नेह से भीगी हुई एक मुलाकात

नेह से भीगी हुई एक मुलाकात

सोशल मीडिया की दुनिया को आभासी दुनिया कहा जाता है लेकिन इस आभासी दुनिया ने मुझे कई ऐसे लोगों से भी मिलाया है जिनसे अगर मैं न मिलता तो शायद मेरा जीवन इतना समृद्ध न हो पाता जितना अब हुआ है। कई ऐसे लोगों से मिलना हुआ जिनसे शायद मैं अपनी अंतर्मुखी स्वभाव के कारण कभी मिल न पाता।  ऐसे लोगो का स्नेह प्राप्त हुआ जिनके सानिध्य में काफी कुछ सीखा है और काफी कुछ सीखना अभी बाकी है।

ऐसे व्यक्तियों की सूची तो बहुत बड़ी है और आज की यह पोस्ट एक ऐसे ही शख्स के विषय में हैं जिनसे कुछ समय पहले मिलने हुआ। यह शख्स हैं योगेश मित्तल जी। योगेश मित्तल जी लेखक हैं जिन्होंने हिंदी लोकप्रिय साहित्य की विधा में कई ट्रेडनामों से लेखन किया है। कहानी, कविता, सत्य कथा, उपन्यास, बाल उपन्यास इत्यादि उन्होंने कई प्रकाशकों के लिए अपने लेखकीय जीवन में लिखे हैं। (योगेश जी का विस्तृत परिचय आप इधर पढ़ सकते हैं।)

अपने जीवन के 70 वसंत  के करीब देख चुके योगेश मित्तल जी से मेरा पहला परिचय इनके लेखों के वजह से हुआ। यह लेख फेसबुक के एक समूह में प्रकाशित होते थे और शब्दों के कालीन पर बिठाकर हमें एक ऐसी दुनिया में ले जाते थे जिसको देखने की इच्छा हमारे मन में न जाने कब से कुलबुला रही थी। वह दुनिया थी उन लेखकों,प्रकाशकों,कवर आर्टिस्टों की जिन्होंने लोकप्रिय लेखन के जगत में अपना योगदान दिया है। इनके लिखे संस्मरण इतने जीवंत रहते थे कि अगली कड़ी का बेसब्री से इंतजार रहता था।

यह लेख ही थे जिनके वजह से हमारी पहली बार फोन पर बात हुई थी। तब तक एक प्रकाशन के लिए मैं निशुक्ल काम कर रहा था। उस प्रकाशन से मेरे एक मित्र का उपन्यास आ गया था। उसी प्रकाशन के लिए मैं अब इनके संस्मरणों को पुस्तकार रूप में लाना चाहता था।  तो फोन नंबर एक्सचेंज हुआ, फोन पर बात  हुई और फिर व्हाट्सएप के माध्यम से बातें होती रहीं। किताब वाली बेल तो मुंडेर नहीं चढ़ी लेकिन हमारी बातचीत होने लगी।

इसी दौरान उनके लिए मैंने एक ब्लॉग का भी निर्माण किया, उन्होंने कुछ लेख, कविताएँ दुई बात के लिए लिखी और कुछ का संपादन भी किया। साथ ही हमारे यूट्यूब चैनल के लिए एक भजन भी उन्होंने लिखा।

(भजन आप नीचे सुन सकते हैं)

लेकिन इतना सब होने के बाद भी अब तक मिलना नहीं हो पा रहा था। इसका एक कारण यह भी था कि कोरोना के वक्त मेरी शादी हुई और फिर मैं उत्तराखंड में कभी पौड़ी और कभी देहरादून ही रहा।  गुरुग्राम आना कम ही हो पाया। फिर अक्टूबर में मेरा गुरग्राम आना हुआ लेकिन मिलने की योजना फिर भी न बन पाई।

नई दिल्ली विश्व पुस्तक मेला आया और मैंने सोचा था कि इस मेले में उनसे मिला जाएगा लेकिन यह भी न हो सका।  इसके अलावा विश्व पुस्तक मेले में मिला जा सकता था लेकिन जब योगेश मित्तल जी पुस्तक मेले पहुँचे तो मैं उस दिन कार्य के चलते मैं पहुँच नहीं पाया और इसलिए मिल भी न पाया। कहते हैं हर चीज का एक सही वक्त होता है। जब वक्त होता है तो मुश्किल से मुश्किल चीज भी आसानी से हो जाती है और यदि वक्त नहीं है आसान सी आसान चीज भी पूरी नहीं हो पाती है। यही चीज शायद योगेश मित्तल जी के साथ होने वाली मुलाकात के साथ भी हो रहा था।

फिर अप्रैल का महीना आया और शायद यही वह वक्त था जब हमें मिलना था। पर यह भी इतना आसान न था क्योंकि चीजें एक के बाद ऐसी होती गई कि अप्रैल के मध्य में मिलने की योजना बनाते बनाते अप्रैल अंत तक आते आते ही हम लोग मिल पाए।

हुआ यूँ कि योगेश जी की ने अपनी वाल पर अपनी पुराने नोवेल्स का पोस्ट डाला था। उन्होंने काफी दिनों बाद अपनी दुकान में मौजूद उपन्यासों की डिब्बों की सफाई की थी तो यह उपन्यास उसमें से निकल आए थे। ये उपन्यास काफी दिनो से आउट ऑफ प्रिंट थे तो मैंने सलाह दी कि इन्हें किंडल पर डाला जा सकता है। साथ ही मैसेज किया कि इस बाबत कॉल करूँगा तो संदेश पढ़कर उन्हीं का उधर से कॉल आ गया। बात उनके नोवेल्स से शुरू हुई और फिर उन्होंने अपनी दुकान पर आने का निमंत्रण दे दिया। यह तो नेकी और पूछ पूछ वाली बात थी। कई दिनों से मिलना भी चाह रहा था तो सोचा इसी बहाने मिलना जुलना हो जायेगा। साथ ही उन्होंने कहा कि उनके पास कई पुरानी किताबें हैं जिन्हें वो तो पढ़ चुके हैं और अब वो चाह रहे हैं कि उन्हें कोई ऐसा व्यक्ति ले जाए जो उनकी कद्र करे। ऐसे में उन्होंने मुझे उनमें से कुछ किताबें ले जाने के लिए चुना है।  मैं आऊँ और ले जाऊँ। एक पल को समझ नहीं आया कि क्या कहूँ लेकिन फिर जब उन्होंने कहा कि राम पुजारी भी कुछ किताबें भी ले गए हैं तो मैंने भी सोचा कि जब वह कह रहे हैं तो बैग ले जाने में हर्ज नहीं है। मुझे मुंबई से अपना गुरुग्राम आना याद आया। मुंबई में मेरे पास भी काफी किताबें जमा हो गई थीं। ऐसे में सभी किताबों को गुरुग्राम लाना मुमकिन नहीं था तो मैंने अपने संग्रह से कुछ किताबों को अपने मित्र के छोटे भाई को दे दिया था। वह किताबें पढ़ता था और किताबों को बेचने के बजाए मुझे उसे उन किताबों को देना अच्छा लगा था। अब यही चीज योगेश जी कर रहे थे तो मैं समझ सकता था।

अब सब चीज तय हो गई और हमने उसी सप्ताहंत का मिलने की योजना बना ली लेकिन ऊपर मैंने कहा न कि जो जो जब जब होना होता है तब तब होता है। उस सप्ताहांत बिजली का ऐसा इशू हो गया कि मैं जा नहीं पाया और मैंने अगले सप्ताहांत आने को कहा। इसी बीच मेरे नानाजी, जो पड़ोस में ही रहते हैं और जहाँ हमारा जाना लगभग एक माह से नहीं हो पा रहा था, आए। उनसे बिजली की दिक्कत के विषय में बताया और फिर साथ ही योगेश जी से मिलने के बाबत बताया तो उन्होंने उस वक्त पता देखकर मेट्रो से जाने के बजाए बस से जाने की सलाह दी जो कि गुरु ग्राम बस स्टैंड से ही मिल जानी थी।  इस बार मैंने सोचा कि मैं सप्ताह के बीच में ही एक चक्कर लगा आऊँगा लेकिन अभी मेरा बच्चा छोटा है तो कुछ न कुछ बीच में ऐसा हो जा रहा था कि जाना नहीं हो पाया। फिर सप्ताहांत नजदीक आ रहा था और इस बार जाना पक्का ही था कि फिर बिजली की गड़बड़ ने अपना सिर उठा लिया और उस सप्ताहांत भी जाने का प्रोग्राम कैन्सल करना पड़ा।

अब अप्रैल का आखिरी हफ्ता चल रहा था और मैं शर्मसार भी था कि चाहकर भी जाना नहीं हो पा रहा है। मन में यह भी विचार था कि न जाने योगेश जी क्या सोच रहे होंगे। ऐसे में मैंने निश्चय किया कि इस बार चाहे कुछ भी हो जाए मैं जाकर रहूँगा। लेकिन इस बार मैंने योजना सप्ताह के शुरू में नहीं बनाई। मैंने शनिवार रात पौने ग्यारह बजे उन्हें संदेश डाला कि क्या वो दुकान पर रहने वाले हैं और तुरंत उनका भी संदेश आ गया कि वह रविवार को दुकान पर रहेंगे और इस कारण अगली सुबह जाना मेरा पक्का हो गया। ऐसा मैंने इसलिए भी किया क्योंकि इससे पहले मैं योजना पहले बना देता था लेकिन बीच में कुछ न कुछ पंगा पड़ ही जाता था। लेकिन इस बार शनिवार की रात बिना पंगे की गुजर रही थी और मुझे पूरी उम्मीद थी कि सुबह तक शायद कोई पंगा न ही हो और ऐसा ही हुआ।

सुबह मैं उठा और नाश्ता करके पौने दस बजे करीब घर से निकल गया। मुझे योगेश मित्तल जी की दुकान तक पहुँचने में कम से कम दो से ढाई घंटे लगने थे लेकिन उत्सुक था तो यह सफर इतना मायने नहीं करता था। नानाजी की सलाह को मानकर बस स्टैन्ड से गाड़ी ली जिससे काफी रास्ता तय किया। फिर उधर से मेट्रो और मेट्रो से निकलकर एक ऑटो करके आखिर कार मैं अपनी मंजिल के निकट मौजूद था।

योगेश जी ने जिस सोसाइटी के विषय में कहा था उसके बाहर अब मैं खड़ा था। वहाँ मौजूद गार्ड भाई साहब से दुकान के विषय में पूछा तो उन्होंने आगे वाले गेट पर जाने को कहा। आगे वाले गेट पर पहुँचा और पता पूछा तो वह पहले थोड़े संशय में दिखे  लेकिन फिर जब मैंने फोटो स्टेट की दुकान के विषय में पूछे तो वो बोले, “क्या प्रेत लेखन के लेखक से मिलने आए हैं?” मैंने सहमति में सिर हिलाया तो उन्होंने हाथ का इशारा करते हुए दुकान को दिखा दिया। इशारे करते हुए उनके चेहरे पर एक मुस्कान थी। मैंने उन्हें धन्यवाद अदा किया और फिर मुस्कराकर उस दुकान की तरफ बढ़ गया।

दुकान पर पहुँचा तो योगेश जी व्यस्त थे क्योंकि ग्राहक वहाँ पर मौजूद थे। हम मिले। मैं उनके पैर छूने के लिए झुका तो उन्होंने आगे बढ़कर हाथ मिला लिया और मुस्कराकर मुझे एक और बैठने के लिए कहा। ग्राहकों को फोटो कॉपी चाहिए थी तो उन्होंने वह कार्य किया और फिर उनसे निपटकर हम लोगों की बातचीत का सिलसिला आरंभ हुआ।

मैं लगभग पौने एक बजे दुकान में पहुँचा था और लगभग सवा तीन बजे तक वहाँ पर मौजूद था। इन दो घंटों के दौरान योगेश जी ने मुझे दुकान में मौजूद हर मशीन का परिचय दिया था जिससे साफ जाहिर था कि उन्हें उससे कितना लगाव था। यह उनकी दुनिया थी और देखकर लग रहा था कि वह यहाँ पर खुश हैं, संतुष्ट हैं।  इसके अलावा हमारे बीच पुस्तकों को लेकर, लेखकों को लेकर, प्रकाशकों को लेकर कई तरह की बातें हुई। कई किस्से मुझे उनसे सुनने को मिले। कुछ किस्से जो पहले केवल फेसबुक पोस्ट के माध्यम से पढे थे उन्हें उनके मुख से सुनने का मौका मिला और वह उतने ही रोचक लगे जितना कि पढ़ते हुए लगे थे।

योगेश जी का उत्साह देखते ही बनता है। शब्दों, पुस्तकों से उनका प्रेम वही जान सकता है जो उनसे मिला हो। अपनी पुस्तकों के विषय में उन्होंने बताया कि कैसे एक बार घर शिफ्ट करने के दौरान उन्हें अपनी पुस्तकें औने पौने दाम में बेचनी पड़ी थी क्योंकि नए घर में इतनी जगह नहीं थी कि उन्हें रखा जा सके और पड़ोस के लोग उन्हें लेने को तैयार नहीं थे। वह चाहते थे कि कोई पाठक उन पुस्तकों को अपने घर में जगह दे या फिर मोहल्ले वाले ही लाइब्रेरी बनाकर उन्हें रखें लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। यह बताते हुए हमेशा हँसते मुस्कराते चेहरे वाले योगेश मित्तल जी के चेहरे पर मायूसी दिखने लगती है। इस किस्से को सुनाते हुए जब किताबो के बेचने की बात आती है तो उनकी जबान लड़खड़ाने लगती है और उनकी जबान की लड़खड़ाहट वही समझ सकता है जो पुस्तकों से प्रेम करता है। यह सब सुनते हुए मैं यही सोच रहा था कि अगर मैं कुछ किताबें यहाँ से ले जाता हूँ कि मेरे ऊपर यह जिम्मेदारी होगी कि मैं इन किताबों का उतना ही ख्याल रखूँ जितना प्रेम इन किताब के स्वामी को इनसे है। यह एक महती जिम्मेदारी थी जो वह मुझे सौंप रहे थे और मुझे इसके काबिल बनकर दिखाना ही था।

वहाँ बैठे बैठे हमने दो बार कॉफी पी, बिस्कुट खाया, फल खाये और ड्राई फ्रूट्स भी खाए। वह यह सब अपनी दुकान में रखते है। योगेश जी बचपन से दमे के मरीज हैं और अपने पास दमे की दवा भी रखते हैं। वह यह सब कुछ उतने ही उत्साह से मुझे दिखाते भी है और मैं यही सोचता हूँ कि उत्साह, नेह और जोश से भरे इस इंसान से मिलना कितना सुखद है। और यही उत्साह, सकारात्मकता उन्हें इतना स्वस्थ भी बनाती है और यही कारण हैं लोग उनसे मिलकर खुश हो जाते हैं। यह खुशी आस पास के लोगों में भी देखने को मिलती हैं। बीच बीच में अड़ोस पड़ोस के दुकान से लोग भी उनसे मिलते हैं और वह उसी तरह मुस्कराकर उनसे मिलते हैं जैसे किसी और से। शायद यही कारण है छोटे छोटे बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक से वह उतना ही स्नेह पाते हैं।

उनकी दुकान की बगल में उनके भाई की दुकान भी है। वह उनसे भी मिलाने के लिए मुझे ले जाते हैं लेकिन भाई तब दुकान में नहीं थे। फिर उन्हें याद आता है कि भाई कहीं गए हैं। भाई के बेटे की शादी है तो कोई रस्म होती है उसे निभाने वह और उनका परिवार साथ में योगेश जी की पत्नी भी गई हैं। भाई की बात करते करते दुकान की बात भी आती है और वह बताते हैं कि कभी उनकी और उनके भाई की दुकान में मीट की दुकान हुआ करती थी लेकिन वह गुजरे जमाने की बात है। फिर हम वापस दुकान में आकर बैठ जाते हैं।

हम बैठे रहते हैं। बातों के जलेबी छनती रहती है। जहाँ पिछली ऐसी बातें पता चलती हैं जो शायद किसी पुस्तक का हिस्सा न बने और ऐसी बातें भी पता चलती हैं जिससे लगता है कि वह हमेशा से मनमौजी रहे हैं। जो खुद को अच्छा लगा किया और नहीं अच्छा लगा तो न किया। पैसे की उन्हें उतनी चिंता न अभी है और न कभी रही है। अपने गुजारे लायक वह पैसा दुकान से कमा ही लेते हैं। लेखन से पैसे कमाने की इच्छा अब उन्होंने शायद छोड़ ही दी है। अब तो वह चाहते हैं कि बस जो उन्होंने लिखा वह संरक्षित रहे।  इसी बीच दुकान की कहानी भी पता लगती है जो कि रोचक थी।  बीच बीच में ग्राहक भी आते रहते हैं और योगेश जी उनसे भी डील करते रहते हैं।

इसी दौरान वह मुझे अपनी वह स्क्रिप्ट  भी दिखाते हैं जो उन्होंने तब लिखी थी जब बीच में उनकी किताबें प्रकाशित होना बंद हो गई थीं। वह खुशी खुशी बताते हैं कि कंप्यूटर पर् स्क्रिप्ट टाइप करके देने वाले वह प्रथम लेखकों में से एक थे। वह बताते हैं कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है और वह यह चीज मानते हैं और इसलिए वह खाली रहने के बजाए लिखते रहना पसंद करते हैं। उन्होंने लगभग पाँच से दस स्क्रिप्ट मुझे दिखाई हैं जो कि उन्होंने कई पात्रों को लेकर लिखी हैं और अभी भी वह निरंतर लिखते ही रहते हैं। अभी भी वह दो तीन स्क्रिप्ट्स पर कार्य कर रहे हैं। अलग अलग माध्यमों के लिए वह लिख रहे है। वह कहते हैं कि उन्होंने लेखन की दुनिया से खुद को अलग कर दिया था और उसके कारण भी थे लेकिन उसके बाद भी उन्होंने लिखना नहीं छोड़ा था। उन्हें नहीं पता था कि इसमें से कुछ कभी छपेगा या नहीं लेकिन फिर भी वह लिखते रहते थे। लेखन की दुनिया में फिर से सक्रिय होने के विषय में कहते हैं कि जब उनके एक मित्र जो कि पड़ोस की दुकान में रहते हैं के कहने पर उन्होंने फेसबुक पर लिखना शुरू किया तो फिर वहाँ उन्हें ऐसे पाठक मिल गए जिनके उत्साह से प्रेरित होकर उन्होंने दोबारा अपनी कलम चलाई और उसका नतीजा यह हुआ कि हिन्दी लोकप्रिय लेखन के जगत की कई अनूठी जानकारियाँ देती पुस्तकें प्रेत लेखन और वेद प्रकाश शर्मा: यादें बातें और किस्से उनकी कलम से निकली। और आगे उनकी कलम से लेखकीय दुनिया के किस्से सुनाती ऐसी और किताबें भी निकलेंगी।

ऐसी ही बातचीत में कब दो ढाई घंटे बीत गए मुझे पता ही नहीं चला। बीच में उन्होंने दो क्रेट पुस्तकें भी मेरे सामने रख दी और मुझे उनमें से किताबें चुनने को कहा। इन किताबों में से एक ऐसी लगभग 50 वर्ष पहले प्रकाशित पत्रिका ज्ञान भारती भी निकलती है जिसमें उनका नाम दर्ज है। वह किताब देख वह किसी बच्चे के समान खुश हो जाते हैं और उस वक्त की यादों में खो जाते हैं। वह बताते हैं उस दौरान उन्होंने एक कविता शायद उधर भेजी थी तो इस कारण उनका नाम उधर आया। ऐसी ही उनके पास मधु-मुस्कान (शायद यही नाम था) पत्रिका के अंक भी हैं जिसमें उनकी कविताएँ प्रकाशित हैं। उसके विषय में बताते हुए वह कहते हैं कि उन्हें उसके संपादक द्वारा कहा गया था कि उन्हें उस पत्रिका के लिये कविताएँ देनी हैं तो वह तीन कविताएँ उसके लिए तैयार करते थे। एक कविता मिठाई पर होती थी, एक कविता किसी सामान्य विषय पर और एक कविता किसी अंग्रेजी कविता का भारतीयकरण होती थी। वह उस पत्रिका के दो अंक भी मुझे दिखाते हैं जिसमें ऐसी तीन-तीन कविताएँ मौजूद हैं।  ऐसे ही किस्सों के बीच मैं पुस्तकों के संग्रह में से अपनी पसंद की पुस्तक लेता हूँ। जिन पुस्तकों पर धूल लग चुकी है वह कपड़ा लेकर उसे साफ करते रहते हैं।  इसी दौरान वह अपनी लिखी पुस्तक, जो कि रजत राजवंशी के नाम से प्रकाशित हुई थी भी मुझे देते हैं। इसके साथ ही वह कुछ ऐसी पुस्तकों की फोटो कॉपी मुझे दिखाते हैं जो उन्होंने अलग अलग नामों से लिखी थी। उन्होंने मूल उपन्यासों से इनकी फोटो कॉपी निकाल ली है ताकि यह स्क्रिप्ट संगरक्षित रहें। बाइन्डिंग की हुई इन फोटो कॉपी उपन्यासों में सामाजिक उपन्यास भी है और अपराध साहित्य भी। वह मुझे एक स्क्रिप्ट ले जाने को कहते है तो मैं उनसे कहता हूँ  कि अगर इनकी पीडीएफ हो तो वो मुझे दीजिएगा। मुझे लगता है इन फोटोकॉपीस पर उनका ही अधिकार है। वह पीडीएफ देने की बात मुझसे करते हैं। पुस्तकें चुनने के बाद हम बैठते हैं। एक बार फिर कॉफी पीते हैं और बातचीत का सिलसिला शुरू हो जाता है। मैं वक्त देखता हूँ काफी देर हो गई है और अब आखिरकार मेरा जाने का वक्त हो जाता है।

ज्ञान भारती पत्रिका जो किताबों के ढेर से अचानक हमें मिल जाती है
योगेश जी का नाम 71वें नंबर में
योगेश मित्तल द्वारा रजत राजवंशी के नाम से लिखा उपन्यास ‘खून मेरा जहरीला’

जाने से पहले मैं फोटो के लिए कहता हूँ और हम फोटो खिंचवाते हैं। एक फोटो मैं सेल्फ़ी लेता हूँ और एक फोटो वह दुकान के सामने ही मौजूद एक महिला को लेने को कहते हैं। वह बताते हैं कि जब लेखक राम पुजारी आए थे तो उन्हीं महिला ने उनकी फोटो भी खींची थी। मेरे आने से एक दो सप्ताह पहले पराग डिमरी भी उनसे मिलने आए थे और उनके मिलने आने को भी वह बड़े चाव से बताते हैं।

फोटो लेने के बाद मैं पुस्तकों को अपने बैग में भरता हूँ और हम दुकान से बाहर निकल पड़ते हैं। वह भी  मुझे छोड़ने निकलते हैं।  जाते जाते वह मुझे अपने उन मित्र से मिलाने से भी ले चलते हैं जिन्होंने उन्हें प्रेरित किया था। उन सज्जन से छोटी सी मुलाकात होती है और उनके भीतर भी योगेश जी के लिए प्रेम देखते ही बनता है। वह  भजन के विषय में भी उन्हें बताते हैं कि वह हमारे चैनल से आया था। वृद्ध भजन से वाकिफ दिखते हैं। उनसे इजाजत लेकर हम लोग बाहर को आते हैं और सोसाइटी के गेट से निकल जाते हैं।

योगेश मित्तल जी के सेल्फ़ी
योगेश मित्तल जी के साथ उनकी दुकान के समक्ष

मुझे आगे वह चौराहा दिखता है जहाँ से मैंने मेट्रो तक जाने के लिये ऑटो पकड़ना है। मैं एक बार फिर उनके पैर छूता हूँ तो वह दोबारा रोक लेते हैं। वह प्यार से कहते हैं कि पहुँचूँ तो उन्हें बताऊँ और फिर मैं ऑटो की तरफ को निकल पड़ता हूँ और वह अपनी दुकान की तरफ् बढ़ जाते हैं।

अब धीमी धीमी बारिश हो रही है। यह बारिश ऐसी नहीं है कि भीग जाऊँ। मेरा मन भी अंदर से भीगा हुआ है।  आज का दिन इससे बेहतर शायद नहीं हो सकता था। मैं मुस्कराता हूँ और अपने घर की ओर निकल पड़ता हूँ। मुझे पता है रह रहकर योगेश जी से करी हुई बातें मेरे जहन में आती रहेंगी और रास्ते भर में वही सब सोचता हुआ चलूँगा।

पहले ऑटो से मेट्रो स्टेशन फिर उधर से रिक्शा पकड़ कर उत्तम नगर और उत्तम नगर से कापासेहड़ा बॉर्डर की तरफ एक बस पकड़ कर मैं निकल पड़ता हूँ। बस में मैं बस ड्राइवर की सामने वाली सीट में बैठा हुआ हूँ। बस ड्राइवर गाड़ी चला रहा है लेकिन साथ साथ फोन पर किसी से बात भी कर रहा है। यह शायद दूसरी बस का ड्राइवर है जो कि शायद उसका मातहत ही है। वह उससे बहस कर रहा क्योंकि वह तीन साढ़े तीन मिनट लेट चल रहा है। मुझे याद आता है 2006 से 2007 का समय जब मैं ब्लू लाइन बसों में चला करता था। वहाँ हर मिनट लेट होने पर बस वालों को फाइन देना होता था। बस वाले जितनी देर हो सके स्टॉप पर रुके रहते थे और फिर तेजी से गाड़ी भगाकर अगले स्टॉप तक पहुंचते थे। जितनी जल्दी वह यह दूरी तय करता उतना ज्यादा वक्त उन्हें स्टॉप पर रुकने और सवारी भरने का मिलता। इतने वर्षों बाद फिर वही चीज होते देखना एक अलग अनुभव है। इतने तनाव में वह व्यक्ति अभी दिखता है। हैरत नहीं है कि वह गुस्से से भरा हुआ हो और कभी गलत जगह उसे गुस्से को निकाल दे। मैं शायद इतने तनाव में कार्य न कर पाऊँ मैं सब सोचता हूँ। वह फोन पर ड्राइवर को हड़काता है और जब उसे लगता है कि उसने उपयुक्त डोस दे दी है तो फोन काट देता है। वह अभी भी गुस्से में लगता है। रोचक बात यह है कि उसकी शक्ल सूरत मेरे एक मामा से मिलती है लेकिन उन मामा के चेहरे पर मैंने कभी उतना तनाव नहीं देखा जबकि वह मामा फौज में अफसर थे। फिर मैं सोचता हूँ शायद जब वह मिशन पर जाते रहे होंगे और किसी से कुछ गलती होती होगी तो वह भी ऐसे ही दिखते होंगे। इस बस ड्राइवर का भाँजा होगा तो उसे तो वह ड्राइवर साहब वैसे ही दिखते होंगे जैसे मेरे मामा मुझे दिखते हैं। टेंशन फ्री।  इस सब में डेढ़ दो घंटे गुजर जाते हैं।

बैठे बैठे मैं रह रहकर अपनी मुलाकात के बारे में भी सोच रहा हूँ। और सोच रहा हूँ कि जो किताबें मेरे पास हैं उनके लिए भी कभी मुझे शायद किसी उचित उत्तराधिकारी को तलाशना होगा। मुंबई वाली घटना तो दिमाग में ही है लेकिन शायद जब योगेश मित्तल जी की उम्र का होऊँ तो मैं भी किसी को ऐसे ही उन पुस्तकों की जिम्मेदारी सोपूँ जैसे योगेश मित्तल जी ने मुझे यह जिम्मेदारी सौंपी है।

कापासेहड़ा बॉर्डर

कापासेहड़ा तक का आगे का सफर बिना किसी परेशानी के गुजर जाता है। मैं कापासेहड़ा पहुँचता हूँ और गुड़गाँव तक जाने वाले एक ऑटो में बैठ जाता हूँ। वहाँ पर सवारी भरने लगी है। उन्हीं सवारी में से एक महिला है जो अपने दो बच्चों के साथ बैठी है। उस महिला और बच्चों को छोड़ने एक युवती और एक अन्य बुजुर्ग महिला आई हैं। बच्चे खुश हैं क्योंकि उन्हें उस युवती ने जो कि शायद किसी फैक्ट्री में काम करती है, ने जेब भर कर च्विंगगम दिए हैं। जाहिर है युवती और बुजुर्ग उस महिला को छोड़ने आई हैं। युवती उन बच्चों से हँसी ठिठोली कर रही है और रिक्शे वाले से सवारी कब जाएगी ये भी पूछ रही है। तभी दूसरा रिक्शा वाला एक टिप्पणी करता है जिससे उस युवती के चेहरे के भाव बदल जाते हैं। जिस चेहरे पर अभी वात्सल्य दिख रहा था उस चेहरे पर क्रोध झलकने लगता है। वह गौरवर्ण युवती अब दुर्गा में तब्दील हो जाती है और टिप्पणी करने वाले को अच्छे से हड़का देती है। कुछ और लोग उससे पूछते हैं क्या हुआ लेकिन वह उस आदमी से निपटने के लिए अकेले ही काफी दिखती है। वह अबला नहीं सबला है।  टिप्पणी करने वाला घबरा सा जाता है और टूटी फूटी सी सफाई पेश करता है। मैं मुस्करा देता हूँ। हमारे देश में स्त्री को शक्ति कहा है। वह शक्ति जिसके आगे त्रिदेव भी नतमस्तक हो जाते हैं। वह युवती अभी उसी शक्ति का अंश दिखलाई देती है। उस पर मुझे गर्व होता है। मुझे मालूम है जिस प्रकार के जानवर इंसानी शरीर ओढ़ कर घूम रहे हैं उनके डाँट खट्टे करने का माद्दा वो युवती रखती है। हमारे देश को ऐसी ही युवतियों की जरूरत है। काश सभी उस युवती जैसी बन जाए। यह प्रकरण कुछ सेकंड चलता है। वह ऑटो वाला झेंपता हुआ सा चुप हो जाता है और वह युवती उन बच्चों के साथ खेलने में व्यस्त हो जाती है। उसके चेहरे से क्रोध गायब हो चुका है और अब वात्सल्य उमड़ रहा है।

धीरे-धीरे सवारी भरने लगी है। एक भारी भरकम शरीर वाली स्त्री ऑटो में बैठने के लिये आती है। श्याम वर्णी इस स्त्री के पास एक भारी बैग है तो ऑटो वाला उसे ले जाने से मना कर देता है। लेकिन फिर उसकी बात सुनकर दूसरे ऑटो वाला उसे हड़काता है और वह महिला भी ऑटो में आ जाती है। उस स्त्री के साथ आया आदमी उसके वजन पर टिप्पणी करते हुए कुछ कहता है तो वह उसे ऐसा जवाब देती है कि वह आदमी अपना सा मुँह लेकर रह जाता है। मैं मन ही मन यह देख मुस्कराता हूँ। आदमी दब कर रहे तो शायद दुनिया वाले उसे दबा दें लेकिन अगर लोग जिसे उसकी कमजोरी समझते हैं वह उसे अपना हथियार बना लें तो शायद कोई फिर उसे दबा नहीं सकेगा। अब स्त्री भी तो यही करती है। मैं उस स्त्री को देखता हूँ तो उसके चेहरे मोहरे से मुझे अपनी 12 वीं की कंप्यूटर टीचर की याद आ जाती है। बस उनके पहनावे का अंतर है लेकिन अगर पहनावा एक सा हो तो शायद लोग उन्हें रिश्तेदार ही समझे। वैसे बारहवीं के बाद शायद यह इसी वक्त है जब मैंने अपनी उस कंप्यूटर टीचर के विषय में सोचा हो। अगर यह स्त्री न दिखतीं तो शायद वह न हो पाता। यही कारण है मुझे बस, साझा ऑटो इत्यादि में सफर करना पसंद है। कई तरह के लोग इधर दिख जाते हैं। ऐसे लोग जिनसे शायद हम तब न मिल पाए जब हम ओला ऊबर से जाए।

अब ऑटो चलने के लिए तैयार हो जाता है, वह गौरवर्ण युवती उस महिला और बच्चों से विदा लेती है और उन्हें जाते हुए देखती है। हम आगे बढ़ जाते हैं और वह वृद्धा के साथ शायद अपने घर की तरफ निकल पड़ती है। आगे का सफर बिना किसी दिक्कत के बीतता है। कुछ होता भी है तो बस वही रोज की झिकझिक। ऑटो का सवारी के कहने के स्थान से आगे को रुकना और सवारी का इसके लिए ऑटो वाले को डाँटना है। यह काम वैसे एक वृद्धा ही करती हैं। मैं सोचता हूँ आज नारी के अलग अलग रूप देखने ही बदे थे। खैर, इस घटना को छोड़ ऑटो गुड़गांव तक बिना किसी और घटना के आता है और फिर वहाँ से पैदल जाकर मैं अपने सेक्टर तक जाने का साधन लेता हूँ। इलेक्ट्रिक रिक्शा मिल जाता है और मैं अपने सेक्टर की ओर बढ़ जाता हूँ।

मेरे लिए यह दिन बहुत यादगार था। मैं योगेश जी से वादा करके आया हूँ कि दोबारा उनसे मिलने आऊँगा।  मैं सोचता हूँ कि यह अब कब होगा।  सेक्टर आता है और मैं उतर जाता हूँ और अपने घर की तरफ बढ़ जाता हूँ। घर पहुँचने से पहले अपनी पत्नी जी को फोन करता हूँ। मैं उनसे कहता हूँ कि चाय बनाकर रखे मैं मठरी लेकर आऊँगा और चाय के साथ हम साथ में खाएँगे।  वैसे भी सवा छः होने को आए हैं। मेरे सेक्टर में तेज बारिश हुई है तो सड़क पर पानी फैला हुआ है। मैं इकट्ठे हुए पानी से बचने की कोशिश करते हुए बढ़ रहा हूँ और् उम्मीद के खिलाफ इस कोशिश में सफल भी हो जाता हूँ।  साथ ही मैं फोन खोलकर देखता हूँ तो उसमें योगेश जी का मैसेज है। वह पूछ  रहे हैं कि मैं पहुँचा या नहीं। मैं अपने सेक्टर तक पहुँचने की खबर उन्हें देता हूँ और कहता हूँ कि पाँच दस मिनट में मैं पहुँच जाऊँगा।   मैं मिठाई की दुकान तक पहुँचता हूँ तो मुझे वह पतली वाली मठरी उधर नहीं मिलती हैं। मैं नमकपारे ले लेता हूँ और अपने कमरे की तरफ बढ़ जाता हूँ।

गर्मागर्म चाय के साथ नमकपारे खाते हुए आज का दिन मैं  अपनी पत्नी जी को बताने के लिए उत्सुक हूँ। योगेश जी के मार्फत जो नगीने मुझे मिले उन्हें उन्हें दिखाने के लिए उत्साहित हूँ।

चलिये हम तो बात करते रहेंगे आप भी उन पुस्तकों को देखिए:

योगेश मित्तल जी से प्राप्त हुई सभी पुस्तकेंपुस्तकें

अब इस संग्रह में जो पुस्तकें थी उनसे आपको मिलाता हूँ। चलिए देखिए:

पहला लॉट

  1. आग की लकीर – अमृता प्रीतम
  2. विश्व प्रसिद्ध जासूस
  3. मुखौटा – नरेश शर्मा
  4. रहस्यनामा (रूसी कहानियों का संग्रह)
  5. वेदि मंडप – आचार्य चतुरसेन
  6. Brucelee’s Fighting Skills – Brucelee and Uyehara
  7. मानभूमि का षड्यन्त्र – वेद प्रकाश कांबोज
  8. रहस्यमयी औरत (लेखक नामालूम)
पहला लॉट

दूसरा लॉट

  1. The Damocles Sword – Elleston Trevor
  2. Eye of the Needle – Ken Follet
  3. 1876 – Gore Vidal
  4. The Amateur – Robert Littell
  5. The Second Lady – Irving Wallace
  6. Fright Time (Collection of Three Stories for Young Readers)
  7. The Great Indian Bores – Jug Suraiya
  8. The Oregon Trail – Francis Parkman
  9. Titanic: The Long Night – Diane Hoh
  10. Some Distance Shore – Margaret Pemberton
  11. Messiah – Gore Vidal
  12. The Oblivion Tapes – Timeri Murari
दूसरा लॉट

तीसरा लॉट

  1. First Among Equals – Jeffery Archer
  2. Midnight’s Children – Salman Rushdie
  3. Priest Kings of Gor – John Norman
  4. Proteus – Morris West
  5. A time to Kill – John Grisham
  6. Laughing Gas – P G Woodhouse
  7. Damage – Joshepine Hart
  8. The Immortals – Michael Korda
  9. Walk Softly Witch – Carter Brown
तीसरा लॉट

चौथा लॉट

  1. छलावा और शैतान – वेद प्रकाश शर्मा
  2. पूर्णाहुति – यमुना शेवड़े
  3. शावरा – राजभारती
  4. गंगवा गंगामाई – शंकर मोकाशी ‘पुणेकर’
  5. वो साला खद्दरवाला – वेद प्रकाश शर्मा
  6. खून मेरा जहरीला – रजत राजवंशी
  7. गुनाह के फूल – भारत
  8. पाकीजा – दत्त भारती
  9. जंग का ऐलान – केशव पंडित
  10. बहते आँसू – आचार्य चतुरसेन
  11. Where is the withered man? – John Creasy
  12. जंगली कबूतर – इस्मत चुगताई
चौथा लॉट
योगेश मित्तल जी की दुकान से निकलकर पुस्तकों ने मेरी शेल्फ में जगह पा ली है। उम्मीद है यह नया घर उन्हें पसंद आएगा।
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About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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0 Comments on “नेह से भीगी हुई एक मुलाकात”

  1. बहुत सुंदर मुलाक़ात और बेहतरीन इस मुलाक़ात का वर्णन।

  2. अपरिचितों का परिचित हो दिल में जगह बना लेना संसार का नियम है । मित्तल जी के साथ मुलाक़ात को बहुत सुन्दर शब्दों में ढाला है । किताबों से मिलना और बिछड़ना खुद की कहानी लगी ।

  3. जी आभार मैम। किताबों से मिलने और बिछड़ने की आपकी कहानी भी पढ़ने को जल्द ही मिले तो अच्छा हो। मैं वह कहानी जरूर जानना चाहूँगा।

  4. आप निश्चय ही सौभाग्यशाली हैं जो योगेश जी जैसे गुणी व्यक्ति का स्नेहयुक्त सान्निध्य आपको प्राप्त हुआ. आप ही के द्वारा प्रस्तुत योगेश जी के ब्लॉग के माध्यम से उनके विषय में बहुत कुछ जाना है. आपकी उनसे मुलाक़ात अब जाकर हो पाई, इससे यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक कार्य अपने निर्दिष्ट समय पर ही संपन्न होता है. बहुत-बहुत बधाई आपको. और इस संस्मरण को साझा करने हेतु आभार.

  5. योगेश मित्तल जी को आपके माध्यम से विस्तार से जानना बहुत अच्छा लगा। साहित्य को समर्पित मित्तल जी की सादगी देखते ही बनती है।

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