किधर : चाँद बावड़ी, आभानेरी, राजस्थान
कैसे जायें : जयपुर से सिकंदरा बस से १०५ रुपये टिकट (जयपुर आगरा हाईवे )
सिकंदरा से गूलर चौक (साझा टैक्सी से १० रूपये में )
गूलर से आभानेरी (टैम्पो से साझा १० रूपये में )
खुलने का समय: सूर्योदय से सूर्यास्त तक
फोटोग्राफी : निशुल्क , विडियोग्राफी : २५ रुपये
सितम्बर के आखिरी हफ्ते में मेरी बहन रुच्ची घर आ रखी थी। उसके कॉलेज की छुट्टियाँ थी और क्लासेज तीस सितम्बर से दोबारा शुरू होनी थी। ऐसे में उसे गढ़वाल से 29 को आना था। फिर गढ़वाल से दिल्ली और दिल्ली से जयपुर का सफ़र करना था। पहले मेरी योजना भी घर जाने की थी लेकिन एक दिन के लिए ही घर जाना हो पाता तो मैंने उसे स्थगित कर दिया। मैंने घरवालों को कहा कि मैं रुच्ची को दिल्ली के महाराणा बस अड्डे पे मिल जाऊँगा और उधर से उसके साथ जयपुर चला जाऊँगा। और उसे उसके हॉस्टल तक छोड़ आऊंगा। ऐसा इसलिए भी जरूरी थी क्योंकि दिल्ली तक आने तक वो बारह घंटे का सफ़र वैसे ही कर चुकी होगी और थकी भी होगी।
चूंकि 2 अक्टूबर की वैसे भी मेरी छुट्टी थी तो मैं ये सफ़र आसानी से कर सकता था।
इसलिए इसी हिसाब से मैंने प्लान बनाने की सोची। मेरा विचार था कि रुच्ची को उसके हॉस्टल छोड़कर मैं फिर घुमक्कड़ी के लिए कहीं न कहीं निकल जाऊंगा। इसलिए जाने से दो तीन दिन पहले मैंने गूगल बाबा से जानकारी इकट्ठा करना शुरू कर दी और निर्धारित दिन यानी शुक्रवार तक आने तक एक दो जगह को निर्धारित कर लिया। घूमने के लिए तो मैं जयपुर भी घूम सकता था लेकिन उसमे दो बातें थी। पहली ये कि मैं एक बार जयपुर घूम चुका था। दूसरी ये कि मैंने सुबह पाँच साढ़े पाँच बजे करीब जयपुर पहुँच कर और उसके बाद अपनी बहन को उसके हॉस्टल छोड़कर फ्री हो जाना था। जयपुर के पर्यटक स्थल वैसे भी दस बजे के बाद ही खुलते हैं तो मेरे लिए तीन चार घंटे बिताना मुहाल हो जाता। इसलिए मैंने ये सोचा कि इस वक्फे में मैं जयपुर के आसपास की किसी जगह पहुँच सकता था। फिर उधर घूमकर उसका आनन्द ले सकता था और वापसी भी उसी दिन की हो सकती थी।
घुमक्कड़ी में भागा दौड़ी भी मुझे ज्यादा पसंद नहीं है तो मैंने दो जगह का ही चुनाव किया था। एक तो अलवर जहाँ देखने के लिए बहुत कुछ था और दूसरा चाँद बावड़ी, जो कि दुनिया की सबसे बड़ी बावड़ी थी। मैंने पहले ही उग्रसेन की बावली और फिरोज शाह कोटला में मौजूद बावली देख चुका था। फिर ये बावड़ी तो दुनिया की सबसे बड़ी बावड़ी थी इसलिए इसे देखने का लोभ भी था। अब ये उधर ही जाकर निर्धारित करता कि मुझे अंततः क्या देखना था। मन में कई बार जयपुर के आसपास की जगहों का ख्याल भी आया था लेकिन अपने को ज्यादा विकल्प देकर मैं खुद को कंफ्यूज नहीं करना चाहता था। कम जगहें देखो लेकिन आराम से पूरा समय लगाकर देखो। यही मेरा मोटो रहा है।
खैर, निर्धारित दिन आया। पहले मुझे लगा था कि मुझे २९ यानी शुक्रवार को ऑफिस जाना पड़ेगा लेकिन फिर बाद में पता लगा कि उस दिन ऑफिस का अवकाश है तो मैं थोड़ा खुश भी हो गया। यानी मैं अब सफ़र पे निकलने से पहले कपडे धो धाकर निकलूंगा ताकि वापस आऊँ तो सूखे मिले(अकेले रहते हुए सब चीज की प्लानिंग करनी ही होती है। कपडे धोने जरूरी थे क्योंकि ऑफिस में फॉर्मल पहनना होता है और वापसी का कुछ आईडिया नहीं था। )। इसलिए मैंने २९ का दिन तो इन्ही कामों में लगाया। शाम तक सब काम निपटा और मैं बस अड्डे के लिए तैयार हुआ।
साढ़े आठ बजे करीब मैं महाराणा प्रताप बस अड्डे पहुँच गया था। यहाँ तक पहुंचना भी अपने आप में भागीरथ प्रयत्न साबित हुआ था क्योंकि आगामी तीन दिन की जो छुट्टी आ रही थीं उनके चलते दिल्ली से कूच करने वाले लोगों की तादाद काफी थी। एमजी मेट्रो स्टेशन में ये लम्बी लम्बी कतारे लगी थी जिन्हें पार करते हुए मैं यही सोच रहा था कि कहीं रुच्ची उधर पहले पहुँच जाए और उसे मेरा इंतजार करना पड़े। लेकिन फिर ऐसा नहीं हुआ। मैं वक्त रहते उधर पहुँच गया था और जब उसका फोन आया कि वो बस से उतर गयी है तो मैं उधर की तरफ आ रहा था जहाँ आईएसबी टी में घुसने से पहले बस अक्सर अपने यात्रियों को उतार देती है। मैं जल्द ही उसके पास पहुँच गया। उसका बैग थामा और आईएसबीटी में दाखिल हुआ।
अन्दर आने से पहले मैंने उसे बता दिया था कि इधर से खाली साधारण गाड़ी मिलेगी। जयपुर के लिए वॉल्वो अगर पकड़नी हो तो अक्सर बीकानेर हाउस से मिलती है। ये उसे भी पता था। उधर जाने के लिए हमे मेट्रो से जाना होता या ओला करनी होती जिसमे थोड़ा झिकझिक थी और फिर चूंकि छुट्टियाँ थी तो इस बात की पूरी सम्भावना थी कि ऑनलाइन बुकिंग हो गयी होगी और वो भरी होंगी। इसलिए उधर जाकर सीट न मिले तो इधर ही आना पड़ेगा या फिर इफ्को चौक जाना पड़ता क्योंकि उधर भी जयपुर की गाड़ी काफी चलती रहती है। ऐसे में काफी भाग दौड़ करनी होती जिसके वो पक्ष में नहीं थी इसलिए उसने भी आईएसबीटी से जाने के फैसले पे सहमती जताई।
हम अन्दर पहुँचे तो उधर लोगों की भीड़ देखकर वो भी हैरान थी। ये सब लोग अधिकतर हिमाचल जाने वाले लोग थे जो कि दिल्ली की गर्मी से निजाद पाना चाहते थे। अगर मुझे रुच्ची को छोड़ने न जाना होता तो शायद मैं भी इन्हीं लोगों में शामिल होता।
खैर, आईएसबीटी में पहुँचने के बाद हमने राजस्थान की गाड़ियों को खोजने की कोशिश की लेकिन वो हमे मिली नहीं। एक दो चक्कर मारे तब भी नहीं दिखी। फिर मैंने रुच्ची को नेट में ढूँढने के लिए कहा तो उसने ढूँढा और बताया। अगर आप आईएसबीटी गए हैं तो उधर आपको पता होगा कि हर राज्य को जाने वाली गाड़ी एक विशेष प्लेटफार्म, जिनकी संख्या ४० से ऊपर है, पर खड़ी होती है। ऐसे में जयपुर जाने वाली गाड़ी ढूँढना टेढ़ी खीर साबित हो रहा था। भीड़ ने इसे थोड़ा और मुश्किल बना दिया था। लेकिन किसी तरह हमने अपने मतलब का प्लेटफार्म ढूंढा। इन्हीं प्लेटफार्म के सामने छोटे छोटे बूथ बने होते हैं जहाँ से आपको गाड़ियों के विषय में जानकारी और टिकट वगेरह भी मिल जाते हैं। मैं प्लेटफार्म पे बने बूथ पे गया तो मुझे मालूम चला कि उधर ही जयपुर के टिकेट मिल रहे थे।
मैंने उनसे दो टिकट मांगे। एक मेल और एक फीमेल। राजस्थान की गाड़ियों में मेल और फीमेल का अलग अलग किराया लगता है। महिला वर्ग को किराए में रियायत दी गयी है। उन साहब ने मुझसे मेरा गंतव्य स्थल पूछा और फिर एक पर्ची में वो लिखा, फिर उसी कागज के टुकड़े में सीट नंबर और बस का नंबर दर्ज किया और मुझे वो पकडाते हुए हिदायत दी कि उस पर्ची को मैं संभाल कर रखूं क्योंकि कुछ ही देर में कंडक्टर साहब मुझे उसके बदले में टिकट देंगे।उन्होंने ये भी कहा कि तब तक मैं उधर खडा रहूँ। गाड़ी का वक्त सवा नौ का था जिसे बजने में पाँच दस मिनट थे तो मैंने वहीं खड़े रहने की सोची।
अब चूंकि टिकट हाथ में था तो हम खड़े होकर सवा नौ बजने का इन्तजार करने लगे। सवा नौ बजे मैं काउंटर पे गया और बस के विषय में पूछा तो उन्होंने कंडक्टर की तरफ इशारा कर दिया कि वो बतायेंगे। कंडक्टर साहब ने सवारियों को आवाज दी और हम उनके पीछे हो लिए। बस तो दिख नहीं रही थी तो मैं सोच रहा था कि जाने किधर को ले जाया जा रहा है। खैर, उनके पीछे जाते हुए वो बसों की भीड़ से हमे पार लाये और फिर बाहर की तरफ इशारा करते हुए कहा कि आप गेट से निकलते हुए इस साइड में रहते हुए डिवाइडर के साथ साथ चलते जाना तो आपको बस दिख जाएगी। चूंकि पर्ची पे बस का नंबर दर्ज था तो हम भी इस दिशा निर्देश का पालन करते हुए बाहर आ निकले। थोड़ी ही देर में हम बस में थे।
बस में गर्मी थी तो पसीने भी आ रहे थे। हम अपनी सीट्स पे बैठे। थोड़ी देर में कंडक्टर साहब भी आ गए। बस निकलने वाली थी तो एक भाई साहब ने कहा कि एक सवारी के लिए रुक जाइये। साढ़े नौ से ऊपर वक्त हो चुका था। फिर उसके इंतजार में वक्त काटा और सवारी के आने के बाद ही गाड़ी बढ़नी चालू हुई।
बाकी का सफ़र में ज्यादा कुछ नही हुआ। एक आध घंटे तो हमने बातचीत में गुजारा। इस दौरान कंडक्टर साहब ने टिकट काटी। फिर कुछ देर बाद हमे नींद सी आ गयी। सफ़र के बीच में मुझे नींद के झोंकों के बीच एक बार बहस सुनाई दी। शायद सामान के किराये को लेकर कुछ बहस थी जिसका नतीजा ये हुआ कि वो व्यक्ति बस से उतर ही गया। इसके बाद का सफ़र नींद के झोंकों में ही बीता। और नींद पूरी तरह सिन्धी कैंप बस स्टैंड आने से थोड़ा पहले ही खुली।
हम बस स्टैंड में उतरे कि दो तीन लोग हमे पर्यटक समझकर होटल की जानकारी देने के लिए हमारे पास आ गए। हमने कहा होटल नहीं चाहिए क्योंकि लोकल है तो वो दूर हुए। इसके बाद रुच्ची को भूख लगी थी और मुझे चाय पीनी थी तो मैंने चाय का आर्डर दिया और रुच्ची के लिए एक मैगी का आर्डर दिया। जब तक वो तैयार होता तब तक मैं चाय की दुकान के बगल में बनी एक बुक स्टाल का चक्कर लगा आया। उधर मुझे एक दो किताब पसंद आ गईं तो मैंने उन्हें खरीद लिया। एक तो केशव पंडित की टाइम बम थी। मैंने केशव पंडित का खाली एक उपन्यास ‘शादी करूँगी यमराज‘ पढ़ा है। वो भी तीन चार साल पहले पढ़ा था और जयपुर की यात्रा पे निकलते हुए मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से लिया था। उस उपन्यास को जब मैं ट्रेन में पढ़ रहा था तो जो भी एक बार शीर्षक पढ़ता मुस्कुराए बिना नहीं रह पाता। उस दिन हम मुंबई से पुणे जनरल के डिब्बे में गए थे और वो भी एक अलग अनुभव था। उधर मैं बैग टिका कर डिब्बे के बाथरूम के बाहर ही खड़ा हो गया था। पूरा डिब्बा खचाखच भरा था और मुझे भीड़, बदबू , चिल्लम चिल्ली से निजाद केशव पंडित के उपन्यास ने ही दिलाई थी। अब जब केशव पंडित का ये उपन्यास देखा तो पुरानी यादें ताजा हो गयी और इसे ले लिया। फिर अमित खान के उपन्यास सात तालों में बंद मौत की तरफ नजर पड़ी। अब अमित जी के उपन्यास मुझे दिल्ली में नहीं मिलते हैं। इनका भी एक उपन्यास पढ़ा है औरत मेरी दुश्मन और वो उपन्यास जब पुष्कर की यात्रा की थी तो यहीं इसी दुकान से लिया था। यानी दोनों लेखकों के उपन्यास से मेरी दो यात्रायें जुडी हुई थी और दोनों ही यात्राएं जयपुर से जुडी हुई थी। खैर, मैंने उन यात्राओं की यादों से खुद को निकला और उपन्यास की कीमत अदा करके बाहर को आ गया।
तब तक चाय तैयार थी और मैगी बन रही थी। मैंने एक चाय पी। चाय अच्छी थी तो उसे खत्म कर दूसरी का आर्डर दिया। जब तक दूसरी चाय आती तब तक रुच्ची के लिए मैगी भी बनकर तैयार थी। उसने वो खाई और मैंने चाय पी। फिर हम ओला में उसके कॉलेज तक की सवारी ढूँढ रहे थे। हमारे सामने फिर एक आदमी आ गया। वो उन्हीं लोगों में से एक था जो बस से उतरकर हमसे होटल के विषय में पूछने आये थे। वो हमसे होटल के लिए पूछने लगा। हमने उसे मना किया तो उसने कहा कि मेरे पास ऑटो भी है तो आपको छोड़ सकता हूँ। हमने उससे किराया पूछा तो उसने किराया बताया। तब तक रुच्ची ओला का किराया देख चुकी थी। वो किराया और उस बन्दे द्वारा बताये किराए में ज्यादा फर्क नही नहीं था। ऐसे में हमने ऑटो से जाना ही ठीक समझा और फिर मुझे वापस भी तो आना था इसलिए यही तय किया कि उसे ऑटो से छोड़ने चला जाऊंगा और फिर वापस उसी ऑटो से आ जाऊंगा।
फिर रुच्ची को उसके कॉलेज छोड़ा और उधर से वापस आ गया। अब मुझे निर्णय लेना था कि आगे का दिन कैसे बिताऊंगा। मैंने फैसला किया कि चाँद बावड़ी ही देखूँगा। फिर उसके बाद देखूंगा कि आगे क्या करना है।
सिन्धी कैंप बस स्टैंड भी अलग अलग प्लेटफॉर्म्स में बंटा हुआ है और हर एक प्लेटफार्म से अलग जगह के लिए गाड़ी जाती है। मैंने जल्द ही पता कर दिया कि किस नंबर प्लेटफार्म से सिकंदरा के लिए गाड़ी जाएगी। मैंने टिकेट विंडो पे पूछा तो पता लगा कि अगली गाड़ी पौने छः – छः बजे की है तो मैंने उसका टिकट ले लिया। १०५ रूपये में मुझे सिकन्दरा का टिकट मिल गया।अब मुझे कोई टेंशन नहीं थी। मैंने एक चाय पीने चाही तो कंडक्टर ने कहा कि वो बस निकलने वाले हैं तो मैंने चाय का प्लान कैंसिल किया। एक बोतल पानी लिया और अपनी सीट पर बैठ गया। जिस गाड़ी का टिकट मेरे पास था वो आगरा जा रही थी। उसी मार्ग में सिकन्दरा पड़ना था। अब मुझे नींद आ रही थी तो मैं बस के चलने का इन्तजार करने लगा। मुझे विंडो सीट मिली थी तो ऐसे में मुझे अपनी मुंडी शीशे से टिका कर सोना पसंद है। चलती बस में सिर जब शीशे से लगाया रहता है तो हल्का हल्का कम्पन सा महसूस होता है। ऐसे मुझे बड़ा आनन्द आता है। सिकंदरा तक का बस का सफ़र नींद के झोंकों में बीता। बीच बीच में जब टोलबूथ आते तो नींद खुलती और फिर गाड़ी चलनी शुरू होती तो नींद आने लगती। बस में चाहे जितना भी सो लो नींद आती ही आती है।
पूरी तरह से नींद दौसा के सामने ही खुली। फिर सिकंदरा आने का इंतजार करने लगा। कुछ वक्त बीता और कंडक्टर साहब की आवाज सुनाई दी कि सिकंदरा वाले आगे आ जाओ। मैंने अपनी सीट छोड़ी और आगे बढ़ गया। बस एक चौराहे पे रुकी और मैं बस से उतरा।
बस से दिखता दौसा का चौराहा |
स्वच्छ भारत अभियान के अंतर्गत बना लोक शौचालय कॉम्पेक्स। ऐसा हर जगह होना चाहिए। |
सिकंदर का चौराहा जहाँ बस ने उतारा था। इधर एक लौती यही फोटो ली थी |
अब इधर से मुझे गूलर गाँव की तरफ जाना था। उधर कई टैक्सी वाले थे जो साझा सवारी ले जा रहे थे। उनमे से मैंने एक से पूछा तो उसने मुझे इशारा करके बता दिया कि गूलर के लिए गाड़ी किधर से मिलेगी। अब वक्त आठ बजे के करीब हो रहा होगा। मैं काफी जल्दी उधर पहुँच गया था और चाय पीने की तलब लगी हुई थी तो मैंने पहले एक चाय ली और उसके बाद एक टैक्सी वाले से बात की। टैक्सी वाले भाई ने कहा कि 10 रूपये में गूलर छोड़ देगा। मुझे और क्या चाहिए था। उसने सवारियाँ टैक्सी में ठूसी (ठूसी इसलिए क्योंकि सबसे पीछे की सीट जहाँ एक तरफ पे दो लोगों की बैठने की जगह होती है उधर उसने तीन तीन लोग बैठाये थे और एक आदमी को जिप्सी के पिछले दरवाजे के हैंडल के ऊपर बैठवाया था। ड्राईवर साहब के अनुसार चूंकि मुझे गूलर उतरना था तो फिर वो बन्दा मेरी जगह पे आ सकता था।)। सिकंदरा से गूलर चौक छः सात किलोमीटर है यानी दस पंद्रह मिनट के सफ़र के पश्चात ही मैं गूलर चौक पहुँच गया था। उधर से मुझे आभानेरी जाना था लेकिन फिलहाल साढ़े आठ भी नहीं हुए थे। थोड़ी बहुत धूप निकलने लगी थी। मैंने सोचा कि एक चाय और पी ली जाए और एक और चाय पी। एक सेल्फी ली। गूलर चौक के मध्य में एक ट्रैफिक लाइट थी और एक छोटी मूर्ती थी जो कि लोगों का स्वागत करती लगती थी। ये मूर्ती किसी नेताजी की कृपा से लगी थी। विधायक थे या पार्षद इसका मुझे आईडिया नहीं है।
गूलर में बैठकर चाय का आनन्द |
गूलर चौक में स्वागत करती मूर्ती |
चाय निपटाने के बाद मैं थोड़ा इधर उधर टहला और फिर आभानेरी की दिशा में चला। उधर मुझे एक ऑटो वाले भाई मिल गए। मैंने उनसे आभानेरी के विषय में पूछा तो उन्होंने कहा कि पचास रूपये की सवारी हो जाए तो वो चल निकलेंगे। मुझे इंतजार में क्या दिक्कत थी पूरा दिन मेरा अपना था तो मैं जब तक सवारी आती तब तक उधर ही वक्त काटने लग गया। जल्द ही सवारियाँ भी आ गयी। और हम आभानेरी की तरफ बढ़ चले। गूलर चौक से आभानेरी मुश्किल से पाँच छः किलोमीटर ही होगा। और दस पन्द्रह मिनट के पश्चात यानी नौ बजे करीब मैं आभानेरी में था।
उधर उतर कर जिस चीज में सर्व प्रथम मेरा ध्यान आकर्षित किया वो एक मंदिर था। ये मंदिर हर्षद माता मंदिर था और ऐतिहासिक लग रहा था। मैंने इसके एक दो तस्वीर निकाले। फिर सोचा बाद में इसे आराम से देखूंगा। मंदिर के बगल में एक पंडाल सा लगा था जहाँ भक्त लोग थे। कीर्तन चल रहे थे और मुझे ऐसा लग रहा था जैसे उधर कुछ कार्यक्रम हो रहा है। उस पंडाल के बगल में एक पार्क था तो मैं पंडाल से होते हुए पार्क में आ गया। फिर मैं पार्क में आगे बढ़ने लगा। अब बावड़ी किधर थी इसका मुझे अंदाजा नहीं था। पार्क से आगे मैं बढ़ा तो एक एक गेट नुमा चीज थी और मैं उसके आगे खड़ा हो गया। उधर भी कुछ पूजा अर्चना चल रही थी तो मुझे लगा ये भी मंदिर टाइप कुछ होगा। मैं उधर ही बाहर खड़ा था कि अन्दर मौजूद एक सज्जन ने मेरी तरफ आते लड़के को मुझे अन्दर आने को बोला। मैं उनके पास गया तो उन्होंने कहा कि ये ही बावड़ी है। उन्होने पहचान लिया था कि मैं पर्यटक हूँ। उन्होंने कहा कि आप इधर घूम सकते हैं और बाहर बावड़ी की कहानी दर्ज है। मैंने उनका शुक्रियादा किया और अन्दर दाखिल हुआ।
चाँद बावड़ी में दाखिल होने से पहले चलिए उसके विषय में कुछ जान लें:
1. चाँद बावड़ी राजस्थान की सबसे प्राचीनतम बावड़ियों में से एक है
2.इसका निर्माण 8 वीं 9 वीं शती ई में निकुम्भ राजवंश के राजा चाँद ने किया था जो उस वक्त प्राचीन आभानेरी पर शासन करता था
3.ये बावड़ी 19.5 मीटर गहरी है और इसकी योजना वर्गाकार है. ये पैंतीस मीटर चौड़ी है. ये दुनिया की सबसे गहरी बावड़ी है
4. बावड़ी में 13 मंजिले हैं और 3500 से भी ऊपर सीढिया इसमें हैं
मैं बावड़ी में घुसा तो इसके स्ट्रक्चर ने ही मेरा मन मोह लिया। 13 मंजिले सीढिया बड़ी खूबसूरत लग रही थीं।इधर एक मंदिर भी है जिधर पूजा अर्चना हो रही थी। मैंने उधर जाना मुनासिब नहीं समझा और चूंकि उधर लोग पूजा कर रहे थे तो तस्वीर भी नहीं ली। इधर फोटोग्राफी निशुल्क है और विडियोग्राफी के २५ रूपये लगते हैं। बावड़ी के चारो तरफ रेलिंग है। बावड़ी के परिसिर में कई कई शिलाएं हैं जिनमें मूर्तियाँ उकेरी गयी हैं। इधर गलियारे हैं जिनमे ये शिलाएं रखी गईं हैं और शिलाओं को अंक भी दिये गए हैं। चारो तरफ घूमने के बाद और जी भर कर तसवीरें निकालने के बाद मैं उन सज्जन के पास पहुँचा जिन्हें इसकी देखभाल के लिए रखा था। मैंने उनके पुछा कि नीचे बावड़ी में उतर सकते हैं तो उन्होंने कहा कि नहीं उसकी अनुमति नहीं है। फिर मैंने इन मूर्तिर्यों के अंक के विषय में प्रश्न किया कि अंक का अर्थ क्या है तो उसके विषय में भी उन्होंने अनभिज्ञता जताई। अब मैं उन्हें ज्यादा परेशान नहीं करना चाहता था तो मैं दोबारा से आराम से बावड़ी में घूमने लगा। मुझे लगता है इधर किसी पुस्तिका का प्रबन्ध होना चाहिए ताकि पर्यटकों को इसकी जानकरी मिल सके। ऐसी पुस्तिकाएं मैंने माउंट आबू के दिलवाडा मंदिरों के पास देखीं थीं। ऐसी सस्ती पुस्तिकाएं इधर मिले तो कुछ न कुछ आमदनी हो जाए और परिसर के रखरखाव के लिए पैसा भी हो जाए क्योंकि टिकट तो इधर लगता है नहीं। मैं करीब नौ बजे अन्दर दाखिल हुआ था और पौने दस बजे तक अन्दर रहा। यानी पूरे पैतालीस मिनट। चलिए आप भी अब कुछ तस्वीर देख लीजिये:
चाँद बावड़ी के विषय में जानकारी देता शिला लेख |
बावड़ी का एक दृश्य |
बावड़ी में मौजूद पानी |
गलियारे के भीतर रखे स्तम्भ जिनकी शिल्पकला खूबसूरत है |
बावड़ी के सामने सेल्फी |
जहाँ हमे जाने की अनुमति नहीं थी उधर तोतों का ये झुण्ड आनंद ले रहा था। बड़े किस्मत वाले थे ये। |
चाँद बावड़ी घूमने के बाद मैं बाहर आया। बावड़ी के बगल में ही एक उद्यान है तो उधर थोड़े देर विश्राम किया। उधर भी पूजा का मंडप बना रखा था जिससे मैं दूर ही रहा। थोड़ी देर उधर बिताने के बाद मैं हर्षद माता मंदिर की तरफ चला गया। उधर जाने का कारण केवल उस मंदिर के विषय में जानना था। मुझे मंदिर में प्रवेश करने से पहले ही एक बोर्ड दिख गया जिसमे उस मंदिर की जानकारी थी। उधर ये भी पता लगा कि ये संरक्षित इमारत है। मंदिर के विषय में कुछ बातें:
1. यह मंदिर हर्षद माता यानी ख़ुशी और उल्लास की देवी को समर्पित है
2.मंदिर का निर्माण भी राजा चाँद ने ही करवाया था
जब भी घूमने जाता हूँ तो पूजा स्थलों से दूर रहता हूँ और अन्दर की तसवीरें भी उतारने से बचता हूँ। मैं वैसे तो नास्तिक हूँ लेकिन मेरा मानना है चूंकि ये किसी के श्रद्धा के केंद्र है और हमारे फोटो खींचने से वहाँ मौजूद श्रधालुओं को डिस्टर्बेंस हो सकता है तो इसके अन्दर फोटो खींचने खिंचवाने से बचना ही चाहिए। हाँ, उसके आस पास फोटो खिंचवा सकते हैं। उधर लोग बाग़ पूजा कर रहे थे तो मैंने बाहर से ही कुछ तस्वीरें ली।
उद्यान में मौजूद बकरा महाशय |
उद्यान के नियम क़ानून बताता बोर्ड |
बावड़ी की तरफ जाता रास्ता |
हर्षद माता मंदिर का साइड व्यू |
मंदिर की जानकारी देता बोर्ड |
हर्षद माता मंदिर का फ्रंट व्यू |
अब इधर देखने के लिए कुछ और नहीं बचा था। अभी तक इधर शान्ति का ही माहौल मिला था। भीड़ भाड़ बिलकुल नहीं मिली थी। इक्का दुक्का ही पर्यटक थे। लेकिन अब धीरे धीरे और पर्यटक भी आने लगे थे। एक जापानी समूह भी उधर पहुँच गया था। मैंने सब कुछ तो देख ही लिया था इसलिए अब रुकने का भी फायदा नहीं था। फिर गर्मी भी बढ़नी लग गयी थी।
मुझे अब आभानेरी से गूलर जाने के लिए कुछ चाहिए था। उधर मुझे कोई टेम्पो दिख नहीं रहा था तो इन्तजार करने के सिवाय कोई चारा नहीं था। सार्वजानिक साधनों का उपयोग करके घूमने का एक नुक्सान ये भी होता है कि आपको इन्तजार करना पड़ सकता है। नौ दस मिनट के इंतजार के बाद ही एक ऑटो आया। मैं उसमे सवार हो गया। 10 रूपये में गूलर चौक पर उसने मुझे छोड़ दिया। अब गूलर से सिकन्दरा तक जाना था लेकिन दस पंद्रह मिनट इन्तजार के बाद भी कुछ नहीं आया। मेरे बगल में एक बुजुर्ग भी खड़े थे उन्हें भी शायद उधर ही जाना था। फिर उधर एक ट्रेक्टर नुमा चीज आई जिसमे पीछे औरतें और आगे एक दो मर्द बैठे थे। हमारा यहाँ उसे जुगाड़ कहते हैं। राजस्थान में पता नहीं उसे क्या कहते हैं। वो बुर्जुग पीछे अपने लिए जगह बनाकर खड़े हो गए और उन्होंने मुझे इशारा किया तो मैं भी उधर जगह दूंढ़ कर खड़ा हो गया।
अन्दर जितनी महिलाएं बैठी थी उन्होंने चटक रंग की साड़ी पहनी थी। उधर कम से कम सात आठ अलग-अलग रंग रहे होंगे। वो बेहद खूबसूरत लग रही थीं। ऐसे में एक बार को तो मेरा फोटो खींचने का मन हुआ। उधर ही नहीं आभानेरी में भी मैंने ये बात नोट की थी। लेकिन मैंने फोटो खींचने के खयाल को झिझक के कारण त्याग दिया। लेकिन इतने रंग बिरंगे परिधानों में महिलाएं मैंने इधर ही देखीं थीं। उम्मीद है नई पीढ़ी के साथ भी ये बचा रहेगा।
उसमे खड़े खड़े ही हम सिकंदरा पहुँचे। मैंने जुगाड़ वाले को दस रूपये किराया दिया और फिर जयपुर की गाड़ी का इन्तजार करने लगा। एक बार को तो मन में ख्याल आया कि आगरा के लिए निकल जाऊँ। लेकिन फिर मुझे गुडगाँव में काफी काम था तो मैंने वापस जयपुर में जाने की सोची। थोड़ी देर में ही गाड़ी आ गयी तो मैंने जयपुर का टिकट लिया।
आगे का सफ़र में कुछ विशेष नहीं हुआ। हुआ भी होगा तो नींद के झोंकों में मुझे कुछ पता ही नहीं चला। जयपुर पहुँच कर बस स्टैंड के बगल में ही लंच किया। फिर मैंने सोचा कि उधर के दूसरे बुक स्टाल्स के चक्कर मारूँ। पिछली बार जब आया था तो मुझे इधर दो तीन बुक स्टाल मिले थे जिधर से मैंने कॉमिक्स भी ली थी। लेकिन इस बार मुझे एक ही बुक स्टाल मिला। उधर तो मैं सुबह ही जा चुका था इसलिए जब कोई दूसरा स्टाल नहीं मिला तो मैं थोड़ा निराश हुआ। फिर वक्त देखा तो दो ढाई बज गए थे। मैंने सोचा अब वापस चल लिया जाए तो वापसी गुडगाँव का टिकट ले लिया। फिर बस में बैठकर गुडगाँव और आठ नौ बजे तक अपने रूम में वापस आ गया।
तो ये रही मेरी एक दिवसीय छोटी सी यात्रा। मुझे तो इसमें काफी आनन्द आया। आपको कैसा लगा जरूर बताइयेगा।
फिर मिलेंगे किसी और डगर पे, किसी और रस्ते पे।
रुच्ची को लेकर जयपुर छोड़ने और चांद बावड़ी की यात्रा और 13 मंजिल बावड़ी और हर्षद माता मंदिर की घुमक्कड़ी अच्छी लगी
वाह सुंदर यात्रा व्रतांत
आपका हार्दिक आभार, प्रतीक भाई
ब्लॉग पर आने का और टिपण्णी देने तहे दिल से शुक्रिया, दिनेश जी। आते रहियेगा। हार्दिक आभार।
आप बस में कैसे सो जाते हैं विकास जी, हमें तो आज तक बस में नींद नहीं आई। वाह गूलर गांव का नाम सुनकर गूलर के पेड़ पर चढ़ने वाली बात याद आ गई। आपने यहां जाने के लिए गूगल बाबा का सहारा लिया पर आपके इस पोस्ट को पढ़कर अब किसी को यहां जाने के लिए गूगल बाबा का सहारा नहीं लेना पड़ेगा। फोटो को देखकर कुछ कहने का मन करता है पर कह नहीं पा रहा हूं। फोटो ऐसे है कि बस नजरें हटाने का मन नहीं करता। इन तस्वीरों के बीच एक ऐसी तस्वीर है जिसमें 8 हरे-हरे तोते बैठे हुए हैं उसे तो बस देखते रहने का मन कर रहा है। शिवलिंग के पास खड़ी बकरी भी आज शिवभक्त लग रही है।
उत्कृष्ट यात्रा वृतांत, 1-1 घटना को बारीकी से अपने ज्ञान से सींच कर आपने हम जैसे घुमक्कड़ी स्वभाव रखने वाले को वहां निःसंदेह जाने पर मजबूर कर दिया है। ऐसे ही आगे अपने अनुभव को साझा करते रहिएगा।
शुक्रिया देव साहब।आपकी टिपण्णी मुझे और अच्छा लिखने के लिए प्रेरित करेगी। आते रहियेगा ब्लॉग पर।
शुक्रिया, अभयानंद जी। आपकी टिपण्णी देखकर हमेशा मन प्रफुल्ल्ति होता है। सही कहा आपने बकरी शिव भक्त ही मालूम होती है।
चाँद बावडी देखने की उत्सुकता इस लेख ने बढा दी है।
शुक्रिया,संदीप जी। आपको उधर एक बार जरूर जाना चाहिए।
रोचक
विद्युत् जी, शुक्रिया।
Bahut Sundar write-up, Pune ki unreserved yatra humne bhi kubh ki hai isliye aap ke emotion ko samaj paye …
शुक्रिया, आशीष जी। ब्लॉग पर आते रहियेगा।
सुंदर!
शुक्रिया,सर।
वाह मजा आ गया नैनवाल जी, बहुत ही सुन्दरता से यात्रा का वर्णन किया। जितना समय दिया था पढ़ने में सारे पैसे वसूल हो गये। 🙂 दूसरा आपने अपनी फोटोग्राफी से इस यात्रा वृतांत में चार चाद लगा दिये है या कह सकते है कि इन फोटो ने आपके यात्रा वृतांत को सजीव कर दिया।
जी,हार्दिक आभार। ब्लॉग पर आते रहिएगा।