साहित्यिक कृतियाँ सस्ते कागज़ पर छपती तो शायद पाठकों के लिए नहीं तरसती ऐसा मेरा मानना रहा है। हो सकता है मैं गलत हूँ। लेकिन इस पर विचार तो किया जा सकता है।
अभी नरेंद्र कोहली जी का कहानी संग्रह नमक का कैदी पढ़ रहा हूँ। 9 कहानियों को इसमें संकलित किया है। क्रिएटिव बुक कंपनी ने छापा है। और कीमत भी वाजिब है केवल 45 रुपये। हाँ, ये संस्करण 2001 का है तो उस हिसाब से महँगा रहा होगा इसलिए आज तक वही बिक रहा है। मुझे ये पुस्तक पुस्तक मेले में मिली थी। अमेज़न पे नहीं है। उधर होती तो शायद बिकती भी।
इसी तर्ज पर मैंने प्रेमचंद जी को भी पहले लुगदी में ही पढ़ा था। वरदान और कफ़न(कहानी संग्रह ) वाली कॉपी मेरे पास अभी तक है। उस वक्त 25-30 रुपये कीमत थी।
कहने का मतलब ये है कि आप चाहते हैं आपकी पुस्तक पढ़ी जाए तो उसके एक संस्करण की कीमत भी वाजिब रखिये। अपराध साहित्य वालों को ये बात काफी पहले समझ आ गई थी क्योंकि वो अंग्रेजी के डाइम नोवेल्स से प्रेरित थे। प्रबुद्ध साहित्यकारों और उनके प्रकाशकों को शायद अभी तक नहीं आई।
वेस्ट में एक किताब के कई संस्करण आते हैं: हार्डबैक, पेपरबैक, मास मार्किट पेपरबैक,इत्यादि।इससे होता ये है कि हर आर्थिक वर्ग का पाठक साहित्य तो पढ़ सकता है। उस तक उसकी पहुँच होती है। जबकि इधर कीमतें अधिक हों तो हम लोग साहित्य की पहुँच खाली उन लोगों तक सीमित कर देते हैं जो आर्थिक रूप से सम्पन्न हैं। मैं कई 200-300 पन्नों की किताबें देखीं हैं जिनकी कीमत 200-300 रूपये या कभी इससे अधिक भी होती है। आप कह सकते हैं कि ये उनके काम का मेहनताना है। मेरा कहना है कि आप इन कीमत वाली पुस्तकों को तो रखे लेकिन साथ में इसके सस्ते संस्करण भी मुहैया करवायें।
उदाहरण के लिए नरेंद्र कोहली जी का महामसर ले लीजिये। इस श्रृंखला में नौ किताबें हैं। हर किताब की कीमत 300 से ऊपर है जो कि साधारण पाठक के लिए कुछ ज्यादा होगी। श्रृंखला का मैंने काफी नाम सुना है। मैं तो पढ़ भी लूँगा क्योंकि मैं इस कीमत को वहन कर सकता हूँ लेकिन जो लोग दस हज़ार या बारह हज़ार कमाते हैं क्या वो इसे लेंगे? शायद नहीं। अगर ये किताबें सस्ती होती तो शायद ज्यादा लोग इसे पढ़ते। ऐसी ही कई उपन्यास है जो निम्न वर्गीय लोगों की परेशानी के विषय में तो लिखे जाते हैं लेकिन शायद ही वो लोग इन्हे पढ़ पाते हो। लेखक शायद इसे लिख कर पुरस्कार जीत ले। प्रकाशक इसकी प्रतियाँ पुस्तकालय में खपाकर मुनाफ़ा बटोर ले लेकिन एक अच्छा खासा समाज इससे वंचित रह जाता है। और फिर हर साल हमे यही सुनने को मिलता है कि पाठक घट रहे हैं। हिन्दी कोई नहीं पढ़ता। इत्यादि इत्यादि।
अगर साहित्य के पाठक घट रहे हैं तो उसमें एक छोटा कारण शायद साहित्य का जन सुलभ न होना भी तो होगा। एक बार इस दिशा में भी प्रयोग किया जा सकता है।
आपका क्या ख्याल है?