चंदेरी : एक और कोशिश

चंदेरी : एक और कोशिश | चँदेरी की एक घुमक्कड़ी
14 मई,२०१७ को यात्रा की गयी


किधर : चिंचवली गाँव, बदलापुर
कैसे जायें : सेंट्रल लाइन लोकल से वांगनी।
वांगनी से ऑटो के माध्यम से चिंचवली।
चिंचवली गाँव से किसी लोकल बंदे को साथ ले लें तो सही रहेगा।

जंगल के बीच मैं (पिक क्रेडिट : दीपक)

चंदेरी के साथ मेरा रिश्ता अब बहुत पुराना हो चुका है। इससे पहले मैंने २०१३ और २०१४ में इधर जाने की कोशिश की थी। जहाँ पहली बार हम किले के रास्ते से भटकते हुए आगे निकलकर चंदेरी जंगलों में खो गये थे वहीं दूसरी बार हम कुछ देर तक सही रास्ते पे रहने के बाद फिर से रास्ता भटक गये थे। मेरे मन में ये तीव्र इच्छा थी  कि मैं चंदेरी के किले तक  पहुँचूँ। चंदेरी मेरे लिए वो मरीचिका बन चुका था जिसके पीछे मैं जितना भागता था वो मुझसे उतना दूर जा रहा था। लेकिन फिर मैं गुडगाँव आ गया और ये इच्छा मन के किसी कोने में ही दबी रह गयी। चंदेरी शायद मैं अब कभी नहीं जा सकता था।

लेकिन ऐसा नहीं था। एक और कोशिश मुझे मिलनी थी। लेकिन पहले पुरानी कोशिशों की एक झलकी।

दिसम्बर २०१३ की चंदेरी यात्रा की एक झलक। फेसबुक पे १५ दिसम्बर रविवार का अपलोड है तो शायद 14 दिसम्बर को इस यात्रा को किया था।  इसमें हम चंदेरी के जंगलों की तरफ चले गये थे। 

मैं, अरविन्द भाई, अमन और दीपक
अपने गंतव्य की तरफ जाते हुए। इस बात से बिलकुल अनजान की हम उधर पहुँच ही न सकेंगे।
हम भटकते हुए इधर ही आ गये थे और इधर ही रुकने का फैसला कर लिया था
आराम के दौरान इस बेहतरीन उपन्यास (Joyland)के कुछ चैप्टर ही पढ़ने की सोची थी।
जंगल
जंगल बीच फोटोशूट




दूसरी यात्रा की अपलोड डेट २४ जून मंगल की  दिखा रहा है तो शायद २१ या २२ जून को उसे किया गया था।  दूसरी यात्रा की झलक। इसमें हम थोड़ा सही रास्ते पे थे लेकिन फिर दोबारा रास्ता भटक गये थे। और इस बार भी चंदेरी के किले को देखे बिना ही लौटना पड़ा था। 

गाँव से ऊपर को चढ़ते हुए
मस्ती के दो पल। पत्थर से बॉडी  बिल्डिंग करते हुए
थोड़ा आराम फरमाते हुए : श्री, दीपक, अमित और मैं

ये तो थी पुरानी कोशिशों की तसवीरें।

इस बार जब मुझे ये बताया गया कि ऑफिस की ऑफ साईट के लिए मुझे मुंबई जाना है तो मन के किसी कोने में सुप्तावस्था में रह रही यह इच्छा दोबारा जाग गयी। मैं अब दोबारा चंदेरी के किले में जाना चाहता था और पहले की गलतियों को नहीं दोहराना चाहता था। मैंने दीपक और राजेन्द्र से मिलकर पहले रविवार को कहीं घूमने का प्लान बनाया और फिर मैंने हल्के से चंदेरी का आईडिया सरकाया। दीपक भी उधर जाने के लिए उतना ही उत्साहित था। उन दोनों असफल यात्राओं में वो भी साथ था और शायद उसके मन में भी चंदेरी किले में जाने की इच्छा मेरे ही बराबर थी।

सारा प्लान तैयार था और अब इन्तजार था रविवार आने का।

हम शुक्रवार को उधर पहुँचे। सुबह साढ़े छः की फ्लाइट थी इसलिए तीन बजे करीब उठ गया था। फ्लाइट में  सोया तो था लेकिन थकान थी ही। फिर पूरा दिन काम हुआ और शाम को बारह एक बजे करीब गेस्ट हाउस पहुँचे। फिर अगले दिन दोबारा जल्दी उठ गये। इस दिन प्रेजेंटेशन देनी थी तो थोड़ा बहुत टेंशन थी। थकावट भी थोड़ा थी क्योंकि शुक्रवार से नींद पूरी नहीं हुई थी। शनिवार का दिन भी गुजरा। उस दिन कुछ और बन्दों ने आने के लिए हामी भरी। इससे मैं खुश ही था जितने लोग जायें उतना ही अच्छा होता है। मज़ा ज्यादा आता है। हाँ, जबरदस्ती किसी को नहीं ले जाना चाहिये क्योंकि फिर अगर सब कुछ प्लान के अनुरूप न हो तो वो ज्यादा निराश होंगे और यात्रा का मूड खराब होगा।

शनिवार का दिन गुजर चुका था और फिर रात को मैं गेस्ट हाउस में था। गेस्ट हाउस मेरा शिवड़ी में था। मैंने पहले ही दिन ऑफिस में पता कर लिया था तो मुझे मालूम हुआ था कि उधर से लोअर परेल सबसे नजदीकी लोकल ट्रेन का स्टेशन था। लेकिन राजेंद्र ने मुझे ये सलाह दी थी कि मैं उधर से दादर जाऊँ तो वो सही रहेगा। रात को जब मैं सोया  था तो मैं लोअर परेल जाने वाला था। दिन भर में खाना पीना इतना हो गया था कि रात को खाने से मैंने परहेज किया। अपना नहाया धोया और  द होंटइंग ऑफ़ सैम कैबट  पढना जारी रखा।  उपन्यास मैं दूसरी बार पढ़ रहा था। पहली बार में पढ़ते हुए थोड़ी शंका मन में रह गयी थी। मैं पढ़ते हुए आगे निकल गया था और एक प्लाट पॉइंट रह गया था। वैसे मैं उस पॉइंट से शुरुआत कर सकता था लेकिन फिर मैंने पूरा ही पढने का फैसला किया। अब मैं आखिरी के पन्नों पर था और कल की यात्रा से पहले इसे खत्म करना चाहता था।

मैंने उपन्यास ख़त्म किया। अब नींद भी आ रही थी। राजेन्द्र ने व्हाट्सएप्प में एक नया समूह का निर्माण किया था और उसमे सारी जानकारी डाल दी थी। मुझे अक्सर ऑन द गो चीजें करने का शौक है। योजना बनाकर काम करने में मज़ा नहीं आता। कई बार गट फीलिंग सही होती है कई बार नहीं लेकिन अगर गलत होती है तो  फिर मुझे इसका पछतावा भी नहीं होता है। तो जब राजेन्द्र ने मुझे दादर के लिए कहा तो मैंने उसे ध्यान में रखा लेकिन अभी पूरा निर्णय नहीं लिया था। वो सुबह ही निर्भर करता कि मैं किधर को जाता।

मैंने पाँच और सवा पाँच का अलार्म लगाया और नींद के आगोश में समा गया। अलार्म के बजते ही मेरी नींद खुली लेकिन ऐसा लग रहा था कि नींद पूरी नहीं हुई थी तो मैंने अलार्म को छः-साढ़े छः का किया और फिर एक और घंटे की नींद लेने की सोची। जब छः वाला अलार्म बजा तो मैं उठा। झूठ नहीं बोलूँगा एक बार तो लगा कि प्लान ही कैंसिल कर देता हूँ और पूरे दिन सोता हूँ। हर यात्रा से पहले मन में एक बार ये ख्याल आता ही है लेकिन मुझे ये भी पता है कि अगर कैंसिल नहीं किया तो कई अच्छी यादें बनेंगी। हो सकता है मंजिल तक न पहुँचे लेकिन यात्रा तो होएगी ही। इसलिए उठकर जल्दी जल्दी सब कुछ निपटाया और साढ़े छः तक मैं गेस्ट हाउस के बाहर था।

मुंबई भले ही कभी न सोता हो लेकिन इसके हिस्से जरूर सोते हैं। शिवड़ी भी शायद ऐसा ही हिस्सा था। मैं इसे उठते हुए देख रहा था। सड़क में काफी कम भीड़ थी। गाड़ियों को पूरे दिन के सफ़र से पहले धोया जा रहा था। यानी जगह अभी अंगड़ाई ले रही थी। मैं गेस्ट हाउस की तरफ से निकल कर जैसे कि मुझे बताया गया था एक चौराहे की तरफ गया। उधर मेरे जैसे कई लोग गाडी के इन्तजार में खड़े थे। वहाँ एक व्यक्ति ने टैक्सी रोकर उसे दादर कहा और गाडी में बैठकर चला गया। दादर शब्द मेरे कान में पड़ा तो मैं भी उधर ही टैक्सी का इंतजार करने लगा। पाँच दस मिनट बाद एक टैक्सी आई। मैंने टैक्सी चालक से दादर कहा और उन्होंने हामी भर दी। उन्होंने मराठी में मुझसे पूछा दादर में किधर तो मैंने स्टेशन बोल दिया। अब मेरी यात्रा शुरू हो चुकी थी।

थोड़ी दूर जाते ही उन्होंने एक गाड़ी धोने वाले भाई से कहा कि वो पंद्रह मिनट में वापस आकर गाड़ी धुलवायेंगे। शायद वो इसलिए ही निकले थे लेकिन सोचा पहले सवारी ही छोड़ आयें। उन्होंने कुछ ही देर में मुझे दादर पहुँचा दिया। शिवड़ी से दादर पहुँचने में किराया आया ४२ रूपये। मुझे देर हो रही थी क्योंकि 7:03  की ट्रेन थी इसलिए मैंने उन्हें पचास का नोट ही दिया और पैसे वापस नही लिए।

फिर मैं स्टेशन के अन्दर दाखिल हुआ तो मुझे पता चल गया कि सात तीन वाली गाडी किसी भी हालत में मैं पकड़ नहीं सकूँगा। अभी 7:00 बज  चुके थे और टिकेट घर के पास इतनी लम्बी लाइन थी कि पंद्रह मिनट से पहले मेरा नंबर नहीं आता। इसके इलावा मुझे ग्रुप में पता चला गया था कि एक जाने वाला कम हो गया था। वैसे तो जाने वाले  पाँच  थे लेकिन अब ४ ही बचे थे। हर यात्रा में ऐसा होता है कि हामी तो कई भरते हैं लेकिन यात्रा के दिन वो हाँ न में तब्दील हो जाती है।  अब मुझे टिकेट लेने का इंतजार करना था और मैं कुछ नहीं कर सकता था। 7:17 तक मेरा नंबर आया और मैंने वांगनी की रिटर्न टिकेट ली।  फिर मैं प्लेटफार्म की तरफ बढ़ा।

मैं जब मुंबई में था तो वेस्टर्न लाइन से ही दादर में आता था क्योंकि विरार रहता था। फिर ऑफिस भी इस दिशा में था कि वेस्टर्न के साइड से ही घुसना होता था। मैंने पहली बार सेंट्रल  लाइन के तरफ बने टिकेट विंडो से टिकेट लिया था। फिर ऊपर चढ़ा और प्लेटफार्म खोजने लगा। कहीं कुछ लिखा   हुआ नहीं था। पहले प्लेटफार्म एक  और दो पर गया। तभी राजेन्द्र का मेसेज आया कि प्लेटफार्म ४ से ट्रेन मिलेगी तो उधर की ओर चला गया। अब ट्रेन का इंतजार था।

7:32 के करीब आसनगाँव के लिए ट्रेन आई। ग्रुप में उसके   विषय पूछा तो  दीपक ने कहा वो कल्याण आएगी तो उसने कहा मैं उसमें  चढ़ जाऊँ तो मैं उसमे चढ़ गया। अब मैं  कल्याण जा रहा  था। ट्रेन में साधारण तौर पर जितनी भीड़ रहती है उतनी नहीं थी। मैंने अपनी पत्रिका निकाली और उसके लेख पढने लगा। मैं कादम्बनी पढ़ रहा था और इस बार उसमे यात्रा वृत्तांत छपे हुए थे। यात्रा में जाते हुए यात्रा वृत्तांत पढने का अपना ही मज़ा था। कुछ देर बाद  राजेन्द्र का मैसेज आया कि ये लोकल ठाणे से स्लो हो जाती है लेकिन  अब किया क्या जा सकता था। उसने 7:38 की बदलापुर फ़ास्ट में आने   को बोला था लेकिन अब तो जो होना था वो हो ही गया था। दीपक और राजेन्द्र दोनों ही मुझे कल्याण मिलने वाले थे।

कल्याण तक की यात्रा साधारण थी। कोई चिल्लमचिल्ली नहीं, कोई लड़ाई झगडा नहीं। वरना लोकल में ऐसा होना आम बात है। सब कुछ आराम से हुआ। अभी गाडी स्टेशन में प्रविष्ट करने ही वाली थी कि राजेन्द्र का कॉल आ गया। उसने कहा वो और दीपक प्लेटफार्म नंबर पाँच पर इन्तजार कर रहे थे। मैं क्योंकि स्लो लोकल में आ रहा था तो मेरी गाड़ी ने प्लेटफार्म नंबर २ पे आना था। उन्होंने कहा वो सबसे बड़े पुल के नीचे खड़े थे। मैंने हामी भरी और बोला ट्रेन के रुकते ही उधर आता हूँ। राजेन्द्र चूँकि ठाणे में ही रहता था तो काफी जल्दी ही कल्याण पहुँच गया था। जब मैंने उससे पूछा तो उसने कहा उसे आधा घंटे से ऊपर हो गया था इंतजार करते हुए। अब खाली गाड़ी रुकने का इन्तजार था।

गाड़ी रुकी और मैं कल्याण स्टेशन पे उतरा। मुझे सबसे बड़े ओवरहेड ब्रिज के विषय में कोई अंदाजा नहीं हो रहा था तो मैं आगे की तरफ को सबसे आखिरी ब्रिज पे चढ़ गया। मैंने सोचा एक बार पाँच नंबर प्लेटफार्म पर पौंच जाऊँ फिर फोन पर उनसे पूछ लूँगा कि वो किस दुकान के आमने सामने हैं। आखिरी ब्रिज पे मैं पहुँचा तो उसपे कोई सीढ़ियाँ नहीं थी बल्कि एक टेढा सा प्लेटफार्म बना था। मैं ऊपर चढ़ गया और फिर ब्रिज से होते हुए प्लेटफार्म पाँच की तरफ उतरा। मैंने राजेंद्र को फोन मिलाया और उन्हें बताया कि मैं इस स्लाइड  वाले ब्रिज से आ रहा था। उन्होंने मुझे निर्देश दिए और मैं आखिर कार उनके पास पहुँच ही गया। वो पाँच नंबर पे स्टेशन ऑफिसर के ऑफिस के बाहर थे।

कल्याण पे

हेल्लो हाई हुई। उन्होंने बताया कि एक और बन्दा फोन नहीं उठा रहा था। यानी अब खाली हम तीन ही जाने वाले बचे थे। अभी वांगनी की तरफ जाने वाली ट्रेन को आने में वक्त था। अभी नौ भी नहीं बजे थे। 8:47 के करीब हुए रहे होंगे। मैंने कल्याण जंक्शन की फोटो खींचने के विषय में उनसे बोला तो दीपक ने कहा कि अगर उधर जाते हैं तो वांगनी में प्लेटफार्म पर काफी चलना पड़ेगा। फिर गाड़ी भी आने वाली थी और ऐसा नहीं हो सकता था कि हम गाड़ी आने से पहले फोटो खींच कर आ जाते। मैंने वांगनी वाली तरफ जाने के लिए बोला तो उधर पता चला कि कल्याण जंक्शन का बोर्ड ही नहीं था। अब कुछ तो खींचनी ही थी तो इंडिकेटर की फोटो खींच कर मुझे खुश होना पड़ा। फिर बातें बाकी लोगों के ऊपर गयी। सबने धोखा दे दिया था। उसके बाद मैंने उनसे नाश्ते के विषय में पूछा। मुझे थोड़ा बहुत भूख लग रही थी लेकिन फिर अंत में ये ही निर्धारित किया कि हम वांगनी में ही नाश्ता करेंगे।  अब हम वांगनी की तरफ जाने वाली गाड़ी का इंतजार करने लगे। एक खोपोली जाने वाली गाड़ी आई और हम उसमे चढ़ गये। वांगनी कल्याण से बीस मिनट की दूरी पर ही था।

साढ़े नौ के करीब हम वांगनी में थे। उधर के बोर्ड के साथ कुछ फोटो खिंचावाई। फिर स्टेशन में ही मौजूद काउंटर से हमने तीन-चार पानी की बोतल ली। कुछ चिप्स और नमकीन के पैकेट लिए। कुछ पानी राजेन्द्र और दीपक भी अपने साथ लाये हुए थे। मुझे यहाँ से डायरेक्ट एअरपोर्ट जाना था तो मेरा बैग तो पूरा भरा था। हाँ, बैग की साइड में मैंने दो पानी की बोतल फिट कर ली। अब धूप भी काफी हो गयी थी तो मैंने चश्मा लगा लिया था। पहले मैं गॉगल्स को एक आडम्बर ही समझता था इसलिए खरीदता नहीं था। मेरे लिए वो एक फैशन एक्सेसरीज ही थे। लेकिन अब धूप में अक्सर उन्हें पहनता हूँ। मैंने महसूस किया है कि अगर गॉगल्स पहने हो तो चिलचिलाती धूप भी कम महसूस होती है क्योंकि आँखें में छाव होती है। और आँखें हमारे सबसे संवेदनशील हिस्सों में से एक हैं।  एक बार अगस्त के महीने में हम जयपुर घूमने गये थे। उधर जब जंतर मंतर गये थे उस जगह का फर्श सफ़ेद रंग का था। उसपे धूप पड़ रही थी और प्रतिबिंबित होकर इतनी तीव्रता से आँखों पर लग रही थी कि आँखें खोलना मुश्किल हो रहा था। उस वक्त मेरे पास गॉगल्स नहीं थे लेकिन पहली बार उनकी जरूरत महसूस हुई थी। वो यात्रा मैंने दीपक और अमन के साथ की थी। खैर, कहने का मतलब ये है कि अगर बहुत ज्यादा धूप हो तो गॉगल्स रख लेना चाहिए। इससे धूप कम लगती है और थकावट भी कम होती है।

दीपक और राजेन्द्र
ऐसे पीले रंग के बोर्ड्स का अपना एक चार्म है।

हम सब सामान ले चुके थे और स्टेशन से बाहर निकलने के लिए चल पड़े। हमे पुल पर चढ़कर बाहर जाना था। हम ईस्ट की तरफ गये।  अब भूख बढ़ गयी थी और मुझे कुछ खाना था।  लेकिन नाश्ते से पहले मुझे एटीएम से पैसे निकालने थे। वहीं एक ग्रामीण बैंक का एटीएम था तो मैं उधर चले गया। उधर एक व्यक्ति पहले से ही थे। उन्हें पैसे निकालने में दिक्कत हो रही थी तो उनकी मदद की। फिर अपने लिए भी पैसे निकाले। अब नाश्ता करना था।

वांगनी का बाज़ार

मेरा पोहा खाने का मन था। मुझे वडा पाव वगेरह पसंद नहीं है। लेकिन जब हम स्टेशन के नज़दीक मार्किट में गये तो मुझे अपनी किस्मत पर गुस्सा ही आया। हर जगह जो भी स्टाल था उसमे वडा पाव ही बन रहे थे। दीपक लोगों ने तो उस दुकान की तरफ रुख कर लिया जहाँ पहली यात्रा में हमने नाश्ता किया था। और मैं किसी और चीज की तलाश में इधर उधर जाता रहा। एक जगह मुझे समोसे दिखे लेकिन फिर उनकी हालत इतनी अच्छी नहीं लग रही थी। मैंने कुछ फल ढूँढने की कोशिश की लेकिन वो भी नहीं मिले। मैं वापस आ रहा था तो दीपक और राजेन्द्र नाश्ता निपटा कर आ रहे थे। मैंने उनसे बोला कि अभी तो कुछ है नहीं और अब लगता है चाय ही पीनी पड़ेगी। सामने एक चाय वाला था तो उधर चाय पीने का फैसला किया। और सोचा चाय के साथ पार्ले जी ही खा लूँगा। मैंने एक दुकान से दस वाला पार्ले जी लिया। जो दस का नोट मैंने उन्हें दिया वो उसे उलट पुलट कर देख रहे थे। इसलिए मैंने उनसे बोला कि लाओ दूसरा नोट दे देता हूँ और दूसरा नोट उन्हें थमा दिया। ये बात मैंने उधर नोट की है। नोट हल्का सा कटा फटा भी हो तो उधर के लोग लेने में आना कानी करते थे जबकि इधर यानी दिल्ली ,उत्तराखंड  लोग ऐसे नोट आसानी से ले लेते थे। अगर हद से ज्यादा हालत खराब हो तो ही मना करते थे। खैर, मैंने बिस्कुट लिया और चाय की दुकान पर पहुँचा। तब तक चाय तैयार हो गयी थी। फिर मैंने और राजेन्द्र ने बैठकर चाय पी और बिस्कुट खाए। अब नाश्ता तो हो गया था।

वो निपटाकर दीपक ने कहा कि उन्होंने एक ऑटो वाले भाई से बात की है। वो चिन्चोली गाँव जाने के २०० माँग  रहे थे। धूप अब पड़ने लगी थी। हमे पहले अनुभवों से पता था कि चिंचवली (Chinchavali) गाँव काफी दूर था। और इतना किराया तीन बन्दों के लिए लाजमी था। इसलिए हमने ऑटो ले लिया। ऑटो वाले भाई के साथ हम अब चंदेरी के सफ़र के लिए निकल गये थे। रास्ते हमने उनसे किले के लिए पूछा तो उन्होंने कहा एक दो घंटे ही लगेंगे। सारी बातें राजेन्द्र ही कर रहा था क्योंकि वो मराठी में फ़्लूएंट था। फिर उन्होंने बताया कि उधर साइन बोर्ड थे इसलिये आसान रास्ता था। पिछले बार कोई साइन बोर्ड नहीं थी इसलिए हम थोड़ा खुश हुए। लगभग दस पंद्रह मिनट बाद ही हम चिंचवली गाँव में थे।

हमने उनसे वापस आने की भी बात कर ली थी। दीपक ने उनका नंबर ले लिया और उन्होंने कहा कि वो कॉल करने के पन्द्र से बीस मिनट में उधर आ जायेंगे। अब हम गाँव में थे। सामने चंदेरी किले का बोर्ड लगा था तो हमारी आशा बढ़ी। हमे यकीन हो गया कि अब तो बोर्ड सारे रास्ते होंगे और हम आसानी से पहुँच जायेंगे। इसलिए गाइड की जरूरत नहीं है। हम कितने गलत थे ?

चिंचवली गाँव का एक हिस्सा
किले की दिशा दर्शाता बोर्ड। हमे साइड में ऊपर की तरफ जाना था लेकिन हम आगे की तरफ चले गये थे।

हम बोर्ड की दिशा में आगे के तरफ बढते चले गये। काफी दूर चलने के बाद दीपक ने ही कहा कि शायद हम गलत आ गये हैं। हम एक ऐसी जगह पे थे जहाँ लग रहा था कि बरसात में नदी होगी। उधर एक महीला गड्डा  सा खोद रहीं थी। हमने राजेन्द्र को उनसे बात करने को बोला। उसने उन्हें पूछा तो उन्होंने आगे मोड़ पे एक आदमी के होने की बात की और बोला उधर के साइड ही जाना है। हम उधर मुड़े तो कोई नहीं था। फिर हमने ऊपर की तरफ चढ़ना शुरू किया तो एक और महीला सर पर लकडियाँ लेकर आ रहीं थी। जब उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि हम गलत आ गये हैं। हम चंदेरी जंगलों की तरफ आ गये हैं और हमे बोर्ड से सीधे नहीं बल्कि ऊपर की तरफ जाना था। दीपक ने कहा कि उसे पहले ही इस बात का एहसास था और वो सही भी कह रहा था। हम फिर वापस बोर्ड की तरफ मुड़े। ऐसे में शुरुआत में ही हमारा बीस मिनट का चलना बर्बाद सा हो गया। हाँ, गर्मी में ये बीस मिनट भी घंटे के समान लग रहे थे।

हमने उनसे ऊपर के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा कि उधर से सब आसान है। अब शायद उनके लिए आसान रहा होगा लेकिन हमारे लिए मुश्किल होने वाला था। हम सही रास्ते पे पहुँचे और ऊपर चढ़ना शुरू किया। अब वक्त 10:46 हो रहा था।

अब हम सही रास्ते पे थे

गर्मी अपने पूरे जलाल पे थी। हम चले जा रहे थे। सच बोलूँ तो मुझे इतना कुछ नहीं लग रहा था लेकिन राजेन्द्र चूँकि कभी इतना नहीं चला था तो उसकी हालत खराब होने लगी थी। पहले के बीस मिनट तो समतल चले थे तो उसमे उस वक्त ऊर्जा थी। अब पौने ग्यारह के करीब हम सही रास्ते पे चढ़े थे और चढ़ाई अपना असर उस पर दिखा रही थी। वो बैठकर बैठकर आ रहा था। और काफी पानी भी पी रहा था। ये दोनों बातें ही ट्रेकिंग में बाधा उत्पन्न करती हैं। हल्के चलो लेकिन बैठों नहीं और पानी बस इतना पियो कि खाली जबान भीग जाए। मैंने ये बात उसे बताई लेकिन भाई सुने तब न। फिर मैं अपनी गति से चलने लगा। मैंने सोचा उनके लिए आगे रुक जाऊँगा।  मैं  हल्के चलता हूँ तो मुझे ज्यादा थकान लगती है। मैं अपने गति से चलना पसंद करता हूँ और फिर थोड़ा रुककर फोटो खीचों तो आराम मिल जाता है। बैठता बहुत कम हूँ। अभी हम पन्द्रह मिनट ही चले होंगे कि मैं  एक पठार जैसे एरिया में था। यहाँ तक रास्ता सीधा ही था। मैं रुक कर फोटो खींचने लगा। मुझे फोटो खींचते हुए दस बारह  मिनट हो गये थे। यानी अब वक्त ११:०२ था। अभी तक दीपक और राजेन्द्र को आ जाना चाहिए था लेकिन उनका कहीं भी नामो निशान नहीं था।  मैं वापस गया और उनको देखने लगा। मैंने आवाज़ लगाईं तो उन्होंने जवाब दिया। वो नीचे आराम कर रहे थे। मैं हैरत में था। अभी तो हम थोड़ा भी नहीं चले थे। अब मैंने उनके आने की प्रतीक्षा करने की सोची।  ११:०५ पे मुझे दीपक आते हुए दिखा और उसके पीछे राजेन्द्र था।

दूर से आते दीपक और राजेन्द्र

वो ऊपर आये तो लेट होने का कारण पता चला। दीपक की थोड़ी तबियत खराब हो गयी थी। वडा पाव ने असर दिखया था। और राजेन्द्र भाई तो थका हुआ था। वो वापस जाने की बातें करने लगा था। या वहीं बैठकर इंतजार करना चाहता था। उसे बड़ी मुश्किल से मनाया कि थोड़ा आगे चल ले। उधर जंगल होंगे और उधर छाँव में आराम कर लेना। तब जाकर वो माना।

फिर हम आगे को बढ़ गये। करीब सवा ग्यारह बजे करीब एक पेड़ आया जिसके नीचे राजेन्द्र पसर गया। उसकी हालत अब और खराब थी। वो ऐसे चिल्ला रहा था जैसे अभी प्राण पखेरू उड़ने वाले हों। उसके ऐसे चिल्लाते हुए देखने पे मुझे हँसी आ रही थी और हम उसके मज़े ले रहे थे। शायद वो भी इसे एन्जॉय ही कर रहा था। हम कहते भाई तुम तो राजस्थान के हो। तुम्हे तो गर्मी में विचरण करने की आदत होनी चाहिए। वो तुम्हारे जींस में होना चाहिए। वो कहता राजस्थान का हूँ तो रेत में चलूँगा न पहाड़ थोड़े न चढूँगा। और फिर हम हँसने लगते। ऐसा हँसी मज़ाक सफ़र में चलता ही रहता है।   वो अब उधर ही रुकने के लिए बोल रहा था लेकिन उधर कीड़े या और दुसरे रेंगने वाले प्राणी हो सकते थे तो मैंने उसे इस बात को बताया। लेकिन फिर हमने उधर थोड़ा आराम किया। राजेन्द्र की हालत देखकर जबरदस्ती करने का कोई फायदा नहीं था। उसकी भी गलती नही थी। वो भाई शायद ही ऐसी तेज गर्मी में कभी निकला हो। आराम करने के बाद उसे किसी तरह और आगे आने के लिए मनाया और फिर हम चल दिए।  अभी वक्त ११:३० रहा होगा। अगली फोटो जो मैंने ली वो ११:४६ की थी। तब तक हम पाँच दस मिनट तो चल ही चुके होंगे। एक रास्ता सा बना दिख रहा था और हम उसी की तरफ बढ़ते जा रहे थे। १२:00 बजे के करीब हम एक और समतल जगह पर पहुँचे और उधर थोड़ा आराम किया। सामने ही पहाड़ दिख रहा था।

ये दूसरा बोर्ड था जो हमे मिला
थकावट से चूर राजेंद्र
आराम के बाद तरो ताज़ा और फुल टशन में
सेल्फी का जमाना है।  एक तो बनती थी।

अब रास्ता का हमे पता नहीं चल रहा था। हम पहाड़ की तरफ ही चल दिए। लेकिन अब तक हम रास्ता भटक चुके थे। काफी चलने के बाद हम उस समतल जगह के आखिरी छोर की तरफ आये। जंगल तो था। मैंने नीचे जाकर देखा तो एक घाटी जैसी थी। ऊपर राजेन्द्र और दीपक एक पेड़ के नीचे आराम कर रहे थे। हमे अब यकीन आ गया था कि हम रास्ता पूरा भटक चुके हैं। मैं ऊपर उनके पास आया और दीपक को एक बार दुसरे तरफ चलने के लिए बोला। हमने राजेन्द्र को उधर ही छोड़ने का फैसला किया।

आते वक्त हमने जगह पर काफी बकरिया देखीं थी और हम सोच रहे थे कि शायद उधर ही सही रास्ता हो लेकिन ऐसा नही  था। हम दूसरी तरफ चले और उधर भी यही हाल था। अब पूरा यकीन था कि इससे ऊपर आज हम नही जा पाएंगे। गर्मी जोरो से पड़ रही थी। हम पसीने से तरबतर थे। हम वापस आये और राजेन्द्र को ढूंढना शुरू किया।

हम उसका नाम चिल्ला रहे थे लेकिन वो कोई जवाब नहीं दे रहा था। मैंने दीपक से कहा कि स्लेशर फिल्मो में अक्सर ऐसा ही होता है। दो बंदे एक अकेले व्यक्ति को सामान के साथ छोड़कर चले जाते हैं और जब वापस लौटते है तो उन्हें न सामान मिलाता है और न वो बन्दा। मैंने कहा कहीं राजेन्द्र का भी किसी ने काम न तमाम कर दिया हो। दीपक हँसने लगा। वैसे परिस्थिति मज़ेदार ही थी।  कहाँ हम चंदेरी के किले को देखने आये थे और कहाँ जंगल में भटक गये थे। थोड़ी देर आवाज़ लगाने के बाद राजेन्द्र ने जवाब दिया। हम उसकी आवाज़ की तरफ गये।

जब उधर पहुँचे तो उसने अलग किस्सा बयान किया। उसने पूछा कि इधर कोई जंगली जानवर है क्या ? हमने कहा नहीं तो। उसने कहा कि वो लेटा हुआ था तो उसे सामने के पेड़ों और झाड़ियों के बीच में ऐसा लगा जैसे कोई जंगली कुत्ता उसे देख रहा है। हमे हँसी  आ गयी। हमने कहा कुत्ता ही तो है। वो कहने लगा जंगली कुत्ता फाड़ देता है। हम फिर हँस दिए।

अक्सर अँधेरे में झाड़ियों में आकृति दिखती है ये तो सुना लेकिन ये बाद दिन में भी मिलगी ये  न सोचा था। हमने उस दिशा में देखा जिधर राजेन्द्र दिखा रहा था तो उधर ऐसी आकृति जैसा तो दिख रहा था। उधर की वनस्पति भूरे रंग की थी और पेड़ के तने और झाडी मिलकर ऐसी आकृति बना रही थी।  लेकिन फिर हमने उसपर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। थोड़ा बहुत जानवरों को लेकर मज़ाक ही किया। अब भूख लग रही थी। हमने  चिप्स और नमकीन के पैकेट खाने शुरू किये और बाते चलीं।  सही पिकनिक हो गयी थी। दोस्तों के साथ कहीं भी बतकही हो जाए तो मज़ा तो आ ही जाता है। जब फिर आधा-एक  घंटे के करीब  बैठ गये थे तो अब नीचे उतरने का सोचा।

पसीने से मेरी जीन्स काफी गीली हो चुकी थी। इससे मुझे बाद में दिक्कत होनी थी। ऐसे मौकों पर मैं सोचता हूँ नॉन डेनिम ही पहननी थी क्योंकि जींस गीली हो जाए तो अंदरूनी जाँघों पर रगड़ पैदा कर उसे छील देती है और फिर चलने में तकलीफ होती है। ऐसा होना भी शुरू हो गया था। मुझे थकावट तो नहीं थी लेकिन एक निराशा सी मन में थी। इसीलिए शायद जब मुझे लगा कि अब हम ऊपर नहीं जा पाएंगे तो मैंने फोटो खींचना ही बंद कर दिया था।

कहाँ मैं सपने संजो कर आया था कि तीसरी बार तो चंदेरी जाऊंगा लेकिन इस बार दूसरे बार जितना भी नहीं चढ़ पाए थे। मेरे दिमाग में वो पहाड़ अभी भी घूम रहा था और मुझे ऐसा लग रहा था जैसे वो मुझे चिढा रहा हो। एक बार तो ऐसा भी लगा कि जैसे पुरातन काल में रचे ग्रंथों में राक्षस अपनी माया से नायकों को मंजिल तक पहुँचने से रोकते थे उसी प्रकार ऐसे ही किसी राक्षस की माया के हम भी शिकार थे। हमे ऊपर कुछ ऐसा मिलना था जिसे वो राक्षस नहीं चाहता था कि हमे मिले। ये तीसरी बार वो सफल हुआ था और ये तीसरी बार मैं और दीपक असफल।  ये ख्याल फनी था। मेरे दिमाग में अक्सर ऐसी कहानियाँ चलती रहती हैं। जब मैं जॉगिंग में जाता था तो ऐसे ही सोचा करता था। कभी दुश्मनों से भागता रहता था, कभी किसी का शिकार करता रहता था, कभी सोचता था कि मैं वेयरवुल्फ हूँ और अब तब्दील होकर भाग रहा हूँ। ऐसे ख्याल चूँकि मन में आते रहते हैं तो राक्षसी माया वाले ख्याल ने मुझे ज्यादा हैरत में नहीं डाला।

झुरमुटों से मुँह चिढाता पहाड़

ऐसा नहीं था कि मज़ा नही आया। लेकिन अगर चढ़ जाते तो उस मज़े में चार चाँद लग जाते। अब हम अपने द्वारा किये गये रास्ते को दोबारा रिट्रेस करने लगे। हमे अब गाँव पहुंचना था। ऊपर सिग्नल नहीं आ रहे थे तो सिग्नल आते ही ऑटो वाले भाई को भी कॉल करना था। नीचे आते हुए भी हम एक बार गलत चले गये थे लेकिन फिर थोड़ी देर में ही सही रास्ता पकड लिया। उस वक्त मैं यही सोच रहा था कि अगर मैं अकेले इधर आया होता तो मुश्किल से ही वापस जा पाता। मेरा दिशाओं का सेन्स वैसे भी गड़बड़ है। मैं ऐसे ही खो जाता हूँ तो इस जगह पर तो सचमुच ही खो गया होता। वो  तो दीपक और राजेन्द्र थे कि ठीक ठाक वापस आ गये।

हम करीब पौने तीन बजे तक नीचे थे। पहले हमारा लंच करने का प्रोग्राम था लेकिन फिर अंत में वो भी कैंसिल ही हुआ। अब हम केवल ट्रेन पकड़ना चाहते थे।

कॉल करने के पंद्रह बीस मिनट बाद ऑटो वाला भाई आ गया। और हम गाँव के निकट कुछ पत्थरों पर बैठ गये। उधर मुर्गे घूम रहे थे तो उन्हें देखकर मुर्गों के ऊपर ही बात करनी शुरू कर दी। मेरे पास दो तीन किस्से थे तो वो सुनाये।

ऐसे ही बतकही चल रही थी कि ऑटो वाले भाई आ गये। और हम उसमे बैठकर वापस स्टेशन की तरफ चले गये। हम अकेले नहीं थे। हमारे साथ वापस कुछ मीठीं यादें थी  और था एक संकल्प  कि चंदेरी के टॉप पर तो जाकर ही रहेंगे। इस बार नहीं तो अगली बार सही।

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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10 Comments on “चंदेरी : एक और कोशिश”

  1. मुझे बहुत मजा आया। ये मेरा पहला अनुभव था।धन्यवाद विकास और दीपक मेरा धीरज बँधाने में सहयोग किया।

  2. आप तो बहुत बढ़िया और रोचक ढंग से लिखते हैं…अभी तो मैं ड्यूटी पर बैठा हूं…थोड़ा थोड़ा ही पढ़ पाया हूं…आराम से इत्मीनान से पढ़ने वाली हैं आप की पोस्टे…

  3. तारीफ़ का शुक्रिया, प्रवीन जी। आपकी टिपण्णी ने मेरा उत्साहवर्धन किया है और बेहतर लिखने के लिए प्रेरित किया है। दूसरे पोस्टस में भी आपकी राय का इन्तजार है।

  4. आपकी प्रस्तुति बहुत ही शानदार ढंग की होती है पढ़ कर व्यक्ति खुद को वहीं पाता है जहाँ आप खुद हो, नित नये यात्रा अनुभवों को साझा करने के लिए आप बधाई के पात्र हो, वैसे मैं म. प्र.के चंदेरी के बारे में तो जानता था पर ये नया चंदेरी? मुझे इसके विषय में कोई ज्ञान नहीं था, नवीन जानकारी के लिए भी शुक्रिया……..

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