रखा था। हवा भी ठंडी चल रही थी। ऐसे में पता नहीं किसने प्लान किया और कुछ ही देर में मैंने खुद को राजपुर रोड़ पर पाया। हम चार लोग थे। देव, मैं, संजीव और मकैनिकल का एक बैच मेट जिसका नाम फिलहाल मुझे याद नहीं आ रहा है। मेरे राजपुर रोड़ पहुँचने के कुछ देर बाद ही बाकी लोग भी पहुँच गए। वो दो बाइक में आए थे और मैं तो ऑटो लेकर आता था। मुझे बाइक जो चलानी नहीं आती है। राजपुर रोड़ से मैं एक बाइक के पीछे बैठ गया और हम लोग बढ़ गए।

प्लान मसूरी के नजदीक भट्टा फॉल जाने का था। राजपुर रोड़ से भट्टा फाल 24-25 किलोमीटर रहा होगा। हम लोग थोड़े ही आगे बढ़े थे कि झमाझम बरसात होने लगी। जल्दी से बाइक रोककर मोबाइल और बटवों को पोलीथीन के हवाले किया और उसे सुरक्षित स्थान पर पहुँचाया। पहले तो एक बार सोचा कि प्लान कैन्सल करें और कहीं ठहरकर बारिश रुकने का इंतजार करें लेकिन फिर निर्धारित किया गया कि भीगते हुए ही बट्टा फॉल जाएँगे। जो होगा देखा जाएगा।

फिर हम राजपुर रोड़ से बट्टा फॉल जाने वाली सड़क तक भीगते हुए ही गए। बट्टा फॉल जाने के लिए सड़क से नीचे की ओर उतरना पड़ता था। जब तक हम सड़क पर पहुँचे तब तक बारिश रुक चुकी थी लेकिन हम इतने भीग चुके थे कि पहने हुए कपड़े भारी हो गए थे। मौसम अब भी बारिश जैसा जरूर हो रखा था। नीचे जाने का रास्ता फिसलन भरा था। हम लोग किसी तरह संभल संभल कर उन सँकरे रास्तो पर चलते हुए अपने गंतव्य स्थल तक पहुँचे।

बारिश के कारण बट्टा फॉल से बहता पानी दूध की तरफ सफेद लग रहा था। फॉल में पानी इतना अधिक था और इतनी जोर से गिर रहा था कि उसकी गर्जना में एक दूसरे की आवाज सुनना मुश्किल हो रहा था और काफी दूर तक उन पानी की बूँदों को महसूस किया जा सकता था। जहाँ पर झरने का पानी गिर रहा था उसी से थोड़ी दूर पर एक छोटी सी दुकान थी जो कि खुली हुई थी। क्योंकि बारिश अभी अभी होकर ही रुकी थी तो वहाँ कोई नहीं था। केवल हम चार ही उधर थे और वो भाई। उनके चेहरे पर हमें देखकर मुस्कान आ गई और हमारे चेहरे पर एकांत देखकर।

हम पूरे तरह से गीले हो चुके थे तो सबसे पहला काम हमने अपने कपड़े उतारने का किया। हम चार लौंडे थे तो क्या दिक्कत थी। सभी अब अंडरवियर में थे और बाकी सब कपड़ों को निचोड़कर फैला दिया था ताकि जितना हो सके वो थोड़ा सूख से जाएँ। बारिश तो अब बंद हो चुकी थी। इसके बाद फाल में थोड़ा नहाया वहाया गया और उसके बाद आकर मैगी के लिए बोला गया। मैगी का दो बार का दौर चला और करीब एक दो घंटे हमने उधर बिताए। इस दौरान उधर कोई नहीं था। हमारे कपड़े भी तब तक इतने गीले नहीं रहे थे कि उनसे पानी चुए। भट्टा फॉल से भी हम तृप्त हो चुके थे। गप्पे भी सब खत्म हो गयीं थीं।

हमने कपड़े पहने और मैगी और चाय की पेमेंट करके सड़क की तरफ बढ़ गए। तब तक हल्की हल्की धूप भी आने लगी थी। हम सड़क पर पहुँचे और फिर वापस देहरादून की तरफ बढ़ गए। एक अच्छा दिन हमने बिताया था। मैं सोच रहा था कि अगर बारिश के कारण ही हम बीच में रुक जाते तो ऐसा दिन कहाँ बिताने को मिलता। है न?

गेटवे ऑफ इंडिया के भुट्टे

बारिश के और स्मृति जो याद आती है वो मुंबई की है। मुंबई में हमारा दफ्तर रेडियो क्लब के नजदीक मौजूद व्हाइट पर्ल होटल के ऊपर वाले फ्लोर पर था। अक्सर ही हम शाम के चाय के वक्त घूमते घामते रेडियो क्लब के बगल में बने फुटपाथ तक चले जाते। वहाँ पर समुद्र को नीचे दीवारों से टकराते देखते। उधर फोटो खींचने वाले, चाय बेचने वाले, पर्यटक इत्यादि का रेला आता जाता रहता। भीड़ उधर रहती ही थी। हम अक्सर उधर नहीं जाते थे। कभी भार भूले भटके ही उधर जाना होता।

आम दिनों में तो हम हमारे ऑफिस की बिल्डिंग के पीछे मौजूद चाय की दुकान पर चले जाते और उधर चाय की चुसकियाँ लेते।

पर बारिश के दिनों में जब हल्की फुल्की बूँदा बाँदी होती तो कई बार हम गेटवे को इंडिया की तरफ निकल जाते। इन दिनों उधर भुट्टे मिला करते थे। हल्की फुल्की बारिश हो और उसमें नींबू और मसाला लगे भुने हुए भुट्टे खाने को मिल जाएँ तो क्या ही चाहिए था। उधर हम ज्यादा नहीं गए लेकिन जब भी गए भुट्टे खाते हुए बड़ा स्वाद आया। वो भुट्टे के दानों का मुँह में लगता पहले हल्का खट्टा, मसालेदार स्वाद और फिर जब उन्हें चबाओ तो मुँह में घुलती हल्की सी मिठास आपको जो आनंद प्रदान करती थी वह ज़िंदगी की कुछ नेमतों में से एक प्रतीत होता था। भुट्टा खाने और उधर गप्पे मारने के बाद बार हम अक्सर चाय की टपरी पर चले जाते और गरमा गरम अदरक वाली चाय पीकर शाम की चाय का ये सेशन खत्म करते। मज़ा आ जाता था यार!


तो ये थी बारिश से जुड़ी कुछ स्मृतियाँ जो बारिश के मौसम में यदा कदा मन में उठती हैं। इस दौरान हम लोग भले ही सड़क से बहते गंदे पानी से दो चार जरूर हुए होंगे लेकिन वो कहाँ याद रहती हैं। याद तो ये खूबसूरत यादें रह जाती हैं। हैं न? आपकी बारिश से जुड़ी कुछ सुंदर यादगार स्मृतियाँ क्या हैं? बताना चाहेंगे?

फीचर तस्वीर: पौड़ी में बारिश के दिनों में मेरे द्वारा खींची गयीं कुछ तस्वीरें। पौड़ी में जिस यात्रा में ये तस्वीर खींचीं थीं उसका वृत्तान्त आप यहाँ पर क्लिक करके पढ़ सकते हैं।

This post is a part of Blogchatter Half Marathon 2024

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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2 Comments on “बारिश के मौसम से जुड़ी कुछ स्मृतियाँ”

  1. मुझे बारिश बचपन से ही पसंद नहीं है। पर बचपन में इतना फ़र्क नहीं पड़ता था और अब कोफ़्त होती है। मेरी बारिश को लेकर ऐसी कोई यादें नहीं हैं। मैं ज़्यादातर घर में ही रहती हूँ।
    चाय और दूध के गदेरे काफ़ी दिलचस्प है। मुझे गदेरे का मतलब नहीं पता था। अभी गूगल पर देखा।

    1. आजकल तो मैं भी घर में ही रहता हूँ। इसलिए कोफ्त भी होती है। पर बारिश में भीगने का अपना मजा है और घूमते हुए भीगने का भी। कभी मौका मिले तो कीजिएगा अनुभव।

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