जीडीएस फोटोवाक और योगी भाई के साथ एक मुलाकात

जीडीएस फोटो वाक और पकौड़े बाजी 

10 नवम्बर 2019, रविवार


कहाँ : लोधी गार्डन 
कैसे पहुँचा जाए: जोरबाग़ मेट्रो स्टेशन से पैदल जा सकते हैं 
शुल्क: उद्यान में प्रवेश निशुल्क है 

भूमिका या घुमक्कड़ी की योजना का बनना 

मैं अक्सर घूमने के बहाने तलाशता रहता हूँ। घूमना फिरना होता रहे तो मैं खुश रहता हूँ। एक जगह बंधना पड़ जाए तो एक तरह की बेचैनी मन में उत्पन्न हो जाती है। इस घूमने फिरने के कारण ही मुझे कई अच्छे लोगों के साथ समय व्यतीत करने का मौका मिला है। अगर शायद यह शौक मुझे न होता तो मेरे जैसा अन्तर्मुखी व्यक्ति शायद ही इन लोगों से परिचित हो पाता।
घूमने फिरने के इसी कीड़े के चलते मैं घुमक्कड़ी दिल से ग्रुप से जुड़ा और इस वजह से न केवल घुमक्कड़ी से जुडी कई जानकारी मुझे मिलती रहती हैं बल्कि घूमने के कई मौके भी मिलते रहते हैं। हाँ, यह मेरी बदकिस्मती है कि मैं कम ही ऐसे मौके कैश कर पाता हूँ।ऐसे में जब मुझे तीन दिसम्बर में होने वाली फोटो वाक के विषय में पता चला तो मेरे मन में एक हूक सी उठी। यह मौका भी गँवाने वाला था क्योंकि पहले मेरी योजना थी कि मैं आगरा या लखनऊ चला जाऊँगा। योगेन्द्र सारस्वत जी ने एक इवेंट बना दिया था और मुझे इनवाईट भी कर दिया था लेकिन मैं इसका जवाब कैसे दूँ इस बात को लेकर मैं असमंजस की स्थिति में था।

खैर, मैंने रूचि है करके इवेंट के प्रति अपनी रूचि तो दर्शा दी थी और यह भी एक पोस्ट में टिप्पणी करके बता दिया था कि शायद ही मैं उधर पहुँच पाऊँ। वैसे यह फोटो वाक लोधी गार्डन की होने वाली थी और इस मामले में मुझे यह ही दिलासा था कि मैंने इसी साल कुछ ही महीनो पहले मनीष भाई के साथ इधर की घुमक्कड़ी की थी। (उसका ब्यौरा भी लिखा है बस उसे प्रकाशित करना है। जल्द ही करता हूँ।)

खैर, पहले तो मेरे मन में यही था कि इधर जाना नहीं हो पायेगा लेकिन फिर कुछ ऐसी बात हुई कि मुझे अपना आउट ऑफ़ स्टेशन का ट्रिप कैंसिल करना पड़ा और मैंने इस फोटो वाक में जाने की योजना बना ली। इससे पहले जी डी एस के एक ही इवेंट का मैं हिस्सा बन पाया था। यह इवेंट राजीव चौक में सेन्ट्रल पार्क में हुआ था और एक यादगार इवेंट था। उस इवेंट के विषय में आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
जीडीएस मीट


रविवार का आना,जॉन कोरी से मुलाक़ात, देव भाई का कॉल और मेरी लेट लतीफी:
ब मैं रविवार के आने का इन्तजार कर रहा था ताकि इस इवेंट में शामिल हो पाऊँ। इस इवेंट  में कौन कौन आएगा यह मैं निकलते वक्त देखना भूल गया था। हाँ, इवेंट ग्यारह से एक बजे का होने वाला था तो मैंने यह सोच लिया था कि पहले इस इवेंट में शामिल होऊंगा और उसके बाद कुछ और योजना बना लूँगा। योगी भाई से मिले काफी वक्त हो गया था तो मैंने उनसे मिलने का सोच लिया था। उन्हें इसके लिये कॉल खड़का ली थी और इस कारण मैं अब खुश था। एक पंथ से दो शिकार जो होने वाले थे। घुमक्कड़ी की घुमक्कड़ी और मुलाक़ात की मुलाकात।

दस तारीक को मैं कमरे से निकला तो निकलते वक्त दस से ऊपर का वक्त हो गया था। मुझे थोड़ी देरी हो गयी थी। ब्लॉग के काम में व्यस्त था। लेकिन फिर भी इतना तो मालूम था कि ग्यारह या साढ़े ग्यारह बजे करीब मैं पहुँच जाऊँगा। कमरे से निकला तो कोहरा था लेकिन मुझे साहित्य आजतक के अनुभव से लग गया था कि हो न हो दिन तक मौसम खुशनुमा हो जायेगा और इस कारण मैं केवल शर्ट पहनकर ही रूम से निकला था। मेरे साथ मेरा kindle था जिसमें मैंने एक लम्बी कहानी The Bookcase पढ़ने का मन बनाया था। उसके साथ ही कुछ किताबें, पत्रिकाएँ, एक बोतल और छाता भी बैग में रखे हुए थे। मैं रूम से निकला और फिर सिकन्दरपुर मेट्रो जल्द ही पहुँच गया। उस वक्त साढ़े दस हो रहे थे।

पहुँच गए सिकंदरपुर, कोहरे रे कोहरा

 

Nelson Demille की The Book case जहाँ जॉन कोरी मुझे मिला था

सिकन्दरपुर मेट्रो से जोर बाग़ पहुँचने में मुझे पौना घंटा लगा। यानी सवा ग्यारह बजे मैं जोरबाग़ में मौजूद था। इस दौरान मैंने संजय कौशिक जी और योगेंद्र सारस्वत जी को कॉल लगा लिया था। उन्होंने बताया था कि उन्हें आने में तो देर हो जाएगी लेकिन लोग उधर पहुँच गये हैं। मुझे उम्मीद थी कि जब मैं उधर पहुँचूँगा तो लोगों से मिल जाऊँगा।


सफर कोरी के साथ मस्त कट रहा था। उसके बात करने का मजाकिया ढंग मुझे पसंद आया था और मैंने सोच लिया था कि इस किरदार को लेकर लिखे गये उपन्यास मैं जरूर पढूँगा। जॉन कोरी एक पुलिस अफसर था और इस कहानी में वह एक मौत की तहकीकात कर रहा था। 


हुआ यूँ था कि ओटिस पार्कर एक किताबों की दुकान का मालिक था जिसकी मृत्यु किताबों की शेल्फ के उसके ऊपर गिरने से हो गयी थी। कोरी के अफसर चाहते थे कि कोरी किताब की दुकान में जाये और यह सुनिश्चित करे कि यह एक हादसा ही था। कहीं कुछ दाल में काला नहीं था। क्या सच में ओटिस पार्कर की मृत्यु एक दुर्भाग्यपूर्ण हादसा थी? 


इसी सवाल का जवाब पाठक कहानी पढ़कर पा सकता था। द बुक केस कहानी मुझे पसंद आई थी और इसके विषय में मैंने अपने दूसरे ब्लॉग में भी लिखा था। 


किताब के प्रति मेरे पूरे विचार आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
The book case by Nelson DeMille


जोरबाग आते आते मैंने काफी हद तक उस कहानी को पढ़ लिया था। जोरबाग उतरा और फिर स्टेशन से बाहर निकला। कहानी बची हुई थी लेकिन वो वापसी के सफर में पूरी हो सकती थी। कोरी कहीं नहीं जाने वाला था इसका मुझे पता था।


मैं एक बार पहले भी मैं लोधी गार्डन जा चुका था तो मुझे पता था कि इधर पैदल ही पहुँचा जा सकता है। स्टेशन पहुँचा तो संजय जी को कॉल लगाया उनका कॉल नहीं लगा। योगेन्द्र जी को लगाया तो उन्होंने बताया कि लोग बाग़ में पहुँच चुके हैं। मैं उधर ही जाऊँ।


निकलने से पहले मुझे याद आया एक रात पहले देवेन्द्र भाई ने कॉल करने को कहा था। मैंने उन्हें कॉल लगाया और पन्द्रह मिनट उनसे बात की। उनके साथ ही पहले लखनऊ जाने का विचार था लेकिन वह पूरा नहीं हुआ था क्योंकि उन्हें बेंगलुरु जाना था। काफी दिनों से उनके साथ कहीं घुमक्क्ड़ी की योजना बना रहे थे जिसे हम अमलीजामा नहीं पहना पाते थे। खैर, भविष्य में कहीं जाने की योजना बनाकर हमने फोन काट दिया।


उनसे बात करते करते पन्द्रह मिनट हो गये और जब मैं जोरबाग़ से लोधी गार्डन की तरफ निकला तो साढ़े ग्यारह बज गये थे।

जोर बाग़ मेट्रो स्टेशन
एकला चलो!  एकला चलो रे



जोरबाग से लोधी उद्यान, चाय की चुस्की, उद्यान में प्रवेश 
जोरबाग से लोधी गार्डन की दूरी कुछ एक आध किलोमीटर की है। यह रास्ता आसान है और आराम से पैदल तय किया जा सकता है। हम पिछले बार भी पैदल ही लोधी गार्डन गए थे और अब की बार भी मेरा पैदल ही जाने का इरादा था।


मैंने गूगल मैप में जगह डाली और आगे बढ़ने लगा। लोग कम दिखाई दे रहे थे तो सोचा क्यों रिस्क लें। आप किसी से पूछेंगे तो आपको रास्ता बता देगा। अगर आप चलना न चाहें तो जोरबाग मेट्रो स्टेशन से आपको ऑटो भी मिल जाएंगे जो तीस चालीस रूपये में आपको लोधी गार्डन छोड़ देंगे।  


मौसम अच्छा था। ज्यादा धूप नहीं थी। मौसम में हल्की सी ठंडक थी जिसके कारण मुझे चलने में मज़ा आ रहा था।  रास्ते में कुछ फौजी लोग भी पहरा देते दिखे। ऐसे ही चलते चलते जल्द ही मैं लोधी गार्डन के अशोका गेट के समक्ष पहुँच गया था।


अब अंदर दाखिल होना था। पर उससे पहले मेरा चाय का मन बोल गया। चाय की तलब को शांत करने के लिए मैं सामने ही दिखती एक टपरी पर चला गया और मैंने उधर एक चाय का आर्डर दिया।मैं अब आगे के विषय में सोचने लगा। योगेंद्र जी को पहुँचने में वक्त था तो मैं कुछ देर तक अकेले ही घूम सकता था।जो लोग पहुँचे थे उन्हें मैं जानता नहीं था तो सैलानियों की भीड़ में उनका पता लगना मुश्किल होता। संजय जी का कॉल नहीं लग रहा था। (यह बाद में पता लगा कि उनका फोन घर में ही रह गया था।)


चाय आ चुकी थी और अदरक वाली चाय का पहला घूँट ही जब मैंने मारा तो आनंद आ गया। चाय पीने में थोड़ा वक्त लगा क्योंकि मैं स्वाद ले ले कर चाय पी रहा था।


मैं जब तक चाय निपटाता हूँ तब तक आपको लोधी गार्डन के विषय में बता देता हूँ।

  • लोधी गार्डन 90 एकड़ की जगह में फैला हुआ है।
  • इस उद्यान को पहले विलिंग्डन गार्डन भी कहा जाता था।
  • इस उद्यान के अंदर मुख्यतः चार इमारत हैं: मुहम्मद शाह का मकबरा, बड़ा गुंबद, शीश गुंबद, और सिकंदर लोधी का मकबरा। मुहम्मद शाह का मकबरा सैय्यद  राजवंश के आखिरी राजा अलाउद्दीन आलम शाह ने मुहम्मद शाह की याद में 1444 में बनाया था।
  • बड़ा गुंबद और शीश गुंबद को 1494 में सिकंदर लोधी द्वारा बनवाया गया था।
  • सिकंदर लोधी के मकबरे का निर्माण सिकंदर लोधी के पोते इब्राहिम लोधी ने करवाया था। इसका निर्माण 1517 से 1518 के बीच में हुआ था।
  • ऊपर लिखी इमारतों के आलावा इस उद्यान में ठपुला है। अठपुला का निर्माण बादशाह अकबर के राज्य में हुआ था और यह उस वक्त की आखिरी इमारत है जो बची हुई है।
  • अठपुला के अलावा इधर एक तालाब भी हैं। तालाब में फव्वारे चलते रहते हैं जिनका कि वक्त निर्धारित  किया हुआ है। इसी तालाब में बतख भी घूमते रहते हैं। इसके अलावा छोटे छोटे पार्क इधर हैं जिसमें बैठकर लोग बाग़ आराम फरमा सकते हैं।
चाय की चुस्की

 

बुला रहा है लोधी गार्डन



लोधी गार्डन का चक्कर, घुमक्कड़ों की तलाश और उद्यान की इमारतें
चाय पीकर मैं उद्यान के गेट की तरफ बढ़ गया। गेट के पास कई तरह के खोमचे वाले बैठे थे। किसी के पास गोल गप्पे थे, किसी के पास चाट था तो किसी के पास आइस क्रीम और गुड़िया के बाल भी थे। मुझे इनमें रूचि नहीं थी। चाय की जरूरत थी जो कि मिल गयी थी।


अंदर एक लम्बा सा रास्ता था जहाँ से लोग आ जा रहे थे। मैं इसी रास्ते में बढ़ने लगा तो मुझे सामने एक जोड़ा दिखा। यह जोड़ा पारम्परिक परिधानों में मौजूद था और कोई फोटो शूट चल रहा था। फोटो खींची जा रही थी तो मैं रुक गया। पिछले बार जब इधर आया था तो इधर काफी टिक टोक वाले लोग मौजूद थे। इस बार चूँकि शादी का सीजन चल रहा था तो शादी वाले जोड़ों की भरमार थी। दिल्ली की ज्यादातर ऐतिहासिक स्मारकों पर ऐसे जोड़े आम दिख जाते हैं। फिर उनकी भी गलती नहीं है बिना पैसे खर्च किये इतनी खूबसूरत लोकेशन मिल रही थी। जब वो लोग दूसरी पोज बनाने लगे तो मैं उनके बगल से होकर गुजर गया। उस वक्त मैं यही सोच रहा था कि सिकन्दर लोधी के रिश्तेदारों को पता होता कि उसकी कब्रगाह किस काम आएगी तो शायद वो इसे इतनी हसीन न बनाते। सिकन्दर लोधी अपने मकबरे में लेटा लेटा क्या सोचता होगा? यही बात मेरे मन में आई तो उसकी जो प्रतिक्रिया होगी उसकी कल्पना करके मुझे हँसी आ गयी। मैं आगे निकल आया था तो इस बात का डर नहीं था कि जोड़े को हँसी से फर्क पड़ता। मैंने अपने ख्यालों के घोड़ों को लगाम दी और बड़े गुम्बद की तरफ बढ़ चला।

मैं बड़े गुम्बद पहुँचा। उसकी कुछ तस्वीरें ली। उधर काफी लोग थे। जो तसवीरें ले रहे थे। कुछ गुम्बद के सामने थे, कुछ सीढ़ियों पर थे कुछ एक तरफ मौजूद सीढ़ियों पर थे। यानी जिसे जिधर जगह मिल रही थी, कोण मिल रहा था, खुद की और गुम्बद की तस्वीर लेने में व्यस्त था। मैं भी उन्हीं में से था। मैंने झट से अपना काम निपटाया और आगे बढ़ गया।

जिस रस्ते से मैं जा रहा था उधर एक समूह था जो योगा करने आये थे। वो अपने योग में व्यस्त थे। उधर से मैं आगे बढ़ गया। कुछ देर में मैं शीश गुम्बद में खड़ा था। मैंने शीश गुम्बद की तस्वीरें ली और फिर बड़े गुम्बद की कुछ तसवीरें शीश गुम्बद के सामने से ली। बड़े गुम्बद में गुम्बद तो है ही लेकिन पीछे एक बड़ा अहाता सा ही है। यह शायद एक मस्जिद का हिस्सा है।

यहीं पर खड़े होकर मैंने योगेंद्र जी से बात की तो उन्होंने कहा कि वो मुहम्मद शाह के मकबरे में हैं। उस वक्त मुझे यह समझ नहीं आया कि यह मकबरा किधर है? मुझे लग रहा था कि आगे जो सिकंदर लोधी का मकबरा है उसके ही निकट यह होगा। लेकिन मैं गलत था। मुहम्मद शाह का मक़बरा बड़े गुंबद से भी पहले पड़ता है। लोधी गार्डन आने के लिए दो गेट है। एक अशोका गेट जहाँ से मैं आया था। यह मुख्य गेट बड़ा है और एक दूसरा छोटा गेट भी है जिसके माध्यम से आप अगर आओगे तो आपको मुहम्मद शाह का मकबरा मिलेगा। मैं उस वक्त थोड़े संशय में था तो आगे बढ़ गया। कई मैदानों को पार करने के बाद पहले नहर के तरफ पहुँचा। यह नहर खूबसूरत लग रही थी। एक तरफ इसमें कुछ जल वाले पौधे उगे हुए थे जिसमें से एक फूल झाँक रहा था।मैंने इसकी फोटो उतारी। दूसरे तरफ से भी नहर की फोटो उतारी और फिर आखिर सिकंदर लोधी के मकबरे की तरफ बढ़ गया।


उधर भी एक प्री वेडिंग शूट चल रहा था। फोटोग्राफर भाई साहब दूल्हे और दुल्हन में ऊर्जा फूंकने की पूरी कोशिश कर रहे थे। दूल्हा दुल्हन के दोस्त भी साथ में थे जो कभी दुल्हन की चुन्नी उड़ाते ताकि फोटो अच्छी आये। इस कवायद में दूल्हे के दोस्त को काफी बार उछलना भी पड़ा। थोड़ी देर तक मैं यह उपक्रम देखता रहा। चलते हुए तो नहीं लेकिन मुझे इस जोड़े को देखकर ही थकान हो रही थी। ज्यादा थकान न हो जाये इस कारण मैं आगे बढ़ गया।

मैं मकबरे में दाखिल हुआ और कुछ फोटो मैंने लिए। मैं फोटो ले रहा था कि योगेंद्र जी का कॉल आया। उन्होंने बताया कि वो लोग बड़े गुंबद में अहाता है उसमें खड़े हैं।मैंने फोटो ले लिए थे तो मैं बढे गुंबद की तरफ बढ़ने लगा।

 पार्क का रास्ता  और फोटोशूट

 

उद्यान, फूल और बड़ा गुंबद
पहुँच गए बड़े गुंबद पर। बड़ा गुम्बद और फोटो ग्राफी में व्यस्त लोग। वो छोटी सी खिड़की नुमा जगह में भी कोई है
बड़ा गुम्बद शीश गुम्बद के सामने से दिखता हुआ, अहाता और मस्जिद साफ़ देखी जा सकती है
शीश गुम्बद

 

सिकंदर लोधी के मकबरे की तरफ जाती हुई नहर
नहर के एक तरफ खिला हुआ कमल
सिकंदर लोधी का मकबरा

 

सिकंदर लोधी के मकबरे को जाती सीढ़ियाँ

बड़ा गुम्बद, मिलन और आगे की कार्यवाही 
ड़े गुम्बद में पहुँचा तो उधर योगेंद्र भाई मिल गए। वो सपरिवार आये थे जिसे देखकर अच्छा लगा। सपरिवार ही घुमक्क्ड़ी होनी चाहिए। हाँ, ये जरूर होता है कि कई बार परिवार वाले ऐसी घुमक्क्ड़ी करने के इच्छुक नहीं होते हैं। वहीं पर दुर्गेश चौधरी भाई भी थे, सुशांत सिंघल जी भी थे और एक और भाई थे जिनका नाम मैं भूल रहा हूँ (संजय कौशिक जी के माध्यम से पता चला कि वो राजन जेदिया थे।)। हम लोग मिले और नीचे उतरे।


उद्यान में सैलानी चारो तरफ थे। कुछ देशी तो कुछ विदेशी। सैलानियों के आलावा कई और समूह उद्यान में मौजूद थे। इस उद्यान में इतनी जगह है कि कुछ भी कर सकते हैं। उदारहण के लिए एक समूह, जिसमें मुख्यतः उत्तर पूर्वी राज्यों से आने वाले युवा लग रहे थे, अपनी कनवोकेशन सेरेमनी उधर कर रहा था। कुछ संगीतगार मौजूद थे और कुछ लोग ऐसे ही पिकनिक मना रहे थे। सकारात्मक ऊर्जा का परवाह हो रहा था। सुखमय माहौल था। हँसी ख़ुशी चारों और थी। जीवन में और क्या चाहिए था। 

नीच उतरे तो  हमे संजय कौशिक जी भी मिल गए। साथ ही विनीता पांडे   नन्दिनी पाण्डेय जी(संजय कौशिक जी ने ही बताया) और मोनालिसा जी भी उधर मौजूद थे। वो लोग भी अपने अपने बच्चों के साथ आईं थीं जिन्हे देखकर अच्छा लगा। हम सब मिले कुछ बातें हुई। फिर यह निर्णय हुआ कि थोड़ी देर इधर ही बैठा जाए। कुछ आराम किया जाए और फिर आगे बढ़ा जाये।शीश गुंबद के सामने ही हम बैठ गए और उधर ही थोड़ा स्नैक्स वगैरह खाये। संजय जी बिस्किट्स लाये थे। कुछ नमकीन के पैकेट भी लिए गए थे।इसी दौरान बच्चों की शरारते और बातें चल रही थीं जो कई बार हँसी की लहर से समूह के लोगों को सरोबोर कर देती थी। बीच में बातचीत थोड़ा राजनितिक भी हुई और फिर दोबारा घुमक्क्ड़ी की तरफ मुड़ गयी।


थोड़ी देर आराम करने के बाद हमने शीश गुंबद घूमने और लेक की तरफ चलने का फैसला किया। हम उठे हमने कुछ फोटो खींचे। मेरे पास जो फोटोग्राफ्स थे उनमें सुशांत सिंघल जी नहीं थे। बात यह हुई थी कि उन्हें फोटोग्राफी का शौक है तो कम ही फोटो में वो थे। और वो फोटो मेरे पास नहीं थीं।



ग्रुप फोटो (फोटो ने सुशांत जी ने ली थी)
बैठकर चाय और चिप्स का आनन्द लेते हुए (फोटो सुशांत जी ने ही ली हैं)
लेक की तरफ बढ़ती घुमक्क्ड पार्टी



लेक की तरफ, मछली या टैडपोल, अठपुला, बतखें, खाना पीना , कुछ फोटोज और  सिकन्दर लोदी का मकबरा

च्चे भी लेक की तरफ जाने के लिए उत्साहित थे। शीश गुंबद के अंदर हम गए तो उधर लोग अलग मज़े ले रहे थे। कुछ लोग गा रहे थे। कुछ कब्र के चारो तरफ खड़े थे। कुछ फोटो खींचने में व्यस्त थे। हम थोड़ी देर उधर रहे और फिर लेक की तरफ बढ़ गए।


लेक की तरफ जाते हुए कुछ और फोटो लिए। सीढ़ियों पर भी फोटो खींची। फिर हम लेक की तरफ पहुँचे। लेक की तरफ जाते हुए एक जगह रुक गए। उधर एक तरफ कमल के फूल थे और दूसरी तरफ एक जगह पर कुछ जीव पानी में तैर रहे थे। उन्हें देखकर यह चर्चा होने लगी कि वो मछलियाँ हैं या टैडपोल। इसी के ऊपर थोड़ी देर चर्चा होती रही। आखिर में फैसला क्या हुआ? यह तो वही लोग बताएँगे। जहाँ तक मुझे ध्यान आ रहा है वो शायद टैडपोल थे।


थोड़ी देर उधर रुकने के बाद हम लोग लेक की तरफ चलने लगे। कुछ देर में हम अठपुला पार करके झील के दूसरे हिस्से में मौजूद थे। इधर बेंच लगी हुई थी। कुछ बतखें थीं जो सैलानियों के आकर्षण का केंद्र बनी हुई थी। इन बतखों को लोग खाना खिला रहे थे। बच्चे भी उनके तरफ आकर्षित हुए और बतखों के पास गए। वहीं पर बैठकर हमने लंच किया। सभी (मेरे को छोड़कर) कुछ न कुछ लाये थे और उसी को सबने मिल बाँटकर खाया। फिर थोड़े देर बाद फोटो सेशन हुआ। सुशांत जी इस दौरान फोटो खींचने में व्यस्त थे लेकिन आखिरकार वो भी आ गए थे। कुछ देर हम लोग इधर बैठे रहे। फिर निर्णय लिया कि अब बाहर जाया जायेगा। विनीता जी को जाना था तो वो इधर से चले गए थे। कुछ लोग उन्हें छोड़ने गए। उन्हें छोड़ने के बाद बाकि लोग अंदर आ गए और फिर हम सिकंदर लोधी के मकबरे में गए।


इधर कुछ लोग पेंटिंग करने में व्यस्त थे तो सभी ने उनसे थोड़ी बातचीत की। फिर मकबरे के सामने फोटो खिंचवाई गयी। और फिर हम सब लोग बाहर की तरफ बढ़ गए।

अठपुला

 

झील में मौजूद बतख

 

झील
झील के सामने फोटो

 

झील के सामने फोटो

 

सिकंदर लोधी के मकबरे का एक गेट जो बंद था।




मकबरे के सामने योगेंद्र जी और उनकी धर्मपत्नी







वापसी ,चाय की तलब और  मिलना मिलाना 

ब हमने सभी चीजों को देख ही लिया था।  अब वापस जा रहे थे। योगी भाई से मेरी बातचीत होती जा रही थी। मुझे इधर से १ बजे करीब निकलना था लेकिन तीन बज चुके थे। मैंने उनसे बात की और हमने यह निर्णय लिया गया कि वह जोर बाग़ ही आयेंगे। फिर उधर से देखा जायेगा कि क्या किया जाये।अब चूँकि फैसला हो गया तो हम बढ़ने लगे।


हम बाहर निकले। योगेंद्र जी चाय का जिक्र किया। मुझे जाना था लेकिन चाय का जिक्र हो और मैं न जाऊँ यह कहीं हो सकता था। हम लोग उसी टपरी की तरफ बढ़ चले जहाँ मैंने सुबह चाय पी थी। हम लोग जब बाहर आ रहे तो ऐसा हो गया था कि समूह के कुछ सदस्य पीछे रह गए थे। हमने चाय का आर्डर दे दिया था। कुछ देर में  सभी आ गए और चाय बढ़ाई गयी। उसी दौरान एक और घुमक्क्ड भाई रोहित यादव और उनकी अर्धांगिनी ऋतू जी (संजय कौशिक जी ने ही नाम ठीक करवाया) ने पार्टी ज्वाइन की। शायद वो सीधा एयरपोर्ट से आ रहे थे। बाकी सब उन्हें जानते थे लेकिन मेरा पहली बार परिचय हो रहा था। उनके लिए भी चाय मँगवाई गयी। सबने चाय पी। चिप्स भी खाये गए जो सुशांत जी खरीद लाये थे। गप्पे शप्पे मारी। पुरानी मुलाकातों को याद किया। नए के प्लान बने। 


चाय समाप्त हुई तो अब वापसी की बात हुई। 


इधर सभी का प्लान था कि वो सफदरजंग का मकबरा जायेंगे। सभी बातें करते हुए जा रहे थे।  मुझे देर हो रही थी। संजय कौशिक जी को भी देर ही रही थी तो हमने विदा ली और हम लोग बाकी लोगों की तुलना में तेज चलने लगे और कुछ ही देर में हम जोर बाग़ मेट्रो स्टेशन पर थे।




बाहर निकलते हुए लोधी गार्डन का साईट मैप देख लीजिये ताकि आयें तो याद रहे क्या क्या देखना है



योगी भाई से मुलाकात, खानदानी पकौड़े और दही भल्लों का स्वाद
योगी भाई से मैं लगातार कांटेक्ट में था। उन्हें मैंने बोला था कि मैं लोधी गार्डन से एक बजे करीब तक फ्री हो जाऊँगा लेकिन ऐसा हो नहीं पाया था। मुझे देर हो गयी थी। पहले हम दिल्ली गेट मिलने वाले थे लेकिन अब योगी भाई जोरबाग में ही हमे मिलते क्योंकि दिल्ली गेट की किताबों का बाजार तो वैसे भी बंद हो गया था। वो अब जोर बाग में आने वाले थे।

संजय कौशिक जी को भी ट्रैन पकड़ कर ही जाना था तो मैं भी उनके साथ ही हो लिया। हम लोग अब  उधर से मेट्रो की तरफ बढ़ने लगे। रस्ते में एक आध ऐसे अपार्टमेंट दिखे जिनमें पेंटिंग हो रखी थी तो मैंने उनकी तस्वीर खींच दी।

रास्ते में बात करते रहे। बातें घुम्मकड़ी और जॉब के दौरान जो इधर उधर जाना होता है उस पर आ गयी। रोहित भाई यूनाइटेड नेशंस में काम करते हैं और इस कारण हमेशा बाहर ही रहना होता है। संजय जी यही बता रहे थे कि शुरुआत में यह सब अच्छा  लगता है लेकिन फिर बार बार इधर उधर जाने  वाली जॉब से  ऊब सी होती है। हाँ, लोगों को हमेशा यही लगता है कि ऐसी जॉब वाले के मज़े हैं। उन्होंने बताया उन्हें भी ऐसा ही लगता था लेकिन उन भाई के अनुभव से पता लगा।मेरा भी एक दोस्त है जो टेलीकॉम सेक्टर में है। उसकी लाइफ भी ऐसी है तो मुझे ऐसी लाइफ का अनुभव उसकी बातों से हो जाता है। मैं समझ सकता था। फिर घुमक्क्ड़ी की बातें होने लगी। ऐसी ही बातें करते करते जोरबाग स्टेशन आ गया।

हम अंदर दाखिल हुए और योगी भाई हमे अंदर मिले। संजय जी को जाना था तो वो ट्रैन में चले गए। तब तक हमने फैसला ले लिया था कि सरोजिनी नगर जाकर खानदानी पकौड़े वाले के पकौड़े खाये जायेंगे। मैं इस जगह से परिचित नहीं था लेकिन योगी भाई थे तो क्या दिक्कत थी। वही मार्गदर्शक होने वाले थे।

हम आई एन ए उतरे और फिर पैदल ही पकौड़े वाले के पास गए। उस जगह पर दो तीन दुकाने थीं जहाँ से पकौड़े मिल रहे थे लेकिन एक ही दुकान के आगे काफी भीड़ थी। योगी भाई ने दुकान चुनी और फिर पकौड़े आर्डर किये और मैंने लस्सी ली।दुकान में इतनी भीड़ थी कि पकौड़ो का आर्डर देना भी किसी जंग जीतने से था।

योगी भाई किसी तरह पकौड़े लेकर आये और मैं लस्सी के गिलास लेकर लौटा।मेरे लिए मीठी और योगी भाई के लिए नमकीन। तीन चार तरीके के पकौड़े थे। पनीर के, आलू टिक्की और एक आध चाप भी थे सभी टेस्टी थे।

पकौड़े खाकर तृप्त हो गए।

“अब क्या किया जाए?” योगी भाई  ने कहा। हम कहते कहते उस दुकान से बाहर आ गए थे। तभी हमारी निगाह दही भल्लो पर पड़ी। हमारी नज़रें मिली और निर्णय हो गया कि दही भल्ले खाये जाएँ। उधर भी एक दुकान थी जिसके विषय में योगी भाई ने कहा था कि वह काफी प्रसिद्ध है। उसके दही भल्ले काफी प्रसिद्ध हैं। अब और क्या चाहिए था। पकौड़े हो चुके थे और अब हम दही भल्लों पर टूट पड़े।  दही भल्ले खाये और अब पेट शांत हुआ था। हाँ, दही भल्ले खाने के बाद मेरी नज़र एक बोर्ड पर पड़ी जिस पर लिखा था कि पुरानी दुकान वहाँ से दूसरी जगह शिफ्ट हो गए थी। ज्यादा दूर नहीं बस बगल में। यानी हमने उस दुकान के दही भल्ले नहीं खाये थे जो फेमस थे। यह देखकर मैंने योगी भाई को देखा।

“और कुछ खाना है?”,योगी भाई ने पूछा। मैं हाँ कहने वाला था कि मुझे याद आ गया कि मैंने आजकल अपनी डाइट को नियंत्रित करने का फैसला किया हुआ है। वैसे ही काफी कुछ खा लिया था। यही आज पच जाए तो बहुत था। और इसलिए अब हम वापस मेट्रो की तरफ बढ़ने लगे। वक्त भी हो चला था और मुझे घर जाना था।

रास्ते में मैंने केवल एक बार चाय ही पी थी जिसमें योगी भाई ने साथ नहीं दिया था।चाय पीकर मैं तृप्त हो गया था। अब हम बिना रुके मेट्रो की तरफ बढ़ने लगे। मेट्रो पहुँचे और अंदर दाखिल हुए।

 

अपार्टमेंट में तैरती मछली। ऐसे प्रयोग और होने चाहिए।




खानदानी पकौड़े वाले से पकौड़े ही पकौड़े और साथ में लस्सी

 

पकोड़ों के बाद दही भल्ले!! बहुत अच्छे
आप भी लो जी!! ठंडे ठंडे सॉफ्ट सॉफ्ट दही भल्ले

इस तरह एक और घुमक्क्ड़ी की समाप्ति हो गयी थी। उम्मीद है ऐसी फोटो वाक होती रहेंगी और मैं उनमें हिस्सा लेता रहूँगा।

एक सफर खत्म होता है तो दूसरे की शुरुआत हो ही जाती है। कम से कम मन के किसी कोने में योजना के बीज तो डल ही जाते हैं जो कि कालांतर में एक और घुमक्क्ड़ी को जन्म देते हैं। इस बार कौन सी घुमक्क्ड़ी मैं करने वाला था इसका मुझे पता नहीं था। बस मैं मेट्रो में था और अपने कमरे की तरफ बढ़ रहा था। योगी भाई उतर चुके थे और उनसे दुबारा मिलने का वादा कर लिया था। उनके साथ पहले भी एक बार भुक्क्ड़-घुमक्क्ड बना था। इस बार भुक्क्ड़ी और घुमक्क्ड़ी दोनों ही कम की थी लेकिन कोई नहीं आगे करनी थी।

जॉन कोरी भी साथ में था और हम दोनों को इस बात का पता लगाना था कि ओटिस पार्कर की मृत्यु के पीछे किसका हाथ था?
                                                                समाप्त

दुर्गेश भाई का अपना ब्लॉग और यू ट्यूब चैनल है जहाँ उन्होंने लोधी गार्डन की विजिट के विषय में लिखा है। आप जाकर भी उनके लिखे लेख और उनके बनाये वीडियो का आनंद उठा सकते हैं:

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#पढ़ते_रहिये_घूमते_रहिये #फक्क्ड़_घुमक्क्ड

दिल्ली की दूसरी घुमक्क्ड़ी के वृत्तांत आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
दिल्ली

© विकास नैनवाल ‘अंजान’

 

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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0 Comments on “जीडीएस फोटोवाक और योगी भाई के साथ एक मुलाकात”

  1. उस दिन की photowalk के बारे में मुंबई में बैठे बैठे इतना तो पता नही लगता है लेकिन आपके blog से काफी दिन की हलचल पता चल गई…बढ़िया रहा आपका मिलना और पकोड़े की तलाश….GDS के इवेंट में बहुत अच्छा लगता है…आपसे कही न कही GDS किस event में जरूर मुलाकात होगी….

  2. बाकी सब बढ़िया रहा लेकिन पकोड़े और दही भल्ले भक्षण वाली ह्रदय विदारक दुर्घटना आज पता चली अन्यथा 1 क्या 2 ट्रेन भी कुर्बान कर देता मैं उनके लिए ।
    खैर, आपसे "दुईबात" करके नई नई चार बात पता लगी । आनन्द आया ।

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