घनघोर था अँधेरा, था चहूँ और सन्नाटा गहरा
आकाश पे उड़ते चमगादड़ जाने किसका दे रहे थे पहरा,
आसमान में छाए थे बादल ,
और हमें सुनाई दी कुछ हलचल ,
अभी खोया नहीं था हमने होश,
डरे नहीं थे क्यूंकि था जवानी का होश,
रास्तें में थी कई कटीली झाड़ियाँ ,
लगा शायद हिली थी उनकी डालियाँ,
हम चल रहे थे और अपने को कोस रहे थे,
क्या कर रहे थे इस वक़्त इधर ये सोच रहे थे ,
तभी बड़ी झाड़ियों में सरसराहट,
मन हुआ विचलित, बढ़ने लगी घबराहट,
अब लगे हम भागने, लेकिन ये क्या नहीं चल रहे थे हमारे पाँव,
हम खड़े थे ऐसे रास्ते पर, जैसे बीच भवंर में बिन चप्पू की नाव,
हम लगे रोने कि आई एक आवाज़,
चुप कर क्यूँ चिल्लाता है बहुत बनता था तू जाबांज,
वो हमारे सामने खड़ा था ,
जैसे हो कोई राक्षस ऐसा उसका थोबड़ा था,
था उसका भारी शरीर ,
थे नाख़ून पैने जैसे हो कोई तीर,
अब हम नहीं बचेंगे ये था हम ने सोच लिया,
उस दैत्य के चेहरे पे थे ऐसे भाव जैसे उसने एक शिकार को दबोच लिया ,
हमने किये जितने भी उससे दूर जाने के जतन,
लेकिन हर कोशिश हुई विफल सामने नज़र आया हमे अपना पतन,
वो कूदा हमारे ऊपर और उसने अपने जबड़े में हमारी गर्दन दबाई,
हमारे मुंह से निकली एक चीख जो थी हमारी रुलाई,
उसने हमें जोर से उछाला,
जैसे किसी में फेंका कोई भाला,
अब हम औन्धे मुँह गिरे थे,
लेकिन ये क्या इधर न था कोई झाड़ी न हम मरे थे ,
हमने अपने गले को छुआ ,
सब कुछ ठीक है इससे अपने को आश्वस्त किया ,
जब बिस्तर के ऊपर देखा तो थी उधर हमारी श्रीमती विराजमान,
थी उनके चेहरे पे आभा और लबों पे थी विजय मुस्कान,
वो बोली मैं न कहती थी न देखो उस फिल्म को तुम घबराओगे,
बने थे खुद को तुर्रम खां बोलो अब दुबारा अपनी चलाओगे,
मैंने झेंपते हुए न में अपनी मुंडी हिलाई,
कितनी खूबसूरत हो तुम आई लव यू जानू की पोलिश उनपर लगाई,
उन्होंने मुस्कराकर अपनी बाँहें फैलाई,
आगे क्या हुआ न दिमाग के घोड़े दौडाओ,
रात ही गयी चलो सो जाओ,
© विकास नैनवाल ‘अंजान’