ग़ालिब की हवेली

ग़ालिब की हवेली
11 February,2017
हिन्दुस्तान में शायद ही ऐसा कोई शख्स होगा जिसने मिर्ज़ा ग़ालिब जी का नाम नहीं सुना होगा। वो उन्नीसवीं शताब्दी के महानतम शायरों में से एक थे। वैसे वो पैदा तो आगरा में हुए थे लेकिन दस बारह साल की उम्र में ही दिल्ली में आ गये थे। इस हवेली में उन्होंने  अपना आखिरी वक्त बिताया था।

तुगलकाबाद किला जाने के बाद मैं अगली बार ग़ालिब की हवेली जाने का निर्णय बना चुका था लेकिन कुछ चीजें ऐसी हो जाती थी कि मैं उधर जा नहीं पा रहा था। 21 जनवरी के बाद से कहीं जाने का प्रोग्राम ही बन पा रहा था और बीस दिन होने को आये थे। इस हफ्ते मैंने निर्णय कर लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए इस बार ग़ालिब की हवेली तो देख कर ही आऊंगा। फिर हफ्ते के दौरान ही पता चला कि मेरा दोस्त किशन भी दिल्ली आ रहा है तो शनिवार को उससे भी मिलने की योजना बनी। फिर क्या था इसी योजना में ग़ालिब की हवेली जाने की योजना को  भी जोड़ दिया। एक पंथ दो काज जब हो रहे थे तो मुझे करने में क्या दिक्कत थी।

मुझे किशन से दिन में मिलना था तो मैंने तय किया कि उससे  मिलने से पहले मैं ग़ालिब की हवेली का चक्कर मार आऊंगा।  मैंने नेट में दिशा निर्देश देख लिए थे और ये भी नोट कर लिया था कि ये स्थल ११ बजे खुलता था।  इसलिए मैं अपने कमरे से सवा दस बजे करीब निकला। हवेली तक पहुंचना मेरे लिए ज्यादा मुश्किल नहीं था।

  • रूम से मुझे एम जी रोड मेट्रो स्टेशन (येलो लाइन) तक जाना था
  • मेट्रो से मैंने समय पुर बादली जाने वाले मेट्रो पकड़ी और चावड़ी बाज़ार स्टेशन तक उसमें गया
  • चावड़ी बाज़ार स्टेशन से मैं गेट नंबर २-३ से हौज़ क़ाज़ी चौक और बल्लीमारन की तरफ जाने के लिए निकला। इधर मैं थोड़ा कंफ्यूज था। मैंने नेट की मदद से इधर से निकलने की योजना बनाई और बाहर आया
  • मुझे ये तो पता था कि चावड़ी बाज़ार मेट्रो स्टेशन से ग़ालिब की हवेली, जो कि गली कासिम जान, बल्लीमारन में थी, ज्यादा दूर नहीं थी। नेट ने भी ये दूरी मुश्किल से एक डेढ़ किलोमीटर की दिखाई थी लेकिन चूँकि मेट्रो से बाहर एक चौक था और हवेली एक गली में थी तो मैंने घूमने के बजाय एक रिक्शा करना उचित समझा। रिक्शे वाले भाई ने चालीस रूपये किराया बताया। मैंने भी ज्यादा बहस न करते हुए उतने में उसके साथ हो लिया।  वैसे आप पैदल भी उधर जा सकते हैं। वापिस मैं पैदल ही आया था और सोच रहा था कि सुबह मैंने चालीस रूपये जाया ही कर दिये थे।
वॉल्ड  सिटी में स्वागत  करता बोर्ड। इसी मार्किट से  होते हुए हवेली तक जाया जाता है।

रिक्शा वाला भाई मुझे मेट्रो से हवेली की तरफ लेकर जा रहा था तो हम मार्किट के बीच से गुजर रहे थे। उधर  काफी दुकाने थी और ग्यारह बजे करीब काफी भीड़ भाड़ थी। दुकानों के आगे बिजली की तारें लटकी हुई थी और जगह जगह से स्वादिष्ट चीजों की खुशबू आ रही थी। ऐसा लग रहा था कि आप किसी दूसरे युग में प्रवेश कर गये हैं।  पाँच छः मिनट के सफ़र में एक दो गलियों से होता हुये हम अपने गंतव्य स्थल तक पहुंचे।

उधर पहुँचने पे पहले तो मुझे थोड़ा सा शॉक लगा। मैं जाने से पहले नेट में ज्यादा पढकर नहीं गया था। केवल उधर तक पहुँचने के निर्देश देखे थे। इसलिये हवेली सुनकर मेरे दिमाग में पुराने जमाने की हवेली के चित्र ही बने हुए थे। मुझे लगा कि कोई बड़ी सी इमारत होगी और ये संग्राहलय पूरी इमारत में होगा। इसलिए जब रिक्शा वाले भाई ने रिक्शा रोका तो एक बार के लिए मुझे लगा हम गलत जगह पर थे। लेकिन फिर उतरा और गेट के बाहर एक गार्ड को तैनात देखा तो सोचा कुछ तो है ही इधर।

ग़ालिब  की हवेली में १९९९ से पहले दुकाने हुआ करती थीं लेकिन इसके बाद इसे ए एस आई (भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ) ने विरासत स्थल (हेरिटेज साईट) घोषित किया। सरकार ने इसका कुछ हिस्सा अपने आधीन किया और इस का जीर्णोद्धार किया।  अभी भी इसके चारो और दुकाने ही हैं। यहाँ तक कि हवेली के ऊपरी हिस्से में भी दुकाने हैं। हवेली के नीचे का हिस्सा संग्राहलय के लिए प्रयोग लाया गया है।

अन्दर जाने से पहले मैंने गार्ड साहब से पूछा कि इधर कुछ टिकेट वगेरह का सिस्टम है तो उन्होंने कहा कि ऐसे ही जा सकते हैं और मैं फिर हवेली में घूमने लगा। उधर भीड़ नामात्र की थी। जब मैं पहुँचा था तो दो व्यक्ति उधर मौजूद थे और जब उधर घूम रहा था तो एक व्यक्ति आया था। इसलिए घूमने में मज़ा आ रहा था। उधर ग़ालिब जी से जुडी जुडी तसवीरें, उनके शौकिया खेल, उनके प्रिय भोजन और उनके कपडे और उनके दीवान रखे हुए थे।

मैं करीब एक डेढ़ घंटा उधर रहा और ये ही सोचता रहा कि इन्ही दीवारों में बैठकर उन्होंने अपनी रचनाएँ की थी। वो इन्ही गलियों में टहलते होंगे। वो कैसे दिन रहे होंगे।

खैर, सोचना तो लगा रहता है बहरहाल आप उधर की कुछ तस्वीरों का लुत्फ़ उठाईये।

© विकास नैनवाल ‘अंजान’

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहत हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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0 Comments on “ग़ालिब की हवेली”

  1. यह बढ़िया लगा पढ़कर की पहले दुकाने हुआ करती थी और अब ASI ने इसे संरक्षित कर लिया…यहां दिल्ली हेरिटेज वाक भी होती है शायद..

  2. अच्छा लगा ग़ालिब की जिंदागी में झांककर, तस्वीरें थोड़ी और स्पष्ट होती तो और अच्छा लगता पर आपका वर्णन शानदार और जानकारियां मानीखेज है विकास भाई👍

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