पुस्तक मेला समाप्त हो गया है। 4-14 जनवरी को चले साहित्य और पुस्तकों के इस महापर्व में मुझे भी काफी बार शिरकत करने का मौक़ा लगा। वैसे तो मैं हर साल ही पुस्तक मेले में शामिल होता हूँ लेकिन इस साल मामला अलग था। सूरज पॉकेट बुक्स और फ्लाई ड्रीम्स पब्लिकेशन के माध्यम से मुझे स्टाल्स लगाने से लेकर उसके संचालन देखने का अनुभव हुआ। मेले में तो मैं पहले भी आता था लेकिन स्टाल्स के बनने, लगने और सजने की प्रक्रिया देखना अपने आप में अलग अनुभव था। आम तौर पर मैं पुस्तक मेले में एक ही दिन जाना पसंद करता हूँ क्योंकि मुझे पता है जितने दिन मैं पुस्तक मेले में जाऊँगा उतनी किताबें अपने साथ उठा लाऊँगा। पर इस बार पुस्तक मेले में चार दिन जाने का मौक़ा लगा। इन्हीं चार दिनों का ब्यौरा दो पोस्ट्स के माध्यम से आपको दूँगा।
तीन जनवरी 2020, शुक्रवार
दो जनवरी को ही जयंत भाई रूम में पहुँच गये थे। तीन की शाम तक उन्होंने पुस्तक मेले के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले फ्लेक्स पोस्टर तैयार करवाने के लिए दे दिए थे। मैं दफ्तर में मौजूद था और उधर से जल्दी निकलने के लिए जुगत लगा रहा था। फिर भी काम करते करते छः बज गये और छः बजे के करीब मैं ऑफिस से निकला और घर की तरफ बढ़ गया। जयंत भाई तब तक रूम के नजदीक पहुँचने वाले थे।
जयंत भाई मिले और हमने कुछ खरीददारी की। सामान लेकर हम रूम तक गये और सामान रूम में रखकर हम लोग फ्लेक्स पोस्टर लेने के लिए चल दिए। फ्लेक्स के पोस्टर और स्टैंडी उठाकर हम बस स्टैंड की तरफ बढे। बस स्टैंड नजदीक ही था इसलिए पहले हमने पैदल जाने का निश्चय किया। लेकिन फिर बातों में मैं इतना मशगूल हो गया कि किसी गलत मोड़ पर मुड़कर हम लोग काफी दूर निकल आये। मैंने गूगल मैप खोला तो जो बस स्टैंड नजदीक लग रहा था वो अब इधर से डेढ़ दो किलोमीटर दिखा रहा था। हमे जल्दी पहुंचना था क्योंकि हमे सामान लेने पहले शकूरपुर जाना था और फिर उधर से प्रगति मैदान जाना था। ऐसे में पैदल चलने का कोई औचित्य नहीं था। जब चलते चलते लगा कि काफी गलत आ गए तो एक साइकिल रिक्शा करके हम बस स्टैंड की तरफ बढ़े। हम रिक्शे में बैठे थे और चालक जी, जो कि वयोवृद्ध थे साइकिल पर चढ़ रहे थे कि उनका पैर फिसला और वो बीच सड़क पर गिर गये। लेकिन जितनी तेजी से वो गिरे उतनी ही तेजी से वो उठ गये। उनको उठाने के लिए हम उतर रहे थे कि उन्होंने हमे बैठे रहने को कहा। शायद उनका पैर फिसल गया था। पहले तो हमे लगा कि वो नशे में हैं। मैंने यह तस्दीक की कि वह आगे बढ़ पाएंगे या नहीं और जब कन्फर्म हो गया कि वो चले चलेंगे तो हम लोग आगे बढ़े। वहाँ एक अच्छी बात यह हुई कि एक गाड़ी वाले व्यक्ति ने भी रूककर उनका हाल चाल पूछा जो कि यह दर्शाने के लिए काफी था कि अभी भी शहर में सभी लोग पत्थर दिल नहीं बने हैं। सब कुछ ठीक था तो हम लोग आगे बढ़ गये और कुछ ही देर में बस स्टैंड मौजूद थे। बस स्टैंड से हमने ऑटो लिया और सिकंदरपुर की तरफ बढ़ने लगे।
सिकन्दर पुर उतरे और फिर उधर से मेट्रो लेकर पहले आई एन ए की तरफ बढ़े और उधर से ट्रेन बदलकर शकूरपुर की तरफ बढ़ गये। दस बजे करीब हम शकूरपुर पहुँचे। आदित्य भाई के घर टेम्पो लगा हुआ था तो पहले किताबों के बॉक्स को टेम्पो में डाला और उसके बाद डॉली दीदी के हाथ का बनाया पालक की सब्जी, पनीर की सब्जी और रोटी(मक्के और गेहूँ) का आनन्द लिया। खाना खाने के बाद हम लोग उधर से सामान लेकर प्रगति मैदान पहुँचे। चूँकि टेम्पो एक था और उसमें आगे एक ही व्यक्ति आ सकता था तो हम लोग यानी मैं और जयंत भाई टेम्पो के अंदर थे। शुभानन्द सर टेम्पो के आगे ड्राईवर के बगल में बैठे हुए थे।
कहीं कहीं पर टेम्पो हिचकोले खाता तो झटके लगते। लेकिन सफर रोचक रहा। घुप अँधेरा था और हाथ को हाथ नहीं सूझता था। रह रहकर मुझे अनिल मोहन जी के उपन्यास रफ्तार की याद आ रही थी। उसमें भी एक टेम्पो था जिसके अंदर हीरे थे। इधर भी किताबें थी जो किन्हीं जेवरातों से कम तो नहीं ही थी।
प्रगति मैदान पहुँचे। कागजी कार्यवाही करके अंदर दाखिल हुए और उसके बाद अपने स्टाल तक गये। उधर मजदूर काम मांगने के लिए आये लेकिन चूँकि जयंत भाई ने टेम्पो ऐसी जगह खड़ा किया था जहाँ से हमारे स्टाल की दूरी कम थी तो हमे किताबें उठाकर ले जाने में कोई दिक्कत नहीं होनी थी।इसलिए खुद ही हम किताबों के बक्से स्टाल तक ले गये। जल्द ही हम लोग किताबों के डब्बे उठा उठाकर अंदर ले जाने लगे। कुछ इ देर में टेम्पो खाली हो चुका था और अब स्टाल में डिब्बो को सजाने की बारी थी।
तीन की रात को भी प्रगति मैदान कामगारों से भरा पड़ा था। स्टाल्स के लोग स्टाल्स लगाने में मशगूल थे और कई लोग स्टाल्स के चक्कर मारकर काम मांग रहे थे। सफाई का काम, पुस्तकें बाहर से लाने ले जाने का काम और इनके साथ ही चाय और मट्ठी वाले भी चक्कर मारते जा रहे थे। जिन स्टाल्स पर पाठको ने चार से आना था मैं उनके बनने की प्रक्रिया देख रहा था। कहीं पर थर्माकॉल के डिज़ाइन बन रहे थे, कहीं पर सजावट के कुछ सामान लगाया जा रहा था। कहीं पर धातु की छड़ियाँ वेल्ड की जा रही थी जो कि आखिर कार बड़े पोस्टर बनने थे। लोग बाग़ चार से बारह की तैयारी करने में मशगूल थे।
चीजों को बनते देखना हमेशा से ही एक सुखदायक अहसास रहा है। यहाँ भी तलीनता से जुते हुए लोगों को देखते हुए मुझे यही अहसास हो रहा था। हाँ, एक बार यह ख्याल भी आया कि यह लोग भी क्या इन किताबों को पढ़ते होंगे या इनके लिए यह केवल एक काम ही है। अगर पढ़ते होंगे तो अच्छा ही होगा क्योंकि जो किताबें नहीं पढ़ता वो नहीं जानता कि उनकी जिंदगी में क्या क्या चीजें मिस्सिंग हैं।
तीन की रात को डेढ़ दो बजे के करीब तक हम स्टाल सजाते रहे थे। मीत भाई और ब्रजेश भाई लोग जो कि साढ़े दस बजे एअरपोर्ट में आ गये थे वो भी प्रगति मैदान पहुँच गये थे। सभी ने स्टाल सजाने में मदद की। पोस्टर वगेरह लगाये गये, किताबों को बक्सों से निकाल कर इस तरह रखा गया कि उन्हें सुबह आसानी से निकाला जा सके।
जब यह निर्धारित हो गया चार के लिए काफी काम किया जा चुका था तो सब लोग अपने अपने डेरे की तरफ बढ़ चले। शुभानन्द जी अपने होटल की तरफ और हम चार मेरे घर की तरफ।
किताबों के डिब्बे लगे हुए और पोस्टर टाँगे हुए |
5 जनवरी 2020, रविवार
चार को मेरा पुस्तक मेले में जाना नहीं हो पाया क्योंकि मुझे कुछ व्यक्तिगत काम निपटाने थे। पाँच को मैंने जाने का फैसला किया। पाँच तारीक को जाना जरूरी इसलिए भी था क्योंकि पाठक साहब की कहानी का संग्रह तकदीर का तोहफा इस बार प्रकाशित की जा रही थी।
हिन्दी पल्प उपन्यास जब छपते थे तो उसमें उपन्यासों के अतिरिक्त कुछ कहानियाँ भी छापी जाती थी। जब किताब प्रिंट होती है तो एक निश्चित पृष्ठ किताबों में हो तो प्रकाशक को वो मूल्य के हिसाब से ठीक पड़ती है। इस कारण अगर उपन्यास का कलेवर कम होता है तो प्रकाशक उसमें फिलर के तौर पर कुछ कहानियों को जोड़ देता था। ऐसी कई कहानियाँ पाठक साहब ने लिखी थी। यह छोटी छोटी रहस्य कथाएँ काफी रोचक होती हैं। जब से डेलीहंट में मैंने इन रहस्यकथाओं के संकलन पढ़े थे तो मेरी यह इच्छा थी कि इन कहानियों को हार्ड कॉपी में भी होना चाहिए।
अब सूरज से यह आया है तो इसे लेना ही था। यही कारण था कि पाँच तारीक के लगभग बारह बजे मैं प्रगति मैदान में मौजूद था।
मैं सूरज के स्टाल पर गया जिधर सभी दोस्त खड़े मिले। पाठक साहब को आने में वक्त था तो मैं इधर उधर टहलने लगा। इसी टहलने के दौरान मेरी नजर वाग्देवी प्रकाशन के स्टाल पर गयी। इस प्रकाशन की कुछ किताबें काफी सस्ती हैं और मुझे यह चाहिए भी थी तो मैंने झट से इन किताबों को ले लिया। किताबों से भरा झोला लेकर मैं स्टाल पर वापस आया तो पाठक साहब आ गये थे।
वाग्देवी प्रकाशन से ली गयी पुस्तकें |
स्टाल पर काफी भीड़ आ गयी थी क्योंकि पाठक साहब के काफी फैन्स भी इधर मौजूद थे। पहले पुस्तक की साइनिंग होने लगी। मैंने भी अपनी प्रति पर हितेश भाई के माध्यम से हस्ताक्षर करवाए। लोगों की भीड़ जमी हुई थी और एक डेढ़ घंटे तक हस्ताक्षकर करने का कार्यक्रम चला। इसी कार्यक्रम में काफी लोगों से मुझे मिलने का मौका मिला। मैं धनपाल जी से मिला,कमल जोशी जी से मिला,दिनेश जी से मिला,अभिराज से भी मिला जो कि तीखर के स्टाल में खुद मौजूद थे पाठक साहब के इवेंट के लिए इधर आये थे और दूसरे एसएमपियन दोस्तों से तो मिला ही था। विशी जी से भी मिलना हुआ जिनके साथ हिन्द पॉकेट बुक्स में जाना भी हुआ। उधर से भी मैंने एक दो किताबें उठा ली थी। हिन्द वालो ने पुरानी ऐसी किताबों को पुनः प्रकाशित किया है जो कि काफी समय से आउट ऑफ़ प्रिंट थी। ख़ास बात यह है उन्होंने इन किताबों को पुराने आवरण चित्रों के साथ ही प्रकाशित किया है और इस कारण यह अलग से दिखती हैं। सभी के आवरण इतने आकर्षक थे कि मुझे सभी को लेने का मन कर रहा था लेकिन शुरुआत में मैंने दो ही किताबें ली।
सूरज पॉकेट बुक के स्टाल में मौजूद पाठक साहब |
तकदीर का तोहफा को देखते पाठक साहब |
फैन्स को हस्ताक्षर देते हुए |
फैन्स को हस्ताक्षर देते हुए |
फैन्स को हस्ताक्षर देते हुए |
तकदीर का तोहफा की मेरी प्रति |
दिनेश भाई, मीत भाई और मैं |
हिन्द पॉकेट बुक्स से ली कुछ किताबें |
भीड़ काफी हो गयी थी तो उसे मैनेज करने में थोड़ी बहुत दिक्कत भी हुई। ये पाठक साहब ही थे जिन्होंने सबके साथ इत्मिनान से बैठकर सेल्फी भी खिंचवाई और काफी किताबों पर हस्ताक्षर भी किये। बाद में वो थोड़ा थक भी गये थे। कार्यक्रम समाप्त हुआ तो पाठक साहब पुस्तक मेले से बाहर की तरफ बढ़े। यहीं पर संदीप अग्रवाल जी द्वारा लाये गये लड्डू और मिठाईयाँ बाँटी गयी। संदीप जी जब भी आते हैं स्वादिष्ट मिठाईयां लाते हैं। मज़ा आ जाता है। एक ग्रुप फोटो भी खींची गयी और उसके बाद सभी लोग पुस्तक मेले से बाहर की तरफ बढ़ गये।
बाकि लोग पाठक साहब के साथ ही बाहर चले गये थे और मैं वापस सूरज पॉकेट बुक्स के स्टाल की तरफ बढ़ चला। सूरज के बगल में ही वाणी प्रकाशन का स्टाल था। मैं उधर दाखिल हुआ और जाकर उधर मौजूद किताबें देखने लगा। काफी किताबें महंगी थी लेकिन घूमते हुए हरिशंकर परसाई जी का उपन्यास रानी नागफनी की कहानी ने मेरा ध्यान अपनी तरफ खींचा। मैं इसे कई दिनों से तलाश कर रहा था। यह किताब उठाने की देर थी कि फिर एक के बाद एक मुझे काफी किताबें दिख गयी जिन्हें मैंने उठाकर खरीद लिया।
वाणी से ली कुछ पुस्तकें |
मैं अपनी खरीदी किताबें लेकर सूरज के स्टाल में गया और उधर अपनी खरीदी पुस्तकों को रखा। देवेन्द्र पाण्डेय भाई भी तब तक इधर ही मौजूद थे। उन्होंने जो किताबें खरीदी थी वो मैंने देखी, मैंने जो ली थी वो उन्होंने देखी। इधर ही तनवी भी मौजूद थीं। देव बाबू उधर ग्राहकों के साथ लगे हुए थे। उनके कुछ फैन्स थे तो उनकी फोटो खींची। थोड़ा समय सूरज के स्टाल पर बिताया और फिर यहाँ से मैंने देव बाबू के साथ पुस्तक मेले में घूमने का प्लान बनाया। मीत भाई विश्व पॉकेट बुक्स के स्टाल, जो कि दस नंबर में था, से कुछ किताबें लेकर आये थे। मुझे वो किताबें पसंद आई थी तो मैंने उधर से कुछ किताबें लेने का फैसला कर लिया था। इस कारण मैं और देव बाबू हॉल नंबर 12 से बाहर आ गये।
देव बाबू के साथ हम लोग बाहर गये तो पहले तो हमने खाने का फैसला किया। सुबह से नास्ते के बाद हमने कुछ नहीं खाया था। बाहर जाकर हमने डोसा खाया। डोसा खाने के बाद एक कुल्फी मैंने खाई। पेट पूजा हो गयी थी और अब हम किताबों देख सकते सकते थे।
राजकमल के प्रकाशन में मौजूद देव बाबू |
पेट पूजा का सामान |
हम हॉल नम्बर दस में दाखिल हुए। इधर भी स्टाल्स की भरमार थी और काफी मशक्कत के बाद हमे विश्व बुक्स मिली। पुस्तक मेले में कोई स्टाल ढूंढना बड़ी टेढ़ी खीर होती है। मीत भाई ने हमे पता बताया था लेकिन हम स्टाल तक नहीं पहुँच पाए। फिर उन्हें फोन करके पता पूछा लेकिन फिर भी नहीं पहुँच पाए। ऐसे में हमे ध्यान आया कि इधर जगह जगह पर इन्क्वारी वाले बने हुए हैं। हमने ऐसे ही एक इन्क्वारी वाले को पकड़ा और उन्होंने जो रास्ता हमे बताया उसे ही पकड़ा। यह तरकीब काम आई और हम आखिरकार विश्व के स्टाल में पहुँच ही गये। विश्व के स्टाल में मुझे कुछ किताबें पसंद आ गयी तो मैंने वो ले ली। विश्व से हम बाहर निकले तो वापस सूरज के स्टाल की तरफ बढ़ने लगे। मैं और स्टाल्स में जाता तो और भी किताबें खरीद लेता इसलिए हमने बाहर निकलने का फैसला किया।
इसके बाद हम बाहर की तरफ निकल रहे थे तो एक जगह पर अंग्रेजी की पुस्तकों का स्टाल दिख गया। इधर सौ की तीन किताबें दिख रही थीं। मैंने खाली देखने का विचार बनाया लेकिन फिर देखते देखते जब इनमें से कुछ किताबें मुझे पसंद आई और एक देव बाबू को पसंद आई तो हमने इधर से छः किताबें ले ली। घूमते घामते हम लोग वापस सूरज पॉकेट बुक्स के स्टाल पर पहुँचे।
विश्व बुक्स से ली किताबें |
100 में 3 मिलनी वाली किताबों से कुछ किताबें। इस बार 5, 11, 12 को ऐसे स्टाल्स से इतनी किताबें खरीदी कि अब याद नहीं है कि कौन सी कब खरीदी। उनमें पाँच इधर मौजूद हैं। बाकि की अगली पोस्ट में दिखाऊँगा। |
फिर शाम तक जब तक मेले में मौजूद गार्ड्स भाई ने सीटी बजाकर स्टाल बंद करने का इशारा नहीं कर दिया तब तक हम इसी स्टाल नम्बर 182 में रहे।
पहले दो दिन ज्यादा घूमना तो नहीं हुआ लेकिन किताबें काफी ले ली थी। मैंने ज्यादा किताबें इसलिए भी नहीं ली थी क्योंकि मुझे मालूम था कि 11,12 को काफी पुस्तकें मैं ले लूँगा।
पुस्तक मेले से लौटते हुए मेट्रो में – देव बाबू, मीत भाई, देवेन्द्र भाई, जयंत भाई और मैं |
दिन भर की मेहनत के बाद डिनर खाते हुए |
पुस्तक मेले में एक दिन तो घूम आया था लेकिन फोटो ज्यादा नहीं खींच पाया था। पर एक बात का दिलासा मुझे था कि अभी तो इस पुस्तक मेले को एक हफ्ते और चलना था। आने वाले हफ्ते में भी कम से कम दो बार तो मेरा जाना होता ही तो मैं संतुष्ट था। आगे आने वाले दिनों में मुझे काफी फोटो खींचने का मौक़ा मिलने वाला था।
ऊपर आपने पुस्तकों की तस्वीरों को तो देख ही लिया है। अब एक बार उन किताबों की सूची भी देख लीजिये जिन्हें पाँच तारीक को मेले से मैंने खरीदा था।
वाग्देवी प्रकाशन
- आदम की डायरी – अज्ञेय
- लेखक का दायित्व – अज्ञेय
- कवि-मन – अज्ञेय (सम्पादक:इला डालमिया-कोइराला)
- लजवंती: बिज्जी की प्रेम कथाएँ – विजयदान देथा
- लेखक की आस्था – निर्मल वर्मा
- अरुणाचल यात्रा- कृष्णनाथ
- गुजरा हुआ ज़माना – कृष्ण बलदेव वैद
- सुनो परीक्षित सुनो – शिवप्रसाद सिंह
- खुले में खड़ा पेड़ – अज्ञेय
- लद्दाख में राग-विराग – कृष्णनाथ
- आखिर क्या हुआ.. – पंकज बिष्ट
- कुछ ज़िन्दगियाँ बेमतलब – ओमप्रकाश दीपक
- अँधेरे में इन्तजार – ज्योत्स्ना मिलन
- किन्नर धर्मलोक – कृष्णनाथ
- सफेद मेमने – मणि मधुकर
हिन्द पॉकेट बुक्स
- पुतली बाई – राम कुमार भ्रमर
- इंदुमती – सेठ गोविन्ददास
वाणी प्रकाशन
- बलचनमा – नागार्जुन
- सोनमा – येसे दरजे थोंगछी
- रानी नागफनी की कहानी – हरिशंकर परसाई
- सुरसतिया – महाश्वेता देवी
- झुण्ड से बिछड़ा – विद्यासागर नौटियाल
- श्रृंखलित – महाश्वेता देवी
- हीरो – एक ब्लू प्रिंट – महाश्वेता देवी
- बिल्लू शेक्सपीयर पोस्ट बस्तर – अनामिका
कुछ अंग्रेजी उपन्यास
- That deadman Dance – Kim Scott
- The Affair of the Bloodstained egg cosy – James Anderson
- Monsoon – Wilbur Smith
- The Lighthouse – P D James
- A spot of Bother – Mark Haddon
सूरज पॉकेट बुक्स
- तकदीर का तोहफा – सुरेन्द्र मोहन पाठक
क्या आप दिल्ली पुस्कत मेला 2020 गये थे? आपने उधर क्या क्या लिया? ऊपर दी गयी सूची में मौजूद कौन सी किताब आपने पढ़ी है?
समाप्त
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
बेहतरीन। आपके लेखन में रोचकता बनी रहती है इसलिए पता ही नही चलता की कब ख़तम हुआ।
दूसरे भाग का बेसब्री से इंतजार है।
लिखते रहे।।
आपकी डेडीकेशन को साधुवाद।।
आपके लेख के साथ पुस्तक मेला भ्रमण हो गया । बहुत सुन्दर सृजन ।
जी आभार।
जी आभार,मैम।
शानदार लेख ��
जी आभार।
बहुत सुंदर यादें, मैं थोड़ा लेट पहुँचा था
पुरानी यादें ताजा कर दीं।
जी आभार…
वाह। बहुत अच्छे। आपने पुरानी यादें ताजा कर दीं।।
जी आभार…
जी आभार…