आम मेरे पसंदीदा फलों में से एक है। एक आम ही ऐसा फल है जिसके आने का मैं इन्तजार साल भर करता हूँ और जिसके जाने के बाद मन दुखी सा हो जाता है। यही कारण है कि जब पता लगा कि जुलाई में आम महोत्सव इस साल भी आयोजित किया जा रहा है तो मैं बहुत उत्साहित था। पिछले साल(उस यात्रा वृत्तांत को पढने के लिए इधर क्लिक करें) भी मैं इस महोत्सव में गया था और मैंने भरपूर मजा लिया था। इस साल भी यही करने का इरादा था।पिछले साल मैं अकेला गया था और इस साल भी अभी तक ऐसा ही इरादा था। यहाँ ये बताना चाहूँगा कि फेसबुक पर जब मैंने पोस्ट साझा की थी तो यशवंत जी (जो कि एक घुमक्कड़ हैं और जिनसे जी डी एस मीट के दौरान मिलना हुआ था) ने आने के विषय में कहा था लेकिन वह जून की बात थी। 6 जुलाई कि सुबह को मेरे दिमाग से वह बात बिलकुल निकल चुकी थी। सुबह सवेरे मैं अपने रोज के वक्त पर उठा और मैंने पहले ब्लॉग का काम निपटाया।
दस बजे तक Shadow of the Ponderosa, जो कि kindle में पढ़ी एक लघु कथा थी, के विषय में मैंने अपने दूसरे ब्लॉग में लिख दिया था। उसके बाद कमरे के दूसरे काम मैंने निपटा दिए थे। अब मुझे नाश्ता बनाना था।
मैंने नाश्ता बनाया और नहा धोकर, नाश्ता करके रूम से निकल गया। मौसम गर्म तो था लेकिन इतना अधिक भी नहीं था कि चला न जा सके। ग्यारह बज रहे थे और मैं पैदल ही बस स्टैंड की तरफ बढने लगा।
मेरा इरादा महोत्सव जाने का तो था ही लेकिन उसके साथ मैं राजीव चौक उतरकर कुछ पत्रिकाएँ भी लेना चाहता था। असल में उत्तरांचल पत्रिका नाम की पत्रिका उधर ही मिलती है। बाहर रहकर उत्तराखंड से जुड़े रहने का यह मेरा जरिया है। उधर की काफी बातें इससे पता लग जाती हैं और यही कारण है मैं महीने में एक बार उधर जाकर पत्रिका ले आता हूँ। इस बार भी मैं एक पंथ दो काज करना चाहता था।
बस स्टैंड की तरफ बढ़ते हुए मुझे ख्याल आया कि मनीष भाई घूमने फिरने के लिए तैयार रहते हैं। मैंने सोचा कि क्यों न उन्हें कॉल लगाया जाए। अगर वो आने को राजी हुए तो उनके साथ महोत्सव जाया जाएगा। मैंने मनीष भाई को कॉल लगाया और उन्हें आने के लिए कहा।
मैंने उन्हें अपनी योजना से अवगत करवाया कि पहले मैं राजीव चौक उतरूंगा, उधर पत्रिकाएँ लूँगा, अगर भूख लगी तो लंच करूँगा और फिर महोत्सव जाऊँगा। उन्होंने कहा कि उन्हें डाकखाना जाना है। मैं राजीव चौक पहुँचूँ तब तक वो अपना काम निपटा लेंगे और अगर उन्हें आना होगा तो वो बता देंगे। फिर लंच का देख लेंगे कि राजीव चौक करना है या जनकपुरी ही करना है। मुझे यह बात सही लगी और मैं अब ऑटो स्टैंड की तरफ चले गया।
गुरुग्राम बस स्टैंड से साझा ऑटो लेकर सिकन्दर पुर पहुँचा तो मुझे चाय की तलब लगने लगी थी। चाय पीने का मन कर रहा था तो मैंने उतर कर उधर किसी चाय वाले को खोजा। मैंने एक सरसरी निगाह चारो तरफ घुमाई लेकिन जब कोई पतीले में चाय बनाते हुए नहीं दिखा तो मैं मेट्रो प्लेटफार्म की तरफ बढ़ गया।
मेट्रो स्टेशन में में भीड़ नहीं थी और इस कारण आसानी से अन्दर दाखिल हो गया। मैं अक्सर गुरुग्राम बस स्टैंड से एम जी रोड उतरने के बजाए सिकन्दरपुर उतरता हूँ। इसका एक कारण यह भी है कि अक्सर सिकंदरपुर में मुझे एम जी रोड से कम भीड़ मिलती है। और मैं आसानी से प्लेटफार्म में पहुँच जाता हूँ। लम्बी लाइन में खड़ा नहीं रहना पड़ता है।
प्लेटफार्म में पहुँचकर मैंने राजीव चौक के लिए मेट्रो पकड़ ली। मेट्रो में दाखिल हुआ और मैंने अपने लिए एक कोना ढूंढा और फिर अलका सरावगी जी का उपन्यास एक सच्ची झूठी गाथा पढने के लिए निकाल दी। यह उपन्यास मैंने ले तो एक डेढ़ साल पहले था लेकिन पढने का मौक़ा अब लगा है। वो भी तब जब पिछले दो महीनो से ये मेरे goodreads की currently reading शेल्फ में पढ़ा हुआ है।
अगर आप goodreads के विषय में नहीं जानते हैं तो यह एक बुक cataloguing साईट है जहाँ पर आप अपनी किताबों की लिस्ट अपडेट कर सकते हो। उधर रिव्यु पोस्ट कर सकते हो और समूह में शामिल होकर उन पर चर्चा कर सकते हो। मुझे वह साईट काफी पसंद है और उसका मैं बहुत उपयोग करता हूँ।
अब मैंने किताब निकाल ली थी और मैं किताब के कथानक में खो गया।
उपन्यास की बात करूँ तो उपन्यास एक सच्ची झूठी गाथा एक लेखिका गाथा के विषय में है। गाथा पचास वर्षीय हिन्दी की लेखिका है। ईमेल से गाथा की दोस्ती प्रमित सान्याल नामक युवक से होती है। प्रमित सान्याल काफी रोचक किरदार है और उसके जीवन के अनुभव गाथा के जीवन से इतने अलग है कि गाथा उसके ऊपर कुछ लिखने का मन बना लेती है। यही कारण है वह उससे मिलने एअरपोर्ट में पहुँच जाती है। उसने अपने घर में इस विषय में किसी को नहीं बताया है और अब एअरपोर्ट पर प्रमित के आने का इन्तजार कर रही है। पर प्रमित नहीं आया है। और इंतजार करते हुए वह यह सोच रही है कि कैसे प्रमित उसकी ज़िन्दगी में आया। कौन है प्रमित? क्या वो गाथा से मिलने आएगा? आखिर इनकी दोस्ती कैसी हुई? ऐसे ही कई प्रश्नों का उत्तर आपको इस उपन्यास को पढ़कर मालूम होगा।
मैं उपन्यास में खोया हुआ जरूर था लेकिन बीच बीच में बगल में मौजूद एक लड़के और लड़की का संवाद मेरे कानों में पड़ रहा था। लड़का अपने सहकर्मचारी(जो शायद उसका बॉस था) के विषय में लड़की से बात कर रहा था। उसने उस लड़की से उस कर्मचारी के विषय में, उसके वाइफ के विषय में बातें की। ऐसे ही सफ़र कट रहा था। उन दोनों की बातें और गाथा की कहानी आपस में गड मढ़ हो रही थीं।
जब मेट्रो केन्द्रीय सचिवालय पहुँच गयी थी तो मनीष भाई का कॉल मुझे आया। उन्होने कहा कि वो अपने रूम के पास वाले मेट्रो से निकल चुके हैं और मुझे राजीव चौक में मिलेंगे। थोड़ी बातचीत के बाद ये निर्धारित हुआ कि मैं पत्रिकाएँ ले आऊंगा, लंच हम महोत्सव के निकट ही करेंगे और वो मेट्रो स्टेशन के अन्दर आकर ही मेरा इन्तजार करेंगे।
मुझे यह बात ठीक लगी। वैसे भी मुझे अनुभव था कि महोत्सव घूमने में एक या डेढ़ घंटे ही लगेंगे और फिर हम बाहर आकर लंच कर सकते थे। अब राजीव चौक आने का इन्तजार था।
राजीव चौक आया और मैंने किताब बंद की। गाथा और प्रमित सान्याल के किस्से को थोड़ा विराम दिया और पत्रिकाएँ लेने चले गया।
एक सच्ची झूठी गाथा – अलका सरावगी |
पत्रिकाएँ जो सेन्ट्रल बुक एजेंसी से ली |
अब मुझे कथादेश और हंस लेनी थी और इसलिए मैं बुक एजेंसी से निकलकर पी ब्लाक के पीछे को गया। उधर एक भाई साहब ठेला लगाकर बैठते हैं जिनके पास पत्रिकाएँ मिल जाती हैं। जो पत्रिका मुझे सेन्ट्रल बुक एजेंसी में नहीं मिलती हैं उन्हें मैं उधर से ले लेता हूँ। मैंने सोचा उधर जाकर पत्रिका ले लूँगा और बगल में मौजूद चाय वाले से चाय पी लूँगा। लेकिन उधर जाकर मुझे दुगनी निराशा हुई। न आज ठेला था और न उधर चाय वाला ही था।
मैं उधर से वापस आ गया। मैंने सब वे से सड़क पार की और बाहर निकल कर अब गेट 8 की तरफ बढने लगा। उधर ही मुझे एक चाय वाला मिल गया तो जैसे मेरे मन की मुराद पूरी हो गयी। मैंने उससे एक चाय और एक मट्ठी ले ली। मैं अब चाय और मट्ठी का सेवन करने लगा। चारों तरफ लोग ही लोग थे। कुछ विदेशी थे जिनके पीछे पैसे मांगने वाले लोगों की लाइन थी। एक अधेड़ महिला जो कि जापानीज या कोरियाई या उत्तर पूर्वी में से एक रही होगी,तेजी से मेरे आगे से निकली। वहीं बगल में एक दुकान के आगे कुछ युवक और युवतियाँ सेल्फियाँ खींच रहे थे। और मैं सबको देख रहा था। कितनी कहानियाँ मेरे चारो ओर थी। सब किसी न किसी कारण से उधर पहुँचे होंगे। कुछ खुश थे, कुछ परेशान थे, कुछ रोज मर्रा की जद्दोजहद में व्यस्त थे और मैं चाय का आनंद ले रहा था।
तभी मेरा फोन बजा। मट्ठी मैंने खत्म कर ली थी तो फ़ोन निकाल कर देख सकता था। फोन मनीष भाई का था। वो राजीव चौक पहुँच गये थे और मेरा इन्तजार कर रहे थे। मैंने उनसे कहा कि चाय खत्म करके आता हूँ।
मैंने चाय खत्म की और पैसे अदा किये।
चाय खत्म कर ही रहा था कि एक व्यक्ति चाय वाले के पास आया और उसे सिक्के देते हुए उसने कहा कि चाय देना। चाय वाला सिक्के देखकर परेशान हुआ। उसने सिक्के ले तो लिए लेकिन उसमें से पाँच रूपये मुझे थमा दिए। मैं उसे लेकर चल पड़ा और वो कहने लगा कि – “सिक्के जल्दी जल्दी निकाल दूंगा।” उसके इस कथन से मैंने सिक्के की तरफ देखा और उसे उलटा पलटा। मेरे दिमाग में एक ख्याल आया कि कहीं ये सिक्का नकली तो नहीं और वह नकली सिक्कों को चलाने वाले गिरोह में तो शामिल नहीं लेकिन फिर मैंने इस ख्याल को परे धकेला और गेट नम्बर आठ की तरफ बढ़ने लगा। जासूसी नोवल अगर आप पढ़ते हैं तो हर जगह अपराध होने की कल्पना करने लग जाते हैं। ये कल्पनाएँ तो रोचक होती हैं लेकिन मैं अभी इनमें नहीं डूबना चाहता था।
मैं मेट्रो के अन्दर दाखिल हुआ और फोन पर मनीष भाई से को-ऑर्डिनेट किया। उनसे मिला। वो दिखाई दिए कि मेट्रो आ गयी और हम दोनों ही मेट्रो में दाखिल हो गये। अब मैं मेट्रो के अंदर एक डिब्बे से दूसरे डिब्बे होते हुए उन तक पहुँचा। वो सीट पर बैठे हुए थे और मेरे लिए भी उधर एक सीट थी लेकिन मेरा बैठने का मन नहीं था। मैं खड़ा रहा और हम ऐसे ही बातें करने लगे। इधर उधर इसकी उसकी बातें होती रही। वो मोबाइल पर पाठक साहब की किताब पढ़ रहे थे। कुछ देर में वो किताब में लग गये और मैं गाथा और प्रमित सान्याल के साथ व्यस्त हो गया। स्टेशन बीतते गये।
थोड़े देर बाद मैंने सोचा कि गूगल करके देख लूँ कि किधर मैंगो फेस्टिवल है। पहला लिंक खोला तो उसमें पीतमपुरा दिखा रहा था। एक बार को हैरानी हुई लेकिन फिर तरीक 9 जुलाई दिखा रहा था। दिनांक बदल कर फिर सर्च किया तो मिल गया। गूगल ने ये भी बता दिया कि भाई तिलकनगर उतर जा उधर से आसानी होगी।
हम तिलक नगर उतरे और स्टेशन से बाहर निकले।
इधर से हमने रोड पार की और एक रिक्शे वाले भाई से दिल्ली हाट के विषय में पूछा। उन्होंने बताया कि उधर के लिए ऑटो किधर से मिलेंगे और हम लोग ऑटो लेकर दिल्ली हाट पहुँच गये।
मैं पिछले साल भी इधर आया था और इस साल दोबारा आ रहा था। मनीष भाई का यह पहला मौक़ा था आने का। अन्दर जाते ही हमे कोने में एक बैंड दिखाई दिया। वो इलेक्ट्रिक गिटार वगेरह लेकर गीत बजा रहे थे। अगल बगल कुछ स्टाल अभी लग रहे थे। हमने उधर कुछ फोटो ली और फिर आगे टिकेट काउंटर की तरफ बढ़े।
पहुँच गये जी आम महोत्सव |
वयस्कों का टिकेट बीस का था तो सबसे पहले वो लिया। फिर मैं तो सबसे पहले बाथरूम गया। गर्मी लग रही थी और मुँह पर पानी मारने का मन था। लघु शंका की, हाथ धोये और उसके बाद मुँह धोया।
बाहर आये और फिर मनीष भाई ने बोला कि किधर जाना है। उन्हें बताया कि सामने डॉम में आम की प्रदर्शनी है और उसके आलावा इधर रंगारंग कार्यकर्म चलते रहते हैं। उन्होंने पहले डॉम में जाने का फैसला किया। हम लोग उधर की तरफ बढ़ गये। वहाँ जाते हुए हमे एक गत्ते के जानवर मिले जिसके साथ मैंने फोटो खिचवाई। बड़ा सा आममानुष मिला जिसके साथ हम दोनों ने फोटो खिचाई। मनीष भाई उसके साथ हाथ मिलाने लगे तो चौकीदार साहब ने उन्हें डांट दिया। मेरी हँसी छूट गयी।
क्यूट से जीव के साथ |
आम मानुष से हाथ मिलाते मनीष भाई |
हम अन्दर दाखिल हुए। अन्दर तरह तरह के आम थे। हम लोग अलग अलग स्टाल में मौजूद आम देखने लगे।
इस प्रदर्शनी में अलग अलग लोग अपने बागों में मौजूद आमों को लेकर आते हैं। कई कृषि विश्वविद्यालय भी अपने द्वारा उगाये गये अलग अलग आमों का प्रदर्शन इधर करते हैं। ऐसे में कई आमों के नाम तो होते हैं लेकिन कई ऐसे भी होते हैं जिनके नम्बर ही होते हैं। कुछ आम खाने के लिए होते हैं लेकिन कुछ केवल प्रयोग के तौर पर उगाये जाते हैं। हम एक एक स्टाल में जाकर अलग अलग आमों को देखने लगे। उनकी फोटो वगेरह उतारने लगे।
एक स्टाल से होता मैं दूसरे की तरफ बढ़ ही रहा था कि तभी एक मोहतरमा मुझसे मुखातिब हुई।
उन्होंने पूछा- “इधर मौजूद नमो और अमित शाह नाम के आम के विषय में आपको क्या कहना है।”
मैंने कहा – “वो व्यक्ति उनसे प्रेरित हुआ होगा। इसलिए उस आम के नाम उनके ऊपर रखे होंगे।”
मेरा जवाब सुनकर वो प्रसन्न हुई और फिर बोली- “यह बात आप कैमरा पर कह दोगे?”
कैमेरे का नाम सुनकर मैंने अपनी नजर उधर घुमाई जिधर उसकी नज़र घूमी थी तो मुझे कैमरा दिखा। जी न्यूज़ का कैमरा था। मैंने कहा – “मैं तो नहीं कह सकता लेकिन मैं एक व्यक्ति को जानता हूँ जो कह सकता है।”
मनीष भाई मुखर हैं, बातचीत कर लेते हैं, बहिर्मुखी है तो वो इस चीज के लिए बेहतर थे। इसलिए मैं चाहता था कि वो कहें। मैंने उनको इस विषय में पूछा लेकिन उन्होंने भी टाल दिया। और हम दोनों कैमरे में आने से बच गये। मोहतरमा भी अब किसी आंटी से कैमरे में आने के विषय में बातचीत करने लगी थीं।
और हम दोनों ही प्रदर्शनी में मौजूद दूसरे स्टाल्स में आम देखने लगे।
जिस डोम में यह प्रदर्शनी लगती है वो दो हिस्सों में विभाजित है। ऊपर एक छोटा सा हिस्सा है जहाँ सीढ़ियों से जाया जा सकता है। हमने नीचे मौजूद सभी स्टाल्स देख लिए थे और अब हम लोग ऊपर मौजूद आम देखना चाहते थे।
हम लोग ऊपर चढ़ गये। ऊपर का कोना प्रतियोगिता में प्रथम,द्वितीय और तृतीय आये आमों के लिए था। इधर अलग अलग आम पैदा करने वाले लोग आते हैं और फिर उन आमो के बीच प्रतियोगिता होती है जिनमें प्रथम, द्वितीय और तृतीय चुना जाता है। जैसे सफेदा पैदा करने वाले कई लोग आयेंगे। ऐसे में सफेदा की श्रेणी में किसका उचतम है यह देखा जाता है और उस हिसाब से इनाम बांटा जाता है। इधर चौसा,सफेदा, मल्लिका,आम्रपाली,रतौल इत्यादि आम थे।
दशहरी आम – पहला दूसरा तीसरा विजेता |
चौसा |
लंगड़ा |
फजरी आम |
केसर |
हुस्नारा का हुस्न देखिये |
मल्लिका |
आम्रपाली |
रतौले |
रामकेला |
बड़े आकार के आमों के विजेता |
मिक्स वैरायटी के आम के विजेता |
ऊपर से दिखता नीचे का नजारा |
नमो आम और अमित शाह आम |
हमने हर स्टाल देख लिया था। अलग अलग आमों की तस्वीर ले ली थी। क्या हो जो रोज हमे इनमें से हर प्रकार का आम खाने को दिया जाए। पूरा साल हम अलग अलग तरह के आम खा सकते हैं। यही कल्पना कर करके मैं तो पगला रहा था। अब सब घूम लिया था तो हम लोग उधर से बाहर निकल गये।
अब बाकी चीजें देखनी थी। हम डॉम से निकले तो बाहर एक बड़ा सा आम था। हमने उसके साथ एक फोटो खिंचाई। लोगों ने उस पर संदेश भी लिखा था। संदेश लिखने में न मेरी रूचि थी न ही मनीष भाई को ही कोई रूचि थी।
आम के साथ मनीष भाई |
आम के साथ मैं |
अब हम बाकी का दिल्ली हाट घूमना चाहते थे।
सामने देखा तो नृत्य चल रहा था। पंजाबी नृत्य हो रहा था तो हम लोग उधर की तरफ बढ़ गये।
पंजाबी नृत्य के बाद हरियाणवी और राजस्थानी नृत्य भी उधर हुआ। तीनों ही परफॉरमेंस हमने देखी। गर्मी हो रही थी लेकिन कलाकारों ने अपना बेहतरीन प्रदर्शन दिया। उन्हें देखकर मैं यही सोच रहा था कि इन कलाकारों को चुनने की क्या प्रक्रिया होती होगी। क्या इन्हें इस काम के पैसे मिलते होंगे? शायद मिलते तो होंगे।
इन्ही नृत्यों के बीच मनीष भाई गायब से हो गये थे। मैंने इधर उधर देखा तो मुझे दिखाई नहीं दिए। मैं दोबारा नृत्य देखने लगा। जब आखिरी नृत्य खत्म हुआ तो देखा वो किसी से बतिया रहे हैं। वो एक स्टाल के सामने खड़े थे और सिंगल यूज कप कैसे नुकसान पहुंचाते हैं उस पर बातचीत कर रहे थे। उस स्टाल पर काफी सामान था जो कि एनवायरनमेंट फ्रेंडली था। मैं उधर जाकर उनकी बात सुनने लगा। उन्होंने स्टाल वाले से उसका कार्ड लिया और हम लोग आगे बढ़ गये।
पंजाबी नृत्य दिखाते कलाकार |
हरियाणवी नृत्य दिखाते कलाकार |
राजस्थानी(शायद) नृत्य दिखाते कलाकार |
कुछ ही देर में हमने वो दुकाने भी देख ली जहाँ अलग अलग तरह के आम मिल रहे थे। इधर विभिन्न तरह के आम आप पेटी में खरीद सकते हैं। हमे तो इतने आमों की जरूरत नहीं होती तो हमने नहीं लिए।
पिछले बार मैं इधर आया था तो इधर ऐसा स्टाल भी था जहाँ जी भरकर आप आम खा सकते थे। आपको बस कुछ ही पैसे देने होते थे। आज वो बंद था। बाद में मनीष भाई ने बताया कि उधर लोग खा रहे थे इसलिए बंद था।
हाट में घूमते हुए |
हाट में मौजूद दूसरी दुकाने |
पेटियों में बिकते आम |
आम के स्टाल्स जहाँ से आम खरीदे जा सकते थे |
गर्मी में पीलो ठंडे पेय |
हाट में घूम लो दुनिया |
आम अब लगने लगे हैं पोल में भी |
गुड़ियों का स्टाल.. |
निशाने लगाओ या झूला खेलो |
छल्ले डालो इनाम पाओ |
राजस्थानी लोक कलाकार |
अलविदा! अब अगले वर्ष मिलेंगे |
तो ये थी 31 आम महोत्सव की घुमक्कड़ी। पिछले बार की तरह इस बार भी काफी कुछ देखा और काफी कुछ रह भी गया होगा। अब अगले साल का इन्तजार है। उस वक्त दोबारा इधर जाऊँगा। जाने से पहले इधर मैंने जितने आम देखे उनमें से कुछ की सूची दे जाता हूँ ताकि आप याद रखें कि कितने आम आपको खाने हैं। याद रखें ५०० से ऊपर तरह के आम थे।
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नाम तो और भी हैं लेकिन मुझे आलस्य महसूस हो रहा है। अगर आपको सभी नाम जानने हैं तो आप भी देख आइयेगा अगले साल।
अब अगली यात्रा पर मिलेंगे। तब तक के लिए पढ़ते रहिये घुमते रहिये।
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समाप्त
© विकास नैनवाल ‘अंजान’