आम दिनों में मेरी मेज |
मेरा अनुभव रहा है कि अक्सर जब किसी से प्रश्न पूछा जाता है कि किताबें क्यों पढ़नी चाहिए तो जवाब आता है क्योंकि वो ज्ञान का भंडार होती हैं।
लेकिन सच कहूँ मुझे यह जवाब अधूरा लगता है और थोड़ा स्वार्थी भी।
व्यक्तिगत तौर पर मुझे लगता है किताब किसी दोस्त की तरह होती हैं। आपको कुछ दे जाती हैं, आपसे कुछ ले जाती हैं, आपको थोड़ा बनाती हैं, कभी आपको थोड़ा बिगाड़ती भी हैं। वह अच्छे दोस्त की तरह आपका मनोरंजन भी करती हैं और कभी जिंदगी जीने का सलीका भी सिखा जाती हैं। इसलिए भी इनकी संगत करनी चाहिए।
अभी कुछ दिनों पूर्व सुरेखा पाणंदीकर जी का बाल उपन्यास ‘बोरी का पुल’ पढ़ रहा था तो ये देखकर अच्छा लगा कि उसका मुख्य किरदार जोजे कैसे किताबों के इन सभी रूपों से वाकिफ हो जाता है। लेखिका ने एक पेज से भी कम में यह सभी बातें दिखा दी हैं। जरा देखिए:
सुरेखा पाणंदीकर जी का बाल उपन्यास ‘बोरी के पुल’ |
पुस्तकालय उसका प्रिय स्थान बन गया। पुस्तकालय के श्री चिटणीस उसका मार्गदर्शन करते थे। उसने साने गुरुजी की लिखी पुस्तकें ‘दुखी’, ‘गोड गोष्टी’, ‘श्यामची आई’ और अन्य कई पुस्तकें पढ़ डाली। श्याम उसे अपना सा लगता। श्याम को उसकी ही तरह मुसीबत का सामना करना पड़ा था। पुस्तक में वर्णित कोंकण की भूमि तो बिल्कुल गोवा जैसी ही लगी। वैसा ही समुद्र, नारियल, आम और कटहल के पेड़। जब वह पुस्तक पढ़ रहा था तो उसे लगा कि सब गोवा में ही हो रहा है। ‘श्यामची आई’ पुस्तक पढ़ने के बाद वह अपने माता-पिता से अधिक समझदारी और सम्मान से पेश आने लगा।
पुस्तक ‘गोट्या’ का तो वो दीवाना हो गया। गोट्या के ‘क्रिकेट मैच’ और उसका ‘नाटक खेलना’ पढ़कर वह लोट-पोट हो गया।… अब्राहम लिंकन की जीवनी पढ़ने के बाद उसे गर्व हुआ कि वह भी एक सामान्य मछुआरे का बेटा है…
जब कक्षा में भारतीय इतिहास पढ़ते समय मराठों के बारे में पढ़ा तो जोजे ने ह. ना आप्टे का ‘उषाकाल’ तथा बाबसाहब पुरंदर के ‘रायगढ़’ तथा ‘प्रतापगढ़’ ऐतिहासिक उपन्यास पढ़ डाले। उसका जी चाहता – काश! वह ये सब किले देख सकता जहाँ ‘गोरिल्ला’ यद्ध हुए थे। किताबों के कारण बरसात के मौसम में स्कूल के दिन मजेदार बन जाते थे।
अपनी बात करूँ मुझे ऐसी किताबें बहुत पसंद आती हैं जहाँ किरदार पुस्तक पढ़ते हुए दिखते हैं या फिर जहाँ कथानकों में पुस्तकों की बातें होती रहती हैं। फिर जिन पुस्तकों के विषय में इन किताबों में बताया रहता है उन्हें पढ़ने का मन भी करने लगता है।
‘बोरी के पुल’ के इस हिस्से को पढ़ने के बाद इधर दी पुस्तकों को भी पढ़ने का मन करने लगा है। साने गुरुजी की श्याम की माँ और हरीनारायण आप्टे जी की उषाकाल को अमेज़न में बुक मार्क करके रख लिया। अगली किताबों की खेप में वह मँगवाई जायेंगी। बाकियो का भी हिंदी अनुवाद मिले तो पढ़ना चाहूँगा।
लेकिन मुख्य बात ये है कि आप क्या सोचते हैं? आप किताबें क्यों पढ़ते हैं? जरा बताइए तो।
सही कहा। सिमसिम मेरी टी बी आर लिस्ट में भी है। पर मैं मूल हिंदी वाली पढूंगा। हां, पढूंगा ये फिलहाल नहीं जानता।
मेरे विचार आप जैसे ही हैं विकास जी। अच्छी पुस्तकें सच्चे और अच्छे मित्र की भांति ही होती हैं। ऊपर टिप्पणी में गीत चतुर्वेदी जी की पुस्तक का उल्लेख है। गीत चतुर्वेदी जी का पुराना ब्लॉग वैतागवाड़ी अत्यन्त भावभीने आलेखों का अद्भुत संकलन है। उनके द्वारा लिखित पुस्तक भी ऐसी ही उत्कृष्ट होगी, ऐसी अपेक्षा है।
जी। गीत जी के पुस्तक के विषय में मैं अच्छी बात ही सुन रहा हूँ। जल्द ही उसे मँगवाने का इरादा है।
बहुत सुंदर स्रजन
जी लेख आपको पसंद आया ये जानकर अच्छा लगा।
मुझे इस सवाल का जवाब देना थोड़ा कठिन लगता है। कहानियों की दुनिया में खो जाना ―चाहे वो पढ़ना हो या लिखना― ज़िन्दगी से एक ब्रेक लेने का मौका होता है। कभी कभी उन सारी चीज़ों या भावनाओं को अनुभव करने का एक खूबसूरत ज़रिया होता है जो हम अपनी निजी जीवन में शायद नहीं कर सकते।
और अब मनोरंजन के साथ साथ, एक लेखक की तरह पढ़ने की आदत हो गयी है, तो सीखने का मौका भी मिलता है।
अभी हाल ही में मैंने गीत चतुर्वेदी जी की 'सिमसिम पढ़ी (अनीता गोपालन द्वारा अंग्रेजी अनुवाद)। बहुत खूबसूरत किताब है। मेरी पसंदीदा किताबों में से एक। इसमें भी एक लायब्रेरी है। कुछ पंक्तियां किताबों के PoV से भी कही गयी है।
मोबाइल और इंटरनेट के ज़माने में किताबोँ की दुनिया सिमटी नज़र आती हैं, एक तरह है पाठकों का टोटा नज़र आता है। कई साहित्यिक गोष्ठियों, सम्मेलनों में हमारी पुरानी पीढ़ी के लेखक यह बात जरूर कहते हैं, बहुत से आज की इंटरनेट के दुनिया से कोसों दूर रहते हैं या यूँ कहें कि उन्हें यह सब रास नहीं आता, वे मोबाइल हो या इंटरनेट चलाने से दिक्कत महसूस करते हैं.. ये सच है कि जितना अच्छा किताब को पढ़ने में लगता है वह इंटरनेट या मोबाइल में पढ़ने से नहीं आता , ऑंखें दुखती है, टीवी भी देखना है, घर का काम भी करना है इसलिए आधा अधूरा पढ़कर छोड़ दिया जाता है और फिर इसमें बहुत कुछ पढ़ने लायक भी नहीं होता। .. खैर यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि आप आज की दौड़भाग की जिंदगी और इंटरनेट की दुनिया के सप्तरंगी झमेलों से कुछ दूर हटकर किताबोँ को पढ़ते हैं और उनके बारे में लोगों को प्रोत्साहित करते हैं.
https://www.youtube.com/watch?v=gviOoI_msd8&t=891s
जी मेरा अनुभव दूसरा रहा है। मोबाईल और इंटरनेट के जमाने ने पुस्तक पाना आसान कर दिया है। अब तो ऑर्डर करके घर बैठे पुस्तक मँगवाई जा सकती है। रही वक्त की बात तो वो प्राथमिकता पर निर्भर करता है। मेरे कई मित्र हैं जो काफी पढ़ते हैं क्योंकि उनकी प्राथमिकता में ये शामिल है।
रही पाठक न होंने की बात तो इस बात में सच्चाई है लेकिन वो इसलिए भी है लेकिन उसके कई कारण हैं। उस पर लिखने लगा तो टिप्पणी बहुत बड़ी हो जाएगी।
मुझे कभी मित्र किताबी कीड़ा कहते थे। मैं आनंद के लिए पढ़ता था, ज्ञान बढ़ जाय, यह बोनस था। ब्लॉग, फेसबुक ने किताबों से थोड़ा दूर किया लेकिन इतना भी नहीं कि बिना 1,2 पुस्तक पढ़े कोई माह गुजर गया। जो कुछ भी समझ बनी वह किताबों से ही तो बनी।
जी सही कहा। लेखक की खूबी ही इसमें है कि वह ज्ञानवर्धक बात को मनोरंजक ढंग से प्रेषित कर दे। हाँ, तकनीक ने पुस्तकों से दूर तो किया है लेकिन धीरे धीरे लोग लौट रहे हैं। मैंने खुद फोन से फेसबुक हटा दिया है।