झाँसी और ओरछा की घुमक्कड़ी #2: स्टेशन से किले की ओर

झाँसी ओरछा की घुमक्कड़ी
3/12/2018

मैंने दिल्ली से झाँसी पहुँच गया था।  एक बार की चाय भी पी ली थी और किताबें भी ले ली थीं।
यह सब आपने पिछली कड़ी में पढ़ा।  अब आगे:

पखाना काण्ड


मैंने किताबों को बैग में डाला। और बटवे को देखा।  उसमें केवल बीस रूपये पड़े थे।  बाहर जाकर एटीएम देखना पड़ेगा।  लेकिन ये बाद की बात थी अभी तो मुझे कुछ और करना था।  सामने एक सुलभ शौचालय दिख रहा था। मैं उसकी तरफ बढ़ गया। चाय पीकर प्रेशर बन ही गया था।

मैंने बाहर बैठे भाई से पूछा तो उन्होंने एक बार इस्तेमाल करने के १० रूपये बताये। मैंने उन्हें दस रूपये दिए और अन्दर दाखिल हो गया। एक तरफ तीन शौचालय थे और उसके दूसरी तरफ तीन शावर लगे थे जहाँ लोग नहा सकते थे। सफाई के मामले में हालात ऐसे ही थे जैसे अक्सर रेलवे के ऐसे प्रसाधनों के होते हैं। दो दरवाजों के सामने दो लोग अपनी बारी का इंतजार कर रहे थे। तीसरे दरवाजे के सामने मैं लग गया।

कुछ देर के इंतजार के बाद ही संडास का दरवाजा खुल गया तो मैं अन्दर गया। मेरे से पहले जो दो व्यक्ति थे वो भी दाखिल हो चुके थे और उनकी जगह किसी और ने ले ली थी।  इंडियन लेटरीन थी। वहीं पर एक हुक लगा था जिधर मैंने बैग को टांगा और अपना जिस काम को करने के लिए आया था वह काम करने बैठ गया।

मैं पूरी लगन से अपना काम कर रहा था। बाथरूम के कोने पर मुझे कुछ बीड़ी के अधजले टोटे दिख रहे थे, उधर एक आध खैनी के खाली पैकेट भी थे और कुछ काला काला गीला सा पाउडर टाइप का भी था। हमारे सम्विधान में नागरिक के अन्दर वैज्ञानिक जिज्ञासा जगाने के विषय में कहा गया है। ऐसा लिखा है की हर भारतीय नागरिक का एक मौलिक कर्तव्य वैज्ञानिक दृष्टिकोण और ज्ञानार्जन की भावना का विकास करना है। वहाँ पड़ी तीन चीजों में से दो का तो मुझे पता था लेकिन तीसरी चीज का मालूम  नहीं था। और अपनी इस जिज्ञासा को शांत करके अपने भारतीय नागरिक होने के मौलिक कर्तव्य का पालन करने की मेरी कोई इच्छा भी नही थी।


खैर, मैं कयास तो लगा रहा था। बीड़ी के टोटो को देखकर सोच रहा था कि कौन से लोग होंगे जिन्होंने इनका इस्तेमाल किया होगा। वो झांसी के बाशिंदे तो नहीं होंगे। वो इधर क्यों आये होंगे? मैं घूमने आया था। तो ऐसे ही वो किसलिए इधर आये होंगे। मैं इन्ही ख्यालो में डूबा हुआ था कि बाहर किसी के तेज तेज से चिल्लाने की आवाज़ आने लगी। कोई तेज आवाज़ में गाली दे रहा था। आखिर कौन है जो गाली दे रहा है? क्यों गाली दी जा रही है? ऐसे ही कई प्रश्न मेरे जिज्ञासु मन में कुलबुलाने लगे। मैंने जल्द से जल्द स्वच्छ विकास कार्यक्रम चलाया और उठकर बाहर हो रही गतिविधि में मूक दर्शक बनने के इरादे से बाहर निकलने की तैयारी करने लगा।

मैं एक भारतीय हूँ  और इस नाते मेरे अंदर एक गुण है। सड़क में कुछ भी हो- बहस बाजी, लड़ाई झगड़ा,दुर्घटना इत्यादि। मैं किसी की मदद करूँ न करूँ लेकिन अन्य भाई बन्दुओं की तरह इन चीजों को होते हुए देखने की इच्छा संवरण नहीं कर पाता हूँ। न जाने कौन सी अदृश्य चीज मुझे अपनी जगह पर जड़ कर देती है और मैं काफी देर तक उस मजमे में शामिल हो जाता हूँ और इन गतिविधियों को देखने लगता हूँ। इसी इरादे से मैं बाहर निकला था। आज तो सुबह सुबह ही हो हल्ला हो गया था। अंदर का भारतीय बड़ा खुश था कि लो मसाला मिल गया। मैं जानने को आतुर था कि आखिर सुलभ शौचालय में लड़ाई कैसे हो रही है।

मैंने मग्गे से अपने किये कार्य को बहाया। दो चार बार पानी डालने के बाद कार्य सम्पूर्ण हुआ और बाथरूम से मेरे आमद के निशाँ पूरी तरह से गायब हो गये। मैनें फिर दरवाजे को खोला। बाहर से हल्ला अभी भी बदस्तूर जारी था।मैं बाहर गया तो देखा एक व्यक्ति खड़े थे। उनके हाथ में झाड़ू और सफाई करने के अन्य औजार थे। वो ही अपनी बुलंद आवाज़ में किसी की माँ बहनों और उसके परिवार के अन्य स्त्रियों और उस व्यक्ति के अन्य अंगो के बारे में बोले जा रहे थे।

“कैसे कैसे लोग हैं, भो***ले? सालो में तमीज नाम की चीज नहीं है। ये हगने की जगह है क्या?”

वो परेशान हाल चिल्लाते जा रहे थे। मैं देखना चाहता था कि किस चीज ने उन्हें उद्विग्न कर दिया था। अक्सर लोग सुलभ शौचालय में आते हैं और अपनी आमद के निशाँ को मिटाए बिना ही निकल लेते हैं। मुझे लग रहा था कि कुछ ऐसा ही केस होगा। सोमवार की सुबह थी। कर्मचारी थोड़ा गुस्साया रहता ही है। तो मेरे मन में यही था कि यही बात होगी। मेरा शौचालय बाहर जाने के दरवाजे के नजदीक थे और हाथ धोने के लिए हमे अन्दर दिवार की तरफ जाना होता था जहाँ पानी और साबुन था। मैं उधर बड़ा और मुझे उनके रौद्र रूप में आने का कारण समझ आया। वो नाराज़ होकर तब तक बाहर की तरफ जाने लगे थे।

किसी कमबख्त नासपीटे ने मल का त्याग संडास की जगह नहाने वाले हिस्से में कर दिया था। देखकर मुझे गुस्सा तो काफी आया। मुझे उन भाई पर दया भी आई। वो निकल चुके थे लेकिन एक बार को मन हुआ कि उन्हें जादू की झप्पी दे दूं लेकिन फिर ये डर कि कहीं मेरी इस हरकत से वो मुझे पखाना काण्ड का मुख्य आरोपी घोषित न कर दें और मेरी कुटाई न कर दें।

बहरहाल मैंने हाथ धोये और मैं बाहर की तरफ आ गया। लेकिन बाहर आकर मैं सोच रहा था कि
अगर आपको किसी देश/नगर को सच में जानना हो तो सार्वजनिक स्थलों में मौजूद शौचालयों का इस्तेमाल कीजिये। यकीन मानिए,आपको एक नई दुनिया देखने को मिलेगी। आपको ऐसा कुछ देखने को मिलेगा जो बाहर कहीं आप देखने की सोच भी नहीं सकते हैं। आप जब बाहर निकलेंगे तो सोचेंगे कि सच में इनसान ऐसे भी होते हैं।

आप ऐसी ऐसी चीजें  देख चुके होंगे कि उसके बाद आपको कुछ भी चीज कभी भी हैरत में नहीं डाल पायेगा। आप देखेंगे कि कई बार लोगो द्वारा अपना शौचालय की छत पर प्रक्षेपित कर दिया गया होता है। जो इनसान मल को छत पर प्रक्षेपित कर सकता है वो मंगल पर जहाज भेज दे तो इसमें क्या बड़ी बात है। यकीन मानिए आप कभी इनसान के किसी काम से आश्चर्यचकित नहीं होंगे।

फिर मेरी सोच की कड़ी दूसरी तरफ मुड़ गई। मैं अपनी नौकरी को कई बार काफी गालियाँ देता था लेकिन आज  मैं सोच रहा था कि  कितना भाग्यशाली थी। मुझे सोमवार की सुबह ऐसे मामलो से तो नहीं जूझना पड़ रहा था। जूझना तो इन्हें भी नहीं चाहिए था लेकिन अब उन्होंने ही इसे साफ़ करना था। और वो करेंगे। मुझे जो मिला था मैंने उसके लिए शुक्रगुजार था और मैंने फैसला कर लिया था कि आज के बाद अपने काम को कभी गाली नहीं दूँगा।

एटीएम की तलाश
मैं अब ओवर ब्रिज की तरफ बढ़ा। जेब में दस रूपये पड़े थे। राकेश भाई के आने में वक्त था तो मैंने सोचा क्यों न  स्टेशन से बाहर निकलकर एटीम देख लिया जाये। एक बार पैसे मिल जाए तो एक बार की चाय भी चुसक लेंगे।

मैं ओवर ब्रिज पर चढ़ा और स्टेशन से बाहर निकला। बाहर कई ऑटो वाले भाई मुझे मेरे गन्तव्य स्थल के विषय में पूछने लगे लेकिन मैंने उन्हें मना किया। एक व्यक्ति को एटीम के विषय में पूछा तो उन्होंने बताया कि सीधे जाइए उधर मिल जायेगा। मैं उधर की तरफ बढ़ने लगा। स्टेशन के सामने से गुजर रहा था तो उसकी एक आध तस्वीर निकाली। उधर ही रानी लक्ष्मी बाई जी की एक मूर्ती थी तो उसकी तस्वीर भी निकाली। फिर मैं एटीएम की ओर बढ़ चला।

एटीएम में पहुँचा। उसके अन्दर इक्का दुक्का लोग थे। मैं अन्दर दाखिल हुआ। मशीन में कार्ड डाला लेकिन निराशा हाथ लगी। उधर पैसे नहीं थे। खाली हाथ ही बाहर निकलना पड़ा।

झाँसी रेलवे स्टेशन

राकेश भाई से मिलना और जाना झाँसी के किले की तरफ

मैं  दूसरा एटीएम खोजने की सोच ही रहा था कि राकेश भाई का कॉल आ गया। उन्होंने बताया कि वो स्टेशन के पीछे की तरफ इन्तेजार कर रहे हैं। मैंने उनसे एटीम के विषय में पूछा तो उन्होने बताया कि उधर कुछ नहीं है।सब वीरान है। मुझे थोड़ा निराशा हुई। लेकिन अब क्या किया जा सकता था। मैं वापस उसी ओवर ब्रिज की तरफ बढ़ा जिधर से उतरा था। एक बार को मन में ख्याल आया कि अगर किताब नहीं लेता तो क्या होता लेकिन फिर सोचा कि छोड़ो ले भी ली तो क्या हुआ। झाँसी शहर में क्या एक एटीएम न होगा।

अपने दिल को इस अच्छे ख्याल से बहलाते हुए मैंने ओवर ब्रिज पार किया और आखिर उस जगह पहुँच गया जहाँ राकेश भाई मौजूद थे। हम लोग बगलगीर होकर मिले और उधर से सीधा झांसी का किला जाने की बात हुई।

राकेश भाई ने बताया कि उन्होंने गूगल मैप की मदद ली थी और इस कारण इधर आ गये थे। कई बार गूगल सबसे छोटे रास्ते से ले जाने के चक्कर में ऐसे ही कर देता है। कलकत्ता भ्रमण के दौरान मैंने यह बात काफी अनुभव की। गूगल मैप के हिसाब से चलते हुए काफी गलियों से होकर मैं गुजरा था।

अब हमने झाँसी के किला जाने की सोची। मैंने अन्दर देखा था कि झांसी के किले के नजदीक ही रानी महल था तो हमे उधर भी जाना था। योजना ये थी कि पहले झांसी का किला और रानी का महल देख लेंगे। फिर ओरछा की तरफ बढ़ेंगे और रास्ते में कुछ नाश्ता कर लेंगे। वैसे भी मुझे अभी भूख तो लगी नहीं थी।

हम लोग बाइक पर सवार हुए और अपनी मंजिल की तरफ बढ़ चले। एक आध जगह रास्ता पूछा और आगे बढ़ चले। यातायात का हाल ऐसा ही था जैसे छोटे शहरों में होता है। कोई भी किधर को चलता है। स्टेशन से झांसी का किला तीन चार किलोमीटर के अंदर ही है। हम उसी तरफ बढ़ रहे थे। किले से कुछ पहले एक संग्राहलय पड़ता है जिसके बगल में एक उद्यान भी है। राकेश भाई ने उसके नजदीक गाड़ी रोकी तो मुझे थोड़ी हैरत हुई। फिर मैंने सोचा कि उनका उद्यान देखने का मन होगा। वो बाइक लगाने लगे और मैं उद्यान के गेट की तस्वीर उतारने लगा। मैं अब उद्यान के गेट की तरफ बढ़ रहा था कि राकेश भाई आये और बोले-“ये किला नहीं है।”
मैं – “वो तो नहीं है।”
राकेश भाई – “तो फिर इधर रुके क्यों है?”
मैं -” मुझे लगा आपको गार्डन देखना है।”
राकेश भाई -” नहीं तो।”
मैंने उन्हें सवालिया नज़रों से देखता हुआ प्रश्न दागा- “चले फिर?”
राकेश भाई-“चलो।”

और यह कहकर वो फिर किनारे खड़ी की बाइक को लेकर आ गये और हम लोग झांसी के किले की ओर बढ़ चले।

वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई पार्क के सम्मुख राकेश भाई चिन्तन करते हुए

#पढ़ते_रहिये_घूमते_रहिये
#फक्कड़_घुमक्कड़

क्रमशः

झाँसी और ओरछा की घुमक्कड़ी की सभी कड़ियाँ:
दिल्ली से झाँसी
झाँसी रेलवे स्टेशन से किले की ओर
झाँसी का किला और रानी महल
ओरछा किला
ओरछा भ्रमण:मंदिर, कोठियाँ ,छतरियाँ इत्यादि 
© विकास नैनवाल ‘अंजान’

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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0 Comments on “झाँसी और ओरछा की घुमक्कड़ी #2: स्टेशन से किले की ओर”

  1. इस पोस्ट में सुलभ शौचालय का व्रतांत ही आधा कवर कर गया पोस्ट…ATM जरूर मिलेगा बराबर मिलेगा भाई…

  2. जी पखाना काण्ड को जानबूझकर विस्तृत तौर पर लिखा। हम लोग कई बार गंदगी को कोसते लेकिन ये भूल जाते हैं कि फैलाने वाले भी हम ही है। अगर हम गन्दगी न फैलाएं तो आधे से ज्यादा सफाई अपने आप हो जाए। फिर हम कई बार अपने काम को लेकर रोते भी हैं। ऐसे में ये जानना जरूरी है कि कई जगह लोग हैं जो हम से कई गुना बुरी परिस्थितियों में जीविका अर्जित कर रहे है। इसलिए जो है उसे कोसना चाहिए। बेहतर करने के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए।

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