यह यात्रा 19 जनवरी,2018 से 20 जनवरी 2018 में की गयी मैंने राम झूला पार कर लिया था। दीवार पे बने निर्देश से मुझे पता चल गया था कि नीलकंठ महादेव जाने के लिए मुझे किधर से जाना होगा। अब मैं आस पास के मंदिरों की फोटो खींच रहा था।
यहाँ तक आपने पिछली कड़ी में पढ़ा। अगर नहीं पढ़ा तो आप इस लिंक पर क्लिक करके यात्रा वृत्तांत को शुरुआत से पढ़ सकते हैं।
अब आगे।
फोटो खींचने में लगभग पांच दस मिनट लगे। अभी अँधेरा ही था लेकिन मैंने रास्ते की तरफ बढ़ने की सोची और इंगित रास्ते की तरफ बढ़ चला। अभी पांच पचास ही हो रहे थे। कुछ ही दूर जाने पर मुझे दोराहे पर एक बाबा बैठे दिखाई दिए और मैंने उन्हें नीलकंठ महादेव तक जाने वाले रस्ते के विषय में पूछा तो उन्होंने रास्ता बताया।
जब मैं जाने लगा तो उन्होंने कहा : “बेटा, थोड़ा रुक कर जाना और तीन चार लोग हों तो ही जाना।”
मेरे चेहरे पे दिख रहे भावों को ताड़ कर उन्होंने कहा: “अभी सुबह खुली नहीं है तो इस वक्त उधर जानवर वगेरह होने के आसार होते हैं तो देख-भाल कर ही जाना।”
मैंने हामी जताने के लिए अपना सिर हिलाया और उन्हें शुक्रियादा अदा करके आगे बढ़ गया। उनके इस कथन से एक डर का बीज मेरे मन में रोपित तो हो चुका था लेकिन उस वक्त यात्रा का उत्साह इतना था कि मैंने ध्यान नहीं दिया। कुछ दूर ही चला होऊंगा की एक चाय वाला दिख गया और मुझे चाय की चुस्की लेने का मन कर गया। मैंने चाय पी और पैसे चुकाने के बाद आगे बढ़ गया।
रास्ता अंधेरे में डूबा हुआ था। एक पतली सी गली थी जिसके एक तरफ घाट बने हुए थे दूसरी तरफ मंदिर,दुकाने इत्यादी। ज्यादातर अभी बंद ही थे। छः बजे का वक्त था। अभी उजाला नहीं हुआ था। मैंने कुछ देर घाट पर वक्त काटा। उधर मैं सीढ़िया उतर कर गया था। फिर मैं मुख्य गली में आया और आगे बढ़ गया। कुछ ही दूर में मैं उस जगह पहुँच गया था जहाँ से नीलकंठ को रास्ता जाता था। यह एक संकरी सी गली थी जो आगे बढती जाती थी। अभी गली भी अँधेरे में डूबी थी तो मैंने सोचा कि अभी जाने से फायदा नहीं है। उन बाबा के शब्द मेरे कान में बज रहे थे।मैंने गली में मुड़ने के बजाय आगे जाकर एक्स्प्लोर करने की सोची। मेरा विचार था थोड़ा उजाला हो जाये तो ही आगे बढ़ने में बेहतरी थी। इसलिए मैंने सोचा एक घंटे इधर ही वक्त काटता हूँ। गली सीधा आगे जा रही थी तो मन में ख्याल आया कि उधर क्या होगा। इसलिए उसी रस्ते में मैं आगे तब तक बढ़ता रहा जब तक वो अंत न हो गया। एक आश्रम और लॉज दोनों ही उधर थे। मैंने ऐसे ही चक्कर लगाया। उधर जाते वक्त कुछ दीवारों पर मुझे सुन्दर ग्राफिटी दिखे तो मैंने उनके फोटो खींच लिये। आगे एक जगह पर एक चबूतरा था जिसमें शिवजी और गणेश जी की मूर्ती लगी हुई थी। वो बड़ी सुंदर लग रही थी तो उसकी तस्वीर भी मैंने उतार ली। मैं तब तक आगे बढ़ता रहा जब तक रास्ता खत्म न हो गया। जब मुझे लगा कि काफी दूर तक आ गया हूँ तो फिर मैं वापस आ गया।
मैंने रामझूला जब पार किया था तो छः बज रहे थे। अब घूमते-घूमते पौने सात हो गये थे।हल्का उजाला भी हो गया था। अब मैं नीलकंठ जाने की सोच सकता था। मैंने जाने से पहले गली के सामने मौजूद एक एक छोटे से रेस्टोरेंट में चाय पी। ऐसे में थोड़ा पांच दस मिनट का वक्त और लगा।और चाय पीकर तरो ताज़ा होकर मैं उस गली में दाखिल हो गया जहाँ से नीलकंठ को रास्ता जाता था।
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घाट के किनारे का रास्ता। |
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घाट |
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नीलकंठ पैदल मार्ग इंगित करता बोर्ड |
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घाट की तरफ जाती सीढ़ियाँ |
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रास्ते के बगल में बना एक मंदिर |
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अँधेरी रातों में कुत्ता अपना काम करता है |
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घाट के बगल में बना पार्क और उसके इर्द गिर्द की रेलिंग |
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घाट का नाम दर्शाती रेलिंग |
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दीवार में बनी ग्राफिटी |
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एक और ग्राफिटी |
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चबूतरे में विराजते शिवजी और गणेश जी |
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नीलकंठ जाने वाली गली की ओर वापस जाते हुए |
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नीलकंठ वाली गली |
गली के दोनों ओर आश्रम थे और गली सीधा आगे को जाती थी। गली में सीधा चलते रहने के चार पांच मिनट बाद एक जगह पे मुझे कुछ टैक्सी वाले दिखे। उधर मैंने उन्हें रास्ते के विषय में पूछा। सामने सड़क दो तरफ जाती थी तो उन्होंने मुझे इशारे से बता दिया की किधर को जाना है। मैं सड़क की तरफ मुड़ा तो ठिठक गया। काली संकरी सी सड़क आगे को जा रही थी। सड़क के दोनों और जंगल थे और पूरा इलाका सुनसान सा था। न भी सोचूँ तो बाबा के शब्द कानों में बज जाते। ‘अकेले मत जाना। लोगों का इन्तजार करना। जानवर होने का खतरा है।’ एक पल को तो मन में आया कि पीछे हो लूँ। लेकिन फिर सोचा कि अगर कुछ खतरा होता तो टैक्सी वाले भाई मुझे कुछ तो चेतावनी देते। ऐसे भी कौन सा इधर इतने तगड़े जानवर होंगे। मैंने सोचा है तो यह शहरी इलाका। देखा जाएगा। ऐसे ही खुद को मैंने दिलासा दिया और आगे बढ़ गया। लेकिन मैं कितना गलत था।
आगे बढ़ते हुए कुछ ही दूर चला था कि एक बोर्ड ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। बोर्ड्स के साथ फोटो खिंचवाने का मेरा फितूर अलग से रहा है। इस बार अकेला था तो बोर्ड का फोटो ले सकता था। मैं बोर्ड की तरफ बढ़ा तो उस पर उकेरे गए वाक्य देखकर सहम सा गया था। लिखा था हाथी बाहुल्य क्षेत्र। यानी इधर हाथी की तादाद ज्यादा थी। जैसे इससे मन न भरा हो उसी बोर्ड के नीचे लिखा था राजाजी टाइगर रिज़र्व। अब मैं अंजान हूँ लेकिन इतना भी नहीं कि समझ न पाऊँ कि इस बोर्ड का क्या मकसद था। यह दोनों जानवर इधर रहते होंगे। बाबा ठीक कहते थे। अकेले जाने का कोई तुक नहीं था।
मैं बोर्ड के सामने खड़ा हो गया और सोचने लगा कि आगे बढ़ा जाए या नहीं? सड़क के किनारे मौजूद जंगल अब मुझे भयावह लग रहे थे। क्या किया जाए। मैं इन्ही सोचों में डूबा हुआ था कि तभी पीछे से आवाज़ हुई। मेरी पहली प्रतिक्रिया कूदकर दुबक जाने की थी।
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अँधेरे रास्ते,तन्हा सफ़र/ पर तू न रुक पथिक,/चलता चल |
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रास्ते में मौजूद बोर्ड |
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सुनसान रास्ता,जंगल और मैं। |
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राजा जी टाइगर रिज़र्व का बोर्ड |
लेकिन हल्की कंपकपाहट ही शरीर में हुई। आवाज़ आदमी की जो थी। पीछे किसी व्यक्ति ने मुझे पुकारा था। लेकिन चूँकि मैं सोच में डूबा था कि घबरा सा गया था।
‘अरे लड़के!’ फिर से आवाज़ हुई।
मैंने अपने धड़कते दिल को काबू किया और मुड़ा। एक बुजुर्ग उधर खड़े थे।
मेरे मुड़ते ही उन्होंने कहा -’ नीलकंठ जा रहे हो क्या? मैं भी उधर ही जा रहा हूँ। साथ में चलते हैं।’
मैं खुश हो गया। अब आगे की यात्रा की जा सकती थी। बुजुर्गवार स्थानीय थे और वहां के हालात से वाकिफ रहे होंगे। मैंने हामी भरी और चलने लग गया। उन्होंने कहा – “मैंने टैक्सी वालों से पूछा तो उन्होंने कहा कि एक लड़के को जाते हुए देखा है आगे तो सोचा कि साथ ही चला जाये।”
मैंने कहा- “जी सही किया।”
फिर वो पूछने लगे कि मैं किधर का हूँ तो मैंने अपने विषय में बताया और फिर जब उन्हें पता चला कि गढ़वाल से हूँ तो हम लोग गढ़वाली में ही बात करने लगे।
अब हम सड़क पर आगे बढ़ने लगे थे। चलते हुए उन्होंने मुझे बताया कि नीलकंठ जाने वाले रास्ते पर उनकी चाय की दुकान है। लगभग बीस वर्षों से वो उधर दुकान लगा रहे थे। उससे पहले वो पौड़ी रहते थे। उन्हें मैंने बता दिया था कि मैं पौड़ी से ही था। उन्होंने एक व्यक्ति का नाम लेकर कहा कि वो उस ठेकेदार के लिए काम करते थे और कई सड़कों के निर्माण का कार्य उन्होंने किया था। फिर एक बार उनके देख रेख में काम करने वाला मजदूर एक दुर्घटना में काम के दौरान चल बसा और उनका काम से मन हट गया। वो फिर इधर आ गये थे। उन्होंने फिर अपने परिवार के विषय में बताया और ये भी बताया कि उनके एक दामाद का असक्सीडेंट हो गया था और इस कारण वो आज शाम को उधर जाने वाले थे।
जहाँ उनकी दुकान थी उधर कभी कभी हाथी आकर नुकसान कर देते थे तो वो आज दुकान की व्यवथा करने आये थे ताकि दो-तीन दिन अगर दुकान बन्द रही तो सुरक्षित रहे। चलते चलते उन्होंने कई किस्से सुनाए। उन्हें बोलने में आनंद आ रहा था और मुझे सुनने में।
उन्होने ये भी बताया कि उधर हाल फिलहाल में एक हाथी ने एक युवती पर हमला कर दिया था। ऐसे क्यों मैंने पूछा तो उन्होंने कहा- “अब गजराज सड़क पार कर रहे थे और युवती ने देखा और उनकी फोटो खींचने लगी ।गजराज को जाने क्या लगा उसने उठाकर पटक दिया। पीछे उसके रिश्तेदार आ रहे थे लेकिन तब तक देर हो गई थी।”
“अक्सर ऐसा होता है इधर।” – मैंने पूछा।
“नहीं।लेकिन मूड का क्या भरोसा उनके। गजराज तो कहता है कि वो तो मुझे दिखाई कम देता है वरना मैं पहाड़ को भी टक्कर मार कर गिरा देता।”- कहकर उन्होंने हाथी की मनोदशा दर्शाई।
मेरा गला सूखने लगा था। एक बात तो समझ आ गई थी। कोई जानवर सामने आया तो फ़ोटो तो मैं न खीचूंगा। इसका मैंने फैसला कर लिया। ऐसे ही बाते करते हुए हम बढ़ते रहे। वो कुछ मेरे विषय में पूछते तो मैं बता देता वरना वो अपने विषय में बताते रहते और मैं सुनता रहता। सुनना मुझे वैसे भी पसंद है।
फिर उन्होंने कहा कि उनकी एक बेटी नीलकंठ के नज़दीक ही रहती है। वो बता रही थी कि उधर तेंदुए का हमला भी हुआ था कुछ दिन पहले।
मैं – “इधर तेंदुए भी हैँ।”
बुजुर्गवार -“वैसे तो ज्यादा हमला नहीं करता लेकिन जंगल में क्या पता चलता है? यह कहकर वो हँसने लगे। ”
मेरा ये सुनना था कि मन में ख्याल कौंधा- बेटा,क्या कर दिया आज। लगने वाले हैं तेरे।
उन्होंने मेरी तरफ देखा तरफ और शायद मेरे चेहरे को देख कर मन में कौंधते विचार पढ़ लिए।फिर मुझे दिलासा सा देते हुए कहा – “आप घबराओ मत। अक्सर नहीं होता।सेफ है इधर। सुबह या शाम के वक्त ज्यादा खतरा होता है।”
“बिल्कुल बिल्कुल” – मैंने कहा तो सही लेकिन मैं मन में सोच रहा था कि मुझे ये बाते न बताते तो क्या चला जाता। अब मन में ये ख्याल घर कर गया है और हर वक्त दिमाग में यही घूमता रहेगा। एक बार को मन में यह भी ख्याल आया कि बुजुर्गवार कहीं एक की चार न लगा रहे हों। लेकिन पौड़ी में जिस व्यक्ति का नाम उन्होंने बताया था उसके विषय में मेरी मम्मी भी जानती थी वो मैंने उनसे बाद में पूछा। और हाथी वाली घटना के विषय में मेरी एक दोस्त ने बताया। वो देहरादून में रहती है तो उसे इसका पता था और उसने इसकी पुष्टि की थी।
फिर दोबारा वो अपने परिवार, बेटी और नाती की बात करने लगे और मैंने विषय बदलने पर राहत की सांस ली। अब जो होता देखा जाता। बातों बातों में उन्होंने कहा – “मेरी दुकान के बगल में एक मौनी बाबा की गुफा भी है। उधर वो रहते हैं। नीलकंठ से वापस आओगे तो उनसे भी मिलना।”
“जरूर आते हुए मिलता हुआ जाऊँगा”- मैंने कहा। मन में सोचा की बाबा से मिल तो जाऊँगा लेकिन कहूँगा क्या। उन्होंने तो मौन रखा हुआ है। बातचीत करेंगे नहीं तो बैठकर क्या करूंगा। लेकिन अभी के हामी भरने में क्या जाता है। अच्छा अनुभव होगा उनसे मिलना भी। देखते हैं क्या होता है।
हम आगे बढ़ते जा रहे थे। रास्ते में हमे कई जगह हाथी के द्वारा किया गया गोबर दिखा। कई जगह झाड़ियाँ टूटी हुई थी जिससे पता लगता था की वो भीमकाय जीव उधर से निकले थे। एक दो जगह मोर और मोरनियाँ भी दिखी थीं।
“आपकी दुकान को भी नुक्सान पहुंचाते हैं ये?” मैंने झाड़ियों की हालत देखते हुए कहा।
“हाँ, नुक्सान तो होता है लेकिन कभी कभी।” उन्होंने कहा लेकिन उनके मन में हाथियों के प्रति मुझे कोई बैर भाव नहीं दिखा। उनके लिए वो गजराज जो थे। ऐसे ही चलते चलते हम लोग उनकी दुकान तक पहुँच गये। मैंने उनसे विदा ली और आगे बढ़ गया।
अब तक हमने सारी बातें गढ़वाली में की थी। जाते हुए उन्होंने मुझे कहा की आप ध्यान से जाना। घबराने की कोई बात नहीं है। वैसे भी लोग बाग़ आ रहे होंगे।
मैंने उनसे विदा ली और आगे बढ़ा।
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नीलकंठ का रास्ता बताता एक बोर्ड। ऊपर 18 किलोमीटर दिखा रहा है और नीचे 8 km। सही कौन सा है? बूझो तो जाने। वैसे घुमक्क्ड हो तो आपको घूमने से मतलब होगा रास्ता कितना लम्बा हो इससे क्या लेना देना। क्यों सही कही न। |
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मार्ग पर बढ़ता चल |
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तिराहा। जहाँ नीलकंठ का रास्ता इंगित है। |
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रास्ते में मौजूद गोबर। गजराज ने किया या किसी और ने? हमे क्या पता। |
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रास्ते में मौजूद पक्षी। यहीं कहीं मोर थे लेकिन कैमरे में न आ पायें। |
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मौनी बाबा गुफा। दूरी छः-साढ़े किलोमीटर ही रह गई है। |
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बढ़े चलो। |
अब मैं आगे बढ़ने लगा था। रास्ता बना हुआ था तो उस पर ही मुझे बढ़ते हुए जाना था। मैं चलते जा रहा था और आस पास की फोटो भी लेता जा रहा था। हाँ, मन के किसी कोने में उन बाबा और बुजुर्गवार की आवाज़ रह रह कर उठती जा रही थी।
इसलिए जब कभी कभी मुझे झुरमुटों में कुछ आवाज़ सुनाई देती तो मेरा गला सूख जाता।मैं रुक जाता और टुकुर टुकुर उस दिशा में देखने लगता जिधर आवाज़ होती। लेकिन यह मेरी अच्छी किस्मत ही थी कि अक्सर आवाज़ का स्रोत एक छुटकी सी चिड़िया होती जो कुछ देर में फुदकते हुए उधर से निकलती। मैं उसे देखता और मुस्करा देता। फिर मैं आगे बढ़ जाता। ऐसे ही मैं चलता रहा। उधर मुझे आदमजात के नाम पर कुछ भी नहीं दिख रहा था। कई बार रास्ते में बने छोटे मोटी दुकानें नुमा जगह दिख जाती लेकिन वो अक्सर खाली होती। ऐसा लगता था कि लोग उधर सामान नहीं रखते थे। वो दिन का सामान लेकर आते थे और फिर उधर बैठते थे। वैसे ये सही भी था। जंगल के बीच में कुछ भी रखने का फायद नहीं था। उल्टा जानवरों से नुक्सान होने का खतरा अलग रहता था। मुझे रास्ते में एक टूटा पेड़ मिला था। मैंने अपनी सुरक्षा के लिए उससे एक मोटी सी टहनी तोड़ ली थी। मेरे हाथ में अब एक वज्र था। मैं इसे पाकर बढ़ा खुश हुआ और कुछ देर तक मैंने हातिमताई की तरह इससे तलवार बाजी करने का अभिनय किया। अब आये ज़रा कोई जानवर। अपने वज्र से उसको खील खील कर दूँगा मैंने सोचा और खुश हुआ। मैं आगे बढ़ने लगा। ऐसे ही बढ़ते बढ़ते मैं एक जगह पर पहुँचा। इधर एक सुरक्षा चौकी बनी थी और एक शेड था। इनसे पहले एक छोटा सा टीला नुमा स्ट्रक्चर था। जाने किसलिए उसे बनाया गया था। ,मुझे तो तो आदमी द्वारा बनाया गया दिखा। अगर अगल बगल मौजूद होता तो मैं उससे पूछता लेकिन इधर तो मैं अकेला था। इसलिए उस पर चढ़ा। आस पास का नज़ारा देखा। थोड़ी देर इधर उधर की फोटो खींची और फिर आगे बढ़ गया। ऐसे ही चलते चलते मैं एक जगह पर पहुँचा।
एक सीधा रास्ता जा रहा था। उसके दोनों तरफ पेड़ थे। अब धूप भी निकल आई थी और अच्छी बात ये थी की कुछ देर पहले नीचे मैंने दो लोग देखे थे। उनके हाथ में कुल्हाड़े थे और वो ऊपर आ रहे थे। वैसे एक बार को तो उन्हें देखकर मेरे मन में एक अपराध कथा का अक्स सा उभरा। एक ट्रेकिंग में आये युवक को दो लोगों ने लूटा। ऐसा शीर्षक मन में कौंधा। लेकिन मुझे पता था ये मेरी हाइपर एक्टिव कल्पनाशीलता ही थी। रात को मैं एक सीरियल किलर वाला उपन्यास पढ़ रहा था और उसी के कारण मेर मन में ये ख्याल उभर रहे थे। मैंने नीचे उन्हें देखा और मन में कौंधते विचारों को हटाकर रास्ते में आगे बढ़ गया था।
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पेड़ो की झुरमुट से दिखता ऋषिकेश |
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रास्ते में मौजूद चिड़िया। बड़ा डराया था इन्होने झाडी से निकलते वक्त। |
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रास्ता लम्बा है चलते जा रही |
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पेड़ और झाड़ी के बीच से फड़फड़ा कर आती चिड़िया |
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छः किलोमीटर रह गया |
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गोबर? गजराज का क्या किसी और का? मुझे क्या पता। |
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रास्ते में टूटा पेड़। किसने गिराया होगा इसे? |
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जंगल जंगल बात चली है पता चला है |
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एक और खाली दुकान |
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मैं और मेरा वज्र। हम ही हैं इस जंगल के राजा। |
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एक शेड और राजा जी रिज़र्व सुरक्षा चौकी। |
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एक छोटा सा टीला जिसपर चढ़कर कुछ देर मस्ती की |
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टीले पढ़ चढ़कर सेल्फी |
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बढ़ चले हम आगे |
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दूर पेड़ पर बना एक घोसला |
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पेड़ो के बीच में एक शर्मीला लँगूर |
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चलता जा राही, रुकना मत, थकना मत |
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रास्ते के बगल में जंगल |
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धूप आने लगी है |
अब मुझे सीधा रास्ता दिख रहा था। मैं आगे बढ़ रहा था कि मुझे रास्ते के ऊपर मौजूद पेड़ और रास्ते के नीचे मौजूद पेड़ पर कुछ हलचल सी दिखी। हर एक पेड़ पर पांच से सात के बीच लँगूर बैठे हुए थे। मैंने उन्हें देखा। गिरनार में मैं लंगूरों से मिल चुका था और उधर के लँगूर इंसानों को परेशान नहीं करते थे। मैंने सोचा कि चलो फोटो ही क्यों न खींची जाए। मैंने अपना कैमरा निकाला ही था की एक हट्टा कट्टा लँगूर बीच रास्ते में कूद गया। मैंने बिना फोटो खींचे कैमरा अन्दर रख दिया। मुझे उन बुजुर्गवार की बात याद आ गई थी। युवती ने भी हाथी को देखकर कैमरा निकाला था और शायद गजराज को लगा था कि उन पर कुछ आक्रमण हो रहा है। मेरे सामने जो लँगूर बैठा था वो इतना हट्टा कट्टा था कि मैं नहीं चाहता था उसे ये गलतफहमी हो। मैं उधर अकेला जो था। (नीचे से आ रहे लोगों की बात दिमाग से काफूर हो गई थी।) मैं उधर जड़वत खड़ा हो गया था। कुछ देर ऐसे ही हम दोनों रहे। वो मुझे देखता और मैं उसे। फिर उसने एक कदम आगे बढाया और मैंने एक कदम पीछे हटाया। अब न मैं राजा था और न मेरे को मेरे हाथ में मौजूद वज्र का ध्यान था। अब राजा भी वही था और जो करना था उसने ही करना था। उसकी सेना उसके साथ थी।
मेरा उससे लड़ने का इरादा नहीं था और मैंने सोच लिया था कि यह भाई साहब न हटे तो मैं इधर से ही वापिस हो लूँगा। अब वो दो कदम आगे बढ़ते और मैं दो कदम पीछे हटता। और फिर कुछ देर हम दोनों प्रतिद्वंदी के तरह एक दूसर को देखते। फिर मैं नजरे चुराने लगता। वैसे हम प्रतिद्वंदी भी नहीं थे। मेरा मल युद्ध करने का कोई इरादा नहीं था। ऐसे मैं रुका हुआ था कि मेरे पीछे से मुझे आवाज़ सुनाई दी।
मैंने धीरे से गर्दन घुमाकर देखा तो वही लोग थे जो नीचे से आ रहे थे। मेरी जान में जान आई।
उन्होंने मुझ से कहा कि केवल हाथ से इशारा करते जाओ कि आपके पास कुछ नहीं है। लोग इधर से आते हैं तो इन्हें चीजें देते हैं और अब इन्हें आदत हो गई है। वो आगे बढने लगे और हाथ को हिलाते हुए बोलते जा रहे थे कि अरे नहीं है कुछ। मैंने उनका अनुकरण किया और उनके पीछे पीछे हो गया। लँगूर महाशय भी हाथ का इशारा समझ गये और हमको उन्होंने जाने दिया और वापस अपनी सल्तनत यानि पेड़ पर चढ़ गये। मैं आगे बढ़ चला।
मैं सोच रहा था कि कहाँ कुल्हाड़ा देखकर मैंने अपराध कथा मन में बुन ली थी और कहाँ उन्होंने ही मेरी मदद की।मन में ग्लानि भी हुई।मैंने उनका शुक्रियादा अदा किया और तेजी से आगे बढ़ गया। मुझे लग रहा था जैसे कहीं वो ज्यादा देर तक मेरे साथ रहे तो जान लेंगे कि मैंने उनके विषय में क्या सोचा था। कभी कभार हम ऐसे ही किसी को देखकर अपने मन में धारणा बना देते हैं लेकिन फिर वक्त आने पर पता चलता है कि वो व्यक्ति उस धारणा से बिलकुल अलग है। वो आप थे जिन्होंने उसे एक खाँचे में ढालने की कोशिश की। इसलिए शायद हमे बिना धारणा बनाये लोगों से मिलना चाहिए। अच्छाई और बुराई वक्ती बात होती है। कोई आदमी पूर्णतः अच्छा या पूर्णतः बुरा नहीं होता है। हर दिन हमे चुनाव करना होता है और उस चुनाव के आधार पर ही हम अच्छे बुरे होते हैं।क्या पता पूरी ज़िन्दगी सही चुनाव करने वाला किसी कारण वश कुछ गलत चुनाव कर दे तो उसकी सारी अच्छाई धरी की धरी रह जाती है। वहीं ऐसा भी हुआ है कि किसी व्यक्ति ने अपनी ज्यादातर ज़िन्दगी में गलत चुनाव किये थे और फिर उसके साथ कुछ ऐसा होता है कि वो एकदम से बदल जाता है और अच्छाई के मार्ग पर चलने लगता है। यह तो इनसानी फितरत है। अकेले आप चलते हो तो कई तरह के ख्याल मन में आते हैं। कोई साथ हो तो चलते हुए बातचीत ही होती रहती है। इसलिए कई बार मुझे अकेले चलना पसंद आता है। ऐसे ही ख्यालों में डूबा और आस पास के नजारों को देखता हुआ मैं आगे बढ़ रहा था।
अब सीढियाँ आ गयीं थी और मैं उस पर चढने लगा। एक जगह मुझे लिखा हुआ दिखाई दिया कि मेरी मंज़िल दो किलोमीटर दूर ही रह गयी थी। यहाँ सीमेंट की दुकाने बनी हुई थी। बैठने के लिए सीमेंट के बेंच भी बने हुए थे। लेकिन अभी सब कुछ खाली था। वो दोनों भाई भी अपने रास्ते निकल गये थे। मैं सीढियाँ चढ़कर ऊपर आया और मैंने आस पास एक नज़र दौड़ाई। कहीं कुछ नहीं था। बेंच थे, सीमेंट के शेल्फ थे। जगह खाली नहीं थी लेकिन क्योंकि लोग नहीं थे तो जगह भूतहां लग रही थी। मेरे खुराफाती मन में एक और ख्याल कौंधा।
मैंने घोस्ट टाउन से जुडी कई फिल्में और उपन्यास पढ़े हैं। उनमे अक्सर ऐसा सीन कई बार दर्शाते हैं लेकिन इसमें कुछ चीजें जोड़ देते हैं।जैसे जगह तो खाली रहती है लेकिन उधर सामान वगेरह इस तरह से रहता है जिससे लगता है कि लोग अपनी रोजमर्रा की ज़िन्दगी जी रहे थे और अचानक से ही सब गायब हुए। यानी बिस्तर बने रहते हैं लेकिन उन पर कोई सोया नहीं रहता। खाने की प्लेट और खाना लगा रहता है लेकिन खाने वाले नदारद रहते हैं। संगीत की लहरियाँ कमरे से आती रहती हैं लेकिन सुनने वाले का नामोनिशान नहीं रहता है। ये सब चित्र मेरे मन में उभरने लगे थे। मैंने सोचा कि क्या होता जो मैं इधर पहुँचता और मुझे सीमेंट की बेंच पर खाना लगा हुआ दिखता। दुकान में सामान सजा हुआ दिखता। चाय गैस पर उबलती रहती। पकोड़ों के लिए तेल गर्म होता रहता। यानी सब को साधारण तौर पर चलता लेकिन लोग नदारद रहते। खुले हुए चिप्स के पैकेट, खुली हुई कोल्ड ड्रिंक, जलता हुआ चूल्हा इत्यादि कितने डरावने लगते।मैंने तो सीधा भाग जाता। रुकता ही नहीं। आप क्या करते?
लेकिन ख़ुशी की बात ये थी कि ऐसा कुछ इधर नहीं था। सब कुछ खाली खाली तो था लेकिन सामान नहीं थे। मेरे मन कल्पना के जितने घोड़े दौड़ा सकता था दौड़ा रहा था और वो केवल वही थे। कल्पान की उड़ान। थोड़ी देर मैंने जगह की तसवीरें ली और आगे बढ़ गया। अब गाँव शुरू हो गया था और थोड़ा आगे जाने पर मुझे एक होटल नुमा दुकान दिख गई। अब मुझे चाय की तलब लगी थी। अब मैं चाय पी लूँ। तब तक आप इन तस्वीरों का लुत्फ़ उठाईये। आगे की यात्रा में अगली कड़ी में मिलेंगे। यह पोस्ट जरूरत से ज्यादा लम्बी हो गई है।
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२ किलोमीटर ही रह गया है |
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यहाँ पर सब शान्ति शान्ति है |
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खाली जगह, खाली मेरा मन, बस चलना है रुकना नहीं |
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एक दुकान जिसमें आदमी मौजूद थे। मज़ा आ गया। अब आए कोई लँगूर। अब आये कोई गजराज। देखो, चाय मुझे बुला रही है। |
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फक्कड़ घुमक्कड़ का नाश्ता। मैं नाश्ता निपटाता हूँ। फिर आगे बढ़ेंगे। |
क्रमशः
नीलकंठ यात्रा के सभी लिंक:
नीलकण्ठ ट्रेक #१ : दिल्ली से रामझूला
नीलकंठ महादेव ट्रेक #२ : रामझूला से नीलकंठ महादेव मंदिर और वापसी-भाग १
नीलकंठ महादेव ट्रेक #२ : रामझूला से नीलकंठ महादेव मंदिर और वापसी-भाग २
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
वाह विकास जी बहुत बढि़या यात्रा रही आपकी। उस अनजान व्यक्ति से आपका बातें करते हुए चलना मुझे बहुत अच्छा लगा। पर अपनी बात बताऊं तो ये कि अगर मैं अकेले यात्रा पर हूं तो कोई साथी मिल भी जाए तो हम किसी बहाने उससे पीछा छुड़ा लेते हैं, अकेले का मजा अकेले में ही आता है। लंगूरों की फोटो लेने की व्यथा मैं ओंकारेश्वर में झेल चुका हूं, तब बड़ी मुश्किल से अपना कैमरा बचाया था।
आपकी पोस्ट से एक बात मुझे सोचने पर मजबूर करती है क्या कभी हम भी नीलकंठ गए तो हाथी देवता मुझे भी पटकेंगे क्योंकि मुझे फोटो खींचने की बहुत बड़ी बीमारी है। हाथी के बाद तेंदुआ भी आया भागो।
जी सर यात्रा वाकई रोमांचक थी। सर मैं बहुत शर्मीला आदमी हूँ। हर किसी से बात नहीं कर पाता जब तक जरूरी न हो। लेकिन कोई बात करता है तो उनकी कहानी सुननी अच्छी लगती है। बुजुर्गों के पास ढेर सारी कहानियाँ होती हैं और कहानी सुनने का शौक बचपन से रहा है। फिर मुझे अकेले जाने में डर भी लग रहा था तो थोड़ा स्वार्थ भी था।
साधारणतः लोग उधर नौ बजे के बाद चढ़ना शुरू करते हैं और तीन चार बजे तक वापस आ जाते हैं। मैंने सात बजे के करीब चढ़ना शुरू किया था और एक बजे के करीब वापस आ गया था। अगर नौ बजे जायेंगे तो शायद ही कुछ मिले। तब तक दुकान वाले भी आ जाते हैं।
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