फूलों की घाटी #2: हरिद्वार से गोविन्दघाट

फूलों की घाटी - यात्रा वृत्तांत

शनिवार 15 जुलाई 2017: हरिद्वार से ऋषिकेश, ऋषिकेश से गोविन्दघाट और गोविन्दघाट में रात
(यह यात्रा  14 जुलाई 2017 से 21 जुलाई 2017 के बीच की गई)

पिछली कड़ी


हम दिल्ली से किसी तरह हरिद्वार पहुँच गये थे। उधर लोगों का जमावड़ा लगा हुआ था। हमे ऋषिकेश जाना था ताकि जो गाड़ी हमने बुक की थी उस तक पहुँच सकें। 
यहाँ तक आपने पिछली कड़ी में पढ़ा।अब आगे….


हरिद्वार से ऋषिकेश



हम सुबह के सवा तीन – साढ़े तीन बजे करीब हरिद्वार पहुँच गये थे।  बस में सोते हुए आये थे लेकिन उतरने के बाद नींद काफी हद तक गायब हो चुकी थी। उधर शिव भक्तों का जमावड़ा लगा हुआ था। डीजे चल रहे थे। लोग मदमस्त होकर नाच भी रहे थे। पुलिस वाले ट्रैफिक कण्ट्रोल करने की कोशिश कर रहे थे। यानी कहने को तो  रात थी लेकिन माहोल में काफी ऊर्जा भरी हुई थी। देहरादून के लिए गाड़ी आ-जा रही थी परन्तु हमे तो ऋषिकेश जाना था।  हम इधर उधर देखने लगे कि ऋषिकेश के लिए कुछ मिले। कुछ ऑटो रिक्शे उस तरफ जा रहे थे लेकिन वो भरे भरे थे। अब जिधर से ऑटो आ रहे थे हम उधर की ही तरफ बढ़ गये। ऑटो आते और भीड़ उनपर टूट पड़ती और देखते ही देखते ऑटो भर जाते। हमारे साथ ऐसा एक दो बार हुआ। हम थोड़ा और आगे बढे।

कुछ ही देर में एक खाली ऑटो हमारे नज़दीक रुका। हम बिना वक्त गावाएं उस पर चढ़ गये और फिर कुछ ही सेकंड में वह भर भी गया। यह सब इतनी तेजी से हुआ था कि हमे लगा कि अगर हम वक्त पर चढ़े न होते तो फिर पीछे रह जाते। खैर, अब तो बैठ चुके थे। रिक्शे वाले भाई ने कहा कि वह एक सवारी के चालीस रूपये लेगा। अभी मोल भाव करने का वक्त तो था नहीं इसलिए हम लोगों ने हामी भर दी। बाकी लोगों को भी हालत पता थी तो उन्होंने भी कुछ कहा नहीं। अब रिक्शा आगे बढ़ गया। हमने रिक्शा वाले भाई को कहा था कि वह हमे गुरूद्वारे के निकट छोड़ दे। उसने हमे दिलासा दिया कि वह उस रोड पर हमे छोड़ देगा जो सीधा गुरूद्वारे तक जाएगी। रात का वक्त था और ऋषिकेश का मुझे कोई आईडिया भी नहीं था। साथ के लोगों ने राम झूला उतरना था क्योंकि उन्हें नीलकंठ  जाना था। इसलिए रिक्शे वाले भाई की बातों पर विश्वास करना था।

ऑटो में बैठकर हमे फिर से नींद के झटके आने लगे। वैसे भी भीड़ इतनी थी कि बाहर कुछ देखा नहीं जा सकता था। जो इक्का दुक्का फोटो ली भी वह इतनी हिल गई थी कि कुछ का कुछ हो रहा था। इसलिए मेरी आँखें तो नींद से बोझिल होने लगी और मैं झपकियाँ लेने लगा।


ऋषिकेश से गोविन्दघाट

अब इतना याद है कि एक सड़क पर रिक्शे वाले भाई ने कहा था कि सीधा जाओ तो गुरुद्वारा  मिल जायेगा। हमने उसे धन्यवाद दिया और अब अपनी मंजिल की तरफ बढ़ने लगे। मैंने एजेंट को कॉल किया तो उन्होंने झट से उठा लिया। हमने उन्हें बताया कि हम गुरूद्वारे वाली रोड पर हैं तो वो हमे सामने से ही आते हुए दिख गये।  हम मिले। हमने आपस में अभिवादन किया और फिर उनके साथ चलने लगे।

उन्होंने हमे बताया कि हमारा ट्रैकर रेडी है। बस बाकी लोग आ जायें। वो भी तैयार थे। बाहर से केवल हम आये थे। बाकी सभी लोग गुरूद्वारे में रुके थे और इधर से अब गोविन्दघाट जाने वाले थे। इसमें अभी वक्त था तो  उन्होंने सलाह दी कि हम लोग तब तक फ्रेश हो लें। हमने अपने बैग उन्हें दिए जो उन्होंने ट्रैकर पर बांध दिए और फिर हम लोग गुरूद्वारे के अन्दर दाखिल हो गये। उधर एक बाथरूम था। हमने उधर ब्रश वगेरह निपटाया और फिर फ्रेश होकर बाहर आये। यह पाँच सवा पाँच बजे का वक्त था।

हमने बाहर आकर एक-एक चाय पी। फिर ट्रैकर के रेडी होने का इन्तजार करने लगे। कुछ ही देर में ट्रैकर तैयार था। हमारा सफ़र शुरू हो गया था। अब हम चैन से रह सकते थे। काफी दौड़ भाग हो चुकी थी। ट्रैकर से बाहर कुछ देखा नहीं जा सकता था तो नींद ने मुझे अपने आगोश में ले लिया। कुछ ही देर में मैं ऊंघने लगा और उसके पश्चात कब सो गया पता भी नहीं लगा।  मेरी नींद तभी खुली जब गाड़ी को रुकना पड़ा। क्योंकि बारिश का वक्त था तो रास्ता जाम था। ऊपर से लैंड स्लाइड जैसा कुछ हो गया था। मशीनों के वजह से रास्ता साफ़ करवाया जा रहा था। सूरज अब सोकर उठ गया था। गर्मी पड़ने लगी थी। हमने अभी रुके रहना था तो हम लोग गाड़ी से बाहर आ गये और आस पास के फोटो लेने लगे। रास्ता साफ़ हुआ तो फिर हम लोग आगे बढ़े।

हम लोग बीच बीच में सोते जा रहे थे। कभी कभी नींद भी खुल जाती थी। ज्यादा बातचीत नहीं हो रही थी। हम ट्रैकर की पीछे वाली सीट पर थे। राकेश भाई और मैं अगल बगल थे। हमारे सामने दो लोग बैठे थे। वैसे तो पंजाबी थी लेकिन उनकी एक्सेंट से लग रहा था कि वो विदेश में ही रहे थे। एक चालीस पचास साल के मर्द थे और एक युवती थी। बाकी ट्रैकर में भी ज्यादातर लोग सिख ही थे। वे सभी लोग हेमकुंड साहिब जा रहे थे। ऐसे ही सफ़र जा रहा था। ट्रैकर में जगह ज्यादा  नहीं थी तो किताब निकालने  का भी मन नहीं हुआ। इसलिए सोना या बात चीत करने का ही विकल्प। हम लोग आपस में ही बात कर रहे थे। मौसम बहुत अच्छा था। जिस हिसाब से लोग डरा रहे थे कि बारिश हो रही है और उधर जाना खतरे से खाली नहीं है। हमे ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला। सुहावनी सी धूप निकल रही थी।

सबसे पहले हमारा स्टॉप तीन धारा के निकट ही था। उधर हमने नाश्ता करना था। राकेश भाई और मैंने आखिरी बार रात को खतौली में ही खाया था। इधर हमने पराठे और चाय ली। एक एक पराठे में ही हमारा हो गया। वैसे भी सफ़र के दौरान ज्यादा खाना मुझे ठीक नहीं लगता है। हल्का खाना रहे तो कम परेशानी होती है। नास्ता करने के बाद हम इधर उधर घूमने लगे। सबका नाश्ता खत्म हुआ तो हम लोग फिर आगे बढ़ गये।

आगे का सफ़र फिर ऐसे ही ऊंघते हुए बीता। हम लोग श्रीनगर के पास कुछ देर के लिए रुके। सच बताऊँ मुझे अब इतना याद नहीं है। लेकिन इतना याद है कि हम कुल मिलाकर चार बार रुके थे। तो शायद दूसरा पड़ाव श्रीनगर ही था जहाँ हमने चाय पी थी और पाँच दस मिनट के हाल्ट के बाद आगे बढ़ गये थे। इधर के कोई फोटोज नहीं है। फिर चूँकि हम लोग नींद में थे तो सब कुछ धुंधला ही था। वैसे इधर कुछ विशेष हुआ भी नहीं था बस चाय पी थी।

इसके बाद का हमारा  पड़ाव नागरासु चमोली में था। यहाँ एक गुरुद्वारा है तो उसके निकट ही रुके थे। क्योंकि ज्यादातर सवारी सिख थी तो उनके पड़ाव गुरुद्वारा के हिसाब से फिक्स किये हुए थे। नागरासु वाले गुरूद्वारे को दमदामा साहेब कहते हैं। हम इधर पौने ग्यारह बजे करीब पहुँच गये थे। मौसम अभी भी सुहावना था। धूप खिली हुई थी। मैं सोच रहा था कि अगर घर वालों की बात मान ली होती तो अभी इतना सुहावना मौसम कैसे देख पाता। वो नाहक ही डर रहे थे। इधर फोन के सिग्नल आ जा रहे थे। मैंने उन्हें एक दो फोटो क्लीक करके भेज दी। साथ में यह भी इत्तला कर दी कि इधर सब ठीक है। सिग्नल आते तो फोटो पहुँच जाती। मेरे पास एक बीएसएनएल का सिम था जिससे कॉल करके मैंने उन्हें बता भी दिया था।

अब हमे लंच करना था। बाकी लोग गुरुद्वारा दमदमा साहेब चले गये। उधर लंगर था तो उनका इरादा उधर ही खाने का था। हमे भी बोला गया लेकिन मेरा मन नहीं था और न ही राकेश भाई का मन था।  हम इधर करीब आधा घंटा से ऊपर रुके थे। नास्ता हम कर चुके थे। अभी भूख तो नहीं लगी थी लेकिन कुछ हल्का फुल्का खाने का मन था। हम उतर कर करीब के एक ढाबे में गये। उधर चाय और बंद आमलेट का आर्डर दिया। सामने ही एक मंदिर था। उसमें कुछ मूर्तिया दिख रही थी। उन्होंने मुझे आकर्षित किया था। खाना निपटाने के बाद हम लोग उधर गये और उनकी तस्वीर उतारी। फिर वापस आकर एक और चाय पी। लोग अभी भी वापस नहीं आये थ। हम इधर उधर घूम कर फोटो खींचने लगे। तभी हमे उधर शिकंजी वाला दिखा। उसे देखकर राकेश भाई ने शिकंजी पीने की इच्छा जाहिर की। अभी कोई गाडी के नजदीक नहीं था तो हम चले गए और शिकंजी पीने लगे। जैसे शिकंजी बनने लगी कि ड्राइवर  चिल्लाया जल्दी चलो लेट हो रही हैं। अब हम जल्दी जल्दी शिकंजी पीकर और पैसे चुकाकर ट्रैकर तक पहुंचे तो उधर कोई भी नहीं आया था। मन में गुस्सा आया कि इतनी जल्दी बुला दिया। आराम से पीते तो सही रहता। खैर, अब क्या हो सकता था। हमने बाकियों के आने का इंजतार किया। वे लोग आये और हम फिर आगे बढ़ गए।

फिर से सफर शुरू हुआ। फिर से सोने,जागने और ऊँघने का सिलसिला चालू हुआ। हम लोग ट्रैकर में बैठकर इससे ज्यादा क्या कर सकते थे। इसके पश्चात ढाई बजे करीब हेलंग पर ही गाड़ी रुकी। यह एक खूबसूरत जगह थी। इधर छोटे छोटे ढाबे थे। चारो तरफ खूबसूरत पहाड़ थे।  हरियाली थी। कुछ बन्दर भी थे जो पहाड़ो पर धमाचौकड़ी मचा रहे थे। हमने इधर भी चाय पी। चाय पीने के पश्चात हमने आस पास जाकर फोटो खींचनी शुरू की। हम इस बार इस बात का ख़ास ख्याल रख रहे थे कि कहीं दूर न जाये। काफी फोटो ली। जिस कोण से देखो चीजें और सुन्दर लगती और फोटो खींचने का मन होने लगता। एक ही चीज की कई कई बार फोटो मैंने खींची।  इधर कुछ देर रुकने के पश्चात हम लोग आगे बढ़ गए। अब हमने सीधा गोविन्द घाट रुकना था।  जब तक गोविन्द घाट पहुँचते हैं तब तक आप इन तस्वीरों का आनन्द लें।

लैंड स्लाइड होने से रुका हुआ रास्ता
सड़क से दिखता खूबूसरत नज़ारा
ये पहाड़ियाँ, ये बादल, ये हरियाली
तीन धारे के निकट नास्ते के लिए रुकी हमारी गाड़ी
गुरुद्वारा लंगर दमदमा साहिब
नागरासु में मौजूद मन्दिर के निकट शिव जी की मूर्ती
नागरासु  में मौजूद मंदिर
मंदिर का अग्र भाग
नागरासु  में बंद ओम्लेट का इन्तजार करते राकेश भाई
नागरासु का प्राकृतिक सौन्दर्य
नागरासु का प्राकृतिक सौन्दर्य
नागरासु का प्राकृतिक सौन्दर्य
राकेश भाई हेलंग में
पुल का एक नजारा
पेट पूजा करते वानर महाशय
हेलंग का एक ढाबा

गोविन्दघाट में रात

चार साढ़े चार बजे करीब हम लोग गोविन्द घाट में थे। फोन की बैटरी भी डाउन होने वाली थी। मुख्य रोड से नीचे आकर ही टैक्सी वालों के लिए स्टैंड की व्यवस्था है। सारी बस,गाड़ी सभी के लिए उधर पार्किंग बनी है तो हमे भी हमारे ट्रैकर ने उधर लाकर छोड़ा। हम लोगों ने किराया चुकाया जो कि छः सौ रूपये प्रति व्यक्ति था और किराया चुकाने के बाद आगे बढ़ गए।

यहाँ भी एक गुरुद्वारा है और उसके आस पास छोटा सा बाज़ार बना हुआ है। इधर होटल, दुकाने और लॉज बने हुए हैं। आपको आपके बजट के हिसाब से सब कुछ मिल जायेगा। हम लोगों  को केवल रात गुजारने के लिए जगह चाहिए थे। हमे किसी फैंसी जगह की दरकार नहीं थी इसलिए बड़े बड़े होटल की तरफ देखना भी नहीं था। हमे सबसे पहले जो ठीक ठाक सा लॉज दिखा हम उसमें दाखिल हुए। उधर एक ऑफिस नुमा जगह थी जहाँ उस वक्त कोई नहीं था। हमने आवाज़ लगाई तो कहीं से कोई बन्दा आया। हमने  उससे बात चीत की।
हम – ‘रूम चाहिए।’
भाई – “कितने लोग हो?”
हम – “दो।”
भाई – “तीन सौ रूपये लगेंगे।”
हम – “कमरे के?”
भाई – “हाँ।”
यह सुनकर हमारी बाँछे खिल गयी। हमने एक शाम के लिए कमरा किया। वह भाई हमे एक कमरे में ले गया। कमरा ;पैसे के हिसाब से ठीक था। फोन चार्ज करने के लिए पोर्ट था। अंदर ही बाथरूम था और गर्म पानी की व्यवस्था पचास रूपये देकर की जा सकती थी।  हम कमरे में दाखिल हुए और थोड़ा आराम करने की सोची।

आधा पौने घंटे आराम करने के बाद हम लोगों ने सोचा मार्किट जाया जाए। हमारी सोच थी कि जब तक उजाला है तब तक थोड़ा घूम लेंगे। फिर खाना पीना खाकर जल्दी सो जायेंगे और अगले दिन जल्दी ही  घांघरिया के लिए निकल चलेंगे। अब तक फोन भी  थोड़े चार्ज हो चुके थे। एक पोर्ट में राकेश भाई का फोन था और उनके पास जो पावर बैंक था उसका प्रयोग मैं कर रहा था। अब हम लोग कमरे का ताला लगाकर बाहर निकले।

गली जैसे रस्ते में भक्तों की भीड़ भाड़ थी। दुकाने सजी हुई  थी, पंजाबी  भक्ति संगीत भी बज रहा था। पहले हमने चाय पीने की सोची और हम बाजार के अंत तक गए। इधर एक पुल दिख रहा था जिससे घांघरिया के लिए रास्ता जाता था। हमे सुबह उधर से ही जाना था। पुल के सामने खाली स्थान था जहाँ टैक्सी वगैरह खड़ी थी और कुछ होटल वगैरह कोने में थे। वहीं हमे पता चला कि अब टैक्सी भी दो ढाई किलोमीटर तक जाती है। लोगों के पास विकल्प है कि टैक्सी में वहाँ तक जा सकते हैं और फिर आगे की ट्रेक पैदल कर सकते हैं। हमे तो शुरू से ही पैदल चलना था तो इस बात पर ज्यादा ध्यान हमने नहीं दिया।

एक होटल में पहुंचकर हमने चाय पी और कुछ हल्का फुल्का खाया। फिर चाय पीने के बाद हमने आस पास घूमने का इरादा बनाया और घूमने लगे। सब कुछ इतना सुन्दर लग रहा था कि मन कर रहा था कि फोटो खींचते रहे। हम फोटो खींचते  भी रहते ;लेकिन हल्की बूंदा बांदी शुरू हो गयी और हमे वापस आना पड़ा। हम फिर उसी दूकान में चले गए जहाँ चाय पी थी और फिर एक और बार की चाय पी।

चाय पीने के पश्चात हम  वापस टहलते हुए रूम तक चले गए। अब बारिश भी रुक गयी थी। अँधेरा होने को आया था। वापस जाते हुए हमने कुछ बड़े पॉलीथीन लिए ताकि बैग ढक सकें। अपने को बचाने के लिए हमारे पास रेन कोट था लेकिन बैग को बचाने के लिए कुछ नहीं था। अगर बारिश होती तो यह पोलीथीन ही हमारा बचाव करती। उन्हें लेकर हम रूम में आ गए। उधर सामान रखा।

फिर खाने के लिए बाहर निकले। इस बार हमने फोन अन्दर चार्ज करने के लिए छोड़ दिया। हमने एक नज़दीक का रेस्टोरेंट पकड़ा और उधर  रात का भोजन खाया, चाय पी और बाहर थोड़ा घूमे।

इस बार हम लोग सड़क की तरफ गये ताकि अंदाजा हो सके कि ऊपर कैसा है। अब तक तो उधर सुनसान हो चुका था। हम लोग फिर वापस रूम में आ गये। थकान ज्यादा लग गयी थी और अगले दिन सुबह जल्दी उठकर लम्बी ट्रेक करनी थी। इसलिए हम चाहते थे कि आज आराम मिल सके।

यह ट्रेक कैसी होगी। इसके सपने हम लोग अपने मन में बुन रहे थे।  मैंने कुछ पृष्ठ द बुक लवर्स टेल  के पढ़े। मैं इस यात्रा में जो किताबें लेकर चला था उनमें अभी इस उपन्यास को पढ़ रहा था। दस बीस पृष्ठ पढ़कर मुझे नींद आने लगी और फिर हम लोग सो गये।

अब अगली सुबह का इतंजार था। उसकी बात अगली कड़ी में। तब तक के लिए सफर के कुछ और फोटोज।

पहुँच गये गोविन्द घाट
गोविन्दघाट में बहती नदी
गोविन्द घाट में मौजूद एक होटल। नदी के किनारे घूमते हुए ये दिखा
घांघरिया जाने वाला पुल और उसके निकट होटल और पार्किंग
गोविन्द घाट के नैसर्गिक सौन्दर्य को कैमरे में संजोते राकेश भाई
चुप चाप खड़ा हूँ सदियों से, गवाह हूँ कई कहानियों का, मैं पहाड़ हूँ,मैं पहाड़ हूँ

क्रमशः


अगली कड़ी: गोविंदघाट से घांघरिया


#फक्कड़_घुमक्कड़ #पढ़ते_रहिये_घूमते_रहिये
© विकास नैनवाल ‘अंजान’


फूलों की घाटी यात्रा – सभी कड़ियाँ
दिल्ली से हरिद्वार
हरिद्वार से गोविन्दघाट
गोविन्दघाट से घांघरिया

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

View all posts by विकास नैनवाल 'अंजान' →

7 Comments on “फूलों की घाटी #2: हरिद्वार से गोविन्दघाट”

  1. बेहतरीन वर्णन
    पढते हुए ऐसा लग रहा था की मै भी आपके साथ घूम रहा हूँ।

  2. पुरा post पढ़ लिया लेकिन कही कोई किताब का नाम नही था फिर लगा विकास भाई का ब्लॉग तो नही लग रहा…फिर आखरी में lovers tale का नाम सुन के थोड़ी शांति हुई…मानसून में vof का ट्रैक होता है और उसी वक़्त landslide होते है… खबरे सुन कर सब डराते है…बढ़िया वृतांत….

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *