जोधपुर जैसलमेर की घुमक्कड़ी #4: कुलधरा और खाबा किला

जोधपुर जैसलमेर की घुमक्कड़ी
यह यात्रा 28/12/2018 से 01/01/2019 के बीच की गई थी
30/12/2018  रविवार 
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कुलधरा
पिछली कड़ी में आपने पढ़ा:
हम सुबह जैसलमेर में उठे। उठकर नाश्ता किया और फिर कुलधरा के लिए निकल पड़े। 
अब आगे:
हम टिकट चेक करने वाले भाई की बात पर हँसते हुए अंदर दाखिल हुए थे। अन्दर कुलधरा के अवशेषों की तरफ रास्ता बना हुआ था। वहाँ कुछ गाड़ियाँ खड़ी थी जो इस बात की तरफ इशारा कर रही थी कि अवशेष उधर ही थे। मैंने सोचा कि हम उधर की तरफ जायेंगे लेकिन राकेश भाई ने कुछ और सोच रखा था। उन्होने बाइक दूसरी दिशा में घुमा दी थी। उधर एक और चीज हमारा इन्तजार कर रही थी। यह एक बावड़ी थी जिसके पास एक महिला बैठी थी। वहीं एक लड़का भी खड़ा था। वो दोनों स्थानीय लोग ही लग रहे थे और उनके सिवा उधर केवल हम दोनों ही थे। राकेश भाई ने बावड़ी के नजदीक जाकर बाइक खड़ी कर दी।


बावड़ी
हम उतरे और बावड़ी की तरफ बढे। बावड़ियों में मैं अक्सर जाता रहा हूँ। दिल्ली में उग्रसेन, फिरोज शाह कोटला, महरौली पुरातत्व पार्क में मौजूद बाओलियाँ(गंधक की बाओली, राजाओं की बाओली) और आभानेरी में मौजूद विश्व की सबसे गहरी बावड़ी चाँद बावड़ी मैंने देखी हैं। अब इसे देखने का मौका था। इधर पानी तो नहीं था लेकिन नीचे जाया जा सकता था। हम धीरे धीरे नीचे उतरे और आस पास चीजें देखने लगे। कभी यह गाँव को पानी देने के काम आता रहा होगा लेकिन अब इधर पानी का नामोनिशान नहीं था।  हमने दस पन्दरह मिनट इधर बिताए। देखने के लिए ज्यादा कुछ नहीं था लेकिन फिर भी पुरानी चीजें आकर्षित तो करती ही हैं। हाँ, नीचे का तापमान ऊपर से काफी कम था तो नीचे जाकर मजा आया।

थोड़ी देर बाद हम दोनों ही ऊपर आये। महिला और युवक से हमने कुछ बात की लेकिन क्या ये अब याद नहीं है। शायद कुछ दिया भी हो।  इसके बाद हम लोग अब कुलधरा के गाँव के अवशेषों की तरफ बढ़ गये। जब तक हम लोग उधर पहुँचते हैं तब तक आप बावड़ी की  कुछ तस्वीर देखिये।

नीचे को जाती सीढ़ियाँ 

पहुँच गये नीचे 

पहुँच गये ऊपर..राकेश भाई के खेल निराले…कभी हैं ऊपर और कभी हैं नीचे 

कुलधरा गाँव के अवशेष
कुलधरा के विषय में आते वक्त मुझे उसके विषय में ज्यादा जानकारी नहीं थी। बस इतना पता था कि उसके साथ  भूत प्रेत के कई किस्से जुड़े हैं। ऐसे ही किस्से भानगढ़ के विषय में भी मशहूर हैं। भूत हो न हो लेकिन ऐसे किस्से जब स्थान विशेष के साथ जुड़ते हैं तो उधर आने वाले सैलानियों की दर भी बढ़ जाती है। विशेषकर युवा लोग तो ऐसी जगह पर जाने में भूत प्रेत के नाम पर उत्साहित रहते ही हैं। यही चीज भी इधर रही होगी।

हम गाँव में दाखिल हुए। सैलानी लोग उधर मौजूद थे। बाहर ही शिलालेख था जिसमें इस गाँव का संक्षिप्त इतिहास लिखा हुआ था। कभी यह गाँव पालीवाल जाति के ब्राह्मणों का हुआ करता था। पालीवाल जाति के काफी लोग गढ़वाल में भी रहते हैं। शायद इधर से ही वो उधर आये होंगे। वैसे यह बात पापा ने भी मुझे बताई थी कि हमारे पूर्वज भी राजस्थान से आकर ही पहाड़ों में बसे थे। खैर, मैं शिलालेख के पास गया और उसपर दर्ज जानकारी पढ़ने लगा।

शिलालेख में लिखी दास्ताँ कुछ ऐसी थी:


लोककथाओं के अनुसार कुलधरा पालीवाल ब्राह्मणों का एक प्राचीन गाँव  था जो कि पाली के क्षेत्र से थे। उन्होंने कुलधरा के चारो ओर 84 गाँवों का निर्माण किया। जैसलमेर राज्य के एक शक्तिशाली मंत्री सलीम सिंह के उत्पीडन और भूकम्प और सूखा जैसे कारणों से उन्हें रातों रात यह गाँव छोड़ना पड़ा। 19 वीं शताब्दी के बाद से यह गाँव ऐसे वीरान पड़ा है।


शिलालेख के अलावा भी कई तरह की बातचीत इधर के विषय में प्रचलित हैं। जैसे सलीम सिंह से जुडी एक बात यह है कि पालीवाल गाँव के लोग पहले ही सलीम सिंह के जुल्म से परेशान थे लेकिन उनके गाँव छोड़ने का कारण कुछ और था। एक इतिहासकार नन्द किशोर शर्मा के अनुसार सलीम सिंह की नज़र गाँव की एक औरत पर पड़ गई थी और उसने उस औरत को अपने पास भेजने का हुक्म गाँव वालों को दिया था। सलीम सिंह के अत्याचारों से परेशान गाँव वालों के लिए यह वह आखिरी बात थी जिसने उनका मन इधर से विरक्त कर दिया और उन्होंने एक साथ यह गाँव छोड़ने का मन बना लिया। सलीम सिंह ने लड़की को  भेजने के लिए एक दिन का वक्त दिया था और उसी रात पूरे चौरासी गाँव वालों ने इधर से पलायन कर दिया।

कहा तो ये भी जाता है कि उन्होंने जाते हुए इधर की जमीन को शाप दिया था और इस कारण यह गाँव दुबारा कभी बस नहीं पाया। इसके आलावा कुलधरा गाँव में आत्माओं के होने की बात भी गाहे बगाहे आती रही है।बी बी सी हिन्दी में छपा यह लेख काफी रोचक बातें कुलधरा और उसके इतिहास के विषय में बताता है। आप लेख निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:

बीबीसी हिन्दी में कुलधरा के ऊपर लेख

अब असल में इधर हुआ क्या यह तो हम नहीं जानते लेकिन लोग बाग़ ऐसी ही कहानियों को सुनकर इधर आते हैं। गाँव का काफी हिस्सा अभी भी खड़ा हुआ है। इधर एक मंदिर है, आस पास घरों के अवशेष सही सलामत हैं और लोग बाग़ इधर खड़े होकर, बैठकर और अन्य अन्य तरीकों से लोग फोटो खिंचवा रहे थे। सरकार भी इसको एक टूरिस्ट प्लेस के तरह ही विकसित कर रही है। कुछ देर हमने  भी इधर फोटो खीचे और  खिंचवाए। आस पास हम लोग घूमे। अवशेषों को देखा। दिन के बारह बजे का वक्त था तो भूत तो हमे मिलने से रहे लेकिन हम एन्जॉय कर रहे थे। ऐसे हम घूम रहे थे कि एक रोचक वाक्या हुआ जिसने मेरा ध्यान आकृष्ट किया।

एक परिवार इधर आया। वो शायद सम के लिए निकले थे और कुलधरा के भूतिए किस्से सुनकर इधर को मुड़ गये थे। परिवार में एक लड़का,लड़की और मम्मी पापा थे। लड़का अट्ठारह साल का रहा होगा, लड़की भी बड़ी थी।यानी माँ बाप चालीस पचास के आस पास तो रहे ही होंगे। पापा ने शायद इधर के विषय में सुना था और वो अपने परिवार को बड़े उत्साह से इधर लेकर आये थे। लेकिन इधर कुछ टूटे फूटे से अवशेष देखकर उन्हें निराशा हुई थी। माता जी जिन्होंने शायद इधर आने से मना किया रहा होगा वो इधर आकर और क्रुद्ध हो चुकी थी। पहले तो उन्होंने सबको सुनाया। बेचारा बेटा उन्हें शांत करने की कोशिश करने लगा। फिर माता जी ने गुस्से  में कहा – अब तो सब कुछ देखूँगी। और यह कह कर वो कुलधरा के अवशेषों का बारिकी से निरिक्षण करने लगीं। निराशा  तो बेचारे पिताजी को भी हुई थी और जैसे वो एक कोने में बैठने की कोशिश करते तो माता जी चिल्ला उठती – बैठ क्यों रहे हो, घूमो। अब तो सब कुछ देखना होगा।

जब जब वो ऐसे बोलते बेटा उन्हें शांत करवाने की कोशिश करता। बेचारे पापा इधर उधर थोड़ा चलते और फिर अपनी पत्नी जी की नजरे बचाकर कहीं कोने में बैठ जाते। फिर वो कनखियों से यही देखते रहते कि उनकी पत्नी तो कहीं नहीं आ रही है। वो आती दिखती तो भी अवशेषों के गहन अध्यन करने लगते।

मैं तो कुलधरा देख चुका था इसलिए अब मुझे  उससे ज्यादा मजा  इस परिवार का समीकरण देखने में आ रहा था। सही ड्रामा चल रहा था और मेरी नज़र रह रह कर इन रोचक पात्रों पर चली जाती। घूमते घामते ऐसे कई किस्से अनुभव करने को मिल जाते हैं। मुझे उस बेचारे लड़के पर दया भी आ रही थी जो मध्यस्ता कराने की कोशिश कर रहा था। उसका वक्त माँ को शांत कराने में ही बीत रहा था।

ऐसे ही हमारा वक्त कटा। फिर एक घंटे घूमने के पश्चात जब हमे लगा कि हमने काफी कुछ देख लिया तो हम वापस बाहर को मुड़ गये। वापस आते हुए भी उस परिवार का ख्याल मेरे मन के किसी कोने में था और मुझे रह रह कर हँसी आ जाती थी। मैंने इधर काफी फोटो खींची। आप भी कुछ देखिये:

हम बाहर की तरफ बढ़े तो हमे  बाहर एक सोडा का ट्रक दिखा। काफी देर तक हम घूम लिए थे। गर्मी भी थी और प्यास भी लग गई थी। खाने का कुछ मन नहीं था लेकिन कुछ ठंडा पीकर हम गर्मी को शांत करना चाहते थे। हम ट्रक के बाहर रुके और एक एक कप सोडा पिया। फिर हमने उनसे खाबा के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा कि उधर ज्यादा कुछ नहीं है। और उन्होंने यह भी बताया कि उधर ज्यादा लोग भी नहीं जाते हैं। यह सुनकर थोड़ी निराशा तो हुई लेकिन फिर हम सुनी सुनाई बातों पर यकीन करने वालों में से तो नहीं थे। हम लोगों ने उधर जाना था तो जाना था। हमने पैसे चुकाए और बाहर को निकल गये। कुलधरा के अवशेषों से बाहर के गेट के लिए एक पक्का रास्ता बना है। रास्ते के बीच में और थोड़ी थोड़ी दूर में कुछ पतली पट्टियां सी बनी हुई हैं। वापसी में राकेश भाई के अन्दर न जाने किधर से सुपर कमांडो ध्रुव की आत्मा का प्रवेश हो गया और उन्होंने पट्टी के ऊपर ही बाइक चलाने का फैसला कर लिया। वापसी में वो पट्टी के ऊपर बाइक चलाते हुए ही लाये।

पट्टी के ऊपर बाइक चलाते राकेश भाई 

बाय बाय कुलधरा, भूत तो न मिले लेकिन एक घबराए हुए पति से जरूर मुलाकात इधर हो गई

खाबा फोर्ट

कुलधरा के गेट से बाहर आकर हम रुके और फिर मैंने एक आध फोटो ली और खाबा की तरफ बढ़ चले।

खाबा किला कुलधरा से उन्नीस बीस किलोमीटर दूर  है।  हम बाराह चालीस पर कुलधरा से निकले थे और एक बजकर पाँच मिनट तक खाबा के सामने मौजूद थे। सड़क के सामने मौजूद खाबा का किला बड़ा राजसी लग रहा था। यह सड़क के आखिर में था। नीचे गाँव के अवशेष थे जिससे किला उन पर नज़र रखता सा प्रतीत हो रहा था। किला ज्यादा बड़ा तो नहीं था लेकिन ऊंचाई पर था जो कि इसके प्रभाव को बड़ा रहा था।

खाबा किला

उधर लोग काफी कम सैलानी ही मौजूद थे। सोडा वाले भाई ने सही ही कहा था। लेकिन हमे सैलानियों से क्या लेना देना था। फोर्ट में मामूली सा टिकेट था। हमने टिकेट लिया और अंदर दाखिल हुए। अन्दर का किला काफी छोटा सा था। उधर एक गैलरी सी ही बनी हुई थी जिधर काफी सारे पोस्टर्स लगे हुए हुए थे। पोस्टर्स पर पुरातन काल और उसका जैसलमेर से सम्बन्ध के विषय में जानकारी थी। इसके आलावा भी छोटी छोटी कलाकृतियाँ भी यहाँ मौजूद थी। बाहर से यह किला भव्य दिखता है लेकिन अन्दर ज्यादा कुछ घूमने के लिए इधर नहीं था। हमने कुछ पोस्टर्स पढ़े। कुछ कलाकृतियों को देखा और उसके पश्चात छत पर खड़े होकर आस पास के गाँव और उसके अवशेष देखे। ये अवशेष कुलधरा जैसे ही थे। यह हिस्सा भी उन्ही 84 गाँवों में आया था जिन्होने पलायन किया था।

सलीम सिंह का अत्याचार तो अलग बात रही होगी। इधर मौजूद लोगों की ज़िन्दगी उन अत्याचारों के अलावा भी  कितनी कठिन रही होगी यही मैं सोच रहा था। दूर दूर तक पानी का स्रोत नहीं था। मौसम ऐसा ही जब गर्मी तो तगड़ी गर्मी और जब ठंड तो तगड़ी ठंड। ऐसे में इनका खाली होना कोई बड़ी बात नहीं थी। फिर आज के ज़माने में जब रोजगार शहरों की तरफ ही मौजूद हैं तो अंदरूनी हिस्सों में बसे गाँवों की नियति में यह खाली होना लिख ही जाता है। यहाँ तो फिर भी स्रोत की कमी है। पहाड़ों में तो हरियाली, खेत सब हैं लेकिन गाँव के गाँव खाली हो रहे हैं क्योंकि हम जैसे लोग शहरों में बस रहे हैं। बस छुट्टी में ही गाँव में दाखिल होते हैं या रिटायरमेंट के बाद। बुजुर्गों की शरणास्थिली बनकर रह गई है अब गाँव।

हम इधर एक बजे करीब इधर पहुँचे थे। पौने दो बजे तक इधर रहे। फिर हम बाहर आये। बाहर आकर हम सड़क से आस पास मौजूद अवशेषों की तरफ देखने लगे। थोड़ी देर में राकेश भाई मुझे उत्साहित से नज़र आये और जब तक मैं उनके करीब पहुँचता तब तक वो नीचे की तरफ बढ़ चुके थे।उन्हें उधर कहीं मोर दिख गये थे और उन्हें देखने के लिए सड़क से उतरकर नीचे को चले गये थे। मुझे फोटोग्राफी का इतना शौक नहीं  है तो मैं फोन उठाकर  तब तक व्हाट्सएप्प में बतियाने लगा था। राकेश भाई अपना पूरा वक्त लेकर और आराम से मोरों की फोटो खींच कर वापस आये।

अब हमे सम की तरफ को निकलना था। हम लोग बाइक में गये और सम की तरफ बढ़ चले। सम तक हमारा सूर्यास्त के वक्त पहुँचने का इरादा था लेकिन हम जो सोचते हैं वैसा होता किधर है।

आगे क्या हुआ यह तो आपको अगली कड़ी में बताऊंगा। तब तक के लिए अलविदा। फिर मिलेंगे। तब तक आप खाबा किले में खींची यह तसवीरें देखिये।

खाबा किले से दिखता एक गाँव 

राकेश भाई द्वारा लिए गये चित्र

राकेश भाई द्वारा लिए गये चित्र

राकेश भाई द्वारा लिए गये चित्र

रास्ते में मौजूद ऊँट

पीछे से दिखता खाबा का किला 

क्रमशः

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About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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7 Comments on “जोधपुर जैसलमेर की घुमक्कड़ी #4: कुलधरा और खाबा किला”

  1. सही उस परिवार की बाते सुनकर मजे आ गए आप भी उस समीकरण को देख रहे थे…हम सब भी दिसम्बर में जैसलमेर गए थे लेकिन खाबा किला और बावड़ी नही देख पाए….खाबा किला के बारे में पता भी नही था…धन्यवाद जानकारी के लिए और अच्छी पोस्ट…

  2. जी अगली बार देख लीजियेगा। हम भी बाइक में थे जिस कारण संयोगवश हमे दिख गया। हाँ, जब भी घूमने जाता हूँ तो रोचक लोगों के ऊपर गौर जरूर करता हूँ। मुझे इस काम में मज़ा आता है।

  3. कुलधरा गाँव हम लोग दिसम्बर २०१८ में देखा था .. अच्छा लगा था ये उजाड़ गाँव, कौतुहल भी पैदा करना नजर आया ये गांव ….. आपने अच्छा लिखा है इस जगह के बारे में …. खावा के किले के बारे में जानकारी आपकी पोस्ट से ही हुई….. चित्र सभी बहुत ही अच्छे लगे …

  4. रितेश जी, हार्दिक आभार। मैं भी दिसंबर में ही गया था। दिसंबर के आखिरी सप्ताहंत में मैं और राकेश भाई उधर ही थे। चित्र आपको पसंद आया यह जानकार अच्छा लगा।

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