कानपुर मीट #१:शुक्रवार – स्टेशन रे स्टेशन बहुते कंफ्यूज़न

कानपुर एसएमपी मीट
7 जुलाई 2017, शुक्रवार 
माउंट आबू की मीट की सफलता के बाद अब नई मीट की तैयारियाँ चल रही थी।  जो मीट निर्धारित की गई थी उसे दिसंबर में होना था। यानी लगभग पाँच साढ़े पांच महीने के बाद। मेरे लिए वक्त बहुत ज्यादा था। वैसे माउंट आबू के बाद मैं छोटी छोटी तीन यात्राएं कर चुका था। और इन साढ़े पाँच महीनों में भी ऐसी कई यात्राओं का प्लान था। लेकिन ये यात्रायें एस एम पी मीट से जुदा रहती हैं। ये खालिस घुमक्कड़ी थी जबकि एस एम पी मीट में घुमक्कड़ी के साथ पाठक साहब के जिंदादिल फैंस से मिलने का तड़का भी होता है। ये अलग तरीके का नशा है। ऐसे में जब रांची मीट की बात चल रही थी तो मैं कान खड़े करके चुपचाप उस पर नज़र गड़ाये हुए था। लेकिन जब ये प्लान ठंडे बस्ते में जाता महसूस हुआ तो लगा खुराक अब दिसंबर में ही मिल पायेगी।मन दुखी था। ऐसे में दुःखहर्ता के रूप में एक मैसेज मुझे व्हाट्स एप्प में दिखा। कानपुर में मौजूद हमारे पर्सनल फनकार पुनीत दुबे जिन्हें प्यार से पी के डूबे की पदवी दी गयी है ने एक मैसेज डाला। उसके अनुसार वो एक छोटी सी गेट टुगेदर का आयोजन करने वाले थे और  इसमें शामिल होने के लिए हर कोई आज़ाद था। मैंने सोचा मैं कानपुर साइड तो कभी गया नहीं हूँ। ऐसे में उधर जाने का अच्छा मौका है और ऊपर से एसएमपी के नये प्रशंसकों से  मिलने का मौका मिलेगा। मेरी तो बांछे खिल गयी। मैंने  तुरन्त हामी भर दी।
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन

अब देखना ये था कि किस तरह कानपूर जाया जायेगा। जो निर्धारित नाम थे उनमे योगेश्वर भाई का भी नाम था। तो मैंने सोचा उन्हें ही कॉल लगाया जाए। उन्होंने कहा वो टिकेट बुक कर देंगे। मैं खुश। मैंने अब तक आईआरसीटीसी से केवल एक ही बार टिकेट बुक किया था इसलिए मैं थोडा कतरा रहा था। उन्होंने टिकेट बुक किया तो उसमे वेटिंग चल रहा था। मैंने कहा मैं अपनी ओर से कोशिश करता हूँ और अपने साइड से देखा तो मुझे टिकेट मिल गये। मैंने दो टिकेट बुक करवा लिए। जो सूची बनी थी उसमे चूँकि दिल्ली के किसी ओर से हामी नहीं भरी थी तो मैंने किसी और से पूछा भी नहीं। अल्मास भाई के विषय में मैंने सोचा उन्होंने पहले ही टिकेट करवा दी होगी। अब अंग्रेजी की एक कह्वात है न कि assume makes an ass out of you and me, बस यही मेरे साथ भी होगा। मैंने पहले से ही सोच लिया था लेकिन कुछ दिनों बाद जब अल्मास भाई का कॉल आया तो पता चला उन्होंने ऐसा कुछ नहीं करवाया था। अब मैं गधा तो बन ही चुका था लेकिन अपनी गलती सुधारने को भी तत्पर था। फिर बात ऐसी हुई की उनका टिकेट भी मुझे ही करवाने का मौका मिला और ऐसे मैंने अपने पापों का प्रायश्चित किया।


ऐसा ही कुछ वापस आने के टिकेट का था जिसको कि मैंने कन्फर्म वाले में बुक कर दिया। अब हम तीन लोग दिल्ली से कानपुर निकलने वाले थे। अब तो बस सात तारीक का इन्तजार था जब कि हमे कानपूर के लिए निकलना था।

जल्द ही वो दिन भी आ गया। मैंने पहले ही अपने ट्रेन की डिटेल्स सब को यानी योगी भाई, अल्मास भाई और पुनीत भाई को भेज दी थीं। शुक्रवार की सुबह से ही मैं काफी उत्साहित था। सुबह से ही ग्रुप में मीट में आने वाले लोग बाग़ मेसेज डालने लगे थे कि वो कहाँ कहाँ तक पहुंचे हैं। मैं उनके मेसेज देख देख कर खुश हो रहा था लेकिन मन में एक शंका भी थी। पिछले दो तीन हफ़्तों से ही ऑफिस का वातावरण ऐसा बना था कि भले ही पूरे हफ्ते काम का प्रेशर नगण्य रहे लेकिन शुक्रवार शाम को न जाने क्या होता था कि काम की सुनामी मेरे तरफ रुख कर लेती थी और मुझे अपने पूरी क्षमताओं का इस्तेमाल करके उससे पार पाना होता था। हरिद्वार रानी माजरा यात्रा के वक्त भी यही हुआ था और मैं इस वजह से थोडा टेंशन में था। यही एक कारण भी था कि मैंने ट्रेन का समय ऐसा चुना था कि अगर थोडा लेट भी हो जाती है तो कोई दिक्कत नहीं होगी। हमारी ट्रेन ने 11:40 से नई दिल्ली से विदा होना था और उस तक पहुँचने के लिए मेरे पास पूरा समय था।

इसके इलावा मेरा एक प्रिय मित्र किशन भी फ़ौज से छुट्टी लेकर आया हुआ था। मुझे उससे भी मिलने जाना था। तो मेरा प्लान ये था कि ऑफिस से जल्दी निकलकर, तैयार होकर राजीव चौक पहुँच जाऊँगा और उसके पश्चात किशन से मिलकर 9 बजे तक फारिग हो जाऊँगा। इसके बाद ट्रेन तक पहुँचने के लिए वक्त ही वक्त होगा मेरे पास। ये प्लान मुझे सही लग रहा था। पिछले दिनों योगी भाई, अल्मास भाई और मेरे बीच एक और खिचड़ी बन रही थी। उसके अनुसार हमे सीधे स्टेशन पर न पहुंचकर एक दूर छोटे स्टेशन से एक लोकल ट्रेन (ई एम यु) पकडनी थी और ऐसे स्टेशन पदार्पण करना था। इस नयी खिचड़ी ने भी मुझे उत्साहित किया था। इसके अनुसार मुझे योगी भाई को 9 बजे तक मिल जाना था। किशन वाला प्लान इसमें फिट बैठता था।

शुक्रवार को मुझे काम के मौसम के आसार बिगड़ते दिखे। टास्कस रुपी लहरें उठ रही थी और मैं उनके भीतर समा रहा था। इस कारण ग्रुप में उपस्थिति दर्ज कराने के लिए अपने आप को असमर्थ पा रहा था। बाकी सब हर्षौल्लास से फोटो और सन्देश शेयर कर रहे थे और मैं अपने काम पे ध्यान लगाए हुए था। हाँ, मैंने टीम के सभी सदस्यों को बता दिया था कि मैं शुक्रवार को बाहर जा रहा हूँ इसलिए काम दे दो लेकिन अगर ज्यादा होगा तो उसे सोमवार आकर ही करूंगा। शुक्रवार का दिन काम में कैसा बिता पता ही नहीं चला और शाम होने को आई। और आदत के अनुसार काम की एक बाड़ सी मेरी तरफ आई। इस बाड़ का असर ये हुआ कि मुझे थोड़ी देर ऑफिस में बैठना पड़ा और किशन भाई के साथ बना प्लान कैंसिल करना पड़ा। अब मैं सीधे 9 बजे योगी भाई से मिलने वाला था और अपनी खिचड़ी जिसके तब तक सारी सामग्री तैयार हो चुकी थी को चूल्हे में रखने वाला था।

मैंने जितने जल्द हो सका काम निपटाया और ऑफिस से रूम के लिए निकला। अब किशन से नहीं मिलना था। बाहर का मौसम भी खुशनुमा था। बादल थे, ठंडी हवाएं थी और बारिश होने के आसार था। मैंने नया छाता लिया था तो उम्मीद थी उसका उपयोग करने का मौका मिलेगा। और उम्मीद सफल हुई। रूम से पाँच मिनट की दूरी पर ही बूंदा बंदी शुरू हुई जो कि जल्द ही रिम झिम बरसात में बदल गयी। लोग बाग़ इधर उधर भाग रहे थे और मैं जो इस परिस्थिति के लिए तैयार था रुककर अपने बैग से छाता निकालकर छाता खोल रहा था। अब मैं बेधडक रूम की और बढ़ सकता था। मैं चलता जा रहा था और विजय मुस्कान से उन लोगों को देखता जा रहा था जो बचाव के लिए किसी छज्जे के नीचे दुबके खड़े थे लेकिन फिर भी बारिश उन्हें भीगा दे रही थी। कुछ दिनों  पहले मैं भी उनमे से था लेकिन अब नहीं। ऐसे ही बारिश के साथ मैं अपने रूम पर पहुँचा। एक कप चाय बनाने रखी और थोडा बैठ गया।

अब मुझे जाने की तैयारी करनी थी। चाय बनकर तैयार हो रही थी तो मैंने योगेश्वर भाई से बात करने की सोची। उन्हें फोन लगाया तो उन्होंने कहा कि जिस काम के जल्दी मिलना था वो अब संभव नहीं था इसलिए अब मैं देर से ही उधर चलूँ। यानी अब हमे छोटे स्टेशन पर से न होकर अपने प्रॉपर स्टेशन से ही चढना था। मैंने कहा वो कब तक स्टेशन पे मिलेंगे तो उन्होंने कहा कि वो नौ साढ़े नौ बजे तक पहुँच जायेंगे।मैंने कहा ठीक है मुझे पहुँचने में केवल एक- सवा घंटा लगेगा तो मैं उस हिसाब से निकल लूँगा। फिर उन्होंने कहा कि मैं अल्मास भाई से कॉल पर बात कर लूँ क्योंकि उस हिसाब से तीनों मिल लेंगे और खाना पीना साथ में कर लेंगे। मुझे ये बात जंची तो मैंने अल्मास भाई को कॉल किया। वो शायद बिजी थे तो उन्होंने फोन नहीं उठाया। चाय बनकर मेरा इंतजार कर रही थी तो मैंने उसकी तरफ तवज्जो देने की सोची।

अब मुझे आराम था क्योंकि जाने से पहले एक और चाय पी सकता था। वैसे भी बारिश का मौसम था तो यही किया जा सकता था।मैंने ‘तीन दिन‘ खोली और चाय को चुस्कता हुआ राहुल और उसकी कहानी में खो गया।

चाय खत्म हुई तो मैंने सोचा कि नहा वहा लेना चाहिए और फिर उसके बाद एक चाय और  पी जाए। ये बात मुझे जंची और मैंने चाय चूल्हे पे चढ़ाई और नहाने चला गया।नहाकर वापस आया तो देखा कि मेरे दोस्त मनन का कॉल था। मैंने उसे कॉल किया तो उसने पूछा कि मैं किधर हूँ?
मैंने कहा – रूम पर लेकिन जल्द ही रेलवे स्टेशन के लिए निकलूंगा। मैंने पूछा क्यों वो आ रहा है क्या? उसने कहा आ तो रहा है लेकिन मैं उसके कारण अपने प्लान में देरी न करूँ। मैंने कहा भाई अगर साढ़े आठ नौ बजे से पहले आ जाओ तो बढ़िया क्योंकि मैं उस वक्त ही इधर से निकलूंगा। मैंने कहा एक बार पहुँचने वाला होगा तो बता देना और हम डायरेक्ट मार्किट में ही मिल जायेंगे। उसने एक शॉप का नाम लेते हुए कहा कि वो उधर मिलेगा। फिर मैं तैयार हुआ और एक चाय बनाई। चाय पी और राहुल की कहानी में आगे बढ़ा।

फिर जब निकलने का वक्त आने वाला था तो मनन का भी कॉल आ गया कि वो दस मिनट में पहुँच जायेगा? मैंने कहा बढ़िया। दुकान पर मिलता हूँ। अब मैं तैयार था। सारा सामान चेक कर लिया था और देख लिया था कि कहीं कुछ भूला तो नहीं। जब इस बात से निश्चिन्त हो गया कि कुछ भूला नहीं हूँ तो मार्किट की ओर निकल गया। उधर मनन से मिला। उसने अपने काम निपटाए और उसके साथ दो तीन दुकानों के चक्कर काटे। उसे एक चीज चाहिए थी जो उसे मिली नहीं। फिर उससे विदा ली और फिर ऑटो लेने के लिए बढ़ गया।

मैंने ऑटो लिया और एम जी रोड पर उतरा। उधर ही अल्मास भाई का कॉल आ रहा था तो उनसे बात की। उन्होंने कहा वो फरीदाबाद हैं और अब निकल रहे हैं। मैंने कहा मैं एक डेढ़ घंटे में पहुँच जाऊँगा।उन्होंने कहा ठीक है वो भी उधर ही मिलेंगे। अब मैंने मेट्रो में एंट्री ले ली। मुझे उम्मीद थी कि काफी भीड़ भाड़ होगी लेकिन ऐसा नहीं था। वरना शुक्रवार को एम जी रोड से मेट्रो में एंट्री लेने के लिए ही काफी बड़ी लाइन होती है। मैं खुद कई बार ऐसी लाइन्स में लगा हूँ। इनमे फायदा बस ये होता है कि उपन्यास के पाँच दस पन्ने पढ़ सकते हैं। लेकिन आज ऐसा नहीं था । मैंने आराम से चेकिंग करवाई और अन्दर दाखिल हो गया। कार्ड में थोड़े पैसे थे ही तो मैंने सोचा कि न्यू डेल्ही रेलवे स्टेशन पे भी इसमें पैसे डलवाऊँगा। मुझे उम्मीद ही नहीं पूरा यकीन था कि बाकी लोग लेट ही होने वाले हैं।

कुछ ही देर में मैं मेट्रो में था। मेट्रो में दाखिल होते ही मैंने अपने लिए एक कोना देखा और उधर बैग डालकर उपन्यास खोल लिया। मुझे वैसे भी काफी दूर जाना था तो अब मैं था, उपन्यास था और अपने गंतव्य की ओर मेट्रो थी। बिना किसी परेशानी के ही न्यू डेल्ही स्टेशन आ गया और मैं उधर उतर गया।

स्टेशन में कार्ड रिचार्ज करवाया और बाहर की तरफ निकला। मैंने उधर दस पंद्रह मिनट उपन्यास पढ़ते हुए और स्टेशन की तस्वीर लेते हुए बिताए। फिर मैंने योगी भाई को कॉल किया। उन्होंने कहा कि वो अल्मास भाई के साथ ही आएंगे और दस मिनट में पहुँच जायेंगे। मैं उनका इन्तजार करते हुए उपन्यास के क्लाइमेक्स को पढ़ा जा रहा था।

कुछ ही देर में उपन्यास खत्म हो गया था लेकिन योगी भाई और अल्मास भाई दोनों नदारद थे। उन्हें दुबारा फोन मिलाया तो उन्होंने बताया कि वो आगे निकल गये थे। फोन में वो किधर से जाना है उसपे ही बहस कर रहे थे। ऑटो से जाना है या मेट्रो से ऐसे ही बहस चल रही थी। फिर योगी भाई ने कहा वो दस मिनट में पहुँचते हैं। मैंने कहा ठीक है। अब तो उपन्यास भी खत्म हो चुका तो मैं इधर उधर चलने लगा। सोचा थोड़ी कैलोरीज ही बर्न कर लूँ क्योंकि आज तो जिम भी नहीं गया था। ऐसे ही घूमते घामते काफी वक्त हो गया तो एक और बार कॉल किया और पता चला कि वो स्टेशन से बाहर निकलने ही वाले हैं। बीच में पुनीत भाई का कॉल आया और उन्होंने कहा कि दोनों आराम से ले आना और देर न करना। ‘Uneasy lies the head that wears the crown’ का मतलब पुनीत भाई होस्ट बनकर समझ पा रहे थे। और हमे ख़ुशी थी कि इतना ख्याल करने वाला होस्ट मुझे मिला था। पुनीत भाई की हिदायत थी कि अगर वो पहुँच जाए तो एक फोटो खींच के ग्रुप में डाल दे ताकि तसल्ली हो जाये कि हम मिल गये हैं।

योगी भाई और अल्मास भाई की राह देख रहा था मैं

कुछ ही देर में योगी भाई और अल्मास भाई निकलते हुए दिखे। अब मीट शुरू हो चुकी थी। हमने एक सेल्फी ली और ग्रुप में भेजी ताकि पुनीत भाई की तसल्ली हो जाए। अब मैंने कहा कि अब स्टेशन चलते हैं तो अल्मास भाई ने कहा कि 11:40 की ट्रेन है और अभी तो ग्यारह भी नहीं बजे हैं। हमारे पास काफी टाइम है। हम बाहर घूम सकते हैं और थोड़ा लस्सी या कुछ हल्का फुल्का खा सकते हैं। योगी भाई तो इतनी देर में हमे न्यू डेल्ही रेलवे स्टेशन के बाहर के नज़ारे दिखवाने को भी तैयार थे। उनके मन में क्या नज़ारे और इच्छायें कुलांचे मार रही थी ये तो वही जाने।  मैंने एक दो बार कहा कि खाया पिया तो स्टेशन में भी जा सकता है लेकिन वो माने नहीं। मैंने कहा कि डॉक्टर ने मुझे वजन के साथ भागने के लिये मना किया है इसलिए मैं देर नहीं करना चाहता कि देर हो और हमे भागा दौड़ी करनी पड़े। उन्होंने कहा कि अरे जल्दी ही आ जायेंगे क्योंकि ज्यादा दूर नहीं जायेंगे। मैंने भी ज्यादा फाॅर्स नहीं किया।वैसे भी समूह में मेजोरिटी की ही माननी होती है।  इसलिए अब समूह में मेजोरिटी अल्मास भाई और योगी भाई की थी और इसीलिए उन्ही की चलनी थी। वो निकल पड़े तो मैं भी उनके पीछे हो गया। वो कहने लगे की लस्सी पीनी है लेकिन कहीं पे भी लस्सी का स्टैंड तो हमे दिख नहीं था। हाँ, हम चलकर काफी दूर आ गये थे। ऐसे ही सवा ग्यारह बजे तक हम घूमते रहे। और वापस स्टेशन पे आये तो ग्यारह बीस हो गये थे।

योगी भाई के कहने पर इधर खड़े होकर फोटो खिंचा दी.

हम स्टेशन के अन्दर दाखिल हुए और अब हमे जानना था कि हमारी गाड़ी कौन सी प्लेटफार्म पे थी। हमने सामने से आ रहे एक भाई से पूछा कि भाई ये ब्रह्मपुत्रा मेल कौन से प्लेटफार्म से चलती है।
उन्होंने कहा – वो तो इधर आती ही नहीं है।
हम सकते में आ चुके थे। ये क्या हुआ ? योगी भाई ने बोला टिकेट पे क्या लिखा है ? मैंने कहा आपको भेजा तो था। मैंने कहा उसपे DLI लिखा है। जैसे ही उनका DLI लिखा सुनना था उन्होंने कहा कि वो तो पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन  है। ये सुनकर हम सकते में थे और मैं अपनी बेवकूफी पे पछता रहा था। एक बार स्टेशन में इंतजार करते हुए मेरे मन में आया भी था कि मैं उनसे कन्फर्म कर लूँ कि कौन सा स्टेशन है लेकिन फिर मैंने इस ख्याल को ज्यादा तवज्जो नहीं दी थी।  हम सोच रहे थे कि क्या किया जाए।

ट्रेन निकलने में बीस मिनट ही रह गये थे। दिक्कत ये थे कि ट्रेन ने दिल्ली से ही चलना था और इसलिए उसके लेट चलने की उम्मीद बहुत कम थी।

हम तुरन्त प्लेटफार्म पे उतरे और ऑटो ढूँढने लगे। ऑटो वाले से पुछा तो उसने १०० कहा। योगी भाई ने कहा मेट्रो से जाना ठीक रहेगा लेकिन मेट्रो के साथ कई दिक्कते हो सकती थीं। अन्दर जाने में वक्त लग सकता था। क्या पता मेट्रो कितनी देर में आती क्योंकि रात के साढ़े ग्यारह बजने वाले थे। हमे पैसे से कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन योगी भाई बिना रुके आगे जा रहे थे। हम उन्हें बोलते रहे कि पैसे का कोई चक्कर नहीं है जितनी जल्दी ऑटो लेंगे उतना सही होगा। लेकिन शायद उन पर तो कोई और फितूर सवार था। हम उनको रुकने को कहते रहे लेकिन वो बढ़ते रहे। थोडा खीज भी उठने लगी थी।

ऐसे ही मैं उनके पीछे चलता रहा। अल्मास भाई भी पीछे पीछे आ रहे थे और योगी भाई को रुकने के लिए कह रहे थे। लेकिन योगी भाई पे किसी बात का फर्क नहीं पड़ रहा था।

मैंने देखा अल्मास भाई एक व्यक्ति से औटो के विषय में पूछ रहे हैं तो मैं भी उधर गया। उसने कहा कि वो बीस मिनट में हमे पहुंचा देगा और १२० लेगा। लेकिन हमारे पास कहाँ बीस मिनट थे। हमारे पास तो दस मिनट थे जिसका एक एक मिनट कीमती था। तो ऑटो वाले ने कहा कि पैदल तो 10 मिनट में पहुँचने से रहे लेकिन हमने उसकी बात को नज़रअंदाज कर दिया। अब मुझे यकीन हो गया था कि योगी भाई के मस्तिष्क में कोई प्लान चल रहा है और क्योंकि वो इस मामले में अनुभवी हैं तो उनके हिसाब से चलना ही बेहतर है। मैं उनके पीछे भागा और साथ में अल्मास भाई भी आये।

हम मेट्रो में दाखिल हुए और किस्मत से वो खाली था इसलिए हमे कोई दिक्कत नहीं हुई। हमने एंट्री करी और प्लेटफार्म की तरफ भागे। मैं भागते हुए आगे निकल गया था और  पीछे पीछे योगी भाई और अल्मास भाई भी आ रहे थे।

जैसे ही वो दोनों प्लेटफार्म में दाखिल हुए कि मेट्रो आ गयी और हम उसके अन्दर दाखिल हुए। अभी भी दस मिनट के करीब थे। मेट्रो अपने गंतव्य स्थान की तरफ बढती जा रही थी लेकिन मुझे लग रहा था जैसे वो रेंग रही हो। बीच में एक स्टेशन आना था और मैंने सोचा कि मेट्रो उधर न रुके तो कितना अच्छा हो। लेकिन मेट्रो तो अपने हिसाब से चलनी थी और वो चल रही थी।  फिर चांदनी चौक स्टेशन आया और हम उतरे। मैंने एस्क्लाटर की जगह सीढ़ियों से चढ़ने की सोची क्योंकि भागने में आसानी होनी थी। मैं अब भाग रहा था क्योंकि मुझे पता था कि इधर से एग्जिट करने पर एक सुरंग जैसी जगह भी आती है और फिर जाकर स्टेशन परिसर में पहुंचेंगे। मैं अक्सर इधर से हिंदी के उपन्यास लेने आता हूँ और बुक स्टाल रेलवे स्टेशन के बाहर ही है। यानी मुझे दूरी का अंदाजा था । योगी भाई भी पीछे पीछे भाग रहे थे और अल्मास भाई उनके पीछे थे।

भागते भागते मेट्रो से बाहर निकले और स्टेशन परिसर में सामान चेक करवा कर अन्दर दाखिल हुआ। अन्दर जाते हुए मैं एक बार योगी भाई को मुड़कर देखा तो उन्होंने अन्दर जाने को प्रोत्साहित किया। अल्मास भाई किधर भी नहीं दिख रहे थे। लेकिन अभी ये सब सोचने का वक्त नहीं था। अभी तो बस ट्रेन को किसी तरह पकड़ना था। अगर कोई रह जाता तो चैन खींची जा सकती थी या कुछ भी किया जा सकता था। क्या किया जा सकता था ? ये मेरे अनुभवहीन दिमाग में नहीं आ रहा था लेकिन वो सोचने का वक्त भी किसके पास था ?

तेजी से चल रही धड़कनों और फूलती साँसों के साथ हमे पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पे एंट्री मारी और अब ओवर ब्रिज की तरफ बढे। योगी भाई भी पीछे पीछे आ रहे थे और अल्मास भाई अभी भी नदारद दिख रहे थे। हमे ब्रह्मपुत्रा मेल का प्लेटफार्म पता करना था और मैं ओवरब्रिज की सीढियां चढ़ता हुआ सोच  ही रहा था कि ऐसा कैसे होगा कि आकाशवाणी हुई :

‘ब्रह्मपुत्रा मेल प्लेटफार्म नंबर १६ से जाने के लिए तैयार है।’

इस आकाशवाणी को सुनकर मैंने ओवर ब्रिज की तरफ देखा और आखिरी रेस के लिए कमर कसी। मैं अब प्लेटफार्म की तरफ दौड़ने लगा। दौड़ते हुए गर्दन घुमाई तो योगी भाई दिखाई दिए और मैं प्लेटफार्म का नंबर चिल्लाया। वो भी भाग ही रहे थे। उन्होंने गर्दन हिलाकर दर्शाया कि उन्होंने सुन लिया है।  अल्मास भाई का कोई पता नहीं चल रहा था। लेकिन इस बारे में सोचने का वक्त नहीं था। अब तो केवल एक ही चीज मन में थी कि किसी तरह ट्रेन के चलने से पहले प्लेटफार्म तक पहुंचना।  भागते भागते किसी तरह प्लेटफार्म में पहुंचे तो राहत हुई क्योंकि ट्रेन अभी चलनी शुरू नहीं हुई थी। योगी भाई भी कुछ देर में पहुँच गये।  अल्मास भाई अभी भी दिखाई नहीं दे रहे थे लेकिन उम्मीद थी कि वो पीछे ही होंगे।  अब हमे अपना डिब्बा  एस4  तलाशना था। हम अपना डिब्बा तलाश ही कर रहे थे कि ऊपर ओवरब्रिज पे हमारी नज़र पड़ी और एक पीला कुर्ता लहलहराता सा दिखा। वो अपने अल्मास भाई थी। अब हम पूरी तरह निश्चिंत थे कि सब के सब ट्रेन पकड़ ही लेंगे। योगी भाई ने फोन करके उन्हें इतेल्ला भी कर दी थी कि कौन सा डिब्बा है। हमे अपना डिब्बा मिला और हमने उसपे कदम रखा ही था कि ट्रेन हिलने डुलने लग गयी। हम सही वक्त पर पहुंचे थे। हम खड़े ही थे कि अल्मास भाई ने भी एंट्री ली। और तभी ट्रेन चलने लगी। हमने राहत की साँस ली। आख़िरकार मीट का आधिकारिक सफ़र शुरू हो चुका था। वरना इससे पहले तो मन के किसी कोने में ये डर था कि कहीं हम कानपुर ही नहीं पहुँच पाए। सबके चेहरों पर मुस्कुराहट थी। हमने कुछ देर मजाक किया कि अगर ट्रेन छूट जाती तो क्या करते लेकिन सबके चेहरों से दिख रहा था कि ट्रेन पकड़ने की ख़ुशी सबको थी। मैं इसलिए भी खुश था कि मेरी बेवकूफी के लिए गालियाँ नहीं पड़ी थी। सब भाग दौड़ में इतने व्यस्त थे कि गाली देनी की किसी को सुध नहीं थी। 😝😝😝😝😝 लेकिन हाँ इधर ये बताना जरूरी होता है कि हम ट्रेन केवल योगी भाई की सूझ बूझ के कारण ही -पकड़ पाए थे। अगर वो लगातार चलते न रहते और हमारे साथ ऑटो वालों से बात करने के लिए रुक गये होते तो ट्रेन ने पक्का छूट जाना था। योगी भाई शुक्रिया।

इसी भागा दौड़ी के दौरान मेरा फोन बजता जा रहा था लेकिन उस पर मैंने कोई ध्यान नहीं दिया था। फोन निकाल कर देखा तो पुनीत भाई का कॉल था। वो आयोजक थे और परेशान थे कि हमने ट्रेन पकड़ी भी है या नहीं। उन्हें वापस कॉल करना था लेकिन उससे पहले थोडा साँस लेनी थी और सीट का हिसाब करना था क्योंकि हमे अपनी सीट का तो पता था लेकिन उसमे लोग बाग़ बैठे हुए थे।

सबसे पहले तो हम थोड़े देर बैठे और अपनी साँसों को नार्मल किया। बैठते ही हम पसीने से तर बतर होने लगे।
कहाँ मैंने सोचा था कि सब कुछ आराम से हो जायेगा और कहाँ हमे मिलका सिंह की तरह भागना पड़ा था। डिब्बे में मौजूद हर शख्स की निगाह हमारे ऊपर ही थी। हमारी हालत ही ऐसी हो रखी थी। हमारी सीट सामने दिख रही थी। उनपर कुछ लोग भी विराजमान थे। उन्हें उठने के लिए कहा गया, थोड़ी बहसबाजी हुई लेकिन वो उठ गये। ऐसे में ही पुनीत भाई का फोन आया। पहले तो प्लान बना कि उनके साथ मज़ाक किया जायेगा कि हमारी ट्रेन छूट गयी। ऐसे बात थोड़ी देर हमने की लेकिन जब मेरे पास फोन आया तो मुझे उनकी आवाज में परेशानी का पता लग गया था। उन्होंने कहा कि फोन क्यों नहीं उठाया। मुझे उन्हें और परेशान करना ठीक नहीं लगा और कहा कि भागते दौड़ते ही सही लेकिन हमने ट्रेन पकड़ ली थी और ट्रेन अब निकल चुकी थी। उन्होंने कहा कि सुबह कितने बजे तक पहुंचेगी। उसकेविषय में मैंने बताया और उन्होंने कहा कि सुबह वो हमे उधर मिलेंगे। उन्होंने फोटो भेजने के लिए कहा तो मैंने वो भी भेज दिया था।

ट्रेन के लिए भाग दौड़ करने के बाद आराम फरमाते अल्मास भाई। यही फोटो मैंने भेजा भी था।

फिर हमने चेंज किया। और वापस थोड़ी देर सीट में बैठे साँस ली। थोडा पानी का इतंजाम किया और प्यास बुझाई। लेकिन अभी एक दिक्कत थी। अल्मास भाई की सीट हमारे से दूर थी। वो चाह रहे थे कि उनकी उस सीट को जो हमारे नज़दीक ही मौजूद अप्पर बर्थ से बदलवा दिया जाए। उन्होंने पता किया कि अप्पर बर्थ किसकी है और उन भाई साहब से बातचीत करके ये काम भी करवा दिया। अब अल्मास भाई के पास अप्पर बर्थ थी, मेरे पास लोअर बर्थ थी और योगी भाई के साथ साइड लोअर बर्थ थी। हम अपने अपने सीट पर बैठ गये। अब भाग दौड़ ख़त्म हो चुकी थी। रात का खाना तो खा ही नहीं पाए थे लेकिन इतने भाग दौड़ से हुए एक्साइटमेंट में भूख भी कहीं दुबक चुकी थी। जब स्टेशन के लिए निकल रहा था तो सोचा था कि काफी फोटो खींचूंगा लेकिन भाग दौड़ करने के बाद अब वो करने का मन भी नहीं था।  मैं अपनी कमर को लेकर थोड़ा चिंतित भी था। चोट लगने के बाद ये पहली बार इतना भागा था और ऊपर से वजन के साथ। डर था कि कहीं सुबह तक कमर में दर्द न बढ़ जाये।  इसलिए सीट पे जाते ही पसर गया।

कानपुर ज्यादा से ज्यादा सुबह सात बजे के कारीब हमने पहुँच जाना था। अभी बारह से ऊपर वक्त हो चुका था। मुझे उम्मीद थी कि अब तो बस सोना ही है और कानपुर में नींद खुलेगी। जाने कैसे मीट होगी? कानपुर में घूमने लायक क्या क्या होगा? ग्रुप में जब ये बातें बताई जा रही थी तो ऑफिस  के काम के चक्कर में मैं उन पर ध्यान नहीं दे पाया था। लेकिन ये एक तरीके से अच्छा ही था। ऐसे ही मीट के विषय में सोचते हुए जाने कब मेरी आँख लग गयी मुझे पता ही नहीं चला।

क्रमशः

कानपुर मीट की कड़ियाँ :
कानपुर मीट #१:शुक्रवार – स्टेशन रे स्टेशन बहुते कंफ्यूज़न
कानपुर मीट #२: आ गये भैया कानपुर नगरीया
कानपुर मीट #3: होटल में पदार्पण, एसएमपियंस से भेंट और ब्रह्मावर्त घाट
कानपूर मीट #4
कानपुर मीट # 5 : शाम की महफ़िल

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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19 Comments on “कानपुर मीट #१:शुक्रवार – स्टेशन रे स्टेशन बहुते कंफ्यूज़न”

  1. दोस्तों के साथ बेफिक्र घुमक्कड़ी का अपना अलग ही मजा है और आप इसका लुत्फ़ भरपूर उठा रहे हो

  2. जी सही कहा आपने। दोस्तों के साथ घूमने का भी अपना आनन्द है। वो बेफिक्र होकर घूमना, एक दूसरे की टाँग खींचना और साथ में हँसी ठट्ठा। मज़ा आ जाता है।

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