जोधपुर जैसलमेर की घुमक्कड़ी #5: अज्ञात गाँव,एक राष्ट्रीय उद्यान की तलाश, सम के टीले, चाय के घूँट और रात का आराम

यह यात्रा 28/12/2018 से 01/01/2019 के बीच की गई थी
30/12/2018  रविवार 
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रेत के टीले

हम किले से गेट से वापिस मुड़ चुके थे। अब हम सम के रेतीले पहाड़ देखना चाहते थे। गूगल मैप में हमने सम का लोकेशन डाला और रोड पकड़ ली।

छाँव का आनन्द लेता ऊँटो का समूह
सड़क से दिखता खाबा किले का पीछे का हिस्सा
सड़क के किनारे बनी दो छतरी

चलते चलते ही राकेश भाई ने विडियो बनाने के लिए कहा। उन्होंने मेरे हाथ में अपना फोन दे दिया और मैं भी विडियो बनाने लगा। साथ साथ मैं राकेश भाई से बात चीत करने लगा। उनके साथ जोधपुर आते हुए क्या घटित हुआ था यह भी पूछने लगा। मुझे लग रहा था कि सब कुछ विडियो में आयेगा लेकिन कितना गलत था मैं। हमने उस वक्त आस पास चीजों के विषय में और बाकी काफी चीजों के विषय में बातचीत की थी लेकिन जब उतरकर विडियो चलाया तो केवल बाइक की आवाज़ ही सुनाई दे रही थी। अब सोचता हूँ एक माइक्रो फोन रखना चाहिए था। अगर वो होता तो आवाज़ बेहतर रिकॉर्ड होती। कोई नहीं अगले विडियो में वो करेंगे।

खैर, फिर बाइक चालू की और विडियो बनाने का विचार त्याग दिया। बाइक चलती रही और हम सम की तरफ बढ़ते रहे। हम सुबह से घूम रहे थे। सम हमारा सूर्यास्त तक जाने का विचार था। अभी तो हमे भूख लग आई थी। बुर्जुगों ने कहा भी है कि पहले पेट पूजा और फिर काम दूजा। हमने भी इस पर अमल करने की सोची। हमे एक गाँव में कुछ होटल दिखाई दिये और हम अन्दर दाखिल हो गये।


खाने का आर्डर दिया और ढंग से लंच किया। लंच में मैंने तो अपने लिए दाल और चावल मँगवाये थे और राकेश भाई ने अपने लिए रोटियाँ और सब्जी मंगवाई थी। हमे वैसे भी कोई फैंसी लंच करने का कभी शौक नहीं रहा है। उधर होटल में हमारे साथ और दूसरे सैलानी भी थे। एक ग्रुप हमारे ही सामने बैठा था और उनकी बोली से वो हरियाणा के लग रहे थे। दूसरे लोग भी उधर मौजूद थे। लंच करने के बाद हमने एक एक चाय का आर्डर दिया। फिर न जाने कब चाय मिलती। चाय पीने के पश्चात हमने बिल अदा किया जो कि 410 रूपये आया और हम लोग बाहर को निकले।

थोड़ा पेट पूजा हो जाये

बाहर निकलकर हम बाइक पर चढ़े और अब मुझे लग रहा था कि हम लोग सम के टीलों की तरफ बढ़ेंगे। अभी तीन भी नहीं बजे थे और हम जल्दी ही पहुँच गये थे। खैर, अब सम में आराम किया जायेगा ये सोचकर ही मैं बाइक में बैठा था। बाइक चलने लगी तो मैंने राकेश भाई से पूछा- “अब सम की तरफ जाना है न?”
राकेश भाई -” नहीं ….”
मैं – “तो”
राकेश भाई- “बस देखते जाओ। आप भी क्या याद रखोगे?”

यह कहकर राकेश भाई चुप हो गये। वैसे भी वो काफी कम बोलते हैं।

मैं पीछे बैठा यही सोच रहा था कि हम लोग किधर को जा रहे हैं।

जहाँ हमने लंच किया था उसके कुछ देर बाद ही सड़क एक तरफ को मुड़ गई थी। राकेश भाई उधर की तरफ मुड़ गये। वह सड़क एक राष्ट्रीय उद्यान को जाती थी। तो हम इधर जा रहे थे। मैंने सोचा। फिर मैंने मन में प्रश्न कुलबुलाया। क्या हम लोग सूर्यास्त तक सम  पहुँच पायेंगे?
मैंने राकेश भाई से पूछा।
“हाँ हाँ। आराम से पहुँच जायेंगे।” राकेश भाई ने मुझे आश्वासन दिया।

हमारी बाइक अब सड़क पर दौड़ रही थी। हम कुछ ही दूर बढे थे कि एक जगह पर हमे रुकना पड़ा। यहाँ पर राष्ट्रीय उद्यान में दाखिल होने के लिए टिकेट मिलता था। हम लोगों ने बाइक को एक तरफ रोका और अन्दर दाखिल हुए। एक कमरे का ऑफिस बना हुआ था। अन्दर कुछ चित्र लगे हुए थे। हमे एक रजिस्टर में एंट्री भी करनी थी। हमने टिकेट कटवाया जो कि 60 रूपये प्रति बन्दा था और पैसे अदा किये ही थे कि एक जीप सामने से गुजरी। टिकेट काटने वाले एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति थे। वो कमरे से भागते हुए निकले और उन्होंने जीप को रोकने का इशारा किया। जीप थोड़ा आगे जाकर रुकी। एक व्यक्ति बाहर निकला। उन लोगों के साथ कुछ विदेशी सैलानी भी थे। भारतीय व्यक्ति शायद गाइड था। अब उन दोनों के बीच बातचीत होने लगी। उद्यान के तरफ से जो व्यक्ति थे उन्होंने उस भारतीय व्यक्ति को बताया कि विदेशियों का कितना पैसा लगेगा और दूसरा उनके पासपोर्ट की कोपी भी लगेगी ताकि रिकॉर्ड हो कौन उधर गया है। पासपोर्ट की कॉपी शायद उनके पास नहीं थी तो फिर उन्होंने उसे पास के गाँव में जाकर कॉपी लाने के लिए कहा।

थोड़ी देर वो व्यक्ति सोचता रहा और फिर उनकी जीप वापस मुड़ गई। वैसे भी आगे फौजी चेकिंग करते हैं तो बिना टिकेट लेकर जाने में कोई समझदारी नहीं थी। हम लोगों ने काफी ड्रामा देख लिया था और इसलिए अब हम लोग आगे बढ़ गये।

डेजर्ट नेशनल पार्क सुरक्षा चौकी

सीधी सड़क थी और दोनों तरफ रेत ही रेत थी। इधर लोग कैसे रहते होंगे मैं यही सोच रहा था। ऐसे ही बढ़ते बढ़ते हम एक दोराहे पर रुके। हमे पता नहीं था कि किधर से होकर उद्यान जाना है। राकेश भाई को लग रहा था कि एक गाँव के आस पास है और गाँव का नाम न उस वक्त मुझे पता था और न आज ही याद है। जब यात्रा की थी तब जरूर याद रहा होगा। मैंने फोटो भी खींची रही होंगी लेकिन वो फोटो भी अब मेरे पास नहीं है। सामने ट्रक जा रहा था। हमने उससे रास्ता पूछा लेकिन हमने उससे क्या पूछा और उसने हमे क्या बताया में थोड़ा झोलझाल हो गया था। उस वक्त तो हमे पता नहीं था लेकिन हम लोग उसके बताये रास्ते पर बढ़ चले।

सड़क सीधी थी। बीच में एक गाँव भी आया। उधर स्वास्थ्य केंद्र वगेरह भी था। मैं यही सोच रहा था कि इतनी दूर बसे लोग अपना जीवन कैसे बिताते होंगे?  शहर से  इतना दूर वो किस तरह अपनी जीविका कमाते होंगे। इधर तो खेत खलिहान भी नही दिख रहे थे। खैर, हमने गाँव पार किया। सड़क सीधी जाती दिखती थी जैसे अंतत तक बढती ही जा रही हो। न जाने यह सड़क किधर जाती थी?

तभी राकेश भाई बोले- “शायद हम गलत आ गये हैं।”

मैं – “आना किधर था ये ही मुझे नहीं पता तो क्या सही और क्या गलत।”

और अपनी ही बात में मैं खुद ही हँसने लगा। अपने बुरे जोक किसे प्यारे नहीं होते हैं।

राकेश भाई – “मैंने विडियो में देखा था कि नेशनल पार्क की तरफ जाते हए बीच में ऐसा रास्ता आता है जिसमें हमे रेत के ऊपर से बाइक चलानी होती है। इधर तो कहीं आया नहीं।”

मैं – “वो तो है। और सड़क भी दूर तक बनी हुई लगती है। अब क्या करना है? आगे जाना है?”

राकेश भाई – “बाइक साइड में लगाते हैं और थोड़ी देर रुकते हैं।”

और हमने बाइक साइड में लगा दी। यह एक सीधी सड़क थी। सड़क के दोनों तरफ रेतीले टीले और रेगास्तानी झाड़ियाँ ही नज़र आ रही थीं। हम एक तरफ बढ़ गये।

कुछ ही देर में हम लोग रेत के टीलों पर चल रहे थे और विभिन्न प्रकार से फोटो खिंचवा रहे थे।

फोटो खींचते खीचते राकेश भाई बोले – “देखा!! हमारे साथ रहोगे तो ऐसे ही मजे करोगे।”

“ये तो है”, मैंने कहा और फिर टीलों पर इधर से उधर चलने लगा। ये टीले ज्यादा बड़े नहीं थे छोटे छोटे थे। चलते चलते पाँव रेत में धँस से जाते थे जिससे चलने में मजा आता था। दूर दूर तक इन्सान न थे तो ऐसा लग रहा था जैसे हमने अपने लिए एक छोटा सा राज्य ढूंढ लिया हो। दस पन्द्रह मिनट हमने अपनी सल्तनत में ऐसे ही घुटे हुए बिताए। इधर हमने फोटो भी खिंचवाई और इस तरह खिंचवाई कि यह टीले बड़े लगें।

फिर हम लोग वापिस बाइक तक आये। बाइक चालू की और वापस मुड़ गये। कुछ ही देर में हम उस दोराहे पर थे जिधर से हम इस गाँव के लिए मुड़े थे। अब हमने दूसरा रास्ता पकड़ा। यह रास्ता ही सही था क्योंकि कुछ ही देर में हमे वो जगह मिल गयी जहाँ रास्ते की बीच में रेत ही रेत थी और बाइक उधर से ही चलानी थी। इधर बाइक चलाने में काफी दिक्कत आ रही थी। कई जगह मुझे उतरना भी पड़ा और कई जगह हम दोनों ने बैठे बैठे ही पार किया। इधर भी विडियो बनाया गया क्योंकि अब मेरा फोन जवाब दे चुका था। मेरे पास मेरा कैमरा ही था बस तो मैं उसका ही प्रयोग फोटो खींचने के लिए कर रहा था।

यूँ ही चला चल राही
बीच में पड़ा एक गाँव
राकेश भाई चढ़ाई चढ़ते हुए
दूर दूर तक फैली रेत और कुछ नहीं
रेत के बीच से बाइक निकालते राकेश भाई

हम रास्ता पार करते रहे और एक दो जानवर भी हमे दिखे। लेकिन जो जानवर अक्सर लोग इधर देखने आते हैं वो देखना हमे नसीब नहीं हुआ। ऐसे ही आगे हम तब तक बढ़ते रहे जब तक एक फौजी चौकी नहीं आ गई। उन्होंने उधर हमारा टिकेट जाते हुए तो नही माँगा लेकिन वापिस आते हए जरूर माँगाथा। हम ज्यादा अंदर तक नहीं गये क्योंकि हमे देर हो गई थी। हमे सम भी जाना था और रास्ता भटकने के कारण वक्त भी हो गया था। क्योंकि पार्क में रहने का वक्त निर्धारित होता है तो हमने अन्दर जाने के बजाय वापस लौटना ज्यादा सही समझा। इसलिए हम लोग वापस मुड़ गये। वापिस आते हए फौजियों ने बोला भी था कि क्या हमे चिंकारा दिखा तो हमने कहा नहीं। उन्होने कहा आप अन्दर जाते तो दिखता। अब इतना वक्त तो हमारे पास था नहीं। हम लोग अब सम पहुंचना चाहते थे। अब वही हमारा लक्ष्य था। हमने रेत वाला रास्ता पार किया।

उधर भी एक घटना हुई। रेत वाले रास्ते में कई बार गद्दे बने होते हैं जिनमें बाइक के धंसने का डर रहता है। ये अक्सर चौपाइया गाड़ियों से बने होते हैं। हम जा रहे थे तो एक भाई ने इशारे से दूसरे रास्ते से जाने के लिए कहा। उधर ऐसे ही गद्दा बना हुआ था। हम सफेली आगे बढ़ गये। बीच बीच में मुझे उतरना पड़ा और चलना पड़ा लेकिन मुझे चलने में दिक्कत नहीं होती है। तो मैं तो इसका लुत्फ़ ले रहा था।

कुछ ही देर में हम लोग सड़क पर थे और आगे बढे जा रहे थे। लेकिन फिर वही हुआ जिसका डर था। सूरज डूबने लगा। राकेश भाई ने कहा – “सूरज तो डूब रहा है। यहीं रुककर नजारा देखते हैं। सम तो पहुँचने से रहे।”
उनकी बात सही थी और हमने वही सड़क के किनारे बाइक खड़ी की और डूबते सूरज की खूबसूरती का आनन्द लिया। काफी फोटो भी लिए जो कि अब खो चुके हैं। फोटो के साथ क्या हुआ यह आपको आखिरी कड़ी में ही बताऊंगा। अभी तो यही कि उस कैमरे की यह आखिरी ट्रिप थी। हम तब तक फोटो खींचते रहे जब तक सूरज डूब नही गया। सूरज को डूबते देखना भी सुकून देता है।  मन भरकर फोटो लेने के बाद हम लोग सम की तरफ बढ़ गये।

राकेश भाई द्वारा सूर्यास्त की खींची  हुई एक तस्वीर

नेशनल पार्क जाने के लिए आपको वैसे भी सम से आगे निकलना पड़ता है। सम के चारों तरफ अलग-अलग कंपनियों के कैंप लगे हैं जो आपको खालिस राजस्थानी अनुभव बेचते हैं। राजस्थानी खाने से लेकर राजस्थानी नाच गाना तक इधर होता है। हमारा इन टेंट्स में रहने का कोई इरादा नहीं था। ऐसे ही एक कैंप के बाहर एक चाय वाला दिखा तो हमने गाड़ी उधर रोकी। काफी देर से चाय का घूँट नहीं मारा था। चाय नसीब हुई। उधर ही कैंप में आये कुछ लोग उससे अंडा मैगी बनवा रहे थे। इधर सब कुछ महंगा है तो चाय भी महँगी थी। हमने महँगी चाय पी और फिर पैसे अदा किये। एक बोतल पानी भी लिया और वो भी महंगा था। फिर हम आगे बढ़ गये। हमने खुद के लिए एक मुनासिब जगह ढूंढी, बाइक पार्क की  और चढ़ गये सम के टीलों में।

टीलों का माहौल खुशनुमा था। अँधेरा जरूर हो गया था लेकिन लोगों को इससे फर्क पड़ रहा हो ऐसा नहीं लग रहा था। परिवार के परिवार उधर मौजूद थे। सब खेल रहे थे, खिलखिला रहे थे। एक सकरात्मक ऊर्जा चारो तरफ फैली हुई थी। इसी बीच ऊँट वाले ऊँट की सवारी करने का प्रलोभन लोगों को देते जा रहे थे। हमे ही दिया गया लेकिन न मुझे इसमें रूचि आई और न राकेश भाई को।

हमने उधर फुल मस्ती करी। एक टीले से दूसरे पर गये। मैंने कैमरे से फोटो खींचे और जब मन को तृप्त कर दिया तो वापिस मुड़ चले। अब हमे जैसलमेर वापस निकलना था। वैसे भी ज्यादा दूर तो था नहीं आराम से हम पहुँच सकते थे।

हम बाइक तक पहुँचे और फिर बाइक लेकर  कुछ ही देर में जैसलमेर में थे। पहले तो हम एटीएम गये जहाँ से मैंने पैसे निकाले। उसके बाद हम बाइक वाले के पास गये। मेरा फोन डिस्चार्ज हो गया था और मेरा पॉवरबैंक दुकान में मौजूद सामान में था तो  मैं  अपने पॉवर बैंक से अपने फोन को चार्ज करना चाहता था।हम बाइक वाले के पास पहुँचे। राकेश भाई ने पैसे अदा किये और मैं बैग में पॉवर बैंक खोजने लगा। लेकिन न जाने पॉवरबैंक किधर रखा था कि मिलने का नाम ही नहीं ले रहा था। मैंने फिर सोचा कि रूम में जाकर आराम से यह काम किया जाएगा। हम पैदल ही बाइक वाले की दूकान से निकले, बीच में एक बार चाय पी  और फिर  पैदल ही चौक तक चलने लगे। हम चौक पहुँचे और पास ही हमे एक लॉज दिखा। हम उसकी तरफ बढ़ चले।

अन्दर गये, रूम की बातचीत की और फिर रूम पक्का करके अपना सामान रूम में डाल दिया। रूम 1500 का पड़ा। महँगा जरूर था लेकिन हम बहस करने के मूड में नहीं थे और फिर ये नये साल का वक्त था जब शहर खचाखच भरा हुआ था। अब हम लोग तरो ताज़ा होना चाहते थे।

हाथ मुँह धोकर फ्रेश हुए। उधर ही मैंने बैग का सारा सामान निकाला और सूक्ष्मता से पॉवर बैंक ढूंढा लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी। आखिरकार मैंने राकेश भाई को बताया तो उन्होंने हँसते हुए कहा कि आपको इतनी बार याद दिलाया लेकिन आप भूल गये। अब उसे भूला हुआ समझो। मैंने कहा एक बार होटल गिरिराज  में पता कर लेंगे। अगर उधर नहीं हुआ तो फिर ये ही समझूँगा कि मेरे पास कभी पॉवर बैंक नहीं था। वो हँसने लगे। मैं कुढ़ रहा था। मुझे मौके की तलाश थी और अगले दिन मुझे भी राकेश भाई को सेम लाइन रिपीट करने का मौक़ा मिलना था। अगर मैं उस वक्त ये जानता तो कुढ़ नहीं रहा होता बल्कि कुटिलता से मुस्करा रहा होता।

खैर, अभी तो गलती की थी तो क्या किया जा सकता था। राकेश भाई के ताने सुनने ही थे। मैंने फोन को थोड़ी देर चार्जर से ही चार्ज किया। जब तक हम लोग तरो ताज़ा हुए तब तक वो इतना चार्ज तो हो चुका था कि थोड़ी देर काम कर सकता था। जो हो गया था हो गया था उसकी टेंशन लेकर कोई फायदा नहीं था।

अब भूख लग आई थी। इधर खाने का बन्दोबस्त नहीं था लेकिन होटल के ग्राउंड फ्लोर में ही एक ढाबा टाइप का था तो हमने उधर जाने की सोची। कमरे को ताला लगाया और फिर नीचे पहुँचे। हमने उधर खाने का आर्डर दिया। इस बार भी खाना हल्का किया राकेश भाई ने वही रोटियाँ,सब्जी और दाल खाई और मैंने चावल और दाल और सब्जी। मुझे तीनो वक्त अगर चावल और दाल खाने को मिल जाये तो मैं तो उसी में खुश हो जाता हूँ। सफर में ये भोजन हल्का और आसानी से पचने वाला भी होता है। वैसे घर में भी मैं चावल ही खाना पसंद करता हूँ।

हमने खाना निपटाया और फिर थोड़ा टहलने का सोचा। मेरा चाय पीने का मन था लेकिन राकेश भाई को दूध पीना था। वहीं चौक पर गर्मागर्म दूध मिल रहा था जो हमने कल भी देखा था। उस दूध के साथ कुछ और गिलास रखे हुए जिनमें सेवेई जैसी चीज रखी थी। उस गिलास में दूध मिलाकर दिया जाता था। वैसे इस पेय को स्थानीय लोग फीणी कह रहे थे। मुझे तो ऐसा ही याद आ रहा है। आपको कुछ अलग पता हो तो बताइयेगा।

खैर, राकेश भाई ने नोर्मल दूध लिया और मैंने दूध फीणी ली। खाने के बाद इसे चखकर आन्नद सा आ गया।

अब हमे रूम में जाना था तो हम रूम की तरफ बढ़ चले। दिल भर के सफर के कारण हम थक चुके थे। हमें अब अगले दिन जैसलमेर शहर में मौजूद चीजें देखनी थीं। कल का सफर भी चलने वाला होना था। यही सोचकर हम लोग रूम में दाखिल हुए।

मैंने उपन्यास निकाला और मैं उसमें खो गया।राकेश भाई भी लेट गये। कुछ देर में मुझे भी नींद आने लगी तो मैंने भी उपन्यास के पन्नों को बंद किया। वैसे मैंने पिछले दो दिनों के सफर को फ़ोन में लिखा था लेकिन उस दिन मुझे लिखने का मन नहीं किया। और मुझे कब नींद आ गयी पता नहीं चला।

बस ये याद है मैं सोने से पहले यही सोच रहा था कि पॉवर बैंक मिलेगा या मुझे नया लेना पड़ेगा?

रात का भोजन
भोजन के बाद का मीठा पेय – यहाँ दूध और फीणी तैयार हो रही थी
दूध और फीणी तैयार करते एक भाई साहब
राकेश भाई के लिए दूध और मेरे लिए फीणी
होटल चाणक्य में रात को रुके थे और जोधाणा रेस्टोरेंट में खाना खाया था

इस वृत्तांत को लिखने की मेरी इच्छा नहीं थी क्योंकि काफी चीजें मैं भूल चुका हूँ। हमने दोराहा पूछने के लिए ट्रक वाले से जिस जगह का नाम पूछा था वो भी भूल गया हूँ। हम जिस गाँव के आगे रुककर किनारे के टीलों में चढ़े थे वो भी भूल गया हूँ। हमने डेजर्ट नेशनल पार्क जाने से पहले दिन का खाना जहाँ खाया था उस गाँव का नाम भी भूल चुका हूँ। ये सब जानकारी मेरे उस वक्त पास थी। लेकिन छः महीने बाद मैं ये भूल चुका हूँ। उस वक्त सोचा था कि कैमरे की फोटो में सब दर्ज है तो क्या लिखना। होटल की फोटो थी। गाँव के बोर्ड की फोटो थी लेकिन उस वक्त क्या पता था कि वो फोटो ही नहीं रहेंगे।

वैसे इस घटना के बाद मैंने ये फैसला तो ले ही लिया है कि एक डायरी अपने साथ रखूंगा और उसमे हर घुमक्कड़ी का ब्यौरा उसी रात को लिख दिया करूँगा जब सब ताज़ा होता है। वैसे, इस घटना के घटित होने को सकारात्मक रूप से देखूँ तो मुझे ये दूसरा मौक़ा मिला है। मैं अगली बार फिर इस राष्ट्रीय उद्यान में जाऊँगा और इन सभी जगह के नाम याद रखूँगा। खैर, तब तक आपके लिए यह भुलक्कड घुमक्कड़ की घुमक्कड़ी का वृत्तांत लिख दिया है। उम्मीद है पसंद आया होगा।

अगली कड़ी में मिलते हैं तब तक #पढ़ते_रहिये_घूमते_रहिये।

जोधपुर जैसलमेर की घुमक्कड़ी की पूरी कड़ियाँ 

#5अज्ञात गाँव, राष्ट्रीय उद्यान की तलाश,सम के टीले

#फक्कड़_घुमक्कड़

© विकास नैनवाल ‘अंजान’

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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  1. सीधे-सादे शब्दों में प्रस्तुत इस यात्रा वृत्तांत को पढ़कर वाकई आनन्द आ गया । आगे भी यूँ ही रोचक अंदाज़ में अपनी लेखनी साझा करें तो अपार हर्ष होगा । 💐🙏सादर नमन

  2. यह यात्रा वृत्तांत भी रोचकता से भरपूर है… फीणी और घेवर राजस्थानी मिठाइयां हैं जो सावन में और मकर संक्रांति के समय मुख्य मिष्ठान के रूप में खायी जाती हैं ।

  3. बहुत रोचक और सहज गति से आगे बढ़ता यात्रा वृतांत ।आप लोग ज्यादातर "धोरो" रेत के टिले और नेशनल पार्क तक सीमित रहे जैसलमेर में कुछ हवेलियां अपनी नक्काशी के लिए विश्व विख्यात हैं और जैसलमेर से 20 किलोमीटर दूर लोदरवा जी का जैन मन्दिर स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है।

  4. जी ये तो इस यात्रा वृत्तांत की पांचवी कड़ी थी। जैसलमेर शहर हमने अगले दिन देखा था। उसका वृत्तांत आना अभी बाकी है। आशा है आप उसे पढ़कर भी अपनी प्रतिक्रिया देंगी।

    हाँ, जैन मंदिर हम नहीं देख पाए क्योंकि हमारे पास वक्त कम था। फिर कुछ व्यक्तिगत कारणों के चलते हमें जोधपुर में एक दिन पूरा लगाना पड़ा था। वो कारण क्या थे ये आपको पोस्ट के नीच दिए लिंक्स पर जाकर पता चल पायेगा।

  5. इतनी रोचक यात्रा के लिए धन्यवाद …अब इन्तजार है जोधपुर के किले का ..देखिये कब बारी आती है ..अब जल्दी जोधपुर का किला दिखाओ

  6. जी आभार। इसके बाद हम लोगों ने एक दिन जैसलमेर का शहर घूमा था। पहले उसका वृत्त्न्त आएगा और फिर जोधपुर के किले और आस पास की चीजों का वृत्तांत आएगा। बने रहियेगा। आभार।

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