घिन्दुड़ी

घिन्दुड़ी  | हिन्दी कविता | विकास नैनवाल 'अंजान'
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फुदकती थी 
जो यहाँ वहाँ
कभी छत पर 
कभी आँगन में
कभी किसी कमरें में

गूँजता था जिसकी चचचाहट से 
यह घर-द्वार

वह घिन्दुड़ी1 चली गयी

छोड़कर पीछे 
सूना घर-आंगन 
और एक मौन
जो खड़ा रहता है
हँसी ठठ्ठों के बीच और 
ताकता रहता है मुझे

है पता मुझे
वह घिन्दुड़ी चहचायेगी
अब अनंत आकाश में
जहाँ फैलाएगी 
वह अपने आकांक्षाओं के पर
पर मैं तकता रहूँगा आसमान में
क्योंकि मालूम है मुझे
वो आएगी वापस यहाँ
लौटकर

फिर खिलेगा यह घर-आँगन
लौटकर आने से उसके
और टूटेगा ये मौन
कुछ दिनों 
के लिए ही सही

विकास नैनवाल ‘अंजान’

1. घिन्दुड़ी – गौरेया

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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0 Comments on “घिन्दुड़ी”

  1. घिन्दुड़ी!! हम घिन्डुड़ी कहते हैं…सच में इनके बगैर अपने गाँव की कल्पना भी अधूरी लगती है…..कैसे कम और अब विलुप्ति पर हो गयी है इनकी संख्या….चिन्तनीय है ये..
    शानदार सृजन।

  2. वाह बहुत सुंदर सृजन मन को छू गया।
    प्रतीक रूप में पहले बेटियों को भी सोन चिरैया कहते थे,और जब वे विदा होके जाती थी तो सचमुच घर आंगन पिता सब की यही मनोदशा होती थी बहुत सुंदर सृजन ।

  3. जी आभार… यह कविता मैंने अपनी छोटी बहन के लिए ही लिखी थी… उसका वर्क फ्रॉम होम खत्म होने के कारण उसे वापस जॉब पर जाना पड़ा तो उस दिन ये ही भाव मन में आये थे…. घरवालों के मन में बेटी की शादी के वक्त ऐसे भाव उठने की कल्पना मैं कर सकता हूँ…

  4. जी शायद दोनों ही कहा जाता है… पेड़ों के कटने, घरों के बदलने जैसे बदलावों के कारण यह सब हुआ है… हम नहीं बदलेंगे तो यह विनाश ऐसे ही चलता रहेगा…

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