शाम नौ दिसम्बर दो हज़ार सोलह से सुबह दस दिसम्बर दो हज़ार सोलह
गुरूवार शाम को ही ये पता था कि शुक्रवार को रात आठ बजे की बस थी। अब मेरा ऑफिस देर तक रहता है तो ये निर्णय हुआ कि मैं ऑफिस से डायरेक्ट एम जी रोड स्टेशन पे प्रशांत और मनन को मिलूँगा। मनन और प्रशान्त रूम में जल्दी आ जाते हैं तो वो रूम से ही आने वाले थे।
मैं ऑफिस अपना कपड़ों वाला बैग लेकर गया था। पांच बजे करीब मैं ऑफिस से निकला। ऑफिस से हुडा सिटी सेंटर पहुँचने में दस से पंद्रह मिनट लगते हैं। और कई बार हुडा के बाहर विशेषतः शुक्रवार को लोगों की लंबी कतारें देखने को मिलती हैं। इसलिए जल्दी जाना ही सही था। मेरे साथ ऑफिस से चन्दन भाई भी आ गए थे। उन्होंने अपने घर जाना था और मैंने एम जी रोड स्टेशन। हुडा पे मुझे भीड़ न के बराबर मिली। आसानी से अंदर चले गये और मेट्रो पकड़ ली। फिर मैं एम जी रोड पहुँच गया। एम जी रोड पे मिलना छः बजे निर्धारित हुआ था और मैं पाँच बजकर बावन मिनट पे उधर पहुँच चुका था।
मुझे उम्मीद थी कि प्रशान्त और मनन देर में पहुँचेंगे चुनांचे मैंने दिमाग में ये बैठा लिया था कि थोड़ा बहुत इतंजार मुझे करना पड़ेगा। सुबह एक उपन्यास Dr who : Warriors of the Deep पढ़ना शुरू किया था तो सोचा था इतंजार करते हुए इस उपन्यास को खत्म करने की कोशिश होगी। हाँ, मुझे ये नहीं पता था कि कितना रुकना पड़ेगा। मैंने प्लेटफार्म एक बैठने की जगह ढूँढी और उपन्यास पढ़ने बैठ गया। उपन्यास पढ़ते हुए पन्ने खत्म होते जा रहे थे , ट्रैन रुक रुककर जा रही थी लेकिन दोनों नदारद थे। पहले तो सवा छः बजे, फिर साढ़े छः बजे और फिर जब वो लोग आये तो पौने सात हो चुके थे।
इस बीच कई बार मेरे मन में ये ख्याल भी आ रहा था कि मुझे डायरेक्ट आई एस बी टी निकल जाना चाहिए था लेकिन फिर जो साथ में सफर करने में जो मज़ा आता है वो नहीं आता।अब छः बजकर पच्चपन मिनट हो गए थे और हमे आई एस बी टी पे आठ बजकर पाँच मिनट पे चलने वाली बस पकड़नी थी। पूरा सफर एक दूसरे की टाँग खींचने में बीता जैसे की लौंडों में होता ही है। हाँ, अब उम्मीद भारतीय समय व्यवस्था से ही थी। हम आई एस बी टी आठ बजे करीब पहुँचने वाले थे और गाड़ी आठ पाँच की थी। अब बस थोडा लेट चलती तो ही हम पहुँच पाते और उसे पकड़ सकते थे।
मेट्रो में कई बार मुझे ये भी लगा था कि बस छूट जायेगी। लेकिन प्रशान्त ने चूँकि ऐसे बस कई बार पकड़ी थी तो वो कहता जा रहा था कि बस पकड़ लेंगे। मनन भी कह रहा था कि बस छूट जायेगी लेकिन वो मेरे समझ से मज़ाक में ही ऐसा कह रहा था। प्रशान्त को विश्वास था या नहीं ये नहीं कह सकता। लेकिन जो भी था उसकी कही बात ही सच हुई।
हम दौड़ते भागते बस तक पहुँचे और हैरत की बात ये थी कि हमारे पहुँचने के दस पंद्रह मिनट बाद ही बस चलनी शुरू हुई।
हमने बस ऑनलाइन बुक की थी तो टिकट का झंझट नहीं था। हाँ, बस डिक्की में सामान डालने में लिए प्रति बैग 10 रूपये देने पड़े। ऐसे ही जब मैं एक बार जयपुर गया था तो हर बैग के लिये वो पाँच रूपये चार्ज करते थे। अब ये कानूनन है या नहीं ये नहीं पता। लेकिन चूंकि हर एक वॉल्वो में होता है और सब बिना किसी दिक्कत के दे देते है तो शायद कानूनन ही हो।
हमने अपने बैग दिए। हमारी तीन सीट थी-15,16 और 20। प्राशांत और मनन साथ बैठे और चूंकि मुझे सफर में अकेले बैठने की आदत है तो मैं 20 वाली खिड़की वाली सीट पर बैठा। फिर बस चलने तक मैंने उपन्यास के जो दस पंद्रह पृष्ठ बचे थे उन्हें पढ़ना खत्म किया। उपन्यास मज़ेदार था। अगर आप डॉक्टर हु देखते हैं तो समझ सकते हैं कि ये इसके टिपिकल एपिसोड जैसा था। और चूंकि मैंने संडे मार्किट में 10 रूपये का लिया था तो जितने खर्च किये थे उससे कई गुना ज्यादा का आनन्द मुझे इससे मिला था।
बस चलनी शूरु हुई और मैंने थोड़ी देर तो दूसरा उपन्यास मलिका का ताज पढ़ना जारी रखा लेकिन फिर मुझे झपकी आ गयी। फिर नींद सीधे तब खुली जब बस एक रेस्टोरेंट के आगे रुकी।
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रेस्टोरेंट के सामने मैं |
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मनन
pc: प्रशांत |
हम रुके तो बाहर देखकर हैरान थे। कोहरा छा रखा था। ऊपर की तस्वीरों से आप अंदाजा लगा सकते हैं। बस के अन्दर मुझे इतने ठंड नहीं लग रही थी लेकिन बहार थोड़ा सा ठंड थी। वैसे मुझे ठंड काफी कम लगती है। शायद ये पहाड़ी खून का असर है इसलिए टी शर्ट में भी ज्यादा परेशानी नहीं हो रही थी।
मुझे लघु शंका जाना था। पहली बार जिधर को मुड़ा उधर तो ऑफिस था, लेकिन थोड़ा ढूंढने के बाद जगह मिल गयी। मैं निवृत्त हुआ। हाथ वगेरह धोकर बाहर आया। उधर दो रेस्टोरेंट थे। एक में नॉन वेज मिल रहा था और दूसरा सागर रत्नम था। हम सागर रत्नम गये। उधर मैंने तो अपने लिए एक प्लैन डोसा और एक फ़िल्टर कॉफ़ी मँगवाई। मनन और प्रशान्त ने पहले दाल फ्राई, मिक्स वेज और रोटियाँ मंगवाई थी लेकिन फिर हमारे पीछे वाले टेबल में एक वेटर भाई साहब को थाली ले जाते देखकर दो थाली ही मँगवाई।
मेरा डोसा आया और मैं कॉफ़ी का इतंजार करने लगा। जब थोड़ी देर तक नहीं आयी तो मैंने खाना शुरू किया। हाँ, वेटर को मैंने एक दो बार बोला तो उसने हाँ-हूँ ही करी। प्रशान्त लोगों का भी खाना आया और उन्होंने खाना शुरू किया। उनकी थाली में स्वीट्स नहीं थी। उसके लिए भी जब उन्होंने बोला तो वेटर साहब ने हाँ हूँ ही करी। मैंने डोसा खत्म करने के बाद भी कॉफ़ी के लिए बोला। प्रशान्त लोग चूंकि खा ही रहे थे तो तब भी कॉफ़ी आती तो कोई दिक्कत वाली बात नहीं थी। लेकिन भाई को नहीं लानी थी तो वो नहीं लाया। हाँ, अंत में जाकर उसने ये जरूर बताया कि कॉफ़ी नहीं थी। स्वीट्स का भी यही हाल था लेकिन खानापूर्ती के लिए उसमे एक एक कटोरी सूजी का हलवा तो वो लेकर आ ही गये थे। उसका स्वाद खराब था तो वो किसी ने खाया भी नहीं। लेकिन ऐसी सर्विस से मूड खराब ही हो गया था। अगर कोई चीज न हो तो बता दें तो आर्डर में हम बदलाव कर सकते हैं। लेकिन शायद रेस्टोरेंट वालों को इससे लेना देना नहीं होता है। उन्हें पता है वॉल्वो उधर रुकने ही वाली हैं और लोग खायेंगे ही इसलिए सर्विस थोड़ा खराब भी हो तो ग्राहक कर ही क्या सकता है? उसके पास विकल्प ही क्या है? ये हाल तकरीबन हर जगह का है। फिर चाहे वो वोल्वो के रुकने का स्थान हो या साधारण रोडवेज का। अक्सर तो भुजिया, कुरकुरे ,कोल्ड ड्रिंक की कीमतों पे पाँच रूपये का अधिकतर चार्ज ये लोग ग्राहकों से वसूलते हैं। कई बार ग्राहक को अपनी दबंगई से दबाने से भी नहीं चूकते हैं।
खैर, हमने बिल अदा किया और फिर बस निकल पड़ी। मैंने थोड़ी देर सुधीर कोहली के साथ बिताये। उपन्यास में मज़ा आ रहा था लेकिन चूँकि मोबाइल में पढ़ रहा था तो बैटरी खत्म होने का अंदेशा था। इसलिए थोड़ा पढ़कर फोन स्विच ऑफ करके सो गया। नींद टूटती और खुलती रही।
फिर धर्मशाला में जाकर बस रुकी। मुझे लगा उधर उतरना है तो मनन ने कहा बस ही मैकलॉडगंज ले जाएगी। मैं फिर बैठ गया। उधर से अनीषा चढ़ने वाली थी। प्रशान्त गया और वो उसको लेकर आया। फिर हाई हेल्लो हुई।
फिर एक और बस आयी और उसके सवारियों को इसी बस में भरने की बात हुई। इससे बस का ड्राइवर गुस्से में आ गया था। उसे इस बात से परेशानी थी कि उससे पहले जो बस गयी थी वो तो खाली भेजी गयी थी और उसकी बस में सवारियाँ ठूँसी जा रही थी। जब ये चीज चल रही थी तो मेरे दिमाग में ये ही प्रश्न था कि क्या ज्यादा सवारियों को बस से एक स्थान से दुसरे स्थान तक ले जाने के लिए ड्राइवर को ज्यादा ताकत लगानी पड़ती है बजाय तब के जब बस में कम सवारियाँ हो। या ये गुस्सा किसी ओर कारण से था। लेकिन जब उसने कहा कि दो चार आदमी इधर बहुत जी एम बनते हैं सरकर बदलने दो तब वो उन्हें स्पीति में पोस्ट करवा देगा तो बात साफ हुई कि ये आपसी राजनीति की बात थी। सचमुच आप कहीं भी हो आप राजनीति से बच नहीं सकते हैं। इसी बात पे मुझे एक बात और याद आयी। जब मैं और चंदन भाई ऑफिस से हुडा मेट्रो स्टेशन की तरफ आ रहे थे तो हम ऐसे ही अलग अलग विषयों के ऊपर बातचीत कर रहे थे। ऐसे ही बातचीत सिख धर्म, सिख गुरुओं, 84 के दंगों,इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से होते हुए गुजर रही थी। फिर हम मोदी के ऊपर आये। ऐसे में एक अजीब बात हुई। मोदी का नाम सुनते ही बगल में जा रहे एक साहब बोलने लगे की मोदी जो कर रहा है सही कर रहा है। देश में काला धन उजागर हो रहा है। यही बातें वो दोहराते रहे। वो उम्र में मुझसे बड़े थे तो मैं शिष्टाचारवश उनकी बातें सुनता रहा। फिर जब उनका बोलना खत्म हुआ तो मैंने उनसे बोला आपको पता है हम बात किस विषय पर कर रहे है? मैंने कहा हम काला धन के ऊपर बात ही नहीं कर रहे हैं। तो वो कहने लगे सॉरी सॉरी। मुझे उस वक्त हँसी जरूर आयी थी।
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हमारा होटल |
खैर, बस ने हमे मैकलॉडगंज के बस स्टेशन पर उतारा। हम उधर से ऊपर स्क्वायर तक गये। उधर हमे एक कार मिल गयी जिसने हमे हमारे होटल तक पहुँचा दिया। हमारे होटल के नाम टर्किश कॉटेज था।हम होटल में थोड़ा फ्रेश हुए। फिर मूल योजना तो ये दिन यहीं बिताने की थी लेकिन मुझे ट्रैकिंग करने में कोई परेशानी नहीं थी। लेकिन जब हम समूह में होते हैं तो जिस चीज के लिए ज्यादा व्यक्ति तैयार होते हैं वही करना होता है। इसलिए मैं ज्यादा जोर जबरदस्ती नहीं करता हूँ। हाँ, हम ट्रेकिंग उसी दिन करते तो हमारा एक दिन बच जाना था। ट्रैकिंग वैसे भी केवल सात किलोमीटर थी इसलिए उसी दिन निपट सकती थी। फिर हमे बाकी दो दिन घूमने के लिए मिल सकते थे।शायद यही बात सबके दिमाग में आई फिर ट्रेकिंग के लिए जाना तय हो ही गया।
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होटल के सामने का व्यू |
ट्रेक का विवरण अगली पोस्ट में लिखूँगा।
नोट : जिन भी तस्वीरों में मेरा नाम नहीं है वो मनन, प्रशांत या अनीषा में से किसी एक ने खींची हैं।
मैकलॉडगंज ट्रिप की सभी कड़ियाँ:
Gib
आभार!! ब्लॉग पर और भी यात्रा वृत्तांत हैं। वह भी आपको पसंद आयेंगे। साथ बनाये रखियेगा।