कोपल

Image by Holger Schué from ;Pixabay
लम रुक सी गयी है,
स्याही सूख गयी है,
शायद!!
हर्फ उगते से लगते हैं कभी
विचारों की टहनियों पर कोंपलों के जैसे
फिर गिर जाते हैं
सूखे पत्तों की तरह
अचानक!!
खो जाते हैं ऐसे
जैसे कभी थे ही नहीं
मैं खोजता रहता हूँ उन्हें
यहाँ वहाँ

फिर
थककर
हारकर
टूटकर
बिखरकर
बैठ जाता हूँ
बन्द कर देता हूँ अपनी आँखें
ताकि दूर कर सकूँ उस अंधकार को
जो  घेरता जाता है मुझको
मेरी सारी इन्द्रियाँ
देने लगती हैं तकलीफ मुझे
मैं सुबकना चाहता हूँ
दुबकना चाहता हूँ
ऐसे जैसे बचपन में
दुबक जाता था रोते हुए
अपने घुटनों को
अपनी छाती से लगाकर
खो जाता था खुद में
सो जाता था बेफिक्र होकर
और फिर
जब उठता था
तो सब कुछ पाता था नया सा
मैं सोना चाहता हूँ
अब
ताकि फिर उठ सकूँ
और
देख सकूँ उसे
जिसे ढक दिया है
मन में फैले इस अंधकार ने
क्योंकि
मालूम है मुझे 
मैं हूँ
उस नन्ही कोपल सा
जो कि उग आती है
किसी ठूँठ के बीच से
जिसे मान लिया था सभी ने मृत
उस कोपल सा
जो कि होती जरूर है मुलायम
लेकिन फिर भी
होती है भरी
जिजीविषा से
और फूँक देती है प्राण
एक थके हारे ठूँठ में
क्योंकि
मालूम है मुझे 
जब होता है अँधेरा घना
तो वो होता है इशारा
के बस होने को है सुबह
होने के है
उजियारा!!!
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© विकास नैनवाल ‘अंजान’

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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0 Comments on “कोपल”

  1. आ विकास जी, एक सुंदर रचना,जीवन के रहस्य और अन्तरविरोधों को अभिव्यक्त करती सुंदर कविता! आप मेरे ब्लॉग marmagyanet.blogspot.com पर मेरी रचनाएँ भी पढ़ें और अपने विचार दें। आपके विचार मेरे लिए बहुमूल्य हैं। –ब्रजेंद्रनाथ

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