अपडेट: शॉपिज़न की संवादरहित कहानी प्रतियोगिता में विजेता हुई ‘चुप्पी’

अपडेट: शॉपिज़न की संवादरहित कहानी प्रतियोगिता में विजेता हुई 'चुप्पी'

यहाँ अपडेट देने के मामले में मैं आलसी सा हूँ। चीजें हो जाती हैं लेकिन अब तब करके चीजें टालता रहता हूँ। चूँकि दिसंबर शुरू हो चुका है तो सोचा इस साल के अपडेट इसी माह दे दिए जाएँ। इस साल वैसे भी लेखन के सिलसिले में ज्यादा कुछ नहीं है।

शॉपिज़न संवादरहित कहानी प्रतियोगिता मई में हुई थी जिसकी आखिरी तारीख बाद में बढ़ाकर जून कर दी गयी। इसका परिणाम जब जुलाई में आया तो मेरे लिए सुखद अहसास लेकर आया। इस प्रतियोगिता में मेरी भेजी गयी कथा ‘चुप्पी’ को प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ।

संवादरहित प्रतियोगिता सर्टिफिकेट
सर्टिफिकेट

यह मेरी दूसरी कहानी है जिसे पुरस्कार प्राप्त हुआ है। इससे पूर्व मेरी कहानी ‘खबेस’ को कहानियाँ नामक एप में आयोजित एक प्रतियोगिता में पुरस्कार मिला था। चुप्पी के लिखी जाने और प्रतियोगिता में भेजी जाने की कथा भी रोचक है जिसे आपके साथ साझा करना चाहूँगा।


चुप्पी का ख्याल मेरे मन में लिखे जाने के काफी पहले आया था। जैसा कि अक्सर होता है पहले एक दृश्य मन में उभरा था। एक वृद्ध दंपति का जो कि अपने घर के बाहर बैठे हैं।

एक किरदार घर के बाहर से आ रहा है और एक किरदार घर के अंदर है। कहानी के केंद्र में एक ऐसा व्यक्ति है जिसने उस वक्त चुप्पी साध ली थी जब उसे बोलना चाहिए था और अब उस ग्लानि ने उसकी जिंदगी और उसके उसके अभिभावकों के साथ रिश्ते की ऊष्मता को कम कर दिया है। वह अभी भी अपने सारे फर्ज निभा रहा है लेकिन उसकी उस वक्त धारण की गई चुप्पी अब उसके रिश्तों पर भी छा गई है। पूरे घर को इस चुप्पी ने अपने आगोश में ले लिया है। पर जिस दिन कहानी खुलती है उस दिन वो अपनी चुप्पी को तोड़ने का निर्णय लेता है।

यह पूरा खाका लगभग दृश्य के दिमाग में आते ही आ गया था। ऐसा इसलिए भी क्योंकि कई बार देखा है लोगों को ऐसे मौकों पर चुप्पी साधते हुए जब उन्हें बोलना चाहिए था लेकिन उन्होंने नहीं बोला तो कई जीवन इससे गलत तरीके से प्रभावित हुए। शायद इसी को यहाँ दर्शाना चाहता था।

इसके बाद मैं इस कहानी के बारे में सोचता तो रहा, अपने नजदीकियों को इसके बारे में बताता तो रहा लेकिन लिखने की जब बात आती तो आलस करता रहा।

ऐसे में जब संवादरहित कहानी प्रतियोगिता के विषय में पता चला। इसमें भाग लेने का मन था लेकिन प्रतियोगिता के आखिरी दिन तक मैं यूँ ही टालमटोल करता रहा। फिर आखिरी दिन भी आया। शाम के पाँच बजे होंगे। मैं दिन की नींद लेकर उठा था और सोचा कि चलो लिखकर देख लेते हैं। कहानी लिखी गई तो भेज देंगे वर्ना क्या ही बड़ी बात हो जाएगी।

चूँकि दिमाग में कुछ आ नहीं रहा था तो सोचा इतने दिनों से जो कहानी दिमाग में पूरी हुई पड़ी है क्यों न उसे ही लिखा जाए। मौका भी था दस्तूर भी और नाम भी कहानी की थीम पर फिट बैठता था। संवादरहित कहानी होगी तो एक तरह से चुप्पी तो छाई ही रहेगी। किरदार आपस में बोल जो न रहे होंगे।

तो ये सब सोचकर लिखना शुरू किया और आठ नौ बजे तक उसका फर्स्ट ड्राफ्ट लिखकर उसमें सुजाता जी और राजीव सिन्हा जी उर्फ गुरुजी के द्वारा बताए गए इश्यू सुधारकर उसे पूरा कर दिया गया। रात का खाना निपटा और फिर ग्यारह बजे तक इसे अपने तरफ से ठीक ठाक करके सबमिट कर दिया गया। ये हुआ तो एक गहरी साँस ली। कहानी जो इतने दिनों से मन में कुलबुला रही थी वो आखिरकार पूरी हो गयी थी। प्रतियोगिता का परिणाम क्या आता इससे ज्यादा फर्क मुझे पड़ना नहीं था क्योंकि मेरे लिए तो यही बड़ी बात थी कि कुछ लिख दिया था। कुछ लिखना ही मेरे लिए आजकल एक लक्जरी हो गया है।

खैर, प्रतियोगिता का परिणाम आया जून 2024 के आखिर या जुलाई 2024 की शुरुआत में और मुझे ये जानकर काफी हैरानी हुई कि मुझे प्रथम पुरस्कार के लिए चुन लिया गया था। अच्छा भी लगा था। सोचा था कि चलो इसकी यात्रा यहीं पर हुई पर फिर ये खबर भी आयी कि इस कहानी और प्रतियोगिता में शामिल अन्य कहानियों को पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित किया जाएगा। अच्छा लगा ये जानकर। ये कहानियाँ अब शॉपिज़न में पुस्तक रूप से उपलब्ध हैं। वहाँ जाकर आप इस पुस्तक को क्रय कर सकते हैं। ई बुक की कीमत तो मात्र 20 रुपये रखी गयी है। यानी एक चाय और दो मठरी के दाम में आप 41 कहानियाँ पढ़ सकते हैं। पढ़ना चाहें तो लिंक निम्न रहा:

शॉपिजन

चलिए ये तो थी चुप्पी के लिखे जाने और उसके प्रथम पुरस्कार जीतने की कहानी।

अब प्रस्तुत है कहानी का शुरुआती अंश:

चुप्पी

घर का गेट मैंने खोला तो घर में छायी चुप्पी ने वापस मुझे अपने आगोश में ले लिया। घर में छायी इस गहरी खामोशी में मुझे अपनी साँस घुटती सी महसूस हुई।

मैं कुछ देर गेट पर रुका रहा और सामने का दृश्य देखने लगा। सामने दिख रहे बरामदे पर बिछे तख्त पर बाबू जी और माँ बैठे हुए थे। बरामदा एलईडी से इतना रोशन था कि मुझे उनके चेहरे पर मौजूद भाव दिख रहे थे। एक तरह की निराशा और हताशा उनकी शून्य को ताकती आँखों में देखी जा सकती थी।

वैसे तो अब अक्सर घर में चुप्पी बिछी रहती थी लेकिन वह एक आम चुप्पी होती थी। ऐसी चुप्पी जिसका मैं आदी हो चुका था। कुछ आरोप थे जो इस खामोशी से हम एक दूसरे पर लगाते थे। मैं उनका इकलौता बेटा था जिसे लेकर उन्होंने कई सपने संजोये थे लेकिन मैंने उनके सपनों को तोड़ जो दिया था। कभी-कभी वो मुझे ऐसे देखते जैसे मैं कोई अजनबी हूँ जिसने उनके बच्चे को कहीं छुपा दिया है। वह कुछ कहते नहीं थे लेकिन उनकी आँखों में मुझे आरोप दिखते थे। आरोप तो कुछ मेरी आँखों में भी थे। ऐसे आरोप जिसका सामना करने का ताब वो अपने अंदर नहीं ला पाते।
पर हम इन आरोपों और तोहमतों के भार उठाने के भी आदी हो चुके थे। कहते हैं न कि व्यक्ति कोई चीज लगातार करता रहे तो वो चीज उसकी आदत में शुमार हो जाती है। शायद यह खामोशी भी हमारी आदत में शुमार हो चुकी थी जिसे तोड़ते हुए अब हम डरते थे। लगता था जिस दिन यह टूटेगी उस दिन शायद हमारे आपस का रिश्ता भी दरक जाएगा।

चुप्पियों के भी कई रूप होते हैं। मैं तो अब इन रूपों को भाँपने में भी दक्ष हो गया था। कुछ आपको शांत करती हैं। कुछ आपको उद्विग्न। किसी में आप सुख पाते हो और किसी में पल पल मरते हो। पर जिस तरह की चुप्पी इस समय मौजूद थी उसने मेरे मन में खटका सा कर दिया था। ऐसी ही चुप्पी कुछ वर्षों पहले मैंने महसूस की थी।

मैं चलते हुए बरामदे तक आया और तख्त के नजदीक पहुँचा तो माँ ने इतने समय बाद मेरे से नजरे मिलायी। उनकी आँखों में एक बार फिर से मेरे लिए आरोप दिख रहा था। मैंने पिताजी को देखा तो मुझे उनके नथुने फूलते पिचकते लगे। उनके चेहरों से लगा कि जैसे घर में कोई मर गया हो। यह ख्याल आते ही मेरे बदन में सिहरन सी दौड़ गई। तभी घर के भीतर से आती एक सिसकी ने घर में फैली उस चुप्पी को भंग सा किया।

मैंने सिसकी सुनी तो मेरी आँखें धधकने लगी। मैंने आग्नेय नेत्रों से अपने अभिभावकों को देखा लेकिन इस बार उन्होंने अपनी आँखों को नहीं चुराया। इस बार उनकी आँखों में मुझे वही दृढ़ता दिखी जो कि कुछ वर्ष पहले दिखी थी। वह दृढ़ता जो कि उस व्यक्ति की आँखों में आती है जो कि दंभ को अपने साथ लेकर घूमता फिरता है। वह चाहे कितना गलत हो लेकिन उसका दंभ उसे गलती मानने नहीं देता है। वह खुद को यह समझा देता है कि वह जो कर रहा है वो गलत नहीं एकदम सही है। मेरा मन किया कि मैं चिल्लाऊँ लेकिन मैं जानता था कि उसका फायदा नहीं होने वाला है। मैंने अपना बैग रखा और घर के भीतर दाखिल हो गया।

वह दोनों घर के बाहर ही बैठे रहे। 

मैं भीतर उस कमरे की तरफ बढ़ गया जहाँ से सिसकियाँ आ रही थी। वहाँ जहाँ हम तीनों के अलावा घर का चौथा सदस्य रहता था। वह सदस्य जो कि हमारे साथ हमारे बनाए हुए नरक को भोगने के लिए मजबूर सा था।


उम्मीद है ये अंश आपको पसंद आयेगा। पूरी कहानी पढ़िएगा तो उसके विषय में अपनी राय से मुझे अवगत जरूर करवाइएगा।

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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