तुगलकाबाद किला और गयासुद्दीन तुग़लक़ का मकबरा



21 जनवरी 2017
कल ऑफिस में बैठा हुआ था तो सप्ताहंत में कहीं जाने की सोची। पहले गुरुग्राम(गुड़गाँव) से बाहर उत्तराखंड जाने की सोच रहा था लेकिन कुछ योजना बन नहीं पायी। पर चूँकि एक जगह रह रह कर बोरियत आ गयी थी और यायावरी के कीटाणु कुलबुलाने लगे थे तो सोचा इन्हें छोटी मोटी घूम घाम करके ही शांत कर दिया जाये। इसलिए ऑफिस में ही फैसला कर लिया कि दिल्ली के आस पास की कुछ जगहों में ही जाऊँगा। अंतरजाल में एक दो सर्च मारे और तुगलकाबाद किला का नाम सामने आया। ये नाम मैंने पहली बार सुना था तो इधर ही जाने का फैसला कर दिया। मैंने दिशा निर्देश नोट कर लिए और अब शनिवार सुबह होने का इन्तजार करने लगा। मैंने इधर अकेले ही जाना था। अब अकेले सफ़र की आदत बना रहा हूँ। पहले आस पास की जगहें होंगी और फिर ऐसी यात्राओं के दूर की जगहों का चुनाव करूँगा।

तुगलकाबाद किला


कहते हैं दिल्ली शहर आज के आधुनिक रूप में आने से पहले सात बार उजड़ी थी। इन्हें दिल्ली के सात शहर भी कहा जाता है। और हर शहर के अवशेष आपको दिल्ली में देखने को मिलेंगे। तुगलकाबाद इन्हीं शहरों में से तीसरा शहर है।

  • ये किला छः किलोमीटर के दायरे में फैला हुआ है
  • किले को गियासुद्दीन तुगलक, तुगलक वंश के संस्थापक  ने १३२१ में बनवाया था
  • किले के निर्माण की कहानी :कहते हैं ग़ाज़ी मलिक, जो कि खिलजी राजाओं का जागीरदार था, ने राजा के साथ चलते हुए उन्हें इस जगह पर किला बनाने की सलाह दी थी। उस वक्त राजा ने मजाक में कहां था कि जब वो राजा बन जाए तो किले का निर्माण करवा ले। १३२१ में जब गाज़ी मलिक  ने खिलजियों को हराकर इधर से खदेड़ दिया तो इस किले का निर्माण करवाया। ये किला उसने मंगोल आक्रमणकारियों को दूर रखने के इरादे से बनवाया था।
  • किले का श्राप: कहते हैं  गयासुद्दीन तुग़लक़  इस किले के निर्माण के लिए इतने उत्साहित थे कि उन्होने ये आदेश दे दिया था कि दिल्ली के सारे मजदूर किले के बनने तक इधर काम करें। उसी वक्त निजामुद्दीन औलिया के कुएँ का काम चल रहा था जो इस आदेश के कारण रुक गया। इन दोनों में इस बात से बहस हुई और औलिया साहब ने इनको ये श्राप दे दिए :
    या रहे उज्जर या बसें गुज्जर (यानी या तो किले में लोग रहेंगे और अगर इसे छोड़ा तो इधर गुज्जर बसेंगे। )
    गयासुद्दीन की मृत्यु दिल्ली से बाहर होगी 
    दोनों ही श्राप अंततः सच साबित हुए थे(स्रोत)
 
शनिवार को उठा और नेट पे तुगलकाबाद किला जाने के निर्देश नोट किये। फिर थोड़ा इधर उधर का काम निपटाया और सवा दस बजे करीब नाश्ता करके पीजी से तुगलकाबाद किले के लिए निकला।  रूम से निकला तो मौसम सही था। थोड़ा ठंड थी लेकिन कोहरा इतना नहीं था और हल्की हल्की धूप निकल रही थी। उधर पहुँचने के दिशा निर्देश ज्यादा जटिल नहीं थे।
  1. पहले मुझे  कमरे से एम जी रोड मेट्रो स्टेशन तक जाना था (इसमें दस रूपये लगे)
  2. फिर एम जी रोड मेट्रो स्टेशन से साकेत मेट्रो स्टेशन जाना था  (इसमें सोलह रूपये लगे)। मेरा मेट्रो का कार्ड का बैलेंस भी खत्म हो गया था तो साकेत पहुँचकर मैंने इसे दो सौ रूपये का बैलेंस डलवाया।
  3. साकेत डी ब्लाक वाले एग्जिट से बाहर निकला और डी ब्लाक के बस स्टैंड पे गया। उधर बहुत सारी मेट्रो फीडर बस थीं जो बदरपुर बॉर्डर तक जा रही थीं। उन में से एक के कंडक्टर भाई से तुगलकाबाद गाँव के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा इसी में बैठ जाओ।
    दिल्ली में इस दिशा में ये मेरा पहली बार आना हुआ था। खानपुर, देवली जगहें इस रस्ते में पड़ी और पहली बार ही मैंने इनका नाम सुना। इसके इलावा रास्ते में ही एक लाल रंग का मंदिर  भी था। उसका नाम तो मुझे पता नहीं है लेकिन वो खूबसूरत लग रहा था।  इसके इलावा तुगलकाबाद से पहले एआईटीबीपी की छावनी और तुगलकाबाद में एक एयर फाॅर्स की रेंज भी पड़ती है।
    बस ने कुछ ही देर में तुगलकाबाद गाँव के बस स्टैंड के सामने उतार दिया। उधर पे एक दुकान वाले भाई से किले के विषय में पुछा तो उन्होंने रास्ता बताया। किला थोड़ा पीछे था और गाँव का स्टैंड आगे तो मुझे उधर से पैदल वापस जाना पड़ा। फिर मैं किले के एंट्रेंस के सामने था।

किले के बाहर एक बाग सा बना हुआ था। जब मैं टिकेट घर की तरफ जा रहा था तो उस बाग़ में मुझे कई बंदर मस्ती करते हुए दिखे और उनकी कुछ तस्वीरें मैंने अपने कैमरे में उतारी।  बाग़ में काफी गड्डे थे जिनमे पानी भरा हुआ था।

पानी में मस्ती करते बन्दर

किले के एंट्रेंस पे मैंने एक टिकेट लिया जो पंद्रह रूपये का था और किले की तरफ जाने वाले रस्ते में बढ़ चला।  ये रास्ता टिकट घर के दायें तरफ से जाता है .इस रास्ते से होते हुए आप किले के मुख्य द्वार तक पहुँचते हैं।

टिकट घर
किले के मुख्य द्वार तक ले जाने वाला रास्ता

इधर सबसे पहले जिस चीज पे आपकी नज़र जाती है वो है एंट्री के बगल  में  फैली गंदगी पे। ये गंदगी एंट्रेंस के दोनों तरफ थी। इसमें ज्यादातर कूड़ा प्लास्टिक का था।
मैं एक संग्रक्षित स्मारक में दाखिल होने वाला था तो शुरुआत में ही मुझे गंदगी दिख गयी थी। इससे थोड़ा मूड खराब तो हुआ था।

एक तरफ का नजारा जहाँ कचरा इकट्ठा हुआ था
रास्ते की दूसरी तरफ एक गन्दा नाला सा था

अगर विदेशी सैलानी इधर आते होंगे तो उनपर इसका क्या असर होता होगा। हम भारतीयों को सफाई रखने में इतनी परेशानी क्यों होती है। फिर इस स्मारक के भी कुछ सफाई कर्मचारी होंगे, इस इलाके के नेता लोग होंगे वो इस मामले में कुछ क्यों नही कर रहे हैं। सवाल कई थे लेकिन मुझे पता था न इनसे कुछ होने वाला था इसलिए मैंने एक दो तस्वीरें क्लिक करीं और अन्दर की तरफ बढ़ चला।
गेट पे एक भाई साहब ने टिकेट चेक किया और फिर मैं किले के अन्दर था।

गेट पे मौजूद गार्ड साहब
किले का मुख्य द्वार

किला एक बहुत बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है।
पहले मैं बायें तरफ गया और उधर एक महिला बैठी हुई थी जिन्होंने मुझे आगाह किया कि मैं जंगल के ज्यादा अंदर न जाऊँ।

उधर कुछ वक्त बिताने के बाद मैं मुख्य किले की तरफ यानी मुख्य द्वार से दायें और चले गया।

वहाँ लगभग एक घंटे तक घूमा। किले में जगह जगह प्रेमी युगल बैठे हुए थे और वक्त बिता रहे थे। कुछ सैलानी भी घूमने के लिए आये हुए। मौसम खुशनुमा था क्योंकि धूप इतनी नहीं थी।  मैं धीरे धीरे हर जगह जा रहा था। किले का क्षेत्र काफी बड़ा था और उधर जंगल भी थे। उधर मुझे एक व्यक्ति मिला जिसने मुझे फिर से भीड़ से अलग न  होने की चेतावनी दी। उन्होंने मुझे बोला कि उधर पॉकेट मार और चोर रहते हैं तो मैं मुख्य किले के आसपास ही रहूँ न कि इधर उधर जंगल में जाऊँ। शायद उन्हें किले में सुरक्षा के लिए तैनात किया गया था। हो सकता है उधर ऐसी वारदातें आम हों। तो आप भी जायें तो इस बात को लेकर सतर्क रहियेगा वरना वो भाई आपको भी चेतावनी तो दे ही देगा।

किले में घूमने के दौरान कई ऊंची जगहें आई जिन तक चढ़ना होता था। क्योंकि किला टूटा फूटा था तो वहाँ चढ़ने का रास्ता भी टूटा फूटा था। अब ऐसी जगह ऊपर चढ़ना तो आसान था लेकिन उतरने में फिसलने का डर रहता। उधर काफी लड़कियाँ भी आई हुईं थी और उनके उतरते हुए हालत डाउन हो रखी थी।  इसमें उनके जूते सबसे ज्यादा परेशानी कर रहे थे। वो ऊँचे हील वाले बूट्स पहन के आ रखी थी जो कि ऐसी जगह जाने के लिए अनुकूल नहीं थे। आप अगर इधर आयें तो फूटवियर ऐसे पहले की चढ़ने उतरने में परेशानी न हो। क्यों अगर ऐसे रास्तों में थोड़ा भी फिसले तो काफी चोट लग सकती है।

फिर किले के मुख्यतः हर कोने में जाने के बाद मैं उधर से वापस आ गया।

किले की बाहरी दीवार
ये एक सुरंग जैसी थी और इन दरवाजों के भीतर कमरे थे

किले में मुझे एक परेशानी ये हुई कि उधर कोई बोर्ड नहीं थे। किले में जब आप घुस रहे होते हैं तो एक बोर्ड पे एक प्लान बना था जिसमे १४ जगह मार्क ही हुई थी लेकिन किले के अन्दर उन जगहों को दर्शाते हुए कोई बोर्ड नहीं थे। अगर होते तो सैलानियों को ज्यादा जानकारी होती। इसके आभाव में तो एक सामन्य आदमी के लिए एक खण्डहर दूसरे खण्डहर से अलग नहीं था। हम खाली फोटो ही खिंचवा सकते थे या खींच सकते थे। किस चीज़ की फोटो खींच रहे थे इस बात से बिलकुल अनजान थे।

किले के विभिन्न हिस्सों को दर्शाता बोर्ड

उसके बाद मैं किले से बाहर निकला और मेरी नज़र सामने पड़ी। मैं उधर की तरफ गया तो पता चला वो गियासुद्दीन तुग़लक़ का मकबरा था। मैंने सड़क पार की और रास्ते से होते हुए मकबरे में गया।

मकबरे की ओर जाता रास्ता
मकबरे का प्रवेश द्वार

उधर एक गार्ड साहब बैठे हुए थे। मैंने उनसे अन्दर जाने के विषय में पूछा और उन्होंने टिकेट माँगा। मैंने उन्हें टिकेट दिया और उन्होंने दूसरी तरफ से उसे फाड़ दिया। फिर मैं अन्दर गया और उधर घूमा। मकबरे की देख रेख किले से काफी बेहतर थी। घास ढंग से कटी हुई थी। उन्हें पानी दिया जा रहा था।  अन्दर बाकायदा ऑफिस बने हुए थे और कई कर्मचारी काम कर रहे थे।  उधर घूमने के लिए इतना ज्यादा कुछ नही था। दस पन्द्रह मिनट में ही घूम गया था।

मकबरे के विषय में कुछ बातें जो पता चली :

  • मकबरा गियासुद्दीन तुग़लक़ ने खुद अपने लिए बनवाया था। इसे १३२८ ईसवी में बनवाया गया था
  • यह एक वक्त पे चारो तरफ से जलाशय से घिरा होता था और एक उपसेतु के माध्यम से तुगलकाबाद किले से जुड़ा हुआ था। अब इस सेतु के बीच में से एक सड़क जाती है।
  • इसके अन्दर गियासुद्दीन तुग़लक़ के साथ उसके बेटे(मुहम्मद बिन तुग़लक़) और बीवी की कब्र भी हैं
  • माना जाता है बीच वाली कब्र गियासुद्दीन तुग़लक़ की है
  • इसके अन्दर ज़फर ख़ान की कब्र भी है। कहते है सबसे पहले ज़फर ख़ान की कब्र ही गियासुद्दीन तुग़लक़ ने इधर बनवाई थी और उसके बाद ही उन्हें इस मकबरे को बनाने का ख्याल आया था। ज़फर खान दिल्ली सल्तनत का एक माना हुआ जनरल (सेनापति) था जिसने दिल्ली सल्तनत के लिए बहुत सारी लड़ाईयाँ जीती थीं। कहते हैं उसका इतना खौफ़ था कि जब मंगोल के लोगों के घोड़े पानी पीने से इंकार कर देते थे तो वो उनसे पूछते थे कि कहीं उन्होंने ज़फर खान को तो नहीं देख लिया है। (स्रोत)
मकबरे  की जानकारी देता बोर्ड
 इसमें जफ़र खान की कब्र भी है

फिर जब मकबरे से बाहर आया तो बाहर के दिवार पर मुझे कुछ तोते दिखे। मुझे तोते देखे हुए काफी अरसा हो गया था तो मैंने उनकी कुछ तसवीरें ले ली।

मकबरे की दीवार पे आराम फरमाते तोतों का झुण्ड

अब मैं दोनों स्मारक देख चुका था।

मकबरे से निकल कर मैं बस की तलाश में तुगलकाबाद गाँव की तरफ जाने लगा। थोड़ी देर चलने के बाद ही एक बस मुझे मिल गयी। वो मेट्रो फीडर बस थी। साकेत मेट्रो तक जा रही थी। मैं उसमे चढ़ गया और दस का टिकेट ले लिया। उस वक्त मुझे सीट मिल गयी थी। फिर बस चलने लगी तो भीड़ बढ़ने लगी। एक महिला  आई तो मैंने अपनी सीट उन्हें दे दी और मैं खुद आगे को आकर खड़ा हो गया। बस लोग बस में चढ़ रहे थे और उतर रहे थे। बस कभी जाम में फंसती तो कभी जाम से निकलती। ऐसे में बस अपने गंतव्य तक चल ही रही थी कि एक व्यक्ति बस में दोबारा चढ़ा।  मैं अपन उपन्यास को पढने में व्यस्त था। उसके आने से भीड़ में हलचल हुई। मेरा ध्यान उधर गया और  फिर कंडक्टर ने बताया कि उस भाई का किसी ने मोबाइल मार दिया है। सब हैरान थे क्योंकि कुछ ही देर पहले ये व्यक्ति उतरा था। फिर उस व्यक्ति ने अपना नंबर बताया और कुछ लोगों ने नंबर डायल किया। घंटी तो जा रही थी लेकिन कोई उठा नहीं रहा था। वो व्यक्ति (लड़का) हताश होकर गाड़ी से उतर गया।

सब फीडर बसों में होने वाली पॉकेट मारी के विषय में बातें करने लगे। इसलिए अगर आप इन बसों से इधर आने की सोचें तो अपनी जेबों का ध्यान रखियेगा। फिर बस साकेत आ गयी और मैं बस से उतर गया।मैंने फुटओवर ब्रिज से सड़क पार की। फिर कुछ देर चलकर साकेत मेट्रो स्टेशन में दाखिल हो गया।

सवा दस बजे करीब मैंने यात्रा  शुरू की थी और दो बजे करीब तक सारा देख के वापस रूम के लिए निकल चुका था। एक छोटी मगर यादगार यात्रा। दिल्ली में रहते हुए मुझे एक साल हो गया है लेकिन अभी इसकी ऐतिहासिक जगहों को इतना एक्स्प्लोर नहीं किया है। इस साल ये काम भी करूँगा।

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

View all posts by विकास नैनवाल 'अंजान' →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *