पुस्तक मेले में प्रवेश करते हुए लोग |
मैदान के बीच में दिशा निर्देश देने के लिये लगाया गया बैनर |
जब पहुंचा तो राजीव भाई से बात हुई और उन्होंने कहा कि वो सात नंबर हॉल के ऑथर्स कार्नर में हैं। मैं दस नंबर हॉल में था तो सात की तरफ निकल गया। सात नंबर हाल आठ के सामने था। पहले मुझे लगा आठ वाला ही सात है। आठ वाले ऑथर्स कार्नर पे सुब्रमण्यम स्वामी जी किसी पुस्तक के विमोचन पे बोल रहे थे। मैंने उधर से राजीव जी को कॉल किया तो उन्होंने बताया कि सात वाला हॉल उधर से बाहर निकल कर है। फिर हॉल ढूंढता हुआ उन तक पहुंचा। सात नंबर हॉल में नेशनल बुक ट्रस्ट द्वरा मानुषी थीम के अंतर्गत मैथली भाषा में स्त्री लेखन पे चर्चा हो रही थी। मैं राजीव जी से मिला। थोड़ी देर उधर रहा। फिर उन्होंने कहा कि वो तो इस चर्चा को पूरा सुनेंगे। मुझे मैथली आती नहीं थी तो मैंने पुस्तक मेले घूमने का निर्णय किया। उन्होंने कहा कि वो खत्म होते ही कॉल करेंगे। फिर मैं पुस्तक मेले में घूमने लगा।
सात नंबर हॉल में एन बी टी वालों इलस्ट्रेटर वाल बना रखी थी जिसमे खूबसूरत बुक कवर उन्होंने सजा रखे थे। पहले मैं उधर ही घूमता रहा। फिर उधर से इंटरनेशनल कार्नर में गया लेकिन उधर कुछ रुचिकर नही था इसलिए सात नंबर हॉल से बाहर निकलकर ११ से आठ वाले हॉल में चला गया।
एन बी टी के स्टाल पे लगी इलस्ट्रेटर वाल के कुछ चित्र |
आठ से ग्यारह वाले हॉल्स में ज्यादातर अंग्रेजी प्रकाशन थे। उन दुकानों की भी भरमार थी जिसमे सौ रूपये के अंग्रेजी उपन्यास या दो की खरीद पे एक फ्री वाले उपन्यास बिक रहे थे ।मैंने पिछले साल के दिल्ली पुस्तक मेले में ऐसी दुकानों से काफी उपन्यास इकठ्ठा कर लिए थे तो मैं सोच कर आया था कि इस बार इधर नहीं जाऊँगा। ८ से ११ नंबर हॉल्स में घूमने के बाद मैं १२ नंबर हॉल में गया।
इधर ज्यादातर हिंदी प्रकाशन थे और इधर मैंने काफी किताबें खरीदी।
साहित्य अकादमी से निम्न किताबें खरीदीं:
- देवो की घाटी – भोला भाई पटेल (ये उनके गुजराती यात्रा वृतांत का हिंदी अनुवाद है। हाल फिलहाल में मेरी यात्रा वृत्तांतों में रुचि जगी है तो जितने मिले उतने पढ़ने की कोशिश करता हूँ। )
- मछुआरे – तकषी शिवशंकर पिल्लै (मलयालम उपन्यास का हिंदी अनुवाद)
- कारा – वानीरा गिरी (नेपाली उपन्यास का हिंदी अनुवाद )
- सादा लिफाफा – मति नंदी (बंगला उपन्यास का हिंदी अनुवाद)
- आंगलियात – जोसफ मेकवान (गुजराती उपन्यास का हिंदी अनुवाद )
ज्ञानपीठ पे गया और उधर से निम्न किताबें खरीदीं:
- अंतिम अरण्य – निर्मल वर्मा
- मुक्तिबोध – जैनेन्द्र कुमार
- परख – जैनेन्द्र कुमार
- ग्लोबल गाँव के देवता – रणेन्द्र
- लीला चिरन्तन – आशापूर्णा देवी (बांग्ला से हिंदी में अनूदित)
- सुखदा – जैनेन्द्र कुमार
- सूरज का सातवाँ घोड़ा – धर्मवीर भारती
- चाँदनी बेगम – कुर्रतुलऐन हैदर(उर्दू से हिंदी में अनूदित )
- वे दिन – निर्मल वर्मा
इधर मेरी किताबों की गिनती देखकर और ये देखकर की मैं कैश में कीमत अदा कररुँगा, मुझे बीस प्रतिशत की छूट मिली। ये सुनकर तो मेरी बाछें खिल गयी थी।
फिर उधर से होता हुआ मैं सामयिक प्रकाशन के स्टाल पे गया और निम्न किताबें खरीदीं:
- गुलाम मंडी – निर्मला भुराड़िया
- आवां – चित्रा मुद्गल
- पोस्ट बॉक्स नं. २०३ नाला सोपारा – चित्रा मुद्गल
सामयिक में जब बिल बनवा रहा था तो जो व्यक्ति बिल बना रहे थे उन्होंने किताबों को देखा और कहा कि उनके पास इन्ही विषयों पे दो चार किताबें और हैं और अगर मैं चाहूँ तो उन्हें देख सकता हूँ। मैंने कहा सर जी वैसे ही काफी किताबें हो चुकी हैं। इस साल ये पढ़ पाऊंगा ये भी नहीं कह सकता मैं। फिर वो हँसने लगे।
अब मैं उधर इन्तजार करने लग गया। थोड़ी देर इन्तजार करके थक गया तो दुबारा कॉल किया और उन्होंने बताया कि वो आ रहे हैं थोडा सिगरेट पी रहे थे और थोड़ी देर में पहुँच जायेंगे। फिर वो मुझे आते दिखाई दिए। उनके साथ मनीष गुप्ता भाई अपने पुत्र के साथ आये थे। मैं मनीष जी से पहली बार मिल रहा था। फिर हम राजकमल प्रकाशन पे गये। राजकमल में घुमते हुए सत्यजीत रे की प्रोफेसर शंकु और एक दो और किताब दिखीं। लेकिन उन्हें बच्चों के अलग सेक्शन की जगह उपन्यास में डाला गया था। अगर बच्चों का सेक्शन अलग होता तो उधर वो शायद काफी बिकती। हिंदी प्रकाशकों का यही उदासीन रवैया मुझे कई बार खलता है।
हमे किताबें लेने में वक्त लगना था और चूँकि मनीष भाई अपने पुत्र के साथ थे तो राजीव भाई ने उन्हें जाने के लिए कह दिया था क्योंकि बच्चे के साथ एक स्टाल में इतना रुकना थोडा परेशानी वाला काम था। फिर हम देखने लगे। मनीष कुमार भाई भी मेले में आने वाले थे तो उन्हें भी राजकमल में ही बुला लिया था। (अब इधर मेरी याददाश्त धोखा दे रही है। वो हमे राजकमल में मिले थे या हम उनके साथ दोबारा राजकमल आये थे। ये सब बातें किताबों के खुमार में धुंधली पढ़ चुकी हैं। बस जरूरी ये है कि हम मिले थे। )मनीष भाई भी उधर ही आ गये थे । मैं एक बार पहले राजकमल होकर आ गया था लेकिन जब दोबारा राजीव भाई के साथ आया तो कुछ किताब लेने से अपने को नहीं रोक सका। मैंने इधर निम्न किताबें ली:
- जैनी मेहरबान सिंह – कृष्णा सोबती
- चार आँखों का खेल – बिमल मित्र
- कुम्भीपाक – नागार्जुन
- रतिनाथ की चाची – नागार्जुन
कृष्णा जी और विमल जी की एक दो कृतियाँ तो मैंने पढ़ी हैं। नागार्जुन जी को पहली बार पढूँगा।
मैं किताबें का बिल बना रहा था तो राजीव भाई और मनीष भाई ने कहा कि वो राजपाल प्रकाशन के स्टॉल पे मिलेंगे। हम उधर गये और उधर मैंने कुछ नहीं लिया। उसके बाद हम वाणी में गये तो उधर से मैंने उदय प्रकाश जी की दत्तात्रैय के दुःख नामक कहानी संग्रह लिया। कुछ साल पहले मैंने एक कहानी संग्रह Delhi Noir पढ़ा था। इस संग्रह में यह कहानी अंग्रेजी में अनूदित थी। उसी वक्त से इसे मूल भाषा में पढ़ना चाहता था। उदय जी की किताबें उधर देखीं तो ये बात याद आ गयी और मैंने किताब उठा ली।
वाणी वालों का कैरी बैग मुझे काफी अच्छा लगा। आपने इनमे से कितने लेखकों को पढ़ा है? |
राजपाल पे हमे सिद्धार्थ अरोड़ा भाई भी मिल गये थे। फिर हम चारों ही साथ घूमने लगे। सिद्धार्थ भाई को गुनाहों का देवता लेनी थी तो मैंने कहा कि वो भारतीय ज्ञानपीठ पे मिल जाएगी तो हम वाणी से उधर चले गये।
भारतीय ज्ञानपीठ पे सामने ही राज कॉमिक्स का स्टाल था। सिद्धार्थ भाई और राजीव भाई ज्ञानपीठ ओर खरीदारी करने लगे तो तब तक मैं और मनीष भाई उधर घूमने लगे। मुझे लगा था कि राज वालों ने काफी अपने स्टाल को सजाया होगा। उनके कॉमिक्स के सूपर हीरोज के लाइफ साइज़ कट आउट स्टाल में होंगे जिसपे बच्चे और लोग सेल्फी खिंचवा रहे होंगे लेकिन ये सब मेरी कल्पना की उड़ान मात्र ही था।
राज कॉमिक्स वालों ने अपने द्वारा छापे जासूसी उपन्यासों को भी ज्यादा महत्व नहीं दिया था। वो उनके स्टाल पे लगाये ही नही गये थे। ये देखकर मुझे हैरानी हुई। पिछली बार भी उन्होंने उन उपन्यासों को काउंटर के नीचे रखा था । और जब मैंने विशेषकर उन उपन्यासों के विषय में पूछा था तो ही उन्होंने उन्हें निकाला था और फिर वापस रख दिया। अब मुझे ये नहीं पता कि उन्होंने ये व्यवस्था जगह न होने के वजह से की थी या लुगदी को स्टाल पे लगाने की शर्म के वजह से की थी। खैर, इससे मुझे उन पत्रिका विक्रेताओं की याद आ गयी तो सड़क के किनारे बैठकर मस्तराम की किताबें बेचते थे और इन किताबों को टाट के बीच में ऐसी ही छुपा के रखते थे। फिर अगर कोई इनका खरीददार आये तो अखबार में लपेट कर उसे इन्हें दिया करते थे।
खैर, मनीष भाई ने उधर से दो किताबें ली। मुझे ‘नागराज और ड्राकुला’ चाहिए थी लेकिन मुझे वो उधर दिखी नहीं और मैंने उसके विषय में पूछा भी नहीं। हाँ, दिखती तो उसे जरूर खरीद लेता।
पॉकेट बुक्स लिखा तो था लेकिन स्टाल से वो नदारद थीं |
कॉमिक्स की प्रदर्शनी |
उधर से निकल कर अब सिद्दार्थ भाई को वेस्टलैंड में जाना था तो हम ८ से ११ नंबर हॉल की तरफ चले गये। उस हाल में काफी आगे निकल आये थे लेकिन वेस्टलैंड हमे दिखा नही तो राजीव भाई ने इनफार्मेशन काउंटर पे उसका काउंटर नंबर पूछा और फिर उसी हिसाब से हम उसे ढूँढने लगे। आखिर एक कोने पे वो हमे मिला। उधर सिद्धार्थ भाई ने मानव कॉल की एक किताब ली। अब पाँच के करीब वक्त हो चुका था। हम सबने खरीदारी भी कर ली थी।
अब हम पुस्तक मेले से बाहर निकल गये। मेरे फोन की बैटरी जल्दी खत्म हो जाती है तो मैंने अपने फोन पे नेट बंद किया हुआ था। फिर मेले के अंदर सिग्नल की भी दिक्कत थी इसलिए जान पहचान के लोग अगर आये भी होंगे तो मुझे न व्हाट्सएप्प के माध्यम से पता चला न फोन के माध्यम से पता चला। जिनसे नहीं मिल पाया उम्मीद है उनसे कभी और मिल लेंगे।
पुस्तक मेले में कई कार्यक्रम भी चल रह थे लेकिन मैंने उनमें शिरकत नहीं करी। मुझे खरीदारी करनी थी और इतना वक्त मेरे पास नहीं था। मेले में भीड़ काफी थी इसलिए तस्वीरें भी मैं अपने मन माफिक नहीं उतार पाया। लोग आते जा रहे थे और मेरे अन्दर इतना धैर्य नहीं था कि एक जगह तस्वीर खींचने के लिये खड़ा रहूँ। जो ली कच्ची पक्की उन्ही का लुत्फ़ उठाइए :
‘हिंदी हैं हम’ के नीचे फोटो खिंचाने की तम्मना अधूरी ही रह गई |
इस बार मैंने पुस्तक मेले में कुल २२ किताबें लीं। अपने तय बजट २००० रूपये से १०० दो सौ रूपये ऊपर ही खर्च कर लिया। इसके इलावा ये देखने में भी अच्छा लगा कि हर स्टाल ने ग्राहकों को सेल्फी खिंचवाने के लिए कुछ न कुछ आकर्षक चीज़ करी हुई थी। लोग बाग़ फोटो तो काफी खिंचवा रहे थे। वो किताबें कितनी ले रहे थे इसका कोई अंदाजा मुझे नहीं है।
हिंदी प्रकाशनों में बच्चों के लिए अलग से कोई सेक्शन मुझे नहीं दिखा। १८ नम्बर हॉल बच्चों के लिये था तो और मैं उधर गया नहीं था तो हो सकता है उधर काफी कुछ रहा हो।फिर उन्होंने उपन्यासों को विभिन्न शैलियों में भी नहीं बाँटा हुआ था। अगर मैं उधर होता तो हिस्टोरिकल फिक्शन अलग रखता, कंटेम्पररी अलग रखता, विज्ञान गल्प अलग रखता। उपन्यासों की ही तीन चार श्रेणियाँ होती है और पाठक अलग अलग होते हैं। इसलिए पाठ कों जितनी सहूलियत दे सके उतनी देनी चाहिए। अंग्रेजी स्टाल्स में ऐसा था, हिंदी में नहीं था।
अंत में केवल इतना ही इस बार का पुस्तक मेला अच्छा था। अब दिल्ली पुस्तक मेले का इन्तजार है और उम्मीद है तब तक जितनी किताबें खरीदी हैं उन्हें निपटा पाऊँगा।
पूरी खरीद एक साथ |
क्या आप भी इधर गए थे ? आपने क्या क्या लिया? कमेंट में जरूर बताईयेगा।
हार्दिक इच्छा है पुस्तक मेले में जान की।
आपका आलेख अच्छा लगा।
धन्यवाद
जी पुस्तक मेले में जाना अपने आप में अनोखा अनुभव होता है। आपको जरूर जाना चाहिए। ब्लॉग पर आने के लिए शुक्रिया। आपकी टिपण्णी मेरा उत्साहवर्धन करेगी। आते रहियेगा।