घूमने की योजना
राकेश भाई के साथ आखिरी बार छत्तीसगढ़ घूमना हुआ था। वहाँ योजना बनाई थी कि नवंबर दीवाली के वक्त भूटान का टूर किया जाएगा। लेकिन फिर कुछ ऐसा हुआ कि भूटान की योजना खटाई में पड़ गयी। राकेश भाई दीवाली में अपने गाँव आये हुए थे। भूटान की योजना खटाई में गयी तो वो अकेले ही उत्तरपूर्वी राज्यों के सफर पर चल पड़े और मैं मन मसोस के रह गया।
फिर नवम्बर में उनसे बातचीत हुई तो उन्होंने बोला कि वो बर्फ वाली ट्रेक करना चाहते हैं और हिमाचल का कुछ प्लान बनाते हैं। हमारी बातचीत हुई और निर्धारित हुआ कि वो मेरे घर गुरुग्राम आ जायेंगे और फिर उधर से हम निर्धारित करेंगे कि हमें किधर जाना है। मैं खुश था। अब दिसम्बर का इन्तजार था।
वक्त की सुईयां चलने लगी। राकेश भाई अपनी घुम्मकड़ी में मस्त हो गए और मैं ज़िन्दगी की चक्की में पिसने लगा।
बीच बीच में राकेश भाई से बात चलती रही। फिर उन्होंने दिसंबर की दो तारीक को बताया कि गुरुवार की रात को यानी पाँच के करीब वो मेरे घर पहुँच जायेंगे। उससे कुछ दिनों पहले मैंने उनसे धर्मवीर भारती का यात्रा संस्मरण ठेले पर हिमालय पढ़ा था। वो मैंने उन्हें साझा किया था। इससे पहले हमे निश्चित नहीं था कि किधर जाना है। मैंने कौसानी का नाम सुना तो था और जाने की इच्छा भी थी लेकिन इसका कभी मौका नहीं लगा था। फिर जबसे ठेले पर हिमालय पढ़ा तो कौसानी जाने की यह इच्छा एक बार और बलवती हो गयी। अब हमने हिमाचल का विचार त्याग दिया और यह निर्धारित किया कि इस बार इधर ही जायेंगे। राकेश भाई भी कौसानी जाने के लिए तैयार हो गये।
अब मुझे छः तारीक यानी शुक्रवार का इन्तजार था क्योंकि तब ही हमने अपना सफर तय करना था।
लेकिन फिर कुछ अलग घटित हुआ। तीन को राकेश भाई ने बताया कि अगर वो लगातार चलेंगे तो गुरुवार की जगह बुधवार के रात बारह बजे इधर पहुँच जायेंगे। वो अपनी बाइक से आ रहे थे तो सफर में इतना लचीलापन रख सकते थे। मैंने उन्हें कहा कि अगर ऐसा हो सकता है तो यही किया जाए क्योंकि इससे पहला फायदा ये होता कि वो चार की रात को इधर आकर पाँच के पूरे दिन भर आराम कर सकते थे। और दूसरा फायदा ये होता कि हम शुक्रवार शाम की जगह गुरुवार शाम को इस सफर पर निकल सकते थे। इससे हमे शुक्रवार, शनिवार और रविवार घूमने को मिल सकते थे। एक दिन की घुमक्कड़ी और हो जाती। इससे ज्यादा और क्या चाहिए था।
बुधवार यानी चार दिसम्बर की शाम
चार तारीक की शाम को मैं व्याकुल था। जिम से लौट आया था और बैठकर राकेश भाई के आने का इतंजार कर रहा था। उपन्यास पढ़ना था लेकिन पढ़ नहीं पा रहा था। राकेश भाई आने वाले थे। पिछले बार राकेश भाई दिल्ली आये थे तो मुझे उन्हें होटल में ठहरने को कहना पड़ा था। यह इसलिए था क्योंकि उन दिनों मैं पीजी में रहता था और उधर मेहमान आये तो चिकचिक ज्यादा होती थी लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं था। राकेश भाई आराम से आ सकते थे।
फिर देखते देखते पौने बारह भी बज गये। राकेश भाई का कॉल आया तो मैंने उन्हें दिशायें दी। मैंने उन्हें कॉलोनी का गेट नम्बर बताया और फिर उन्हें लेने गेट तक चला गया। चूँकि उन्हें गूगल लोकेशन भेज चुका था तो कॉलोनी तक तो वो आ ही गये थे।
फिर मैं गेट में उन्हें लेने पहुँचा और रात करीब 12 ब जे यानी जितना अंदाजा राकेश भाई ने लगाया था वो घर में दाखिल हुए।
दिन भर के सफर के बाद वो थके होंगे यह सोचकर हमने ज्यादा बातचीत नहीं की। चाय पानी हुआ। फिर भोजन हुआ और उसके पश्चात हम लोग सो गये।
पहुँच गये राकेश भाई |
खाना वाना |
गुरूवार: गुरुग्राम से आनन्द विहार
सुबह उठकर मैंने सामान पैक किया। राकेश भाई के लिए काफी चीजें रूम में छोड़ दी थी। वो उठते तो नाश्ता बना देते और उसके पश्चात फिर आराम करते। मुझे दफ्तर जाना था तो मैं उधर को निकल गया। दफ्तर मैं चला तो गया लेकिन काम में मेरा मन बिलकुल नहीं लग रहा था। मन कर रहा था कि ऑफिस से बाहर निकल जाऊं और सफर पर बढ़ निकलूँ। बहुत दिनों बाद मैं बाहर जा रहा था और इस कारण मैं उत्साहित था।
किसी तरह दिन पूरा किया और मैं घर की तरफ झटपट दौड़ पड़ा। चूँकि जल्दबाजी थी तो ऑफिस से समय से पहले ही निकल गया था।
जल्द ही मैं रूम में था। राकेश भाई तैयार को जल्दी ही तैयार होने को बोला और मैंने शेव करनी शुरू की। शेव करने और नहाने के पश्चात मैं भी सफर पर निकलने के लिए तैयार था। हम कमरे से निकले। निकलकर पहले हम नाना जी के घर गये। उधर बाइक रखी और उधर से ऑटो लेने के लिए चले गये। आठ बज गये थे। मेरे कमरे से सिकन्दरपुर जाने के लिए एक घंटा लगना था। वो लगा। सफर साधारण रहा। पहले हम बस स्टैंड उतरे। उधर उतर कर मैंने बीस की मूंगफलियाँ ली ताकि सफ़र में टाइम पास हो। फिर बस स्टैंड से सिकन्दरपुर मेट्रो के लिए ऑटो पकड़ा। ऑटो का सफर साधारण था बस उसमें तीन लोगों का एक ग्रुप बैठा हुआ जिसमें से दो मूँगफलियाँ खा रहे थे और खाने के पश्चात छिलके ऑटो में ही फेंक रहे थे। तीनो ही पढ़े लिखे थे। जब उन तीनो में से एक ने टोका तो बाकियों ने छिलके अलग थैलों में डालना शुरू किये। चलो एक तो शिक्षित निकला। मूँगफली खाते समय ये भूल जाते हैं कि छिलके अलग से रखें ताकि गंदगी न हो। जिनता कम हम कूड़ा फैलायेंगे उतना ज्यादा साफ देश होगा। हमे इस पर सोचना चाहिए।
सिकन्दर पुर आया और हम आसानी से मेट्रो में दाखिल हो गये। भीड़ नहीं थी तो इसमें कोई परेशानी भी नहीं हुई। ठण्ड थी लेकिन इतनी नहीं कि मुझे डबल कुछ पहनना पड़े। मैंने एक स्वेटशर्ट डाली हुई थी। मेट्रो में वैसे भी मौसम वातानुकूलित रहता है तो ज्यादा कुछ जरूरत नहीं पड़ती है। मुझे यह जरूर मालूम था कि जब रात दो तीन बजे के करीब मुझे ठंड लग सकती है तो मुझे इसके ऊपर एक हुड और डालना पड़ेगा और हुड मैं अपने साथ लेकर चला था।
सिकंदरपुर से लेकर आनंदविहार का सफर आराम से बीता। थोड़ी देर राकेश भाई से बात की और उसके अलावा राम गोपाल वर्मा के संस्मरणों की किताब गनस एंड थाइस के कुछ पृष्ठ पढ़े। राम गोपाल वर्मा मुझे पसंद रहे हैं। विशेषकर उनकी बेबाकी मुझे पसंद आती है। वो बिना लाग लपेट के बात करते हैं और इस कारण मुझे उनके संस्मरणों की किताब पढ़ने की उत्सुकता थी। अपने साथ इस बार मैं किंडल और राज भारती की लाल घाट का प्रेत लेकर चला था। मुझे सफर में उपन्यास लेकर चलने में मज़ा आता है।
सफर चल रहा था। बातचीत चल रही थी। मुझे भूख भी लग आई थी और इसके लिए राकेश भाई के पास एक मस्त चीज थी। राकेश भाई अपने साथ घर के बने पेड़े लेकर आये थे। थोड़ी थोड़ी देर में मैं उनसे ये पेड़े माँगता और वो देते जाते। ये पेड़े इतने स्वादिष्ट थे कि एक से मन ही नहीं भरता था।
पढ़ने में, पेड़े खाने में और बातचीत करने में पता ही नहीं चला कब आनंद विहार मेट्रो स्टेशन आ गया। मेट्रो स्टेशन से उतर कर हमे अब बस अड्डे जाना था। मैंने कार्ड से एग्जिट किया और राकेश भाई ने टोकन डाला। फिर मैं एटीएम की तलाश में एक तरफ बढ़ गया। मुझे एक एटीएम दिखा तो मैं उसकी तरफ बढ़ गया। मैं उधर जा रहा था तो राकेश भाई ने मुझे आवाज़ लगाई।
“किधर जा रहे हो?” वो बोले- “हमे उधर से नहीं जाना है।”
“ए टी एम से कुछ पैसे निकाल रहा हूँ।”- मैं बोला।
“छोड़ो रहने दो। मेरे पास कैश है। उससे ले लेना।” उन्होंने कहा तो मैंने पैसे निकालने का विचार छोड़ दिया।
वैसे भी जब हम साथ में घूमते हैं तो हम एक व्हाट्सएप्प ग्रुप बना लेते हैं और जो भी कुछ खर्चा करता है वह उसमें जोड़ता जाता है और ट्रिप के आखिर में हम लोग ये देख लेते हैं कि किसको कितना लेना है।
यही कारण था कि मेरे पास सौ दो सौ रूपये होने के बाद भी मैंने उनकी बात मान ली। किराया वगैरह वही देने वाले थे। मैं बाद में उन्हें पेमेंट कर सकता था।
आनंद विहार मेट्रो से हम लोग बस अड्डे में दाखिल हुए। बस अड्डा रात को चमक रहा था। कंडक्टर लोग सवारियों को आवाज़ लगा लगा कर बुला रहे थे और मेरी आँखें चाय ढूँढ रही थी। काफी देर से मैंने चाय नहीं पी थी और मेरा चाय पीने का मन था। हमने डिनर भी नहीं किया था लेकिन मुझे भूख नहीं लगी थी।
आनंदविहार में काफी शेड हैं जहाँ से अलग अलग जगहों के लिए गाड़ी जाती हैं। सबसे पहले तो हमने एक दो व्यक्तियों से पूछकर उस जगह का पता किया जहाँ से हल्द्वानी के लिए गाड़ी मिलेगी। जब हम उस जगह पहुँच गए तो हमे थोड़ा आराम महसूस हुआ। मुझे यह नहीं पता था कि हल्द्वानी के लिए कब तक गाड़ियाँ मिलती रहती हैं। हाँ, रामनगर के लिए मिलती रहती हैं ये जरूर पता था। इसलिए मेरा विचार था कि अगर हल्द्वानी के लिए गाड़ी न मिली तो फिर हम लोग रामनगर के लिए पकड़ेंगे। पर हमे प्लान बी पर अमल करने की कोई जरूरत ही महसूस नहीं हुई। हम उधर पहुंचे तो हल्द्वानी की तीन चार गाड़ियाँ लगी हुई थी। अभी पौने ग्यारह हो रहे थे। आस पास कई छोटे छोटे दुकानें थी जिधर काफी कुछ सामान मिल रहा था। इन दुकानों से पहाड़ी संगीत की आवाज भी आ रही थी। कई दुकानो के आगे दुकान के कारिंदे लोगों को छोटे भटूरे, पराठे, छोले चावल जैसे पकवानों को खाने के लिए प्रेरित कर रहे थे। ऐसे में मैं इधर उधर नज़र फिराकर चाय की दुकान खोजने लगा।
जल्द ही हमे चाय की दुकान मिल गयी। हम दोनों उधर गए। चाय का आर्डर दिया और मैं इधर उधर नजर मार रहा था किचाय की दुकान में मुझे क्रीम रोल दिख गया। मुझे क्रीम रोल खाये काफी दिन हो गए थे तो मैंने चाय के साथ एक क्रीम रोल ले लिया। एक वक्त था जब शाम की चाय बिना क्रीम रोल के पूरी ही नहीं होती थी। यह कॉलेज की बात थी जहाँ हम कॉलेज से आकर थोड़ा सो जाते थे फिर शाम को चाय की दुकान में जाकर बैठते थे और चाय के साथ क्रीम रोल खाते हुए गप्पे मारा करते थे। अब तो न गप्पे होती हैं और चाय के साथ क्रीम रोल खाया जाता है। हाँ, जब उत्तराखंड के सफर पर निकलता हूँ तो कई बार चाय और क्रीम रोल का लुत्फ़ ले लेता हूँ।
राकेश भाई ने खाली चाय ली और फिर हम लोग चाय की चुस्कियाँ भरने लगे। जल्द ही चाय पी ली और मैंने क्रीम रोल खत्म कर दिया। आनन्द आ गया था।
अब हमें बस देखनी थी। हमने पैसे अदा किये और फिर बसों की तरफ बढ़ गए। एक कंडक्टर हल्द्वानी की आवाज़ लगा ही रहे थे तो हम उसी बस में चढ़ गए। वहीं पर हमे सीट मिल गयी और हम उसमें बैठ गए। पौने बारह हो चुके थे।
अब बस चलने का इंतजार था। मेरे पास मूँगफलियाँ थी। मैंने राकेश भाई को दी तो उन्होंने कुछ भी खाने से मना कर दिया। मैंने मूँगफलियाँ खानी शुरू कर दी। बैठे बैठे करता भी क्या? रौशनी ज्यादा नहीं थी तो किताब भी नहीं पढ़ सकते थे। धीरे धीरे बस भरनी शुरू हुई। इस दौरान मैंने घरवालों को फोन कर के बस के चलने की जानकारी दे दी। थोड़ी देर उनसे बातचीत हुई। और कुछ देर के बाद ही बस चलने लगी।
बस हल्द्वानी के लिए निकल पड़ी तो एक बार फिर मेरे दिमाग में ठेले पर हिमालय लेख का ख्याल आ गया। मैंने नेट में लिंक खोला और मैं वह लेख पढ़ने लगा। हम लोग उसी को पढ़कर इधर जा रहे थे। अब सफर शुरू हो चुका था। अँधेरा था लेकिन हम मंजिल की तरफ तो बढ़ ही रहे थे।
बस अड्डे से बाहर निकली और कंडक्टर भाई साहब ने टिकट काटने शुरू किये। टिकट काटे गए। अक्सर रोडवेज की बसों में इस दौरान बहस बाजी होती रहती है लेकिन इस बार ऐसा कुछ नहीं हुआ। कंडक्टर साहब ने टिकट काटे और अपना कार्य करने के बाद वो आगे अपनी सीट पर पहुँच गए।
थोड़ी देर में बस में मौजूद लाइट्स भी बंद कर दी गयी। लाइट्स बंद हुई और मैंने हेडफोन कान में डाले और सो गया। लेख तो मैं पढ़ ही चुका था। राकेश भाई भी शायद सोने लगे थे।
हमारा सफर शुरू हो चुका था।
पहुँच गये आनन्द विहार बस अड्डे |
बस अड्डा |
चाय वगैरह पीने के बाद बस में पौने बारह बजे |
क्रमशः
कौसानी यात्रा की सभी कड़ियाँ:
कौसानी ट्रिप 1
कौसानी ट्रिप 2
कौसानी ट्रिप 3
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
बढ़िया।
जी, आभार।
विकास जी मुझे बहुत अच्छा लगा पढ़कर ।आगे भी पढ़ते और सफर करते रहने की इच्छा है ।
लेख आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा, मैम। ब्लॉग पर आते रहिएगा। आभार।
बहुत समय के बाद घुमक्कड़ी वृत्तांत पढने को मिला । बेहतरीन शुरुआत है ।
जी आभार। इस वृत्तांत की तीन कड़ियाँ प्रकाशित हो चुकी हैं। काफी घूमना हुआ दिसंबर में । सभी के वृत्तांत लिखूँगा। बने रहिएगा।
ठेले पर हिमालय पढ़ कर कई बार मेरा भी मन हुआ कि कौशानी जाऊं लेकिन अभी तक जाना नही हो पाया। चलो आपके लेख पढ़कर कुछ दिन तस्सली कर लेते है।
Sachin3304.blogspot.in
जी, मौका लगे तो जरूर जाइयेगा। आराम से घूमने की जगह है कौसानी। आनन्द आ जाता है।
विकास भाई! आज संभवतः पहली बार आपके ब्लॉग पर आया, कोसानी यात्रा की बहुत विस्तार में लिखी हुई पोस्ट पढ़ी। आप अच्छा लिखते हैं। पाठक भी आपके साथ – साथ यात्रा कर रहा है, ऐसा लगने लगता है। अभी शेष कड़ियां पढ़ना बाकी हैं। फिर मिलेंगे।
सुशांत जी सबसे पहले तो ब्लॉग पर आपका स्वागत है। ब्लॉग पोस्ट आपको पसंद आई यह जानकर अच्छा लगा। प्यार बनाये रखियेगा, ब्लॉग पर आते रहियेगा।