यात्रा 21 मई 2017,रविवार की हैअब हम दिलवाड़ा के जैन मंदिरों की तरफ जा रहे थे। हम सबसे पहले गुरुशिखर से निकले थे और इस बात का एहसास हमे काफी दूर जाकर हुआ। हमने एक लाल मंदिर के सामने गाड़ी रुकवाई और फिर बाकियों को फोन किया गया। ये एक अच्छा लैंडमार्क था जहाँ हम इन्तजार कर सकते थे। मैंने बाहर आकर इस मंदिर की फोटो खींची। इसके इलावा उधर एक साइनबोर्ड था जिसमे ट्रेवर्स टैंक लिखा था। शायद कोई ट्रेक हो सकती थी इसलिए मेरा ध्यान उधर गया। मैं उधर जाना तो चाहता था लेकिन समूह का कोई राज़ी नहीं होता तो इसलिए कुछ कहा नहीं। फिर थोड़ी देर में बाकियों से बात हो गयी तो पता चला कि वो ब्रह्म कुमारी का शान्ति केंद्र देखने लग गये थे। उन्होंने हमे आगे दिलवाडा के मंदिरों में जाने के लिए बोला और कहा कि वो उधर ही हमे मिलेंगे। हम अब अपने गंतव्य की ओर बढ़ चले।
सत्संग आश्रम लाल मंदिर |
ट्रेवर्स टैंक को जाता रास्ता |
हम दिलवाडा पहुँचे तो ड्राईवर साहब ने गाड़ी लगाई और हमसे कहा कि हम मंदिर देखकर आ जाए। वो हमारा उधर ही इन्तजार करेंगे। मंदिर में फोन ले जाने की अनुमति नहीं थी तो हमने अपने फोन गाड़ी में ही रख दिए।हम मंदिर की ओर बढ़ चले। मंदिर के प्रांगण में पहुँचे तो उधर लाइन लगी हुई थी। उधर जूते उतारने थे और नंगे पाँव अन्दर जाना था। उधर ड्रेस कोड भी था। एक रूल के अनुसार शॉर्ट्स में अन्दर जाना मना था। ये पढ़कर मुझे हँसी आ गयी। खैर, उनका मंदिर था वो इस बात के लिए स्वंतत्र थे कि उन्हें कैसे लोगों की आवाजाही उधर स्वीकार थी।
हमने अपने जूते उतारकर एक जगह रखे और लाइन में लग गये। क्योंकि मंदिर में बहुत श्रद्धालु आते हैं तो मंदिर में सब कुछ व्यवस्थित हो इसलिए एक छोटे समूह को ही एक बार में अन्दर भेजा जाता था। दो समूहों के जाने के बीच का वक्फा 15 मिनट का है। हम अपनी बारी आने का इन्तजार करने लगे। हमने इन मंदिर के शिल्पकला की काफी तारीफ सुनी थी और हम उसे देखने के लिए उत्सुक थे।
हमारी बारी आई। हमारे समूह को एक मार्गदर्शक दिया गया था जिनका काम हमे मंदिरों से परिचित करवाना था। उन गाइड ने हमे बताया कि यहाँ पाँच मंदिर थे। और वो एक एक करके हमे हर मंदिर को दिखवाने वाले थे।
हमारे गाइड ने हमे ये भी बताया कि हर टूर पन्द्रह मिनट का होता है और उसके बाद सैलानी इस बात के लिए स्वतन्त्र होते हैं कि वो मंदिर में रुकना चाहते हैं या बाहर जाना चाहते हैं लेकिन जब तक टूर चले तो सबको साथ रहना होता है। दूसरी बात उन्होंने ये बताई की इधर फर्श काफी गर्म होगा तो हम लोग एक सफ़ेद मार्बल की जो पट्टी बनी है उसी में चले। हम चलने लगे तो हमे एक मार्बल की पट्टी भी दिखी तो उसी में चलने लगे।
अब टूर शुरू हो चुका था और हमे मंदिरों के विषय में बताया जाने लगा। पहले हमे बताया गया कि कितने मंदिर और फिर एक एक करके उधर ले जाया गया। जैसे जैसे गाइड कुछ बताता जाता वैसे वैसे लोग बाग़ आपस में टिपण्णी करते रहते। जैसे मुझे याद आ रहा है जब गाइड भाई मंदिर की लागत बता रहा था तो एक खुराफाती बोला कि उस वक्त रूपये होते ही नहीं थे। फिर थोड़ी चर्चा इस बात पर चली कि जो लागत बताई जा रही है वो उस वक्त के हिसाब से है या उस वक्त की कीमत की वैल्यू अब क्या होगी उस हिसाब से है। मैं चुपचाप इस बहस का आनंद ले रहा था।
फिर जीपी जी ने भी कहा कि वो कीमत तो आज के हिसाब से ही बता रहे होंगे। मुझे भी यही लगता है।
इसके इलावा एक छोटा सा डिस्कशन अमीर सिंह जी के साथ भी हुआ। उन्होंने इन मंदिरों की भव्यता को एक अलग नज़रिए से देखा। मैं भी कुछ ऐसे ही देखता हूँ। उन्होंने कहा इन भव्य मंदिरों की लागत निकालने के लिए कितनों का शोषण हुआ होगा। मैंने कहा बहुत लोगों का। और ये मंदिर ही क्यों ये बड़े बड़े किले, इमारतें,भव्य धार्मिक जगहें(सभी धर्मों की) और अन्य चीजें अगर देखा जाए तो आम जनता के पैसे और खून पसीने से ही तो बनी है। बस नाम उसका हो जाता है जिसने पहले ये पैसा उस जनता से निकलवाया और इधर लगाया। लेकिन ये विमर्श लम्बा खिंच सकता था और इसके ऊपर आराम से चाय पे कपों के साथ बातचीत होनी चाहिए थी इसलिए हमने इस विमर्श को ज्यादा लम्बा न खींचते हुए विराम दे दिया और दुबारा मंदिर की भव्यता में खो गये।
हमे दो गाइड मिले थे। एक ने पहले दो मंदिर दिखलाये। फिर हमे ऊपर की तरफ भेज दिया गया जहाँ एक पुजारी जैसे एक जवान युवक थे जिन्होंने हमे बाकी के दो मंदिर दिखाए और उनके विषय में बताया। उन्होंने हमे बताया तो काफी कुछ था लेकिन अब मैं सारी बातें भूल चुका हूँ। उस वक्त मुझे अपने फोन की बड़ी याद आ रही थी। ऐसे वक्त पे मैं फोन का रिकॉर्डर एप्प चालू कर देता हूँ जिससे महत्वपूर्ण जानकारी छूटती नहीं है और बाद में वृत्तांत लिखने में भी आसानी होती है। अब सोचता हूँ उधर एक नोट बुक ले जानी चाहिए थी। लेकिन अब तो चिड़िया ने खेत चुग लिया तो क्या फायदा। जो जो याद है वही बता पाऊँगा।
जब हम वापस जाने को हुए तो इस युवक ने एक बढ़िया स्पीच भी थी जिसका सार ये था कि वो लोग फ्री में ये काम करते हैं और चूंकि मंदिर में कोई आने का टिकेट नहीं लगता तो उनका जीवन यापन सैलानियों के दी गयी दक्षिणा से होता है। तो ये हमारे ऊपर था कि हम उसे दक्षिणा देते या नहीं। मैंने तो दे दिया। बाकियों ने भी दिया।
अब आइये पहले मंदिर के विषय में बता दूँ। बाद में आगे बढ़ेंगे।
उधर मौजूद पाँच मंदिर निम्न हैं :
१. विमल वसहि
विमल वसहि दिलवाड़ा मंदिर समूह में से एक प्रमुख मंदिर है
– यह प्रथम तीर्थंकर को समर्पित है और सबसे प्राचीनतम मंदिर है
-इसका निर्माण १०३१ में गुजरात के राजा विमल शाह ने करवाया
-गाइड द्वारा बताया गया कि उस वक्त इसकी लागत १८ करोड़ ५३ लाख थी
– इस मंदिर के निर्माण में २७०० मजदूर लगे थे
२. लूण वसहि
– ये दूसरा प्रमुख मंदिर है जो की २२ वें तीर्थंकर नेमीनाथ को समर्पित है
-इसे १२३० में दो भाईयों -वास्तुपाल और तेजपाल ने बनाया था जो कि गुजरात के राजा वृधावल के यहाँ मंत्री थे
-इसका निर्माण उनके भाई की याद में किया गया था
-इसी मंदिर के पास एक कीर्ति स्तम्भ भी है।
३.श्री ऋषभ देव जी
– ये मंदिर पहले तीर्थंकर को समर्पित है
– इसमें आदिनाथ जी की १०८ मन की मूर्ती है
४.श्री पार्श्वनाथ जी
५. श्री महावीर स्वामी जी
इन मंदिरों की कारीगिरी मन को मोह लेने वाली थी। खासकर छत पर जो इन्होने मार्बल का फानूस बनाया था उसे देखकर आश्चर्य होता था। गाइड ने ये भी बताया था कि मजदूरों ने ऊपर देखते हुए ही इसका निर्माण किया था क्योंकि बनाकर ऊपर फिट करना मुश्किल था। ये सोचकर मन में उन कलाकारों के प्रति श्रद्धा का भाव अपने आप ही जाग जाता है।
इसके इलावा इधर देवरानी जेठानी के गोखले हैं। ये दो खिड़की नुमा स्ट्रक्चर है,एक देवरानी का और एक जेठानी का , जिसके इर्द गिर्द काफी अच्छी कारीगरी की है। कहते हैं जब ये मंदिर बन रहा था तो दोनों भाईयों से उनकी पत्नी से दरख्वास्त की कि उनकी याद में भी कुछ इस मंदिर में जोड़ा जाए। इसके बाद भाईयों ने गोखले बनाने की सोची। देवरानी और जेठानी में ठन गयी। अगर एक का अच्छा बनता तो दूसरा अपने लिए बना हुआ झरोखा तोड़ देती। ऐसे ही जब चलता रहा तो भाईयों ने निर्णय लिया कि दोनों के लिए एक ही तरीका का झरोखा बनेगा। बस गाइड ने जो हमे बताया वो ये कि आम लोग इन दोनों में फर्क नहीं कर पाते हैं लेकिन अगर ध्यान से देखो तो पता चलेगा कि देवरानी के झरोखे में कुछ मूर्तियाँ है जिनकी गर्दन थोड़ी झुकी है जो कि ये दर्शाता है कि वो जेठानी को सम्मान दे रही है। जब ये कहानी चल रही थी तो समूह में काफी हँसी ठट्ठा होने लगा। शायद आदमियों को भी अपने घरों के देवरानी जेठानी के झगड़े याद आ गये। और औरतों को अपना अक्स इसमें दिखने लगा। माहौल थोडा हँसी मज़ाक वाला हो गया था।
अब खाली एक मंदिर बचा हुआ था तो उसमें जाने से पहले थोड़ा आराम करने की सोची। तब तक बाकी लोग भी आ गये थे। उन्होंने हमे देखा और हमारी तरफ ही आ गये। उनका बाकी मंदिरों की तरफ जाने का विचार नहीं लग रहा था। हम साथ ही आखिरी मंदिर की तरफ बढे। यह मंदिर कारीगरों ने बनाया था। वो दस से बारह घंटे बाकी के मंदिरों में काम करते और जो खाने का वक्त होता उस में इस मंदिर में काम करते। इसमें इस्तेमाल किया गया सामान वो था जो बाकी के मंदिरों से बचता था या उधर के लिए उपयुक्त नहीं माना जाता था। ये भी खूबसूरती में कहीं भी पहले वाले मंदिरों से कम नहीं था।
हमने कुछ वक्त इधर बिताया और फिर मंदिर से बाहर आये। मेरा तो और घूमने का मन था लेकिन समूह में हो तो मेजोरिटी की ही चलती है। बाहर निकलते वक्त बस मन में एक ही विचार था कि काश इधर फोटो खींचने का प्रतिबन्ध नहीं होता तो मज़ा आ जाता। लेकिन अब किया क्या जा सकता है।
मंदिर से बाहर एक दूकान थी जो छोटी छोटी पुस्तिका बेच रही थी। मैंने उधर से माउंट आबू वाली पुस्तिका ली। फिर हमने जूते पहने और अपनी कार की ओर निकले। हमारे साथ नवल जी भी थे। वो आये तो दूसरे ग्रुप के साथ थे लेकिन अब हमारे साथ चलने लगे थे। वो बड़े दिलदार और हँस मुख प्रवृत्ति के आदमी हैं। हम होटल की तरफ चल दिए थे और उन्होंने पूरे रास्ते भर समा बाँध कर रखा।
हम कुछ ही देर में होटल पहुँच गये। क्योंकि हमारा होटल नज़दीक ही था। पांच किलोमीटर से भी कम रहा होगा।
हम होटल की लॉबी में बैठकर बाकी सबके आने का इंतजार करने लगे। जब हम दिलवाडा से निकल रह थे तो ये प्लान बना था कि हम दाल बाटी खाने जायेगे। जब सब आ गये तो इसी प्लान को अमलीजामा पहनाया जाने लगा। पहले सबने फ्रेशन अप होने की सोची। जब तक मैं फ्रेश होकर वापस आया तो बाकी लोग दाल बाटी के लिए निकल चुके थे। उधर कुलदीप भाई ही थे। फिर हम दोनों भी चल पड़े। उन्होंने राकेश भाई की बाइक को इस काम के लिए थामा। हमे इससे पहले ए टी एम भी जाना था। मुझे कुछ पैसे निकालने थे ताकि ट्रिप का अपना कंट्रीब्यूशन जाने से पहले दे दूँ और वापसी के खर्चे के लिए भी कुछ हो। कुलदीप भाई को भी इसी वास्ते पैसे चाहिये थे। हमने पहले एक ए टी एम खोजा और फिर पैसे निकाले। फिर बाइक पार्क की। रस्ते में हमे संदीप जी भी आते दिखे थे तो वो भी तब तक पार्किंग के जगह पे पहुँच गये थे। फिर हमने वो होटल खोजा जहाँ बाकी लोग दाल बाटी का लुत्फ़ उठा रहे थे। हम उधर पहुँचे और हमने भी भोजन किया।काफी मज़ा आया। दाल बाटी काफी लाजवाब थी और साथ में जो लड्डू थे वो तो आहा आहा थे। मैंने क्या सबने एक-एक और मंगवाया।
दाल बाटी का इंतजार करते हुए – ठाकुर महेश जी,जीपी जी ,अल्मास जी और अमीर जी। उनके इलावा ठीक सामने दीपक भाई, शिव भाई और विद्याधर भाई आपसे में मंत्रणा करते हुए। (फोटो ठाकुर महेश जी ने दी। उनका धन्यवाद ) |
मैं आया तो बाइक में था लेकिन कुलदीप भाई को कोई काम था और शायद संदीप अग्रवाल उनके साथ जाना चाहते थे तो वो लोग बाइक में निकल गए।मैं शिव भाई, विद्याधर भाई,राजीव सिंह जी, अमीर जी, गुरप्रीत जी और अन्य के साथ होटल की तरफ बढ़ गया। रास्ते के बीच में अमीर जी और गुरप्रीत जी फोटो खिंचवाने के लिए रुक गए और हम होटल की तरफ बढ़ गये। होटल की तरफ जाते हुए मुझे एक खूबसूरत सा गेट और मंदिर दिखा था जिसकी फोटो मैंने खींच ली थी।
राजीव सिंह जी (लाल टी शर्ट) और शिव भाई भी फोटो की शोभा बढ़ाते हुए |
जब हम होटल पहुंचे तो मैंने विद्याधर भाई से ट्रिप के के कंट्रीब्यूशन के विषय में पुछा और अपना हिस्सा दिया। कुलदीप भाई भी तब तक आ गए थे तो उन्होंने भी अपना हिस्सा दिया और फिर होटल की लॉबी की तरफ बढ़ गए। अब अगला मुकाम एक चार्जर का पोर्ट ढूँढना था। फोन की जान जाने को थी। किस्मत अच्छी थी पोर्ट मिल गया और फोन को चार्ज पे लगा दिया। कुछ देर में ही हमे इधर से जाना था लेकिन तब तक अगर थोडा भी फोन चार्ज हो जाता तो क्या बुरा था। वैसे भी मेरी ज़िन्दगी की फलसफा रहा है कि समथिंग इस फार बेटर देन नथिंग। अकसर हम कम है कम है सोचते रहते हैं और जो मिलता है उससे भी हाथ गंवा देते हैं। लेकिन मुझे ये बेवकूफाना लगता है। उदारहण के लिये कुछ लोग घूमने नहीं जाते क्योंकि उन्हें लम्बी छुट्टी नहीं मिलती लेकिन वो इसी चक्कर में वीकेंड भी बर्बाद कर देते हैं। या ट्रेक पे नहीं जाते क्योंकि लम्बी ट्रेक के लिए वक्त नहीं है। मेरा मानना है एक हफ्ते के लिए घूमने नहीं जा सकते तो क्या हुआ एक-दो दिन के लिए जाओ। अगर ३०-४० किलोमीटर की ट्रेक के लिए वक्त नहीं मिल पा रहा तो ६-७ किलोमीटर की करो। बातों का लब्बोलुबाब ये है कि मेक द बेस्ट आउट ऑफ़ व्हाट यू हैव गाॅट।
खैर, भावनाओं में बह गया था। 😜😜😜😜 वापिस सवेरा पैलेस की लॉबी में पहुँचते हैं। अभी हम गर्मी से आये थे और बैठे हुए थी कि कुलदीप भाई ने पूल में जाने का प्लान बनाया। मुझे तो जाना नहीं था लेकिन पुनीत भाई इसके लिए तैयार हो गए और वो दोनों पूल की तरफ निकल गए।अब तक काफी सारे लोग आ गए थे।अब हम निकलने को तैयार थे। हमने अपना सामान गाड़ियों में भरना शुरू किया । जब तक सामान गाड़ियों में सेट होता तब तक पूल वाले लोग भी वापस आ गये थे। अब हम होटल से निकलने को तैयार थे। सबने चेक किया कि कुछ रह तो नहीं गया है और सब गाड़ियों में बैठकर माउंट आबू से विदा लेकर चल दिए।
हम माउंट आबू से जा रहे थे लेकिन साथ में यादों का खजाना लेकर भी जा रहे थे।
क्रमशः
पूरी ट्रिप के लिंकस
माउंट आबू मीट #१: शुक्रवार का सफ़र
माउंट आबू मीट #२ : उदय पुर से होटल सवेरा तक
माउंट आबू #3 (शनिवार): नक्की झील, टोड रोक और बोटिंग
माउंट आबू #4: सनसेट पॉइंट, वैली वाक
माउंट आबू मीट #5: रात की महफ़िल
माउंट आबू मीट #6 : अचलेश्वर महादेव मंदिर और आस पास के पॉइंट्स
माउंट आबू #7:गुरुशिखर
माउंट आबू मीट #8: दिलवाड़ा के मंदिर, होटल में वापसी,दाल बाटी की पार्टी
माउंट आबू मीट #9: होटल भाग्यलक्ष्मी और वापसी के ट्रेन का सफ़र
बहुत ही बढ़िया चित्रात्मक विवरण। एक बात आपने बिलकुल सही कहा कि लम्बा नहीं तो छोटा ट्रिप तो बनता ही है. और कभी कभार कुछ २-४ छुट्टियों को मिलाकर भी एक यात्रा की जा सकती है।
भाई दिलवाड़ा के देराणी जेठानी के गोखले के लिये बहुत प्रसिद्ध है
सार्थक लेखन…..अंतरराष्ट्रीय हिन्दी ब्लॉग दिवस पर आपका योगदान सराहनीय है. हम आपका अभिनन्दन करते हैं. हिन्दी ब्लॉग जगत आबाद रहे. अनंत शुभकामनायें. नियमित लिखें. साधुवाद.. आज पोस्ट लिख टैग करे ब्लॉग को आबाद करने के लिए
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
माऊंट आबू पहुंचा कर ही मानोगे।
बहुत बढ़िया विवरण विकास जी । आपने हमारी आबू और दिलवाड़ा की यात्रा याद दिला दी । हमने भी लिखा है इस यात्रा पर …….
शुक्रिया, अभयानंद जी…
हिन्दी ब्लॉगिंग में आपका लेखन अपने चिन्ह छोड़ने में कामयाब है , आप लिख रहे हैं क्योंकि आपके पास भावनाएं और मजबूत अभिव्यक्ति है , इस आत्म अभिव्यक्ति से जो संतुष्टि मिलेगी वह सैकड़ों तालियों से अधिक होगी !
मानते हैं न ?
मंगलकामनाएं आपको !
#हिन्दी_ब्लॉगिंग
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
माउंट आबू एक दर्शनीय स्थल है। आपका यात्रा वृतांत काफी रोचक है।
ट्रेवर्स टेंक में एक छोटी सी झील है जिसमें मगरमच्छ पाये जाते हैं। यहाँ बने मंच से जंगल को आप अच्छी तरह से देखा जा सकता है।
देलवाडा में आपने जो ड्रेस कोड देखा वह पहले नहीं था, लेकिन कई बार अत्यंत छोटे कपङों में आने वाले युवक-युवतियों के कारण यह ड्रेस कोड लागु किया गया है। फिर भी इसमें एक हद तक स्वतंत्रता है।
देलवाडा के जैन मंदिरों की कला देखने योग्य है।
धन्यवाद।
माउंट आबू एक दर्शनीय स्थल है। आपका यात्रा वृतांत काफी रोचक है।
ट्रेवर्स टेंक में एक छोटी सी झील है जिसमें मगरमच्छ पाये जाते हैं। यहाँ बने मंच से जंगल को आप अच्छी तरह से देखा जा सकता है।
देलवाडा में आपने जो ड्रेस कोड देखा वह पहले नहीं था, लेकिन कई बार अत्यंत छोटे कपङों में आने वाले युवक-युवतियों के कारण यह ड्रेस कोड लागु किया गया है। फिर भी इसमें एक हद तक स्वतंत्रता है।
देलवाडा के जैन मंदिरों की कला देखने योग्य है।
धन्यवाद।