इस रचना की बात की जाए इसका विचार 23 मई 2025 को अपना कॉमिक्स ग्रुप नामक व्हाट्सएप ग्रुप में बतकही के दौरान आया था और ग्रुप के एक सदस्य को लगभग चिढ़ाने के लिए यह लिखी थी। उस समय इसमें 5 शेर थे। लिखा तो अच्छा लगा। वैसे भी ग़ज़ल के लिए एक अच्छे काफिये और रदीफ की तलाश हर शायर को होती है। यहाँ मतला (शुरुआती शेर), काफिया (ग़ज़ल में मौजूद तुकांत शब्द) और रदीफ़ (तुकांत शब्द के बाद आने वाला वाक्यांश जो हर शेर में आता है। यहाँ ‘तुम क्या समझोगे’ रदीफ़ है।) उस समय आ गए थे तो इसे जाया कैसे होने देता। हाँ, मकता (आखिरी शेर) से मैं संतुष्ट नहीं था इसलिए इसे कहीं और पोस्ट नहीं किया।
उसके बाद जून 5 2025 को ये मैंने अपनी पत्नी जी को भेजा था। उन्हें भेजने से पहले मैंने इससे एक शेर कम कर दिया था। मकता मुझे तब भी मुतमइन नहीं कर पाया था। काफी सोचने पर भी कुछ न सूझा तो वापस इसे छोड़ दिया।
फिर कल यानी 9 जुलाई को जब बाथरूम गया था तो उस समय अचानक इस गज़ल का ख्याल आया। जो करना था करा और फिर वहीं कुछ देर बैठ गया। और फिर अचानक से जो शब्द खटक रहा था तो उसकी जगह ऐसा शब्द सूझ गया जो जँचने लगा। फिर जादू सरीखा कुछ हुआ। ग़ज़ल में कुछ जोड़ घटाव किया और आखिरकार ग़ज़ल मुकम्मल हो गयी। हाँ, एक शेर और इस प्रक्रिया के दौरान काट दिया गया पर अब ग़ज़ल को लेकर संतुष्ट था तो उसी समय इसे फेसबुक में पोस्ट कर दिया। अब आज यानी 10 जुलाई को इसे यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ।
उम्मीद है आपको पसंद आएगी।

इश्क है दिल वालो का काम, तुम क्या समझोगे
देना होता है जिंदगी का दाम, तुम क्या समझोगे
अट्ठनी चव्वनी का लगाते हो जो तुम यूँ हिसाब,
हार जाना मेरा दौलत-ए-तमाम, तुम क्या समझोगे
हुआ मुहब्बत सा हसीन भी क्या कुछ ‘अंजान’
डूबकर पाया हमने जो मुकाम, तुम क्या समझोगे
विकास नैनवाल ‘अंजान’
(9/7/2025)