किले का प्रवेश द्वार |
मैंने शंकर अंतर्राष्ट्रीय म्यूजियम देख लिया था। इसके इलावा मैं पेट पूजा भी कर चुका था। इसके विषय में विस्तार से जानने के लिए इधर क्लिक करें। अब आगे।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण का बोर्ड जिसे खुद संरक्षण की जरूरत है |
खैर, मैं फोटो लेकर टिकट घर की तरफ बढ़ा।
उससे पहले फ़िरोज़ शाह कोटला के विषय में कुछ विशेष बातें जान लेते हैं। वैसे आप इधर जायेंगे तो इधर बोर्ड्स के माध्यम से आप इन बातों को जान ही जायेंगे।
१. दिल्ली के पाँचवे शहर फ़िरोज़ाबाद के इस महल का निर्माण सुल्तान फ़िरोज़ शाह तुग़लक़ ने करवाया था
२. कोटला का अर्थ किला होता है
३. कहा जाता है कि कभी ये भव्य किला हुआ करता था जिसमे कई बेशकीमती पत्थर लगे होते थे जिनका नामोनिशान आजकल इधर नहीं मिलता। समय के बीतने के साथ दक्षिण (दीनपनाह और शेरगढ़ ) और उत्तर(शाहजहाँनाबाद) में शहरों के निर्माण के लिए इधर से इन बेशकीमती पत्थरों को निकाल लिया गया था। वैसे फिरोजाबाद के निर्माण के लिए भी सामान पुराने शहरों जैसे सिरी, जहापनाह और लाल कोट से ही लाया गया था। अग्रेजी की कहावत व्हाट गोज अराउंड कम्स अराउंड इधर चरित्रार्थ होती है।
टिकट घर |
टिकेट घर के नज़दीक फ़िरोज़ शाह कोटला का इतिहास बताता बोर्ड |
गेट के अन्दर जाते ही आपको ऐसा लगता है आप किसी और युग में प्रवेश कर गये है। दिल्ली में रहते हुए लगता है कि आप एक सदी में नहीं एक साथ कई सदियों में जी रहे हैं। ये जगह टाइम कैप्सूल की तरह लगती हैं जिन्होंने कुछ हद तक अपने वक्त को संभाल कर रखा है। अन्दर आते ही आप अपने वक्त को भूल सा जाते हो और बस इन इमारतों में खो से जाते हो। बस आधुनिक कपड़ों वाले इंसान ही अपने वक्त से अवगत करवाते रहते हैं। गेट के अन्दर जाते ही एक प्रांगण है जिसमे किले का मानचित्र है और एक शिलालेख है जो कि किले के विषय में बताता है।चूँकि दो दिन बाद होली थी तो उधर के कर्मचारियों पर होली का खुमार छाया हुआ था। वो आपस में रंग लगाने में मशगूल थे।
किले में देखने लायक चार हिस्से हैं :
१.किले के खंडहर जिन्हें कि अब तक सुरक्षित रखा गया है। मैंने इन्हें सबसे आखिरी में देखने का फैसला किया और बावली की तरफ मुड़ गया।
२. बावली यानी एक कुआँ। यह कुआँ अब खुला हुआ नहीं है। २०१४ में इसमे कूद कर एक व्यक्ति ने आत्महत्या कर ली थी और इसी कारण इसे बंद रखा हुआ है। इसके चारो ओर एक धातु की फेंस का निर्माण कर दिया गया है जिसके कारण पर्यटक इसमें प्रवेश नहीं कर सकते हैं। इधर एक बोर्ड लगा हुआ था कि यह कभी किले के लिए पानी का मुख्य स्रोत हुआ करता था। यह अभी भी इधर के बागों को पानी देने के काम आती है। (स्रोत)
३. एक पिरामिडीय इमारत जिसके सबसे ऊपरी हिस्से पे एक अशोक स्तम्भ स्थापित किया हुआ है। इस इमारत का निर्माण इस स्तम्भ को स्थापित करने के लिए ही किया गया था। इस स्ट्रक्चर के हर हिस्से में कई कोठरियाँ बनी हुई हैं जिनके अन्दर लोग दिया बत्ती करते हैं। जब मैं इधर घूम रहा था तो एक स्त्री अगर बत्ती जला रही थी। एक हिस्से में तो ताले लटके थे और काफी प्रसाद वगेरह भी लगा हुआ था। और जब पिरामिड के ऊपर से नीचे आया और इधर से गुजरा तो एक कुत्ता उस भोग को चट कर रहा था। कहा जाता है कि इधर जिन्नातों का वास है और इसीलिए इधर इन कोठरियों में दिये बत्ती और भोग चढ़ाया जाता है। कोठिरयाँ बहुत अँधेरी हैं और इनके अंदर जाओ तो वाकई डरावना माहौल है।
शिलालेख |
किले का मानचित्र |
एक पैनोरमा शॉट किले के गेट और गेट के तरफ के इलाके का |
सेल्फी लेने की एक और असफल कोशिश |
पिरामिड इमारत के अन्दर |
एक कोठरी के अन्दर। |
कुक्कुर महाराज पेट पूजा करते हुए। लगता है जिन्नों के साथ इनकी भी सांठ गाँठ है। |
किले के ऊपर जो अशोक स्तम्भ रखा हुआ है। इस स्तम्भ के विषय में कहा जाता है कि इसे राजा अशोक ने 273 से 236 ई पू में अम्बाला हरयाणा में खड़ा किया था। फिर फ़िरोज़ शाह तुगलक इसे दिल्ली लाया था और इसे उसने इधर लगवाया था। पहले वो इसे तोड़कर इसका दोबारा उपयोग करना चाहते थे लेकिन फिर तुगलक ने इसे ऐसे ही मस्जिद के सामने लगवा दिया। इसमें ब्राह्मी में कुछ सन्देश अंकित किये हुए हैं जिनका मतलब उस वक्तयानी 1356 में उन्हें पता नहीं था। लगभग 500 साल बाद 1837 में जेम्स प्रिन्सेन नामक शख्स ने इनका अनुवाद किया बाकी मिली स्तंभों और शिलालेखों की मदद से किया। (स्रोत )
अशोक स्तम्भ |
पिरामीडीय ईमारत का आगे से व्यू |
ईमारत की जानकारी देता बोर्ड |
४. जामी मस्जिद
जामी मस्जिद सबसे पुरानी और अभी भी इस्तेमाल होने वाली मस्जिदों में से एक है।
इसके चारों और एक आँगन है और एक हॉल है। पूजा का हॉल कभी राज घरानों की महिलाओं के द्वारा इस्तेमाल होता था।
कहते हैं तैमूर जब 1398 ईसवी में इधर पूजा के लिए आया तो इसकी बनवाट से इतना प्रभावित हुआ कि उसने समरकंद में इसी तर्ज पर एक मस्जिद बनवाई
इसके इलावा इधर एक मुगल प्रधानमंत्री ईमाद उल मुल्क को उसके राजा आलमगीर सनी ने 1758 ईसवी को मार था।
(स्रोत)
मैं इसके अंदर नहीं गया क्योंकि जूते उतारने थे और अंदर लोग बाग़ भी थे। मुझे घुमते हुए भी काफी वक्त हो गया था और मुझे और हिस्सा भी देखना था। अब जूते उतारने और पहनने की जहमत कौन उठाता।
५. इसके इलावा पीछे एक बगीचा भी है जिसे रोज़ गार्डन यानी गुलाब का बगीचा भी कहते हैं। उधर लोग बैठे हुए तो दिखे थे लेकिन गुलाब नदारद थे इसलिए उधर नहीं गया।
मैं एक एक करके चारों हिस्सों को घूमा और इनकी तसवीरें उतारी। पूरा घूमने में मुझे एक डेढ़ घंटे लगा होगा। जब मैं वापस आ रहा था तो एक अजीब सी घटना हुई। मैं अपना फोटो खींचते हुए आ रहा था कि मेरे बगल से एक आदमी गुजरा। उसके हाथ में अगरबत्ती का पैकेट था। उसने मेरे बगल से गुजरते हुए जो कहा और उसके बाद जो मेरी उससे थोड़ी वार्तालाप हुई वो बड़ी अजीब तो थी लेकिन एक मानसिकता को भी दर्शाती है :
आदमी (आ): नज़र बड़ी खराब चीज़ है
मैं (म): जी, मैं कुछ समझा नहीं
आ : बुरी नजर से पत्थर भी पिघल जाते हैं।
मैं : (खाली सवालिया निगाहों से उसे देखता हूँ। मुझे अभी भी कुछ समझ नहीं आता कि ये बात किधर जा रही है। )
आ: ये औरते सब कुछ दिखाती हुई घूमती है। फिर इन्हें नज़र लग जाती हैं और ये बाबाओं के पास इलाज के लिए जाती हैं। इन्हें अपने को ढक कर रखना चाहिए ताकि नज़र से अपने को बचा सकें।
मैं सोच में पढ़ गया कि कौन सी औरतों की बात कर रहे हैं जनाब। पीछे मुड़ा तो कुछ औरतें थी जिनके कपड़े पहनने के सलीके से लग रहा था कि वो मुस्लिम थीं। लेकिन उन्होंने खाली सूट पहना हुआ था। मेरा तो ध्यान भी उनकी ओर नहीं गया था। फिर मैंने कुछ रेस्पोंस देना जरूरी नहीं समझा।ऐसे मामलों में मेरा यही रुख रहता है। अगर उसे रेस्पोंस देता तो उसे बाते जारी रखने के लिए प्रोत्साहन मिलता। ऐसा ही एक बार घूमने जा रहा था तो साथ के व्यक्ति ने राह चलती एक औरत के लिए मुझसे सेक्सुअल टिपण्णी की। लोग ऐसे टिपण्णी में हँसते हैं या नाराज़ होते हैं। लेकिन मैं खाली उन्हें ऐसे देखता हूँ जैसे मुझे कुछ समझ नहीं आया। ऐसे में टिपण्णी करने वाला खुद ही झेंप जाता है। इधर भी यही हुआ मेरे पर उसकी बातों का प्रभाव न देखते हुए वो खुद ही आगे बढ़ गया। उसे ऐसी उम्मीद रही होगी कि मैं उसकी बात से सहमत होऊँगा। खैर इसके बाद मैं किले के खंडहर देखने में व्यस्त हो गया था।
इस पेड़ पे चीलों का समूह आराम फरमा रहा था |
मुझे घूमते हुए एक डेढ़ घंटे से ऊपर हो गये थे। सब कुछ तो देख लिया था इसलिए काम्प्लेक्स से बाहर आ गया। बाहर आकर मैं एक और जगह गया। वो क्या थी उसके विषय में आपको अगली पोस्ट से पता लगेगा। ये पोस्ट वैसे ही काफी लम्बी हो गयी है।
क्रमशः
अगली कड़ी:
खूनी दरवाज़ा और आस पास की जगहें
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
बहुत ही सुंदर पोस्ट विकास जी, और फोटो भी लाजवाब हैं | अगली बार जब भी कोटला की और जाना होगा तो इसके इतिहास को और करीब से देखेंगे |
शुक्रिया, नितिन भाई।
सुंदर पोस्ट
शुक्रिया सचिन जी। आते रहियेगा।