उग्रसेन की बावली:
खुले रहने का समय : 9 am – 6:00 pm
नजदीकी मेट्रो स्टेशन : बारहखम्बा रोड मेट्रो स्टेशन (वायलेट लाइन)
फोटोग्राफी : कर सकते हैं
टिकेट : निशुल्क
बहुत दिनों से मैं कहीं घूमने जाने की सोच रहा था लेकिन जा नहीं पा रहा था। आखिरी बार मार्च में मैं शंकर अंतर्राष्ट्रीय म्यूजियम, फ़िरोज़ शाह कोटला और खूनी दरवाजा गया था। उसके बाद कहीं निकलने का मौका ही नहीं लगा। फिर पिछले दो हफ़्तों से तो कमर में चोट लगी हुई है तो जाने का सवाल ही नही था। जिम में कसरत करते हुए कुछ महीनों कमर को झटका लग गया था। उस वक्त उसे नज़रअंदाज कर दिया और अब जाकर वो समस्या बढ़ गयी। एक दो दिन देखा कि ठीक हो जाए। उस हफ्ते का शनिवार इतवार ऐसे ही बिता दिया लेकिन फिर जब ठीक नहीं हुआ तो ३ मई को डॉक्टर के पास गया और उसने बताया कि लोअर स्पाइन चोटिल है। रेस्ट और फिजियो चलेगा। उससे पहले के हफ्ते भी ऐसे ही बिना कहीं जाए गुजर गये थे तो मैंने इस बार फैसला कर ही लिया था कि मैं इस सप्ताहंत में कहीं न कहीं जाकर रहूँगा। शनिवार को जाने का प्लान बनाया। मैं अक्सर पहले दूसरे हफ्ते में राजीव चौक जाता हूँ क्योंकि मुझे महीने के दौरान पढने के लिए पत्रिकाएँ लानी होती है। लेकिन इस बार सोचा कि जब राजीव चौक जा ही रहा हूँ तो क्यों न बारहखम्बा में स्थित उग्रसेन की बावली भी देख ही आऊँ। मैं आजकल दिल्ली दर्शन में भी लगा हुआ हूँ तो इधर जाना बनता था।
इस जगह को मैंने पक्का किया और इसके विषय में अपने बड़े भाई योगेश (जिन्हें बब्बू भैया कहकर हम बुलाते हैं ) से चैट में बात की। वो भी जाने के लिए उत्साहित थे। उनके साथ मैं पहले पुष्कर गया था। बचपन में भी उनके साथ काफी घूमा हुआ हूँ। उसी दौरान अश्विन भाई (कॉलेज के दोस्त हैं) से भी बातचीत हो रही थी तो उन्होंने ही सजेस्ट किया था कि मैं सुबह जल्दी निकलूँ और फिर दोपहर को गर्मी बढ़ने से पहले अपने रूम में आ जाऊँ। ये सुझाव मुझे पसंद आया था। और इसीलिए मैंने योगेश भाई को कहा कि मैं नौ बजे तक राजीव चौक आ जाऊंगा। मेरा विचार खाली उग्रसेन की बावली घूमना नहीं था। मैं आसपास के कुछ और चीजों के विषय में भी पता करना चाहता था ताकि उसे कवर कर सकूँ। योगेश भाई भी नौ बजे की बात से राजी थे। अब मुझे सुबह का इन्तजार था।
सुबह मैंने 7 बजे का अलार्म लगाया था ताकि जल्दी से उठकर नहाऊँ, नाश्ता करूँ और निकल लूँ। लेकिन वो कहते हैं न कि कितनी भी योजनायें बना लीजिये जब उन्होंने असफल होना होता है तो हो ही जाती है। सुबह उठा तो मूड खराब हो गया।पीजी में पानी नहीं था। अब सुबह के नित्यकर्म और तैयार कैसे होना था यही पहली समस्या थी। पहले तो साढ़े सात तक पानी का इतंजार किया लेकिन पानी नदारद था। जब पानी नहीं आया तो पीजी में ही मौजूद एक व्यक्ति से इसके विषय में बोला तो उसने मोटर चलाने का आश्वासन दिया। मैं ऊपर आ गया और इन्तजार करने लगा। 7:51 पे मैंने भाई को मेसेज किया कि इधर पानी नहीं आ रहा है और मुझे थोड़ी देर हो सकती है। मैंने ये भी कहा कि अगर पानी नहीं आता तो शाम को 2-3 बजे चलेंगे। उन्होंने हामी भर दी। फिर साढ़े आठ-पौने नौ बजे के करीब पानी आना शुरू हुआ। मैं नहाया धोया और उससे पहले मैंने अपने लिए ओटस बनाने के लिए रख दिये। जब तक नहाया तब तक ओटस तैयार थे। 8:59 को भैया को मेसेज किया कि मैं उधर ग्यारह बजे तक पहुँचता हूँ। उनका रिप्लाई आया कि तब तक धूप होगी लेकिन मुझे पता था कि अगर ये प्लान पोस्टपोन हो गया तो फिर कैंसिल ही हुआ समझो। शाम का मुश्किल हो जाएगा। इसलिए मैंने कहा कि मैं आ रहा हूँ और इतनी धूप नहीं होगी। मैंने नाश्ता किया और तब तक आसपास की और जगह देखने लग गया। मुझे नेशनल नेचुरल साइंस म्यूजियम का पता लगा। मुझे जगह रोचक लगी तो उधर जाने का भी विचार किया। मैंने इस विषय में भी योगेश भाई को एक मेसेज भेज दिया। अब हम दो जगह जाने वाले थे। अगर भैया आते तो सही था लेकिन गर्मी के कारण नहीं भी आते तो मैंने तो जाना ही था। यही सोच कर मैं साढ़े नौ बजे करीब अपने रूम से निकल गया था।
धूप वाकई तेज थी। मैंने बाटा की बिल्डिंग से एक शेयर्ड ऑटो लिया और उसमे एमजी रोड तक गया। उतनी देर में मुझे पसीने आ गये थे। आजकल मैं द हौन्टिंग ऑफ़ सैम कैबोट पढ़ रहा हूँ तो ऑटो में उसके ही कुछ पृष्ठ पढ़े। अक्सर सफ़र पर मुझे किंडल ले जाना पसंद है। एक बार चार्ज करो और कई किताबें अपने साथ रख लो। अब तो हिंदी के उपन्यास भी इसमें मिलने लगे हैं। मेरे पास एक बेसिक किंडल वर्शन है जो मेरी जरूरतों के लिए काफी है। ऑटो में किताब पढ़ी। ऑटो में जब मैं घुसा था तो बीच की सीट खाली थी। दोनों कोनो में लडकियाँ और आगे की तरफ जो बैठने के लिए बना होता है उसमे भी लडकियाँ थी। मैने अन्दर घुसते ही कोने वाली लड़की को उधर सरकने को बोला तो शायद मेरी आवाज़ तेज नहीं थी या उसने अनसुना कर दिया था। फिर मुझे बीच में ही बैठना पड़ा। मैं जब अपनी किताब में व्यस्त था तो सामने की ओर से बैठी लड़कियाँ जाने किस बात पर हँसी जा रही थी। फिर मैं अपनी किताब में व्यस्त हो गया। वो इफ्को में उतर गईं। एम जी रोड में उतर कर मैं ऊपर मेट्रो में गया तो उधर भी कुछ हो रहा था। मेट्रो में जो सिपाही हमारी चेकिंग के लिए तैनात किये थे उनके साथ एक व्यक्ति ने बदतमीजी से बात की थी। वही बात बढ़ गयी थी। वैसे मुझे समझ नहीं आता लोग क्यों किसी से बदतमीजी से बात करते हैं। वो बन्दा जा रहा था और फिर उनके साथ के सिपाही उसे बुला रहे थे। आगे क्या हुआ ये नहीं पता ? लेकिन उसे साधारण शिष्टाचार तो सिखाना ही चाहिए थे उन सिपाही भाइयों को। हमारे भाई उधर मेट्रो की भीड़ को इतने अच्छे से मैनेज करते हैं तो हम उनसे तमीज से पेश तो आ ही सकते हैं। उन भाईयों का बिगड़ना लाजमी था। मैंने अक्सर ही ऐसे देखा है कि लोग ऐसा करते हैं और वो चूँकि व्यस्तता इतनी होती है तो सिपाही लोग नज़रन्दाज कर देते हैं। लेकिन मेरे हिसाब से ऐसे बद्तामिजों को नज़रअंदाज नहीं करना चाहिये।
मेरे सफर का साथी मेरा किंडल |
खैर, मैं तमाशा नहीं देखना चाहता था और ऊपर मेट्रो की तरफ चले गया। अब ट्रेन का इन्तजार था। ट्रेन आई और मैं उसमे चढ़ गया। अभी तक योगेश भाई का मेसेज नहीं आया था। मैं मानकर चल रहा था कि अगर वो नहीं आते हैं तो मैं केन्द्रीय सचिवालय उतर जाऊँगा और उधर से वायलेट लाइन पकड़ लूँगा। यही चीज मैंने उन्हें मेसेज भी की लेकिन दस चौबीस पे उनका मेसेज आ गया कि वो आ रहे थे। मैं उस वक्त उद्योग भवन पहुँच गया था। उन्होंने पूछा किधर हूँ तो मैंने बता दिया।लेकिन चूँकि मेसेज उनके पास पहुँचा नहीं था तो उनका फोन आ गया और फोन पे मैंने बता दिया। फिर मैं दोबारा उपन्यास पढने लगा। कई बार मेट्रो में भी कुछ न कुछ हो जाता है लेकिन इस सफ़र के दौरान शान्ति ही बनी रही। बस राजीव चौक में थोड़ा सा हुआ। एक व्यक्ति को उतरना नहीं था और वो बीच में अपने सामान के ऊपर बैठा था। जब राजीव चौक आने वाला था तो किसी ने उससे पूछा है उतरना है तो उसने मना कर दिया तो उस व्यक्ति ने उसे आराम से बोला कि रास्ते से हट जाए। वो भी हट गया लेकिन एक दूसरा व्यक्ति बोलने लगा कि उतरना नहीं होता और बीच में बैठ जाते हैं। लेकिन पहले वाले दोनों व्यक्ति समझदार थे। उन्होंने इस व्यक्ति की बात को नज़रअंदाज कर दिया। मुझे ऐसा लगता है कुछ लोग घर से यही सोच कर निकलते हैं कि लड़ाई करनी है। अगर जो व्यक्ति बैठा था वो थोड़ा टेढ़ा दिमाग का होता (जैसे की अक्सर बड़े शहरों में लोग मिल जाते हैं) तो कुछ न कुछ तमाशा होता है। लेकिन अच्छा हुआ ऐसा नहीं हुआ। खैर, फिर राजीव चौक आया और मैं उतर गया। मै ऊपर गया और भैया को मेसेज किया कि मैं १ और २ वाले एग्जिट के पास खड़ा हूँ। वो मुझे उधर मिले। मैं फिर उधर पहुँचकर अपने उपन्यास में मग्न हो गया। वहाँ मेरी तरह कई लोग किसी न किसी का इन्तजार कर रहे थे। ऐसे मौकों पर मैं यही सोचता हूँ कि उधर न जाने कितनी कहानियाँ घूम रही थी। लोग अलग-अलग वजहों से उधर आये थे। वो क्यों आये होंगे? उनकी ज़िन्दगी में क्या चल रहा होगा? वे किस दौर से गुजर रहे होंगे? अगर ये सब जानने को मिले तो एक ही जगह से कितनी रुचिकर कहानियाँ मिलेंगी। हम सब कहानियाँ तो हैं चलती फिरती कहानियाँ। बस इसी तलाश में चलते रहते हैं कि कोई हमे पढ़े और किसी को हम पढ़ सकें। यहीं तो रिश्ते बनते हैं। खैर सोचने की आदत मेरी बहुत है। मैं उधर लगभग दस मिनट खड़ा था। सैम कैबट (जो उपन्यास मैं पढ़ रहा हूँ उसका नायक) की ज़िन्दगी में उथल पुथल अब आने लगी थी। उसके सपनों का घर भूतिया था और उसके रिश्तों में वो असर डालने लगा था। इससे पहले मैं सैम के साथ आगे बढ़ता मुझे भैया दिखाई दिए। उनसे काफी दिनों बाद मुलाकात हो रही थी।
हेल्लो हाई हुई और हम सामने की ओर चले गये। सामने ही नॉएडा सिटी सेण्टर की गाड़ी मिलनी थी। हमारा स्टेशन तो अगला ही था। हम लाइन में खड़े थे तो एक व्यक्ति ने हमसे पूछा कि उसे कीर्तिनगर जाना है। मुझे जगह का पता नहीं था तो मैंने उसे सीढ़ियों के सामने बने बोर्ड की तरफ भेज दिया। मैंने कहा कि उधर जाकर देख ले वो नॉएडा की तरफ पढता है या वैशाली या द्वारका और उसी हिसाब से गाड़ी चुने। अब इतने स्टेशन होते हैं मेट्रो में और अगर मुझे पता नहीं होता कि किधर क्या है वो मैं बोर्ड की तरफ भेज देता हूँ या खुद उनके साथ जाकर(अगर मुझे जल्दी नहीं है) तो बोर्ड से पता लगाकर उन्हें बता देता हूँ। गलत बताने से बढिया ये बोलना सही रहता है कि माफ़ कीजिये लेकिन हमे नहीं पता। खैर, हमारी गाड़ी आ गयी और हम उसमें चढ़ गये। हमारे बीच ऐसे ही बातें चल रही थी। कई दिनों बाद मिले थे तो बातें तो होनी ही थी। फिर अगला स्टेशन बारहखम्बा आया और हम उतर गये। उतर कर अब ये प्रश्न था कि उग्रसेन की बावली के लिए किस गेट से निकला जाये। हम पहले ऊपर चढ़ गये। फिर नेट में सर्च किया तो तीन नंबर गेट का पता लगा। तो हम उधर से तीन नंबर गेट की तरफ बढे। चूँकि हम दूसरे गेट की तरफ आ गये थे तो हमे उतारकर प्लेटफार्म से होते हुए तीन की तरफ जाना पड़ा। हम बाहर निकले तो एक ऑटो वाले भाई से पूछा और उसने सामने की तरफ जाती रोड की ओर इशारा कर किया कि उधर चले जाइये।
हमने वो रोड पकड़ ली। उसी में सीधे बढ़ते गये। वो शायद टोलोस्टॉय मार्ग था। उधर हम थोड़े कंफ्यूज थे तो हमने गूगल मैप्स का सहारा लिया और बायीं रोड पर मुड़ गये। उधर थोड़ा चले तो हमे एक बाल काटने वाले साहब और एक पनवाड़ी जैसी दुकान मिली। बब्बू भाई ने दुकान वाले से पूछा तो उसने हमे बता दिया कि सामने ही लेफ्ट मुड़कर बावली है। हम चले तो ज्यादा दूर नही था।
बावली की तरफ जाता बावला (तस्वीर योगेश भाई द्वारा खींची हुई) |
अब पहले उग्रसेन की बावली के विषय में कुछ बातें :
- बावली का निर्माण अग्रवाल समाज के राजा उग्रसेन ने 14 वीं शताब्दी में बनाया था।
- बावली का मतलब कुआँ होता है और पहले के जमाने में इन्हें पानी की जरूरत पूरा करने के लिए बनाया जाता था।
- यह उत्तर से दक्षिण दिशा में 60 मीटर लम्बी और भूतल पर 15 मीटर चौड़ी है
- उधर 109 के करीब सीढ़ियाँ हैं।
ये सारी जानकारी उधर रखे शिलालेख को पढ़कर भी आप प्राप्त कर सकते हैं।
हम गेट से अन्दर को घुसे। अन्दर एक गार्ड साहब भी तैनात थे जो खतरों के खिलाड़ी टाइप के पर्यटकों पर नज़र रखे हुए थे और सीटी से उन्हें खतरों से न खेलने की सलाह न देते हुए दिख रहे थे। गेट से लगती ही सीढ़िया थी जो भूतल तक जा रही थीं। उन सीढ़ियों पर कई पर्यटक बैठे हुए थे। गर्मी काफी थी लेकिन एक अच्छी ऊर्जा का संचार उधर हो रहा था। आप जब एक पर्यटक स्थल पर जाते हो तो हर तरफ खुश लोग ही दिखते हैं जिससे अच्छा माहोल सा बन जाता है। कोई अपने दोस्तों के साथ होता है, कोई परिवार के साथ और सब के मन में एक ही चाह कि कुछ खुशनुमा यादें ज़िन्दगी के लिए बना लें। ये ऊर्चा आपको भी प्रभावित करती है और आप अच्छा महसूस करने लगते हो। हम भी इस ऊर्जा से प्रभावित हुए बिना न रह सके।
हम अब सीढ़ियों के ऊपर थे। हमारे दिमाग ने इस वास्तुकला के बेहतरीन नमूने को रजिस्टर कर दिया था। अब फोटो खींछाने की बारी थी। गर्मी अभी भी थी लेकिन अब उसने असर करना बंद कर दिया था। हमने ऊपर सीढ़ियों के सामने कुछ फोटो खींची। फिर हम सीढ़ियाँ उतरने लगे।
जैसे जैसे हम नीचे उतर रहे थे गर्मी का असर कम होता जा रहा था। सीढ़ियों के दोनों तरफ दीवार में कोठरियाँ बनी हुई थी। मैं यही सोच रहा था कि ये किस काम आती है। दिवारों में छज्जे बने हुए थे जिनपर चलकर अलग अलग मंजिलों पर जाया जा सकता था। इधर बने हुए छज्जे मुझे गाँव के घर के ऊपर वाली मंजिलों में बने छज्जों की याद दिला रहे थे। बचपन में जब हम गाँव जाते थे तो इनमे चलने में मुझे बहुत डर लगता था। वो इससे कम चौड़े होते थे। यही बात मैने भाई को बोली और उन्होंने भी इस बात से हामी भरी।
नीचे पहुंच कर एक छोटा दरवाजा जैसा था जो कि कुएँ यानी बावली पे खुलता था। इस बिल्डिंग की छत की तरफ देखो तो उसमें कई चमगादड़ नज़र आ रहे थे। हमने उधर कुछ वक्त बिताया।फ़ोटो भी खींची। अलग अलग मंजिलो पर भी गये।
योगेश भाई |
तीन मंजिला ईमारत। पहले फ्लोर में मौजूद आदमी इसकी ऊँचाई का एहसास दिलाते हैं |
ये छज्जे सामने की तरफ जाते थे |
ऐसी कई कोठरियाँ उधर थी। इनमे ताले लगे हुए थे। |
मैं ये खिड़की सी कुएँ में खुलती है |
बावली। अभी ये सूखा हुआ था। |
योगेश भाई |
छत में मौजूद चमगादड़ |
कोठरी में समाने की कोशिश करता मैं (पिक क्रेडिट : योगेश भाई ) |
ऊपर चढने से पहले थोड़ा राजसी महसूस करते हुए (पिक क्रेडिट :योगेश भाई) |
गिनो तो सही कितनी हैं ? |
ऊपर पहुँचकर जहाँ सामने की तरफ एक केबिन जैसा बना हुआ था वहीं दायें साइड में एक कमरा सा था। यह कमरा भी बहुत पुराना लग रहा था जैसे बावली के वक्त का ही हो। उसका पुनरुथान हो रहा था और उधर आफिस भी था। उसके आंगन में पेड़ लगा हुआ था जिसके नीचे कई लोग बैठे हुए थे। मै उसमे भी गया। अंदर घूमा। दो चार फ़ोटो खींची।
फिर बाहर आये। बाहर जो भी पढ़ने लायक बोर्ड या शिलालेख थे। वो पढ़े। फिर मैंने पीछे की तरफ जाने की सोची। सामने से कुँआ का आकार नहीं दिख रहा था। नीचे से खिड़की से जब ऊपर की और मैंने देखा तो कुएं के ऊपर एक जाली लगी सी देखी थी। पीछे पहुँचे तो पीछे एक बड़ी दीवार थी जो कि वृत्ताकार थी। उसे देखकर अंदाजा लग सकता था कि वो कुआँ था।
अब कुछ देखने के लिए नहीं था तो हम अब सीधा मेट्रो पकड़ने के लिए निकल पड़े। जाते हुए गर्मी का एहसास हो रहा था। मैंने राजीव चौक में ही बता दिया था कि इसके बाद नेशनल म्यूजियम ऑफ़ नेचुरल हिस्ट्री में जाया जाएगा। इसलिए अब मेट्रो से हम मंडी हाउस के लिए चले गये। वो अगला ही स्टेशन था।
हम प्लेटफार्म से ऊपर एग्जिट गेट्स की तरफ आये। हम प्लेटफार्म एक पे थे। जब हम ऊपर पहुंचे तो एक बुजुर्गवार हमे मिले। उन्होंने हमे नॉएडा की तरफ जाने वाली गाड़ी के विषय में पूछा। मैंने पहले कहा यही जाती है लेकिन बब्बू भैया ने बोला दूसरी तरफ से जाती है। मैं कंफ्यूज हो गया था तो मैं चुप हो गया (वैसे भी मैं दिशाओं के लिए खुद पर भरोसा नहीं करता हूँ। बचपन से ही मेरा राडार थोड़ा कमजोर रहा है।)। वो उधर जाने ;लगे तो मेरी नज़र इंडिकेटर पर पड़ी। उसमे साफ़ लिखा था प्लेटफार्म एक नॉएडा सिटी सेण्टर। मैंने उन्हें पुकारा और उस इंडिकेटर को दिखाते हुए बोला कि उन्हें इधर जाना चाहिए।
मेट्रो कंफ्यूजिंग होती है। बब्बू भाई को लग रहा था कि हम राजीव चौक जाने वाली गाड़ी में बैठे थे लेकिन ऐसा नहीं था। खैर, हमने दुबारा नेट में म्यूजियम की बाबत देखा तो पता चला कि उसके लिए गेट एक से निकलना पड़ेगा। इस बार सही जगह थे और प्लेटफार्म बदलने की जरूरत नहीं थी।
हम बाहर आये तो गर्मी का बुरा हाल था। लू चल रही थी। हम आगे के तरफ आये तो एक आइस क्रीम वाला भाई दिखा। उनसे आइस क्रीम ली और म्यूजियम के विषय में पूछा तो उसने कहा कि वो तो बंद होगा आज। उनसे रास्ता पूछा तो उसने अनसुना कर दिया। हम आइसक्रीम लेकर आगे बढे। बीच में एक गोल चक्कर था और मैप में वहीं के करीब दिखा रहा था। हमने एक और आइसक्रीम वाले भाई से पुछा तो उन्हें कोई आईडिया नहीं था। हमने गोल चक्कर क्रॉस किया और ढूँढने लगे। अब गूगल में जब हमने पता किया था तो वो ficci की बिल्डिंग के नज़दीक इसे दिखा रहा था लेकिन जितनी भी रोड पर हम गये हम उसके अगल बगल से गुजर जाते। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे हैरी पॉटर वाले स्टेशन को ढूँढ रहे हों और क्योंकि हम जादूगर नहीं है तो वो हमे जादूई मैप पे तो दिखाता है लेकिन आँखों के सामने नहीं दिखता। हम काफी घूम चुके थे। चिलचिलाती धूप थी और ये दोपहर का वक्त था। चूँकि गर्मी भी काफी थी इसलिए अब मेरा चलने का मन भी नहीं कर रहा था। हमने एक बार और ट्राय किया। इस बार वो नेपाल दूतावास के अपोजिट इसे मैप में दिखा रहा था। हम नेपाल दूतावास के सामने खड़े थे। वो अपोजिट मुझे मेट्रो की तरफ लगा और हमने रोड क्रॉस कर ली। जब रोड क्रॉस करी तो मैप से पता चला कि हमारा अंदाजा गलत था। अब मैं परेशान हो चुका था। जहाँ पर हम खड़े थे उधर एक जूस वाले भाई की दुकान थी। उधर से हमने सेब का जूस लिया। 10 रूपये ग्लास था।
फिर मैंने भाई से बोला कि मेट्रो की तरफ चलते हैं। उन्होंने एक बार बोला भी कि जब इतनी दूर आये हैं तो ढूँढ लेते हैं लेकिन अब मेरा मन नहीं था। चिलचिलाती धूप मुझे चुभती सी महसूस हो रही थी। हम मेट्रो की तरफ आये तो मुझे उधर एक मूर्ती दिखी। वो मूर्ती बांदा सिंह बहादुर जी की थी। मैंने उसकी फोटो ली। फिर मुझे ध्यान आया कि जूस की दूकान के सामने भी एक अच्छी कलाकृति थी और सोचा कि उसकी भी तस्वीर उतार लूँ। वो जूस की दूकान शायद हिमाचल की बसों के अड्डे के बाहर थी। मैं वापस उधर गया और मैंने उस कलाकृति की फोटो उतारी। हिमाचल के गवर्नर ने ही उसका शिलान्यास किया था। कलाकृति को बनाने वाले एस के चटर्जी साहब थे। फिर उधर से हम मेट्रो स्टेशन की तरफ चले गये।
मंडी हाउस मेट्रो के बाहर लगा बाबा बांदा सिंह बहादुर की प्रतिमा |
एक जगह जाना सफल हुआ था और एक जगह असफल। लेकिन अच्छी बात ये थी कि इतने दिनों बाद कही घूमने गया था। एक न घूमने का स्पेल था जो कि टूट गया था और मैं इससे खुश था।
अब योजना राजीव चौक जाने की थी। वहाँ पी-ब्लाक के पीछे एक अंकल बैठते हैं। उनसे मैं अक्सर पत्रिकाएँ ले लेता हूँ। फिर इसके इलावा जिस दिन पत्रिका लेने आता हूँ उस दिन गुप्ता फूड्स के नाम से एन ब्लॉक में उधर ही एक रेस्टोरेंट है, मैं उधर जाकर छोले भठूरे और एक ग्लास लस्सी पी लेता हूँ। आज भी मेरा यही करने का प्लान था। हम राजीव चौक के लिए बैठे और दो स्टेशन बाद उधर उतर गये। सात-आठ वाले गेट से बाहर निकले। सात नंबर गेट से आप सीधा चलो तो आसानी से पी ब्लाक पहुँच सकते हों। मैगज़ीन उठाई और फिर गुप्ता फूड्स ढूँढने लगे। उस वक्त मुझे याद नहीं था कि वो एन-ब्लाक में है। हम ए ब्लाक के पीछे से निकले। धूप काफी तेज थी और हम चले जा रहे थे। मुझे थोड़ी देर में पता लग गया कि मैं पता भूल चुका हूँ। फिर गूगल बाबा की मदद ली और उन्होंने एन ब्लाक बताया। एक बार ब्लाक का पता लगा तो एक दो व्यक्तियों से पूछ पाछ कर पहुँच गये। भैया को जगह अच्छी लगी। मैंने लस्सी और भठूरे खाया। भैया ने खाली लस्सी पी। अब पेट पूजा भी हो गयी तो अब हमने वापस जाने का विचार किया। हमने बिल पे किया और मेट्रो की गेट की तरफ बढ़ने लगे।
जब मैं रूम से निकला था तो मेरा विचार था मैं वापस जाते हुए महरौली पुरातत्व पार्क भी जाऊँगा। मैंने भैया से इसके विषय में बात की लेकिन गर्मी ने हमारी सारी ताकत चूस ली। फिर कमर का दर्द भी अभी तक ठीक नहीं हुआ था तो मैं उस पर इतना स्ट्रेस देना नहीं चाहता था। इसलिए जब उन्होंने मन किया तो मैंने फ़ोर्स नहीं किया। उधर किसी और दिन चल लेंगे। हमने मेट्रो के अन्दर एक दूसरे से विदा ली और अपने अपने गंतव्य स्थान के लिए निकल गये।
इस महीने की पत्रिकायें : हंस, कथादेश, कादम्बिनी ,पाखी |
इस बार घूमने में मज़ा आया था। अब उम्मीद है और भी जगह के प्लान अब बनेंगे।
देखे अगली बार किधर को निकलते हैं हम?
बढिया लेख
It was really fascinating to read about your trip to Ugrasen ki Bawli. Keep it up
It was really fascinating to read about your trip to Ugrasen ki Bawli. Keep writing. Good luck.
शुक्रिया, मामा जी। Yes, it was an amazing experience.