शनिवार, चार नवम्बर 2017
मैं और मनीष भाई दिल्ली से ग्वालियर पहुँच चुके थे। हमे ग्वालियर के स्टैंड पर बस ने उतारा था जहाँ हमने एक आध घंटा वक्त काटा था। फिर हल्का नाश्ता कर एक ऑटो ले लिया था।
(यहाँ तक आपने पिछली कड़ी में पढ़ा। विस्तृत तौर पर पढने के लिए
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अपनी प्रजा को दर्शन देते युवराज मनीष |
सुबह का वक्त था और ग्वालियर की सड़के ज्यादातर खाली ही थी। लोग बाग़ कम दिख रहे थे और जो थे उनमे से ज्यादातर अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत सुबह की वाक पर निकलने वाले थे। अभी ग्वालियर अंगडाई ले रहा था। ऑटो वाले से जब हमने पूछा था कि फोर्ट चलोगे तो उन्होंने पैलेस कहा था। अब मुझे इतना पता था कि फोर्ट में कई पैलेस हैं तो हमने उनकी बात में ज्यादा तवज्जो नहीं दी। देनी चाहिए थी।ऐसा इसलिए क्योंकि उनके मुताबिक़ वो हमे जय विजय पैलेस ले जा रहे थे जबकि हमारी मंजिल ग्वालियर का किला था। दोनों ही अलग अलग जगह थीं। पंद्रह बीस मिनट के बाद उन्होंने हमे पैलेस के सीमा रेखा के सामने उतारते हुए कहा कि उधर से पैलेस का रास्ता नजदीक है। हमने जब पूछा कि हमे तो ग्वालियर फोर्ट यानी ग्वालियर किला जाना है तो उन्होंने कहा कि वो तो काफी आगे है और उधर जाने का चालीस रूपये और लगेगा। मैंने मनीष भाई को देखा और उन्होंने मुझे देखा। फिर मैंने उनसे कहा कि सुबह का मौसम है जो कि चलने के लिए सबसे अनुकूल होता है। क्यों न अभी चलते चलते ही पहुँचा जाये। हमने ड्राईवर साहब से बस ये कन्फर्म किया कि किला किस दिशा में पड़ेगा। उन्होंने हमारा मार्गदर्शन किया और फिर हमने किराया अदा किया। वो अपनी दूसरी सवारी की तलाश में निकल पड़े और हम लोग किले की तरफ की पदयात्रा करने के लिए। वैसे भी अभी सवा छः हो रहे थे।
हमने सड़क क्रॉस की। सड़क के किनारे फूटपाथ की दीवार पर कुछ शानदार पेंटिंग्स बनी थी। पेंटिंग्स में सामाजिक सन्देश थे और ये मुझे और मनीष भाई को आकर्षक लगीं तो हम इनकी फोटो निकालने लग गये।पाँच दस मिनट हमने उधर फोटो खींची। फिर आगे बढ़ गये। उसी स्थान पर एक गुरुद्वारा भी था। अभी तो हमारी मंजिल कुछ और थी। वक्त मिलता तो इधर जाने का विचार बनाते। सड़क सीधी थी। एक जगह चौराहा आया तो हमने दिशा निर्देश लिए। यहीं पे हमे एक धातु की बनी कलाकृति दिखी जो कि चौराहे के मध्य में लगा रखी थी। इस कलाकृति में धरती से एक इंसानी जोड़ा निकल रहा था जो कि बच्चों के साथ खेल रहा था। इस कलाकृति ने हमारा ध्यान अपनी तरफ केन्द्रित किया और हमने इसके कुछ तस्वीर उतारे। फिर हम अपनी मंजिल की ओर बढ़ चले।एक बार थोड़ा बहुत चलने के बाद जब किसी से रास्ता पूछा तो उसने कहा कि किला गेट तो काफी दूर है और आप लोग पैदल नहीं चल पाओगे। मैंने मनीष भाई को देखा तो मेरे चेहरे पर शायद ऐसे भाव रहे होंगे कि अच्छा बच्चू हमे चुनौती। अब तो पैदल ही जाया जायेगा। और यही बात मैंने मनीष भाई से कही। खुशकिस्मती से वो भी इस बात के लिए राजी थी। घुमक्कड़ी में ऐसे ही साथी की जरूरत होती है जिससे आपकी ट्यूनिंग बैठे। वर्ना अगर वो कहते कि ऑटो से जाना है तो मन मारकर मुझे ऑटो में ही जाना पड़ता। खैर, क्योंकि अभी दोनों ही राजी थी तो हम अपनी मंजिल की और बढ़ने लगे। अब सोचता हूँ तो उनके लिए हम लोग अजीब रहे होंगे। वो उधर का स्थानीय थे और उनके लिए किला गेट कोई उत्साह का कारण नहीं था और इसलिए पैदल चलकर उधर जाने का उन्हें कोई औचित्य नहीं दिखता था। और शायद ही वो उधर तक कभी पैदल गये होंगे। जैसे मैं और मनीष भाई अपने अपने स्थानीय इलाकों में कभी ऐसे नहीं गये होंगे। लेकिन हम तो उधर पहली बार जा रहे थे और इसलिए हम एक अलग उत्साह से भरे हुए थे। और इसलिए हम उधर पैदल जा सकते थे। फिर मौसम भी खुशनुमा था।
पैदल चलते हुए बीच में एक फाटक भी आया जहाँ से ट्रेन गुजर रही थी और हमने उधर थोड़े देर इन्तजार किया। ट्रेन मेरे लिए हमेशा से ही कोतुहल का विषय रही है। पहली बार ट्रेन में मैं कॉलेज के दूसरे साल में ही गया था। उससे पहले ट्रेन के विषय में खाली सुना और पढ़ा था। मुझे याद है जब हम छोटे थे तो एक पार्क में मेला लगता था और उसमे खिलौने वाली ट्रेन आती थी जिस पर चढ़ने के लिए हम बच्चे बहुत लालायित रहते थे। किसी और झूले के प्रति उस तरह के भाव नहीं रहते थे। और इधर इस शहर लोगों के लिए तो ट्रेन आम बात थी। उन्हें ट्रेन के विषय में कैसा महसूस होता होगा। क्या इसकी खड़खड़ाहट अब जीवन का हिस्सा बन गई होगी? वैसे ट्रेन की बात करूँ तो नव्वीं या दसवीं में एक कविता थी अंग्रेजी की जिसमे एक बच्चा रात को विभिन्न ट्रेन्स को देखकर अपने मन में आने वाले भावों को बतलाता है। पैसेंजर ट्रेन से अलग और मालगाड़ी से अलग भाव उत्प्पन होते हैं। शायद मालगाड़ी चूंकि अँधेरी रहती है तो वो प्रेत समान लगती थी और साधारण यात्रियों को ले जाने वाली गाड़ी में रोशनी होती थी तो वो दिवाली के समान जगमगाते घर की तरह। अब तो मुझे ढंग से वो कविता याद भी नहीं है। और ये उपमायें कविता से कम मेरे मन से ज्यादा निकली हैं। वो बच्चा भी शायद ऐसी ही जगह रहता होगा। खैर, ट्रेन तो निकल चुकी थी और जब फाटक से जाने की अनुमति मिली हम लोग भी आगे बढ़ गये।
ऑटो से उतरने के पैंतालीस मिनट, यानी सात बजे करीब हम लोग किला गेट के समक्ष मौजूद थे। सुबह का वक्त होने के कारण अभी तक हमे भीड़ कम मिली थी। और मौसम सुहावना था। चूंकि हम चल रहे थे तो ठंड भी नहीं लग रही थी। एक पड़ाव तो हमने पा लिया था।
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आखिर मंजिल पर पहुँच गये…. अब आराम ही आराम…. |
मैंने नेट में ग्वालियर के विषय में पढ़ा था तो देखने लायक काफी चीजें पता चली थी। मैंने सामने गेट देखा तो सोचा कुछ चीजें तो इधर ही देखने को मिलेंगी। मनीष भाई के साथ प्लान किया कि इसे जल्दी से जल्दी निपटने की कोशिश करेंगे और दूसरी चीजें भी देखेंगे। लेकिन हमे नहीं पता था ग्वालियर किला को निपटाना कोई हँसी खेल नहीं है। खैर, उसके विषय में अगली कड़ी में क्योंकि पूरा इधर लिखूँगा तो काफी लम्बा हो जायेगा।
वैसे किले गेट तक जाने के लिए बस स्टैंड से साझा ऑटो मिलते हैं तो जो लोग इधर तक पैदल न आना चाहे वो ऑटो में आराम से आ सकते हैं।
क्रमशः
इस यात्रा की सारी कड़ियाँ
ग्वालियर #1: दिल्ली से ग्वालियर
ग्वालियर #2: ग्वालियर बस स्टैंड से किला गेट तक
ग्वालियर #3: ग्वालियर किला और वापसी
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दिखाओ ग्वालियर किला, अपुन को भी जाना है।
Very well written
अच्छा लिखा ग्वालीयर देखने कि तमन्ना जाग ऊठी
अच्छा लिखा ग्वालीयर देखने कि तमन्ना जाग ऊठी
शुक्रिया।ब्लॉग पर आने का शुक्रिया। आते रहियेगा।
शुक्रिया। वक्त की कमी के कारण लिखने का मौका नहीं लग पा रहा था। लेकिन अब आखिरी कड़ी प्रकाशित कर दी है। आप ऐसे ही प्रोत्साहित करते रहना। आपका कमेंट देखकर प्रोत्साहित होता हूँ।
शुक्रिया। आपके साथ घूमने का अनुभव मज़ेदार था। उम्मीद है और भी ऐसी यात्रायें होती रहेगी।