फूलों की घाटी #3- गोविन्द घाट से घांघरिया

फूलों की घाटी - यात्रा वृत्तांत
रविवार,16 जुलाई 2017: गोविंदघाट से घांघरिया और  घांघरिया की शाम
(यह यात्रा 14 जुलाई से 21 जुलाई 2017 के बीच की गई)



पिछली कड़ी
हम लोग हरिद्वार से किसी तरह गोविन्द घाट तक पहुँच चुके थे। उधर हमने रात बिताई। अब अगली सुबह  हमे गोविन्दघाट से घांघरिया के लिए निकलना था।
यहाँ तक आपने पिछली  कड़ी में पढ़ा। अब आगे….

गोविंदघाट से घांघरिया

सुबह नींद खुली। उठकर ब्रश निपटाया और फिर the book lover’s tale के कुछ पन्ने पढ़े। आज जल्दी निकलने का फैसला किया। नाश्ता भी हम बाद में करने वाले थे। नहा धोकर तैयार हुए। मैं ठंडे पानी से ही नहा गया था। राकेश भाई ने बीस-पच्चीस रुपये देकर नहाने का पानी करवाया। नहाने के पश्चात हम लोगों में सामान बाँधा और कमरे से चेकआउट कर गए।

सामान बाँधते राकेश भाई
मैं भी तैयार हूँ

वैसे तो सुबह हो रही थी लेकिन दुकाने खुल गई थी। दुकनों में लाठी भी मिल रही थी और हमने एक एक लाठी ले ली ताकि सफर में चलने के दौरान काम आएं। हम लोग अब मार्किट की तरफ बढ़े। उधर ही पुल था जिसे पार करने के पश्चात ट्रेक शुरू होने वाला था। हम उधर पहुँचे एक बार की चाय पी और फिर पुल की तरफ बढ़े।


पुल के निकट ही एक भाई साहब बैठे हुए थे। उन्होंने एक रजिस्टर लिया हुआ था जिसपर हमने अपनी एंट्री की और फिर पुल की तरफ बढ़ गए। अक्सर पहाड़ी इलाकों में यह प्रक्रिया होती है ताकि पता चल सके कि कौन कौन गया था और बदकिस्मती से कोई लापता हो गया तो आईडिया हो कि कब वो गया था। ऐसे ही हमे त्रिउंड ट्रेक  में भी करना पड़ा था।  पुल के निकट पहुँचकर हमने काफी फ़ोटो खिंचवाई। अब यात्रा शुरू हो चुकी थी।

दूर से दिखता गोविन्दघाट
गोविंदघाट की सुबह
परेड के लिए तैयार जवान
बाय बाय गोविंदघाट!! मिलेंगे अब दो दिन बाद
कल कल बहती नदी, नदी किनारे बस्ती,हरियाली और कोहरे से आच्छादित पहाड़! और क्या चाहिए

गोविंदघाट से घांघरिया की ट्रेक तकरीबन 14 किलोमीटर की होने  वाली थी। इतना इससे पहले केवल मैं एक बार चला था और उस वक्त मैं सातवीं या आठवीं में रहा होऊँगा। वह भी एक रोचक किस्सा था।

हुआ यूँ था कि मेरे सबसे छोटे चाचा की शादी थी। यह एक बड़ा मौक़ा था। इसके पश्चात जिसकी भी शादी होती वो परिवार की अगली पीढ़ी का होता। ऐसे में एक पीढ़ी की आखिरी शादी कही जा सकती थी। सभी के अन्दर इस शादी में शामिल होने का जोश था।

हम लोगों की  उस वक्त परीक्षायें चल रही थी और इस कारण मम्मी पापा के साथ गाँव नहीं जा सकते थे। शनिवार रविवार की छुट्टी थी और उसी दिन की शादी थी। हम बच्चों की शादी में शामिल होने की काफी इच्छा थी।  हमारे परीक्षा शुक्रवार बारह एक बजे तक छूट जानी थी। वहीं चाचा जी ने भी आश्वासन दिया था कि हमारे लिए वो लोग एक गाड़ी भेज देंगे जो शुक्रवार की शाम को हमे पौड़ी से हमारे गाँव ले जाएगी।

हमे उम्मीद थी कि गाड़ी हमे तीन बजे तक लेने आ जायेगी और हम उसके पश्चात गाड़ी में बैठकर कुछ ही घंटों में गाँव में होंगे। अगर ऐसा हो जाता तो हम लोग बरात में शामिल हो सकते थे और रविवार को वापस आ सकते थे ताकि अगला पेपर दे सकें। योजना फुल प्रूफ थी और हमे इसमें कोई पेंच नहीं दिख रहा था। लेकिन फिर पेंच पड़ गया।

शुक्रवार की पूरी शाम हम गाड़ी का इंतजार करते हुए बिताते रहे। हर आने वाली गाड़ी के साथ यह आशा जगती कि यह गाड़ी चाचा द्वारा भेजी गई होगी और जब वह बिना रुके निकल जाती तो वह आशा चूर चूर हो जाती। ऐसे न जाने कितनी बार हमारे साथ हुआ।  रोड के किनारे इंतजार करते करते जब पांच साढ़े पांच हो गये और अँधेरा होने को आया तो हमने खुद ही कुछ करने का इरादा दिया। उन दिनों फोन नहीं होते थे तो हम घरवालों को कॉल नहीं कर सकते थे। वहीं घरवालों ने सब राशन घर में रखा हुआ था तो उन्होंने हमें कुछ पैसे नहीं दिए थे। हमारे लीडर योगेश भाई थे जो कि उम्र में मुझसे छः साल बड़े थे। उन्ही की अगुवाही में यह निर्णय लिया गया कि हम लोग किसी जान पहचान वाले के पास जाएंगे और उससे कुछ पैसे उधार लेंगे। हमने एक रिश्ते के भैया को इसके लिए चुना। उनकी दुकान थी तो हम उनकी दुकान में पहुँच गए और हमने कुछ पैसे उधार माँगे। अब चूँकि पहली बार उधार माँग रहे थे तो हमने उनसे कम ही पैसे माँगे। पैसे लेकर हम वापिस अपने घर  आ गए और निर्धारित किया कि अभी तो कुछ नहीं हो सकता इसलिए अगले दिन पाटीसैण के लिए निकलेंगे।

बारात ने उधर से ही आना था और हमारा इरादा बारात की गाड़ी को उधर ही पकड़ने का था। हम बारात में शामिल होकर चाची के मायके तो नहीं जा सके थे लेकिन बारात के साथ वापिस तो आ ही सकते थे। भागते हुए भूत की लंगोटी ही सही होती है और हमे इसी से खुद को मनाना पड़ा।  हम लोग अब यह सपने संजो रहे थे कि पहले तो हम लोग चाचा को खूब सुनाएंगे कि हमारे लिए गाड़ी नहीं भेजी और फिर हम उनके चेहरे भी देखना चाहते थे। हमे उधर पहुँचा हुआ देखकर उनके चेहरे देखने लायक होते। हम जाने वाले कुल पाँच लोग थे।योगेश भाई,मैं, मेरी छोटी बहन,अमित(मेरी बुआ का लड़का) और प्रीति(बुआ की लड़की)।

हम सुबह उठे और नाश्ता करके सड़क पर आ गए। उधर आकर हमे झटका लगा। हमे पता चला कि पाटीसैण का जितना किराया हम पाँचों का पड़ेगा उतना पैसा हमारे पास नहीं था। हमने उधार कम पैसे माँगे थे। अब क्या किया जाए? हम इसी पशोपेश में थे कि योगेश भाई जिनके घर का नाम बब्बू है, उन्होंने ही निर्णय लिया कि हम कुछ दूर तक पैदल चलेंगे और इतनी दूरी तय कर लेंगे कि हम लोगों के किराए लायक पैसे हो जायें। जहाँ इतनी दूरी तय हो गयी उधर बस ले लेंगे। यह बात हमे भी जमी और हम लोग इस यात्रा पर निकल पड़े।

हम चलते रहे ,चलते रहे। सीधी रोड थी और हमें उस पर बढ़ते जाना था। बसें और जीप हमारे बगल से निकलते और हम लोग मन मसोस कर रह जाते। लेकिन चूँकि साथ साथ थे तो हँसते खेलते चले जा रहे थे। मुझे याद है जब कभी कम लोग किसी ऐसी जगह से गुजरते जहां या तो औरते खेत मे होती या सड़क के बगल में होती तो वह हमसे जरूर पूछती कि हम लोग किधर से आ रहे हैं और किधर जा रहे हैं। हम जवाब देते पौड़ी से तो वो हैरत से हमे देखती कि क्या पागल बच्चे हैं। और हम गर्व से फूले नहीं समाते। ऐसे ही चलते चलते हम अगरोडा पार किया था जो कि हमारे घर से कम से कम 17 किलोमीटर दूर था। वह पार करके हम कुछ और चले थे और फिर पीपलपानी के निकट हमने पाटीसैण के लिए बस ले ली थी। हम जोश जोश में इतना चल गए थे कि पाटीसैण पहुँच कर हमारे पास काफी पैसे बच गये थे और हमने चाऊमीन खाकर पार्टी की थी। उस चाऊमीन के जैसी स्वाद वाली चाऊमीन शायद ही मैंने खाई हो। फिर उधर ही शाम तक बारात की बस के लौटने का इंतजार किया था। हमने वो वक्त कैसे गुजारा हम ही जानते हैं। बाज़ार में इधर से उधर घूमते रहे। न पढ़ने के लिए ही कुछ था और न करने के लिए कुछ था।  आखिरकार काफी घंटों के इंतजार के बाद बस आई थी। घर वालों ने हमे देखा तो उन्हें और हैरत हुई। उस किस्से की चर्चा आज भी घर में गाहे बगाहे होती है।

यानी कहने का तातपर्य यह है गोविंदघाट से घांघरिया जितनी ट्रेक किये मुझे काफी वक्त हो चुका था। तो मैं इसके लिए उत्साहित था। हम लोग पुल पर चढ़े और उधर थोड़ी फ़ोटो खिंचवाई। मौसम सुहावना था। कोहरा छाया हुआ था और ऐसे माहौल में चलने का मज़ा ही कुछ और था।

अगर रास्ते की बात करें तो पहले सड़क से होते हुए हमे पुलना जाना था जो कि गोविन्दघाट से लगभग 4 किलोमीटर दूर था। उसके पश्चात हमे भ्यूंडार पार करना था जो कि पुलना से  छः  किलोमीटर दूर था और फिर घांघरिया आता जो कि भ्युंडार से चार किलोमीटर दूर था। यही मोटा मोटा चौदह किलोमीटर का रास्ता हमे तय करना था। रास्ता सीधा है और कहीं भी ऐसा नहीं है कि आप खो सके। आराम से चलते चलते जायेंगे तो बिना किसी दिक्कत के घांघरिया पहुँच जायेंगे।

हम चलने लगे। सड़क रात की बारिश से गीली थी। पहाड़ कोहरे की चादर ओढे ऊंघते से प्रतीत हो रहे थे। मुझे लग रहा था जैसे वो हमसे कह रहे हों: हम तो अभी अपनी चादर में लिपटे हुए हैं और तुम चलने लगे। लेकिन हम तो पथिक थे। हमे चलना ही था। पहाड़ तो सदियों से जहाँ हैं वहीं पर हैं। वो देर से उठ सकते हैं लेकिन हम देर से जगना अफ्फोर्ड नहीं कर सकते थे।

वहीं पहाड़ों के बीच से बहते हुए झरने देखकर ऐसा लग रहा था जैसे दूध पहाड़ों की छातियों से फूट रहा हो। मुझे याद है जब हम छोटे थे तो बरसात के दिनों में ऐसे पानी के झरने काफी देखने को मिलते थे। कुछ से दूध सा सफ़ेद पानी बहता था और कुछ में मिटटी मिल जाती तो ऐसा लगता जैसे कोई अपनी बड़ी सी केतली से चाय उड़ेल रहा हो। हम स्कूल से बस में जाते थे और इन झरनों को देखकर बहुत खुश हो जाते थे। इन्हें देखकर बरबस ही मुझे अपने बचपन की याद आ गई थी और मैं खुश हो गया था। जब भी मैं पहाड़ में होता हूँ तो ऐसा लगता है जैसे घर ही हूँ। इस बार तो गढ़वाल में था तो यह एहसास और तीव्र था। एक अलग तरह का रोमांच और एक अलग तरह की शांति मन में एक साथ वास कर रही थी।

मौसम में एक हल्की हल्की सी ठंडक थी। एक ऐसी  ठंडक जिसमें आपका मन करता है कि बस चलते रहें।  मौसम सुहाना था तो फोटो भी हम लोग रुक रुक कर ले रहे थे।  हम मस्ती करते हुए जा रहे थे। हम दोनों के बैग पोलीथीन से बंधे थे। हम दोनों के हाथों में लाठियाँ थी जो हमने ले ली थी।  तरह तरह के पोस बनाकर हम लोग फोटो खींचते खिंचवाते बढ़ रहे थे। हमारी मंजिल पहले कोई दुकान थी जहाँ हम बैठकर चाय पी सकते थे। ठंडे मौसम में चाय पीने का अपना मज़ा होता है। और अगर यह चाय आपको कुछ देर चलने के पश्चात मिल रही हो तो चाय का आनन्द आ जाता है। हमने अपने अपने रेन कोट पहने ही थे। बारिश से बचने के लिए मेरे पास छतरी थी लेकिन ऐसा बारिश होगी ऐसा कोई डर मुझे नहीं था। न्यूज़ में जो खबरे चल रही थी वो सभी इधर आकर झूठी साबित हो रही थीं।

हमने साढ़े सात-सात चालीस करीब गोविन्द घाट से चलना शुरू किया था और नौ बजे करीब हम पुलना में थे। वैसे तो गोविन्द घाट से पुलना आसानी से गाड़ी में आया जा सकता था। ट्रैकर्स(10 सीटर सूमो या बोलेरो) उधर से चलते रहते हैं। लेकिन चूँकि हम ट्रेक करने आये थे तो हमारा इरादा पूरा पैदल चलने का था। पुलना से ही आपको घांघरिया तक जाने के लिए खच्चर और डंडी(चार आदमी एक डोली सी मैं आपको लादकर ले कर जाते) मिलने की भी सुविधा थी। वहीं में एक नीले रंग का बोर्ड था जहाँ विभिन्न सुविधाओं के विषय में जानकारी थी।

अरे ये क्या?? चाय!! नहीं नहीं ये मिटटी मिला पानी है… लग रहा है न जैसे चाय उड़ेल रहा हो कोई
छोटे छोटे ऐसे कई झरने देखने को मिले
बीच में बहता पानी
अभी तो पार्टी शुरू हुई है
सडक से दिखता गोविंदघाट
फोटो खींचते हो या नहीं!!
कोहरे की चादर ओढे पहाड़
एक किलोमीटर बाद चाय पियेंगे
अलग अलग रेट दिखाते बोर्ड

हम पुलना पहुँचे और एक होटल नुमा जगह में गये। होटल नुमा इसलिए क्योंकि ऊपर छत में होटल था और नीचे घर था। इधर आपको ऐसा कई जगह देखने को मिल जायेगा।  इधर एक टीवी थी। कुछ चाय पानी का सामान था। हमने बैठकर थोड़ा चाय पी और थकान मिटाई। शायद कुछ हल्का फुल्का भी खाया होगा। उस मामले में याददाश्त थोड़ी कम हो गई है। खाने पीने के बाद  हम लोग आगे बढ़ गये। अभी तो केवल चार किलोमीटर का फासला तय हुआ था। यहाँ से असली ट्रेक चालू होनी थी।

ट्रेक का रास्ता बना हुआ। फिर यात्री भी आते जाते रहते हैं तो खोने का कोई डर नहीं होता है। हाँ, ट्रेक में क्योंकि चढ़ाई है तो चलने में मुश्किल हो जाती है। हम लोग सामान लादकर चल रहे थे। राकेश भाई आम जीवन में अक्सर बाइक से ही इधर उधर सफर करते हैं तो ट्रेक का असर उन पर होने लगा था। मैं आगे निकलने लगा था। वो काफी देर तक एक जगह बैठ जा रहे थे।

ट्रेक करते हुए मेरा मानना है कि आप चाहे कितने भी थके क्यों न हो आपको बैठना नहीं चाहिए। आप एक जगह रुकिए और थोड़ी देर आराम कीजिये लेकिन खड़े रहिये। फिर राहत महसूस करते ही चलने लगिए। बैठने से ज्यादा थकान होती है।  कम से कम मुझे तो ऐसा महसूस होता है। चलते हुए पानी भी छोटे छोटे घूँट ही पीने चाहिए जिससे बस गला तर रहे । अगर एक दम से ज्यादा पियेंगे तो पेट भी भारी हो जाता है और इससे चलने में परेशानी होती है। 

मैंने राकेश भाई को भी यही कहा लेकिन शायद वो थक ज्यादा गये थे तो चल नहीं पा रहे थे। मुझे लगने लगा कि अगर हम रुके तो काफी देर हो जाएगी। इस कारण  मैंने उनसे कहा कि मैं उनका बैग भ्यूंडार तक लेकर चलने को तैयार हूँ। वो पाँच  किलोमीटर दूर ही था। इससे उन्हें आराम मिलता और हम अपनी यात्रा ज्यादा तेजी से कर सकते थे। कुछ देर झिझकने के पश्चात उन्होंने इस बात के लिए हामी भर दी। फिर हम चलने लगे।
बीच में आने जाने वाले लोग मिल जाते थे। कुछ हमसे पहले चले थे। कुछ वापिस लौट रहे थे। जो लोग वापिस लौट रहे होते उनके पास सफ़ेद वाली इलाइची दाना या गुल्कोस होता और वो अक्सर उसमे से कुछ चलने वाले यात्रियों को दे देते थे। ये सिलसिला सारे रास्ते चलता रहा।

अब मैं सामान लेकर चल रहा था। मैंने नौ चालीस के करीब राकेश भाई से बैग ले लिया था और उसे लेकर बाराह बजे तक चलता रहा था। इसी दौरान एक आध जगह रुके। एक जगह चाय पीने के लिए रुके। फिर रास्ते में टीन के शेड भी बने थे तो उधर भी आराम करने के लिए हम थोड़ी देर ठहरे।

रास्तों में आवागमन लगातार चल रहा था तो हलचल हमेशा से थी। हम जंगल के बीच से गुजर रहे थे लेकिन लोग इतने थे कि ऐसा एहसास केवल दृश्यों को देखकर ही होता। आसपास मौजूद दृश्य इतने मनोरम थे कि हम खुद को रुक रुक कर फोटो खींचने के नहीं रोक पा रहे थे। हम हर चीज कैमरे में कैद करना चाहते थे। हर चीज को अपने मन में बसा लेना चाहते थे। हम जैसे एक सुंदर दृश्य देखते तो आश्चर्यचकित हो जाते लेकिन थोड़ी दूर चलकर हमे उससे भी सुन्दर दृश्य दिख जाता। इस नैसर्गिक सुन्दरता के आगे हम नतमस्तक हुए जा रहे थे।

सामने दिखता पुलना
ये मनोरम रास्ते तो कैसे न ठहरे नज़र इन पर
रास्ते में
रास्ते में
झाड़ी से छुपे राकेश भाई आराम करते हुए…  ढूंढो तो जाने
देख लो!इतना ही चलना है मुझे
बाबा राकेश भाई को ब्रहम ज्ञान देते हुए

धीरे धीरे बढ़ते हुए हम चले जा रहे थे। बारह बजे के बाद हम जब भ्यूंडार से आगे आ गये थे तो राकेश भाई ने अपना बैग ले लिया और अब हम आराम से चलने लगे थे।अब चार किलोमीटर दूर ही हमारी मंजिल हमारा रास्ता तक रही थी।

हमारी चाल में फासला बना ही था। मैं आगे आगे रहता और वो पीछे पीछे।  मुझे धीरे चलने में ज्यादा थकान का अनुभव होता है इसलिए मैं धीरे नहीं चलता। जब चाय वगेरह पीनी होती तो ही हम एक साथ रुकते या मैं ज्यादा दूर निकल जाता तो उनका इन्तजार करता। ऐसे में चलते चलते चार बजे के करीब हम लोग घांघरिया पहुँच ही गये।

हमने गोविन्दघाट से चलना पौने आठ बजे करीब शुरू किया था। फोटो खींचते खींचते, हाँफते हाँफते और बीच बीच में चाय सुड़कते-सुड़कते हमने चार बजे घांघरिया में एंट्री ली थी। यानी कुल मिलाकर नौ घंटे हम चले थे।

रास्ते में हमे कई लोग मिले थे। कईयों ने प्रसाद दिया था। कईयों के साथ रास्ते के मुश्किल होने को लेकर हमने हँसी ठट्टा किया था। कई जवान लोगो को खच्चरों पर आते देखा था और कई बुजुर्गों को पैदल चलते हुए देखा था।

जिन बुजुर्गों को पैदल चलते देखता उनके लिए मेरे में सम्मान की भावना और बढ़ जाती और मैं उम्मीद करता कि उनकी उम्र तक पहुँचने पर मेरे शरीर में भी  इतनी ताकत रहे। वो धीरे चल रहे थे लेकिन चल रहे थे। उन्हें देखकर सचमुच जोश से भर जाता था। कई बार तो वो बुजुर्ग ही हमे प्रोत्साहित करते कि चलते रहो। धीरे धीरे चलो लेकिन चलो। जब वो ऐसा करते तो बहुत अच्छा लगता।

रास्ता तो मनोरम था ही लेकिन खूबसूरत जगहों पर व्यू पॉइंट बने हुए थे। बाकायदा बोर्ड लगाकर यह बताया गया था। हमने कई ऐसी जगहों पर फोटो खिंचाई। घांघरिया में हेलीपैड भी है तो उसके निकट पहुँचते हुए हमे वो भी दिख गया। कुछ टेंट भी हमे दिखे जो शायद ट्रेवल एजेंट्स ने लगाये होंगे। इसके अलवा कुछ खच्चर घास खाते हुए दिखे और एक छोटे से मैदान में कुछ लडके वॉलीबाल का आनन्द ले रहे थे। सब कुछ बहुत खूबसूरत लग रहा था। हमारा इधर अना सफल हो गया था।

हम घांघरिया में तो थे लेकिन अभी रहना का जुगाड़ करना था। पर उससे भी पहले एक चीज बनती थी और थी चाय का एक क। हम एक होटल में गये और हमने एक एक कप चाय पी। आराम से चाय पीने के बाद हम कमरे की तलाश करने लगे।

यहाँ गढ़वाल मण्डल का गेस्ट हाउस है तो सबसे पहले हम उधर ही गये। उधर पहुँच कर पता चला कि इस गेस्ट हाउस में कमरे के लिए बुकिंग पहले से करनी पड़ती थी। ऐसा हमे बताया गया और उस वक्त पूरी बुकिंग हो चुकी थी और कोई कमरा खाली नहीं था। चूँकि मैं जासूसी उपन्यास ज्यादा पढ़ता हूँ तो यह बात पता चलने पर जो ख्याल मुझे आया था वो ये था कि प्राइवेट होटल वालों ने इनके साथ सेटिंग कर रखी होगी। ऑनलाइन वालों को तो ये रोक नहीं सकते लेकिन हम जैसे अंजान को ऐसा कह सकते हैं। खैर, हमे इससे क्या?

हमने आस पास पूछा तो एक होटल वाले ने कहा एक कमरा खाली है। वह रास्ते के बगल में ही एक मंजिला कमरा सा था। नीचे के दूकान थी और ऊपर के कमरा बना हुआ था। बगल में एक सीढ़ी थी जो कि उस कमरे तक जाती थी। एक छोटा सा कमरा था। शायद टीवी भी नहीं था उधर लेकिन हमने कौनसा टीवी ही देखना था। उधर सॉकेट वगेरह थे तो फोन, पॉवरबैंक इत्यादि हम चार्ज कर सकते थे। उस कमरे को हमने देखा तो हमे ठीक लगा। हमने किराए की बात की तो पहले उसने पाँच सौ प्रति दिन  कहा लेकिन फिर चार सौ प्रति दिन पर बात तय हुई। हम तीन दिन उधर रुकने वाले थे तो हमने 1200 रूपये दे दिए। पैसे देने के बाद हमे लगा कि हम थोड़ा और जिरह करते तो शायद तीन सौ में बात बन जाती लेकिन अब इतनी ऊपर में पाँच सौ भी कोई बुरा नहीं था। कमरे  से जुडी फॉर्मेलिटी निपटाकर हम लोग कमरे में आ गये।

इस सब में आधा घंटा लगा होगा। हम लोगों ने कपडे बदले, थोड़ा हाथ मुँह धोया और उसके बाद आराम करने की सोची। फूलों की घाटी के लिए तो अगले दिन ही जाना होता। मैंने द बुक लवर्स टेल निकाल दिया उसके कुछ पन्ने पढ़ने लगा। राकेश भाई तो लेट ही गये थे। कुछ देर में मुझे भी नींद ने अपनी आगोश में ले लिया।

(अब जब तक हम सोते हैं तब तक आप फोटो देखिये।)

घांघरिया की शाम 

सोये हुए एक घंटा ही हुआ होगा कि किर्र किर्र की ध्वनि से मेरी नींद खुल गई। उठा तो पता लगा कमरे के बाहर मार्किट में कोई मशीन चल रही थी। अब नींद खुल ही चुकी थी। राकेश भाई अभी भी सो रह थे। तो मैंने सोचा कि कुछ चैप्टर ही पढ़ लिए जाएँ और मैं  उपन्यास पढ़ने लगा। एक आध अध्याय पढ़ने के बाद राकेश भाई को उठाया और फिर हम लोग चाय पीने और आस पास तफरी मारने  के लिए रूम से बाहर निकल गए। थकान काफी हद तक दूर हो चुकी थी।

हमने सबसे पहले चाय पी और फिर मार्किट से होते हुए हम लोग उस दिशा में बढ़ने लगे जिधर हम फूलों की घाटी के लिए जाना था। हमने सोचा देखा जाए कल क्या क्या देखने को मिलेगा। ऐसे ही घूमते घूमते हम गाँव से बाहर आ गये और अब  हम हेमकुंड साहिब वाले रास्ते पर चलने लगे। कुछ लोग उधर से वापिस आ रहे थे। सामने से एक झरना बहता हुआ दिख रहा था। एक बेंच लगी हुई थी जिस पर बैठकर हम सामने से गिरते झरने का आनन्द ले सकते थे। मैंने राकेश भाई से कहा- “अभी किताब लानी चाहिए थी। इस बेंच पर बैठकर किताब पढ़ने में कितना मजा आएगा। ” वो हँसने लगे। फिर हमने उस झरने के सामने काफी फोटो खिंचाई। आस पास के नजारे ऐसे थे जो हमारी सांस रोक देने के लिए काफी थी। हम लोग खुद को बहुत भाग्यवान समझ रहे थे। हम उधर तब तक रहे जब तक अँधेरा नहीं होने लगा। जब अँधेरा होने लगा तो हम लोग वापिस आने लगे।

वापिस आकर हमने चाय पी। फिर रूम तक गये। फोन,वगेरह को चार्ज करने रखा। अब रात का खाना खाना था। हमने केवल कमरे के ही पैसे दिए थे और खाना हम किसी भी होटल में खा सकते थे। ये हमारे लिए ठीक भी था। हम इस तरह  होटल से खाने का सामान लेने लिए प्रतिबद्ध नहीं थे। अब भूख लग आई थी और फिर कल सुबह उठकर फूलों की घाटी भी जाना था तो हम लोग कमरे में ताला लगाकर नीचे उतरे। हमने एक छोटा सा होटल देखा। यहाँ घांघरिया में गुरुद्वारा भी है और आस पास छोटे मोटे होटल है। कुछ दुकाने हैं जो कपड़े सुखाती हैं, कुछ दुकाने हैं जो हस्त शिल्प की सामग्री बेचती हैं। यानी छोटा मोटा बाज़ार है जहाँ चहल पहल लगी रहती है। हम लोग एक होटल में दाखिल हुए और खाने का आर्डर दिया। मुझे तो दाल-चावल ही पसंद है तो मैंने तो वही लिया और राकेश भाई ने रोटी,सब्जी वगेरह भी ली। खाना निपटाने के बाद हमने एक एक कप चाय पी और फिर अपने रूम की तरफ बढ़ने लगे।

हम रूम में पहुँचे। उधर मैंने दोबारा किताब निकाल ली। थोड़ा बहुत मैं पढ़ना चाहता था। राकेश भाई भी थोड़ी देर उठे रहे और फिर सो गये। एक आध चैप्टर पढ़ने के बाद मुझे भी नींद आ गई।

सोने से पहले मेरे मन में बस ये ख्याल था कि कल हम लोग फूलों की घाटी देखने वाले थे। जिस यात्रा  के विषय में बचपन से इतनी कल्पना की थी वह कल करने वाले थे। मैं उत्साहित था। कल क्या होने वाला है ये भले ही किसी ने न देखा हो लेकिन उसकी उम्मीद में रोमांचित तो हो ही सकते थे। रोमांच और उत्साह की भावनाओं में खोया मैं न जाने कब सो गया मुझे पता ही नहीं लगा।

शायद चलते चलते सच में काफी थकान हो गई थी।

अब आप घांघरिया में बिताई शाम की तस्वीर देखिये।

 झरना
प्रकृति की गोद में
झरने को निहारते राकेश भाई
झरने को निहारता मैं
पुश डाउन
और पुश अप!! थोड़ा कसरत जरूरी है

क्रमशः

फूलों की घाटी यात्रा – सभी कड़ियाँ
दिल्ली से हरिद्वार
हरिद्वार से गोविन्दघाट
गोविन्दघाट से घांघरिया


#पढ़ते रहिये_घूमते_रहिये 
#फक्कड़_घुमक्कड़





© विकास नैनवाल ‘अंजान’

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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9 Comments on “फूलों की घाटी #3- गोविन्द घाट से घांघरिया”

  1. Loverals tale किताब से शुरुआत… आपने जीप में पुलना तक नही गए यह भी सही बात है…वाह आपका चाय प्रेम सही लगा….घांघरिया में डाक्यूमेंट्री दिखाई जाती है वो नही देखी आपने शायद…में गुरुद्वारे में रुका था…घाघरिया बहुत अच्छी जगह है कुछ दिन बिताने के लिए…रास्ते मे आते जाते सिख श्रद्धालुओ से बात करने में बहुत अच्छा लगता है..मेरी भ्यूंडार के बाद थोड़ी सी हालात खराब हो गयी थी जिसे थोड़ा आराम ज्यादा करके पूरा किया…भ्यूंडार बहुत अच्छा लगा…अब आगे का ििइंतेज़ार….

  2. जी डाक्यूमेंट्री नहीं देखी। पहले दिन तो थके हुए और बाकी के दो तीन दिन ऐसे ही आस पास घूमने में बीत गये। हमने भी सोचा कि प्रकृति की गोद में आये हैं और अभी केवल इसी का आनन्द लें। आपने सही कहा घांघरिया भी कुछ दिन बिताने के लिए बेहतरीन जगह है।

  3. जी,फोटो आपको अच्छे लगे यह जानकर अच्छा लगा। फोटो इस्तेमाल कीजिये। हो सके तो ब्लॉग का लिंक भी स्टेटस में डाल दीजियेगा जब आप इन्हें इस्तेमाल करें।

  4. खुबसूरत फोटो।
    फोटो देखकर और विवरण पढकर जाने की इच्छा जाग उठी।

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