दिलवाड़ा मंदिर समूह देखने के बाद दाल बाटी की पार्टी भी हो गयी। माउंट आबू में हमारा सफ़र अब खत्म हो चुका था।(इस विषय में पढने के लिए इधर क्लिक करें। )
अब हमारी अगली मंजिल होटल भाग्यलक्ष्मी थी। इधर नवल जी का रूम था। उनकी उदयपुर से फ्लाइट अगले दिन की थी इसलिए आज वो इधर रुकने वाले थे। हम इधर कुछ वक्त बिताना चाहते थे। इधर हमे एक और संपियन और उभरते लेखक अमित श्रीवास्तव् जी मिलने आने वाले थे। उनका उपन्यास फरेब जल्द ही आने वाला है। वो नज़दीक में रहते थे और बाकी लोग उनसे पहले ही मिल चुके थे। अब चूँकि हमारी वापसी थी तो फिर मिलने का प्रोग्राम था।
हम गाड़ी से निकले तो कुलदीप भाई ने बोला उनकी थोड़ी तबियत सी ख़राब हो रही है। ये दिन भर गर्मी में घूमने के बाद एकदम से पूल में डुबकी लगाने का नतीजा था। लेकिन अब क्या कर सकते थे ? एक ही काम था कि जब तक भाग्यलक्ष्मी पहुँचते तब तक वो आराम कर लेते। यही उन्होंने किया भी।
हम होटल भाग्यलक्ष्मी पहुँचे। हमने जो गाड़ी बुक की थी उनका काम हमे यहाँ तक छोड़ना था। इधर आकर हम लोग बैठ गये और बात चीत और चाय का दौर चला। कुछ चर्चा पॉलिटिक्स और कुछ ऐसे ही चलती रही। पॉलिटिक्स के ऊपर बात करते करते समूह दो धडो में बंट गया। चर्चा गर्मागर्म हो रही थी और मज़ा आ रहा था। मैंने थोड़ी देर चर्चा पे ध्यान दिया फिर मुझे होटल के सामने पहाड़ी पर एक मंदिर नुमा जगह दिखी। मैंने राकेश भाई से उधर चलने के लिए कहा लेकिन अब वो भी थक चुके थे। उन्होंने अपनी असमर्थता जताई। मैं भी इतना तरो ताज़ा महसूस नहीं कर रहा था इसलिए मैंने भी उधर जाने का विचार त्याग दिया। आज के लिए वैसे भी काफी घुमक्कड़ी हो गयी थी। फिर अभी हमारे सामने वापस जाने के का भी सवाल खड़ा था। हम लोगों की टिकेट कन्फर्म नहीं हुई थी।अभी कुलदीप भाई, योगी भाई और मेरे बीच इसको लेकर मंत्रणा हो रही थी। हमे पता चला कि नज़दीक ही बस स्टैंड है और उधर जाकर जयपुर जाने की बस का पता किया जा सकता है। जयपुर से दिल्ली तक आसानी से जाया जा सकता है। योगी भाई ने पहले मुझे जाने को कहा लेकिन ऐसी बातचीत का मुझे इतना अनुभव नहीं है। मैंने उनसे कहा तो उन्होंने खुद जाने के लिए हामी भर दी। फिर बस की बात चीत करने के लिए योगी भाई और राकेश भाई गये थे। वो वापस आये तो उन्होंने बताया कि बस का प्रोग्राम कैंसिल करना होगा। क्योंकि एक तो किराया अत्यधिक था और ऊपर से सफ़र भी तकलीफदेह होता। पहले बस से जयपुर जाओ और फिर दिल्ली का कुछ पकड़ो। इसी दौरान हमारे साथ एक और साथी हो गये थे। ठाकुर महेश जी की टिकेट भी कैंसिल हो गयी थी। अब हम वापस जाने वाले छः थे। हसन अल्मास भाई, दीपक भाई, कुल्दीप भाई, योगी भाई, ठाकुर महेश जी और मैं। इनमे से खाली योगी भाई की ही टिकेट कन्फर्म हो पायी थी। अब प्लान ये था कि स्टेशन पहुंचेंगे और जो होगा देख लेंगे। फिर दुबारा चाय का दौर चला। कुछ लोग नीचे चाय पी रहे थे और कुछ लोग ऊपर नवल भाई के रूम में थे। उधर फोन वगेरह चार्ज करने की व्यवस्था थी।
इतने में अमित भाई भी आ गये थे। उनसे मुलाक़ात हुई। उनसे ऊपर दिखने वाली जगह के विषय में जानना चाहा तो उन्होंने बताया कि वो पिकनिक स्पॉट सा बन गया है। कई लोग उधर जाते हैं और पार्टी वगेरह भी उधर होती रहती थी। इसके बाद फोटोग्राफी का सेशन हुआ।
फोटो सैंडी भाई ने ली थी और खुद को स्लेटी करने का आईडिया उनका ही है। |
एक सेल्फी तो बनती थी। शिव भाई ने ये कमी पूरी कर दी। |
इसके बाद विदाई कार्यक्रम चालू हुआ। पहले शिव भाई , विद्याधर भाई और उनके साथ आये लोग विदा हुए। इसके थोड़े देर बाद संदीप भाई और राकेश भाई भी विदा हो गये। उन्होंने बाइक में जाना था। संदीप भाई को मुंबई जाना था तो उनका सफर हेक्टिक होने वाला था। सबने उन्हें आराम से बाइक चलाने की हिदायत दी। ये भी बोला गया कि ज्यादा नींद आये तो ढाबे में सो लेना। संदीप भाई एक अनुभवी घुमक्कड़ हैं। उन्हें ये बातें तो पता होंगी ही। खैर, फिर थोड़ी देर में वो भी चले गये।
अब हम कुछ लोग ही बचे थे। जिनमे गुरूजी, जीपी सर, अमीर सिंह जी, वीर नारायण जी,पुनीत जी,संदीप अग्रवाल जी और हम छः जिन्होंने साथ जाना था। अमित जी थोड़ी देर के कहीं चले गये थे लेकिन वापस आये तो साथ में पकोड़ी लेकर आये। हमने थोडा थोडा खाया और फिर कुछ पकोड़ीयाँ नवल जी के रूम में भिजवाने को कहा। अमित भाई को उनसे बात करनी थी तो वो उधर लेकर चले गये। थोड़े देर ऐसे ही गप्पों का दौर चला। अब बाकियों की ट्रेन का वक्त हो गया था। हम काफी लोग थे तो निर्णय ये हुआ कि एक ऑटो वाले भाई गुरु जी और अन्य लोगों को लेकर जायेंगे और फिर हमे लेने वापस आयेंगे। हमारे ट्रेन में तो वक्त था। गुरु जी और अन्य लोगों की ट्रेन जाने वाली थी। इसलिए पहले चक्कर में गुरूजी, जीपी जी, अमीर सिंह जी, वीर नारायण जी,संदीप अग्रवाल जी और अल्मास भाई निकल लिए। मैं उसके बाद नवल जी के रूम के तरफ बढ़ चला। नीचे कुछ लोग सामान के पास बैठे हए थे। रूम में माहौल जमा हुआ था। ऐसे में सामान बाहर रखना उचित नहीं था तो मैंने अपना फोन चार्ज पे लगाया और नीचे से सामान ले आया। नीचे बैठे लोगों को भी ऊपर आने को कह दिया। मैं वापस आया तो बाकियों का खाने का प्लान बन चुका था। उन्होंने मुझे खाने के लिए पूछा तो मैंने मना कर दिया। पहले ही बहुत हो गया था और अब कुछ और खाने की उम्मीद नहीं थी। पुनीत भाई की ट्रेन का वक्त भी नज़दीक आ रहा था तो उन्हें यही बोला कि जल्दी जल्दी निपटा लो। लेकिन खाना आने में देर हो रही थी। होटल वाले से बात की तो पता चला और देर होगी तो ये निर्णय हुआ कि खाना रूम में लाने की बजाय नीचे बने रेस्तरां में ही मंगवाया जाए। यही किया गया और हम नीचे पहुंचे। उधर जब तक खाना आता तब तक ऑटो वाले के विषय में पूछा। अमित भाई ने पता कि तो पता लगा कि वो आ रहा है। इतने में खाना भी खाया गया। अब सब जल्दी जल्दी हो रहा था। जल्दबाजी में खाने का आर्डर जयादा हो गया था तो उसमें से कुछ नवल जी से पूछकर ऊपर उनके रूम में भिजवाया और कुछ बाकी लोगों ने खाया। फिर खाना पीना निपटाकर हमने अपना सामान लिया और ऑटो का इन्तजार करने लगे।
ऑटो वाला आया और उसमें सामान रखा गया और हम उसमे एडजस्ट हो गये। हमे जल्द से जल्द पहुंचना था। पुनीत भाई की ट्रेन को आने में दस पंद्रह मिनट ही रह गये थे। अब ऑटो स्टेशन की तरफ बढ़ चला था। जैसे जैसे घड़ी निर्धारित वक्त की और बढ़ रही थी वैसे वैसे ऑटो की गति हमें कम होती लग रही थी। क्या पता हम वक्त पे स्टेशन पहुँच पाते या नही ? हमारा तो खैर कोई नुक्सान नहीं होता लेकिन पुनीत भाई की ट्रेन तो कन्फर्म थी। ऐसे में हमारा वक्त पर पहुँचना जरूरी था। ऑटो की गति को देखकर तो लग रहा था कि वक्त के साथ हो रही ये रेस हम हार जायेंगे। लेकिन ऑटो वाला भाई अनुभवी थे। उन्होने बोला था वक्त पर पहुंचा देंगे और उन्होंने हमे गाड़ी के निकलने के वक्त से पांच मिनट पहले ही स्टेशन पहुंचा दिया। हम उतरे तो पुनीत भाई किराया देने के लिये पर्स निकालने लगे। हमने उनसे जल्द से जल्द अंदर जाने को बोला और कहा किराया हम दे देंगे। वो अन्दर की तरफ भागे। उनके साथ योगी भाई भी थे। हमने किराया दिया और अन्दर की ओर बढ़ गये। तब तक पुनीत भाई और योगी भाई उस प्लेटफार्म पे जा चुके थे जहाँ से उनकी ट्रेन मिलनी थी। हमारी ट्रेन (जिसका की टिकेट कैंसिल हो चुका था ) जिधर लगनी थी उधर उधर से सामने ही वो वाला प्लेटफार्म था। इसके इलावा गुरुजी और बाकी लोगों वाली ट्रेन अभी भी लगी हुई थी। जब वो ट्रेन निकलने लगी तो हमने खिडकियों से उन्हें देखने की कोशिश की लेकिन उसमे सफलता नहीं मिली। इतने में उनकी ट्रेन चलने लगी। अब हमें अपना जुगाड़ करना था।
हमे उधर अल्मास भाई भी मिल गए थे। वो हमसे पहले आ गए थे। हमने आपस से बात की कि क्या किया जाए। मैं रेल यात्रा का अनुभवी नहीं हूँ लेकिन बाकि सब जानते थे क्या हो सकता था ? प्लान ये था कि हम जनरल का टिकट लेंगे और फिर स्लीपर पर चढ़कर पर्ची कटवाएंगे और साथ में टी टी से बात करके सीट का जुगाड़ करने की कोशिश करेंगे। अब हमने टिकट लेने थे। इधर बात ये आयी की टिकट कैसे लिए जाएँ। थोड़ा कंफ्यूजन था की कहीं पाँचों का टिकट एक में ही न मिल जाये। ऐसे में पांच लोगों को एक साथ देखकर टीटी सीट के जुगाड़ में आना कानी कर सकता था। इसलिए यही निर्णय लिया की सब अपना अपना टिकट लेंगे। हमने टिकट लिया और हम वापस आये। मेरी नज़रें उधर किसी बुक स्टाल को ढूँढ रही थी लेकिन अफ़सोस ऐसा कुछ नहीं दिखा। वरना जैसे उदयपुर में रीमा भारती के तीन उपन्यासों को लिया था ऐसे ही कुछ रोचक दिखता तो खरीद लेता। लेकिन फिर हम एक जगह सामान रख कर बैठ गये और गप्पे मारने लगे।
ऐसे ही बातें चल रहीं थीं कि पुनीत जी का फोन आया। उन्होंने बताया कि योगी भाई कि तबियत ठीक नहीं थी। हम सोच में पड़ गए कि अचानक ये क्या हुआ ? उनके अनुसार योगी भाई के पेट में दर्द हो रहा था। हम उनके पास जा रहे थे कि ठाकुर महेश जी ने अपनी दवाई की पोटली से कुछ गोलियाँ निकाली और योगी भाई को देने के लिए कहा। हमने महेश जी को सामान के पास ही रहने के लिए कहा और ओवर ब्रिज को को क्रॉस करके पुनीत भाई के पास गए। योगी भाई थोड़ा आगे के साइड ही विराजमान थे।हम उधर पहुंचे और उन्हें पुदीन हरा की गोली दी और पानी दिया। उन्होंने वो लिया। उन्हें आराम पहुँचा। अब हम लोग पुनीत भाई की ट्रैन का इंतजार करने लगे। कुछ ही देर में उनकी ट्रैन आ गयी। हमने उन्हें विदा किया और वापस ठाकुर जी के पास गए।
अब हमे अपनी ट्रैन का इंतजार था। हमने इसी दौरान ये भी प्लान बना लिया था कि ट्रेन आते ही हम ये देख लेंगे कि हमें कौन सी सीट मिल सकती थीं। हमे एक आईडिया ये भी मिला था कि सीट्स देखें और ऐसे यात्रिओं को देखें जो दूर के स्टेशन से चढ़ने वाले थे या जल्दी के स्टेशन पे उतरने वाले थे। ऐसा होता तो हमे सोने लायक जगह तो कुछ देर के लिए मिल ही जाती। इसके इलावा ये भी प्लान था टी टी से बात करेंगे। ऐसे ही वक्त बीता और ट्रैन भी आ गयी। टी टी से बात करने पर उन्होंने साफ़ मना कर दिया कि कोई सीट नहीं मिल सकती। खैर, अब जाना तो था ही हम उस डिब्बे में चढ़ गए जिसमे की योगी भाई की सीट थी। प्लान ये था की हम लोग सीट का जुगाड़ करेंगे और जो सीट कन्फर्म है उसमे ठाकुर जी को स्थापित कर दिया जायेगा। ऐसे ही हम चढ़ गए और गाडी चलना शुरू हो गयी।
योगी भाई की सीट जिस साइड अप्पर बर्थ पे थी उसके नीचे वाली सीट आरएएफ वालों के लिए आरक्षित थी। हम दरवाजे के सामने जम गए।उधर एक व्यक्ति पहले से ही खड़ा था। हमने एक चादर जमींन पे बिछाई और उधर ही बिछ गए। जब हम बैठ रहे थे तो आर पी ऍफ़ के जवान न कहा कि आप कहीं और बैठ जाओ क्योंकि उन्हें कुछ कुछ देर में दरवाजा खोलना पड़ेगा और इससे हमे परेशानी होगी। हमने उनसे कहा जब ऐसी बात होगी तो उठ जायेंगे। इसके बाद हम बकैती करने लगे। ऐसे जाने का मेरा ये पहला अनुभव था और मैं बहुत खुश और उत्साहित था।
थोड़ी देर में जो बगल में खड़ा लड़का था उसने हमे अपने बैग का ध्यान रखने को बोला और कहीं चले गया। इसके बाद थोड़ी देर में टीटी साहब आ गए तो हमने अपनी अपनी पर्ची कटवाई और बैठ गए। अभी सफर चालु हुए आधा एक घंटा ही हुआ होगा की बारिश आने लगी। जहाँ हम बैठे थे वो गेट के नज़दीक और उधर से पानी भी टपक रहा था। मैं वैसे भी थका हुआ था। सुबह सुबह लम्बी ट्रेक जो की थी। इसके इलावा एक और बात मेरे दिमाग में खटक रही थी। जो बंदा मुझे अपना बैग देखने का बोलकर गया था वो काफी देर से नदारद था। जब हम चढ़े थे तो हमे लगा था कि वो हमारे जैसे ही जेनेरल टिकट धारक था और टीटी से बचने के लिए ही रफू चक्कर हुआ था। लेकिन उसको गए काफी वक्त हो चुका था।
अब मेरे दिमाग में टीवी में दिखने वाले विज्ञापन घूमने लगे थे। कोई भी लावारिस वस्तु बम हो सकती है। मैं कभी पास वाले आरएफ वालों को देखता और कभी बैग को देखता। मेरे दिमाग कल्पना की उड़ान भरने लगा। मन में चित्र उभरने लगे कि कैसे ये बम फटेगा और हम क्योंकि नज़दीक हैं हमारे परखच्चे उड़ जायेंगे। शायद ये ज्यादा उपन्यास पढ़ने का नतीजा भी है। मैंने कुलदीप भाई को अपने मन में उपजी शंका से अवगत कराया। पहले तो उन्होंने इस बात को हँसी में टालना चाहा लेकिन फिर जिद करने पर हमने बात करने की सोची। तभी उधर से टीटी भी गुजरे। वो हमे पहचान ही गए थे क्योंकि हमने उनसे पहले प्लेटफार्म बात की थी और फिर हमने पर्ची कटाई थी। हमने उनसे बैग के बारे में बोला तो उन्होंने भी कहा कि कपडे ही होंगे। हमने कहा चेक कर लीजिये हमे संतुष्टि हो जाएगी। उन्होंने आरपीऍफ़ वाले भाई से कहा जिन्होंने चैन वगैरह खोलकर देखना चालू किया। ऐसे में मेरे मन में और विचार आने लगे। कभी मन में आता कि सचमुच ही उस बैग में बम मिलेगा और हमे हमारी मुस्तैदी के लिए इनाम मिलेगा। या कभी मन में आता की शायद ड्रग्स मिले और हमे पूछताछ के लिए हिरासत में ले लिए जाये। ऐसे ही रोमांचक कथानक मेरा मन बन रहे था। लेकिन ये सब शेख चिल्ली के स्वप्न ही थे। बैग में कपडे ही थे। फिर हमने उन्हें बैग को अपने पास रखने के लिए बोला। अगर वो बंदा आता तो वो उनसे बैग ले लेता। वो राजी हो गए। वैसे यहाँ ये बात आश्चर्य वाली है कि जब तक हम उधर बैठे थे तब तक वो बंदा वापस नहीं आया था।
जनरल वाले स्लीपर में। फोटो में दीपक भाई,अल्मास भाई और मैं। फोटो कुल्दीप भाई ने खींची |
हमको भिगोने को आतुर पानी हमारी ओर बढ़ता हुआ |
खैर,अब हम मस्ती कर रहे थे। सीट का कोई जुगाड़ नहीं हुआ था लेकिन ये पता चला था कि ये गाडी जयपुर तक खाली हो जाती है जहाँ से सीट मिलने की संभावना थी। ऐसे ही मस्ती चल रही थी कि उधर से एक आरपीएफ वाले भाई से बात होने लगी। उनसे भी हमने सीट के लिए बोला तो उन्होंने भी असमर्थता जताई। हमने कहा ५०० रूपये में एक सीट नहीं हो सकती। वो हँसने लगे क्योंकि हमने ये बात हँसते हँसते ही कही थी। हंसी हंसी में ये भी बोले कि आज तो ढाई हज़ार भी दोगे तो कुछ न मिलेगा।
जब शुक्रवार को सफर के लिए निकला था तो ये नहीं सोचा था कि ऐसा कुछ अनुभव होगा। अब नींद भी आ रही थी। अल्मास भाई तो ठाकुर साहब को उनकी स्थापित जगह से हटाकर सोने के लिए बढ़ गए थे। ठाकुर साहब हमारे साथ आकर बैठ गए। उन्होंने बताया वो तो जगे हुए थे और उन्हें ट्रैन में नींद अक्सर कम ही आती है।
अब कुलदीप भाई और मैं आगे सीट देखने गए क्योंकि एक स्टेशन आने वाला था। हमे एक सीट मिल भी गयी लेकिन जैसे ही सीट पर चढ़ने लगे तो नीचे से एक बुजुर्ग ने कहा कि उनकी सीट है। अब बहस होना लाजमी था। कुलदीप भाई तो चढ़ ही गए थे सीट पर की उठाओ मुझे। बहस बढ़ने लगी लेकिन फिर उनके उम्र का लिहाज किया और उतर गए। हुआ ये था कि कायदे से वो लोग ज्यादा थी और उनकी सीट कम थी। उन्होंने स्टेशन में उतरने वाले भाई से अपनी सीट बदल दी थी। और खुद उस भाई की सीट पर दो दो सो रहे थे। अब जब उस भाई की सीट खाली हुई तो वो वापस आपने सीट पर जाने का सोचने लगे क्योंकि उस भाई की सीट पर तो वो पहले से ही काबिज थे। उनकी योजना सही थी जिसपे हम बट्टा लगाने जाने कहाँ से धमक गये थे।
वैसे भी हम थके हुए थे तो ही बहस हुयी थी। साधारण वक्त पर तो ऐसे होती ही नहीं। खैर, हम आगे बढ़ गए। हमारी किस्मत अच्छी थी कि एक ऐसी सीट मिल गयी जो आने वाले स्टेशन पे खाली हो रही थी। हमने उसे अधिकार में ले लिया और बैठ गए। तभी एक युवती अपनी माता जी के साथ आ गयीं और कहने लगी ये उनकी सीट है। हमने कहा ऐसा कैसे हो सकता है टिकट दिखाइए तो उन्होने कहा कि टी टी ने बोला। हमने कहा उन्हीं को लेकर आइये। हमे पता था क्या हुआ होगा। वो चली गयीं। कुछ देर बार टीटी साहब आये तो हमे पहचान गए और बिना कुछ बोले चले गए। उन्हें शायद दूसरी सीट दे दी होगी। कुलदीप भाई ने मुझे उधर बैठाया और बोला कि वो आते हैं आगे सीट देख कर।अगर कुछ मिला तो ठीक नहीं तो एक ही सीट में एडजस्ट होना पड़ेगा। लेकिन जैसे ही ट्रैन रुकी तो ऐसे भीड़ चढ़ी की सीट की उम्मीद बेकार हो गयी। थोड़े देर में कुलदीप भाई आये और उन्होंने इस बात की पुष्टि कर दी। अब क्या था अब तो इसी सीट पर एडजस्ट होना था। हम किसी तरह एडजस्ट हुए और कुछ ही देर में सो गए।
सुबह के वक्त गर्दन में दर्द हुआ तो नींद टूटी। मेरी गर्दन सीट से बाहर निकली हुई थी। कुलदीप भाई गहरी नींद में थे। मैं अपनी जगह से उठा और बाथरूम वगैरह गया। गेट खुला हुआ था तो उधर कुछ फोटो खींची। थोड़ी देर में उधर एक आर पी एफ वाले आये और उन्होंने गेट बंद करने के लिए कहा। ये पौने सात बजे का वक्त रहा होगा।
वापसी के दौरान ट्रेन से ली गयी एक तस्वीर |
वापसी के दौरान ट्रेन से ली गयी एक तस्वीर |
वापसी के दौरान ट्रेन से ली गयी एक तस्वीर |
उन्होंने गेट बंद किया और दीपक भाई लोगों को के पास चले गया। मुझे समझ नहीं आया कि सुबह के वक्त गेट बंद करने का औचित्य क्या था ? खैर, उधर भी दीपक भाई लोग उठ गए थे। अब गुडगाँव आने की देर थी। मुझे उतरकर ऑफिस जाना था। ट्रैन लेट थी तो ऑफिस में इस बाबाबत पहले ही बता दिया था कि लेट हो जाऊंगा। इसी दौरान सब आ गये थे। हमने चाय वगेरह भी पी ली थी। मैंने मुझसे बुरा कौन के कुछ पृष्ठ भी पढ़ लिए थे। गुडगाँव आने से पहले के ही कई स्टॉप्स से लोकल पब्लिक चढ़ने लगी थी। ऐसे में ज्यादातर यात्री उठ गए थे। मैं इस चीज से वाकिफ था क्योंकि जब मुंबई में रहता था तो सेंट्रल रेलवे वाले ज्यादातर लोग जो कल्याण रहते थे ऐसे ही एक्सप्रेस पकड़ना पसंद करते थे। वो लोकल से सफर करना इतना पसंद नहीं करते थे क्योंकि वो वक्त ज्यादा लेती थी और उसमे भीड़ भी काफी रहती थी। ठाकुर साहब आज शाम तक दिल्ली ही थे।गुरूजी के ऑफिस में मिलने का प्रोग्राम था। मैंने कहा कि ऐसा कुछ होता है तो मुझे बता दीजियेगा मैं भी आने की कोशिश करूंगा। कोशिश ही कह सकता था क्योंकि पता नहीं था ऑफिस से कब छूटूँ। फिर थोडा थकान भी थी ही।अब गुडगाँव का स्टेशन आया तो मैंने सबसे विदा ली और उतर गया। उधर से सीधे अपने रूम में गया। उधर पहुँचकर नहाया और ऑफिस के लिए निकला। अब सीधे ऑफिस जाना था।
एक यात्रा का अंत हुआ था लेकिन इसी यात्रा के दौरान ही कई और यात्राओं की योजना बन गयी थी। कौन सी यात्राएं थी? उसके विषय में तो जब वो यात्राएं होंगी तो बताऊँगा। अभी के लिए तो इतना कहूँगा कि इस यात्रा से काफी यादें मिली, कई बेहतरीन लोगों से रूबरू होने का मौका मिला और कई अनुभव मिले। कुछ अपने को जाना और कुछ दूसरों को जाना। यही जानना पहचानना तो यात्रा का मज़ा होता है, क्यों है न?
पुनाश्च : अमित भाई ने ये याद दिलाया कि होटल का नाम धनलक्ष्मी नहीं भाग्यलक्ष्मी था। उनका धन्यवाद। और अब मुझे बादाम की मात्रा बढ़ानी पड़ेगी या अगली बार जिस जगह रुकूँ उधर की फोटो ले लेनी पड़ेगी। 😜😜😜😜😜😜
इति
पूरी ट्रिप के लिंकस
माउंट आबू मीट #१: शुक्रवार का सफ़र
माउंट आबू मीट #२ : उदय पुर से होटल सवेरा तक
माउंट आबू #3 (शनिवार): नक्की झील, टोड रोक और बोटिंग
माउंट आबू #4: सनसेट पॉइंट, वैली वाक
माउंट आबू मीट #5: रात की महफ़िल
माउंट आबू मीट #6 : अचलेश्वर महादेव मंदिर और आस पास के पॉइंट्स
माउंट आबू #7:गुरुशिखर
माउंट आबू मीट #8: दिलवाड़ा के मंदिर, होटल में वापसी,दाल बाटी की पार्टी
माउंट आबू मीट #9: होटल भाग्यलक्ष्मी और वापसी के ट्रेन का सफ़र
वाह रेलवे से घुमक्कड़ी बढ़िया है
जी, प्रतीक भाई। रेलवे में घूमना अभी हाल फिलहाल में शुरू किया है। अभी और रेल यात्रा करने का मन है।कुछ सुझाव हो तो बताइये।
वाह विकास बेटा मजा आ गया बहुत बढ़िया लिखा यात्रा वृतांत मैंने सभी कड़ियाँ पढ़ीं हैं,बहुत अच्छा लिखते हो प्रैक्टिस जारी रखो और अन्य विषयों पर भी लिखो,बेटा इसलिए कहता हूं तुम्हें क्योंकि मेरे बेटे का भी नाम विकास है और वो तुम्हारे जैसा ही स्मार्ट है।
माऊंट आबू की शानदार यात्रा के बाद, यादगार रेल यात्रा,
कभी कभी रेल यात्रा नानी याद दिला देती है।
शानदार वर्णन बस होटल का नाम चेन्ज कर ले धनलक्ष्मी की जगह भाग्य लक्ष्मी वार्कई पूरा वर्णन शानदार है।
शुक्रिया अमित भाई। पता नहीं 'भाग्य' का 'धन' मेरे मन में कब हुआ। अच्छा हुआ आपने सुधार करवा दिया।
जी संदीप, भाई। एक बार मुंबई से पुणे जाने के लिए जनरल में चले गए थे। नानी परनानी सब याद आ गयीं थी उस वक्त।
शुक्रिया सर, जी। वैसे मेरे पिताजी का नाम भी महेश ही है। कितना खूबसूरत संयोग है ये। बाकी चीजों के ऊपर भी लिखता हूँ।ऊपर विविध और तकनीक टैब पे क्लिक कीजियेगा तो काफी डाटा मिलेगा।और भी लिखता रहूंगा बस आपका प्यार और आशीर्वाद चाहिए।
माऊंट आबू की शानदार यात्रा के बाद, यादगार रेल यात्रा