कलावंतिन दुर्ग की यात्रा मेरे जीवन की सबसे रोमांचक यात्राओं में से एक है। इसकी यादें अभी तक मन में ऐसी हैं कि लगता है जैसे यह कल ही की गयी हो।
मुझे याद है वो शनिवार का दिन था। सुशांत, सुमित और मैंने एक साथ मिलकर शुक्रवार को ही कलावंतिन दुर्ग जाने का प्लान बना लिया था। हमने ये निर्धारित किया था कि हम जल्द-से-जल्द ही बांद्रा स्टेशन पे मिलेंगे जहाँ से हमे पनवेल के लिए ट्रेन मिलती। मुझे विरार से आना था और उन दोनों को अपने अपने रहने के स्थान से। उसके बाद भी बस से होते हुए हमे ठाकुरवाड़ी तक जाना था और ठाकुरवाड़ी से पैदल कलावंतिन के लिए रास्ता जाता था। हमे दूर जाना था इसलिए मैं तो जल्दी ही पहुंच गया लेकिन सुशांत और सुमित भाई ने आते आते दिन के दो बजा दिए थे। उनके साथ अभिजीत मुनेश्वर भी आया था। उस दिन अभिजीत से पहली बार मुलाकात कर रहा था। अब देर हो गयी थी और मैं चिंतित था। मैंने नेट में पड़ा था कि ये ट्रेक डेढ़ से दो घंटे की थी। हमे ठाकुरवाड़ी पहुँचने में ही दो से ढाई घंटे लगने थे। अब देखना था कि ये सब हम कैसे करते।
खैर, देर हो ही चुकी थी तो इसका कुछ नहीं किया जा सकता था। हमने पनवेल के लिए टिकेट लिए और उधर के लिए ट्रेन पकड़ी। हमारी ट्रैन डायरेक्ट नहीं थी। पनवेल जाने के लिए आपको ट्रैन बदलनी पड़ती है। हमे बांद्रा से वडाला और वडाला से पनवेल की ट्रैन लेनी थी। ट्रेन की यात्रा को याद करूँ तो वो साधारण थी। बस एक बच्ची की याद है जो ट्रेन में करतब दिखा रही थी। अगर आप मुंबई में हैं ट्रेन में ऐसे कई कलाकार आपको दिख ही जायेंगे। डेढ़-दो घंटे के सफ़र के बाद हम पनवेल पहुँच गये थे। हम स्टेशन से बाहर निकले और उसके बाद थोडा चाय पीने का प्रोग्राम बनाया।
हम चाय पीने बैठे ही थे कि अभिजीत को ध्यान आया कि वो बैग ट्रेन में ही भूल आया था। वो ट्रेन में बैग देखने गया और कुछ देर बाद आया। ट्रेन में बैग तो न मिला लेकिन उसने कंप्लेंट करा दी थी। बैग मिलने की संभावनाएं भी कम ही थी। उस बैग में कम्बल था जो वो लेकर आया था। हम तीनों में से बाकी के पास कोई कम्बल नहीं था। सर मुंडाते ही ओले पड़ गए थे लेकिन अब किया भी क्या जा सकता था।
फिर चाय पानी निपटाकर हम स्टेशन के लिए निकल पड़े।
स्टेशन पे पहुंचकर हमने ठाकुरवाड़ी गाँव जाने के लिए बस ली। और करीब चार बजे करीब तक ठाकुरवाड़ी पहुँचे। ठाकुरवाड़ी से हमे प्रबल्माची तक जाना था। प्रब्ल्माची में रात का भोजन करके कलावंतिन दुर्ग की ओर जाना था। हमे उस वक्त इतना अंदेशा नहीं था कि प्रबल्माची से कलावंतिन कितनी दूरी पे पड़ेगा। मैंने तो नेट में देखा था और प्लान बना लिया था। इसके इलावा जाते वक्त तो मुझे खाली ठाकुरवाड़ी का नाम ही पता था।
खैर, हम रास्ते लगे रहे। ट्रेक इतना कठिन नहीं था। अगर आप चलने की आदि हो तो चल सकते हो। हम बातचीत करते हुए जा रहे थे। कभी उपन्यासों की बातें होती या कभी कुछ और बातें। ऐसा करते हुए हम जब प्रबल्माची पहुंचे तो रात हो गयी थी और अँधेरा हो चुका था। हमे भूख भी लग गयी थी तो हमने गाँव में जाकर पोहा और चाय से भोजन किया। उधर ही थोड़ी फोटो भी खींची।
अभिजीत, मैं और सुमित |
पोहा खाते हुए-सुशांत, मैं और सुमित |
उसके बाद हमने गाँव वालों से बाते करके दुर्ग तक जाने के रास्ते के विषय में पता किया। उन्होंने कहा कि वो हमे रुकने की जगह दे सकते हैं और हम सुबह दुर्ग तक जा सकते हैं। लेकिन हमने उनसे पूछा कि क्या जंगल में कुछ जंगली जानवर होंगे तो उन्होंने कहा नहीं वो तो नहीं होंगे। और रास्ता भी उनके अनुसार इतना कठिन नहीं था .
इसलिए हमने रात को ही दुर्ग तक जाने का फैसला कर लिया। रात थी और चंद्रमा अपनी चाँदनी बिखेर रही थी। हमने जिस घर में पोहा खाया था उसी के पीछे से रास्ता दुर्ग के लिए जाता था। हम जब उधर से जाने लगे तो गाँव में मौजूद कुत्ते भौंकने लगे। उस गाँव में बिजली तक नहीं थी। अँधेरा गाँव, झाड़ियाँ और कुत्तों के भौंकने की आवाज़ काफी भयावह माहोल बना रही थी। अभिजीत तो डर ही गया था और उसने हाथ खड़े कर दिए थे। वो जाना नहीं चाहता था। हमने एक-एक छड़ी उठाई और अभिजीत को भी एक दी और किसी तरह उसे चलने के लिए मनाया। हमे रास्ते का पता नहीं था केवल दुर्ग वाला पहाड़ दिख रहा है और उस तक हमे पहुंचना था। हम चलने लगे और झाड़ियों को डंडे से हटाते हुए उस पहाड़ तक पहुंचे जहाँ पे दुर्ग था।
हम उस पर जितना चढ़ सकते थे चढ़े। अब साढ़े ग्यारह बज रहे थे। हम थक भी गये थे और काफी चढ़ने के बाद एक ऐसे स्थान पर थे जिधर हम थोडा लेट सकते थे। उधर से हमने ऊपर जाने का रास्ता देखा तो हमे कुछ नज़र नहीं आया। उधर चाँद की रौशनी भी नहीं पहुँच रही थी और हम इस बात को स्वीकार कर चुके थे कि अब और ऊपर नहीं जा सकते। हमने रात उधर ही गुजारने का फैसला किया। हमे लेटे हुए आधा घंटा ही हुआ होगा कि हमे कुछ इंसानी आवाजे सुनाई थी। पहले तो हम हैरान हुए। फिर जब काफी लोगों के बोलने की आवाजें आई तो हमने आवाज़ लगाईं। अंग्रेजी में पूछा ऊपर कोई है और ऊपर से भी जवाब अंग्रेजी में आया।
हमने उनसे पूछा क्या उनके पास टॉर्च है तो उन्होंने कहा कि है और उन्होंने टोर्च चमकाई तो हम हैरान थे। जिसे हम खाई समझ रहे थे वो पहाड़ के अंदर कटी हुई सीढिया थी। अब रास्ता आसान था। हम सीढ़ियों से होते हुए ऊपर पहुंचे। साढ़े बारह बज रहे थे और हम कलावंतिन दुर्ग की चोटी पर मौजूद थे। हम खुश थे क्योंकि हमे पता था हमारी ज़िन्दगी में ऐसा अनुभव दुबारा मिलने की संभावना काफी कम थी।
ऊपर वे लोग थे और पूरी तैयारी से आये थे। उनके पास स्लीपिंग बैग थे। हमने उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि वे हैदराबाद से आये थे। वे तकरीबन एक दर्जन लोग रहे होंगे। हम ऊपर पहुँच तो गये थे लेकिन अब एक और परेशानी हमारे सामने थी। हम खाली शर्ट में थे और ऊपर हवाएं चल रही थी जिससे ठंड लग रही थी। सुबह तक हमारी क्या हालत होती इसका हमे अंदाजा था। एक कम्बल आया था लेकिन वो भी ट्रेन में रह गया था।
ठण्ड से हमारी हालत बुरी हो रही थी। उधर जो दूसरा समूह उधर रुका हुआ था उनको देखकर थोड़ी इर्ष्या भी हो रही थी। उनके पास स्लीपिंग बैग से लेकर पानी और खाना सब कुछ मौजूद था। आपस में बाते करने के पश्चात सुमित ने उनसे माचिस मांगने का निर्णय किया ताकि हम हल्की फुलकी आग लगा सके और उससे गर्माहट ले सकें। माचिस मांगने गये तो पहले तो वो झिझके लेकिन फिर उन्हें शायद हमारी हालत पे थोड़ी दया आई और उन्होंने माचिस इस हिदायत के साथ दे दी कि हम ज्यादा बड़ी आग न लगायें क्योंकि इससे आग फैलने का खतरा हो सकता था। उनकी बातों में हमने स्वीकारा और थोडा बहुत आग का जुगाड़ किया। आग जब लगी तो उसकी तपन से क्या आनंद आया। आहा!! इसका विवरण शब्दों में करा जाना नामुमकिन ही है। ख़ासकर मेरे लिए तो नामुमकिन है। अब हमारी हालत पहले से थोड़ा ठीक थी। इन्ही सब बातों को करते हुए एक दो घंटे हो गये थे। हम साढ़े बारह बजे ऊपर पहुंचे थे और शायद अब तीन बज गये थे। ऊपर इधर उधर छोटी मोटी चट्टाने थी और हमने अपने आप को उनके पीछे इस तरह से स्थापित किया ताकि हमे हवाएं कम झेलनी पड़ें। और फिर धीरे धीरे हम सो गये।
सुबह जल्दी ही हमारी नींद खुल गयी थी। ऐसा ठंड के कारण भी हुआ था। सुबह उधर का माहोल काफी खूबसूरत था। आप ऊँचाई पे थे और चारो ओर देख सकते थे। हवायें अभी भी चल रही थी लेकिन रात के जैसे ठंड नहीं थी। अभिजीत और सुमित को जल्दी जाना था वो जल्दी निकल गये। मैं और सुशांत उधर रह गये। हमने कुछ देर फोटो खींची। मेरे फोन की बैटरी भी समाप्त होने वाली थी और उस वक्त कैसी फोटो लेनी है इसका भी मुझे आईडिया नहीं था। फोटो खींचने के बाद हम नीचे गाँव की ओर निकल गये। हमारे उठने के साथ जो दूसरा समूह उधर था वो भी उठ गया था और वो भी फोटो वगेरह खींचने में व्यस्त था।
नीचे गाँव में पहुंचकर हमने नाश्ता किया और उसके बाद उधर से उस गाँव के लिए चल निकले जिधर से हमे बस मिलनी थी।
किनारे पे पोस देते हुए |
चट्टानों को राज गद्दी के समान इस्तेमाल करते हुए। एक दम राजा वाली फीलिंग आ रही थी |
वापसी के लिए कपड़े बदल दिए थे। रात को इस छड़ी से काफी झाड़ियाँ हटाई थी। |
साहसी बनने की कोशिश तो की थी लेकिन डर आप देख ही सकते हैं |
सुशांत इशारा करते हुए कि रात हमने किधर बिताई थी |
कलावंतिन के बेस में |
हमने काफी फोटो ली थी लेकिन मेरा वो फोल्डर खो चुका है। ये फोटो तो वही हैं जो फेसबुक में डाली गयी थी। उन्हीं को चुनकर इधर लगा रहा हूँ।
बहुत बढ़िया यात्रा विवरण है भाई। अच्छा लगा पढ़ के। कुछ सलाह है वो मैं आप को ईनबॉक्स कर दूंगा।
जरूर। इन्तजार रहेगा।
अंधेरी रात व आग का सहारा… बढिया यात्रा लेख
जी एकदम सही कहा… ठण्ड में उसी आग का सहारा था। टिपण्णी के लिए शुक्रिया।
भाई ग़ज़ब की डेरिंग की है भाई आप लोगो ने..
कलवंतीन कठिन बोलते है लोग और आपने रात में ही फतेह कर लिया..
जी, बचपने में हो जाता है कभी कभी। कठिन तो नहीं है लेकिन बारिश के दिनों में रास्ता फिसलन वाला हो जाता है। लोग अक्सर तभी करते हैं तो कहते होंगे। मैं कल्सुबाई गया था इस बार। ट्रेक तो बढ़िया बिना किसी परेशानी के निपटी लेकिन वापसी में दो तीन बार मिटटी में फिसल कर गिरा।
लाजवाब अनुभव😊
रात में ही निकल लिये … सुबह का इंतजार करते तो रात की परेशानियों से बचते … खैर रोचक वर्णन…
घुमक्कड़ तो हर जगह पहुँच ही जाते है खुद ही देख लो आप लोगो से पहले हैदराबादी मौजूद थे वहां
शुक्रिया,महेश जी। यह ज़िन्दगी की सबसे रोमांचक यात्राओं में से एक थी।
जी, सही कहा आपने। बचपने में ऐसी बातें हो जाती हैं। मैं किसी को भी ऐसा करने की सलाह नहीं दूँगा। हैदराबाद वाला समूह शाम को पहुँच गया था। उन्होंने काफी मदद की। वो आग जलाने के लिए माचिस न देते तो ठंड से बुरे हाल हो जाते हमारे। खैर, ऐसे ही अनुभवों से सीखता है आदमी। ब्लॉग पर आने का शुक्रिया।