सात दिसम्बर 2019
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कौसानी यात्रा 1
रात को मैं जो सोया तो सुबह आठ सवा आठ बजे ही उठा। मेरी आँखें खुली तो देखा राकेश भाई गले में कैमरा टाँगे मुस्करा रहे थे। हमने जो भी यात्राएं साथ की हैं उनमे हमेशा ही ऐसा होता रहा है कि वह पहले ही जग जाते हैं और मैं देर में जगता हूँ। इस बार भी कुछ अलग नहीं हुआ।
मैं बिस्तर से निकला तब वह बालकोनी की तरफ जाकर उधर से फोटो निकाल रहे थे। पूछने पर उन्होंने बताया कि उन्होंने सुबह छत पर फोटो खींचते हुए बिताई थी। सुबह सूर्य की पहली किरण जब सामने मौजूद हिमालय पर पड़ी थी तो वह स्वर्णिम आभा से चमकने लगा था। उस दृश्य को बयान करते हुए राकेश भाई बहुत ही प्रफुल्लित लग रहे थे। वह इस दृश्य को अपने कैमरे में उतार पाने के बाद बेहद खुश थे। उनकी यह यात्रा तो सफल हो रही थी। लेकिन जहाँ तक मेरा ख्याल था मुझे अभी सबसे ज्यादा जिस चीज की जरूरत थी वह एक कप चाय थी।
“चाय पियोगे?”,मैंने उनसे पूछा।
“नहीं मैं ऊपर ही पी आया”, राकेश भाई ने कहा।”जब आप घोड़े बेचकर सो रहे थे..”, उन्होंने आगे जोड़ा।
“मुझे फोटो वोटो खींचना पसंद नहीं है”, मैंने सफाई सी दी और बात का विषय बदलते हुए कहा- “चलो तैयार होना शुरू कर दीजिये। जब तक चाय आती है, रेडी हो जाओ। मैं चाय पीकर तैयार होऊंगा और फिर हम घूमने निकल चलेंगे।”
यह बात राकेश भाई को जम गयी और वो तैयार होने बाथरूम में घुस गये। मैंने चाय मंगवाई और अपना उपन्यास लाल घाट का प्रेत खोल दिया। उसके कुछ पृष्ठ ही पढ़े थे कि चाय भी आ गयी। मैंने चाय को थर्मस में लाने के लिए कहा था क्योंकि मैं चाहता था कि आराम से थोड़ा थोड़ा करके चाय का लुत्फ़ ले सकूँ। और मैंने यह भी नोट किया था कि थर्मस में जब वो चाय लाते हैं तो जरा ज्यादा ले आते हैं। जबकि कप में चाय कम आती है। यह भी हो सकता है कि चूँकि थर्मस से चाय निकालते वक्त मैं थोड़ा ही चाय निकालना पसंद करता हूँ तो शायद इस कारण मुझे चाय ज्यादा लगती हो।
खैर, मैंने कप में थोड़ी सी चाय निकाली और चाय पीने लगा। आनन्द आ गया। चाय पीने के दौरान मैं उपन्यास पढ़ता रहा और अनिल चौधरी,जो कि उपन्यास का नायक था, के साथ ही इधर उधर घूमता रहा। यह उपन्यास तन्त्र विद्या और प्रेतों के इर्द गिर्द बुना गया था तो पढ़ने में मजा आ रहा था। जब तक चाय पीना खत्म हुआ तब तक राकेश भाई तैयार हो चुके थे।
अब मैं आराम से राजाओं की तरह बिस्तर से उठा। पहले बालकोनी में जाकर नीचे की तरफ देखा। बाहर मौसम अच्छा हो रहा था। धूप निकलना तय था। आसपास का खुशनुमा माहौल मन को शांति पहुँचा रहा था। पेड़ पत्ते हरियाली,ताज़ी हवा और शांति वह सब कुछ इधर मौजूद था जिसकी तलाश में हम लोग इधर आये थे। बगल वाले कमरे के लोग भी बालकोनी में खड़े थे और उनके उल्लास सी भीगी आवाजे मुझे सुनाई पड़ रही थी। अच्छा लग रहा था। थोड़ी देर बाहर का आनन्द लेने के बाद मैं कमरे में वापस आ गया और तैयार होने लगा।
कुछ ही समय में मैं तैयार था। चूँकि मैं ब्रश लाना भूल गया था तो राकेश भाई से पेस्ट उधार लेकर ऐसे ही ऊँगली से खाना पूर्ती कर दी थी। पहले नहाने का मन नहीं था लेकिन जब राकेश भाई से पता चला कि गर्म पानी की व्यवस्था है तो नहा भी गया। बाहर आया तो तरो ताज़ा लग रहा था। थर्मस में चाय बची हुई थी तो मैंने वह चाय निपटाई।
इसी दौरान हमने फैसला कर लिया था कि हम नाश्ता इस होटल में नहीं करेंगे। सब कुछ करते करते वैसे भी दस सवा दस बज गये थे। नास्ता करते तो और देर हो जानी थी। हमने आगे जाकर बैजनाथ की किसी दुकान में नाश्ता करने का फैसला किया। हम लोग होटल से निकले और ऊपर होटल की छत पर पहुँच गये। उधर आस पास का नज़ारा इतना अच्छा था कि खुद को छत पर थोड़ी देर खड़े रहने से न रोक पाए। आस पास के नजारे को हमने जितना हो सकता था आँखों से पिया।
चलो चलें आज के सफर पर |
राकेश भाई होटल की छत पर |
होटल की छत से दिखता हिमालय |
छत से नीचे दिखता गाँववाला घर |
खूबसूरत रास्ते और बचपन की याद
हम लोग जब इधर, यानी होटल विशाखा, आये थे तो लाने वाले एजेंट साहब ने हमे बताया था कि बैजनाथ को जाने के लिए गाड़ी जिस सडक पर मिलेगी उसका शोर्ट कट होटल के बगल से ही गुजरता था। हमे बस एक बने बनाये रास्ते से,जो कि जंगल के बीच से होकर जाता था, चलकर जाना था। यह रास्ता इसलिए भी जरूरी था क्योंकि अगर हम बाज़ार वाले रास्ते से जाते तो हमारा सफर पाँच छः किलोमीटर बढ़ जाता क्योंकि हमे घूमकर जाना होता। लेकिन शोर्ट कट से हम बैजनाथ की तरफ चार पाँच किलोमीटर आगे ही निकलते। इसलिए हमने शाम को ही फैसला कर लिया था कि हम इसी शोर्टकट से जायेंगे।
छत पर हमने होटल वाले भाई से एक बार शोर्टकट के विषय में पूछा और उन्होंने हमे उस रास्ते तक छोड़ा जहाँ से हमे नीचे उतरना था। यह एक छोटी सी पगडंडी थी जो कि एक गाँव और एक जंगल से होकर गुजरती थी। बेहद मनमोहक रास्ते थे। मैं इन्हें अपने कैमरे में उतारने का प्रयत्न करता रहा। जगह जगह खड़े होकर हमने काफी फोटो खींची।
इस रास्ते को देखकर मुझे अपने स्कूल के दिनों की याद आ गयी। जब हम स्कूल में थे तो आखिरी पेपर के खत्म होने पर हम पैदल ही अपने स्कूल से घर तक आते थे। लेकिन हम स्कूल से घर सीधे सीधे सड़क से होकर नहीं आते थे बल्कि ऐसी ही पहाड़ियों से गुजरकर पहले ऊपर वाली सडक तक जाते और फिर उधर की सड़क से आगे बढ़कर ऐसी ही एक पहाड़ी से नीचे आ जाते। बड़ा मज़ा आता था। जब पौड़ी से हमे अपने गाँव जाना होता तो तब भी हम लोग ऐसे ही सफर करते। ऐसे ही रास्तों से होकर गुजरते। यह सब यादें मैंने राकेश भाई से भी साझा की।
ऐसे ही बातें करते करते हम कब सड़क पर पहुँच गये हमे पता ही न चला।
ये रास्ते ले जाएँ मुझे मंजिलो की तरफ |
ऐसे खूबसूरत हो रास्ते तो मंजिल की किसे है फ़िक्र |
चलना ही जिंदगी, बढ़ना ही जिंदगी |
चल चल रे नौ जवान, बढ़ बढ़ रे नौजवान |
ये पहाड़, ये वादियाँ, बुलाएं हैं मुझे, रिझायें हैं मुझे |
बाबू जी धीरे चलना, प्यार में जरा सम्भलना |
है एक स्वप्न के ऐसे जगह हो मेरा रहन |
कदम कदम बढाये जा |
बस पहुँच गये.. |
ध्यान से देखो तो दिखती है सड़क |
मन करता है बस देखता ही रहूँ , बस देखता ही रहूँ |
कर लो बाज मुट्ठी में
हम साढ़े दस बजे से थोड़ा पहले उतरना शुरू हुए थे और आधे घंटे की सफर के बाद के बाद सड़क पर मौजूद थे।सड़क पर हम पहुँचे तो हमे अहसास हुआ कि पेट में चूहे कूदने लगे थे। हमे लग गया था कि बैजनाथ पहुँचने तक हमसे सब्र नहीं ही होगा और इस कारण हमने सामने दिखते रेस्टोरेंट,होटल रीजेंसी, में नाश्ता करने का मन बनाया।
हम रेस्टोरेंट में दाखिल हुए तो रिसेप्शन पर एक व्यक्ति को देखा। उन्होंने स्वागत किया और हमने उनसे नाश्ते के विषय में पूछा। उन्होंने हमे बताया कि नाश्ता तो मिल जायेगा लेकिन चूँकि होटल अभी अभी ही खुला था तो अभी सफाई ही चल रही थी। ऐसे में ऊपर, जहाँ कि होटल का रेस्टोरेंट था, बैठना हमे शायद ठीक न लगे। लेकिन फिर भी वो एक बार हमे ऊपर दिखाना चाहते थे। हम ऊपर पहुँचे तो उधर की हालत जैसी उन्होंने बताई थी वैसी ही थी। सभी कुर्सियाँ उलटी करके मेजों पर रखी थीं और फर्श में पानी बिखेर कर वाइपर मारे जाने वाला था। ऐसे में उधर बैठा तो नहीं ही जा सकता था। हाँ, अगर कोई और वक्त होता तो उधर बैठकर खाने में मजा जरूर आता। छत खुली, हवादार थी। आस पास के नजारे ऐसे थे कि आँखें हटती ही नहीं थी। पर चूँकि हमारे पेट में चूहे कूद रहे थे तो हमें व्यू से ज्यादा खाने की पड़ी थी तो हमने रिसेप्शन में मौजूद विजिटर टेबल में ही नास्ता करने का मन बनाया।
नाश्ते का आर्डर दिया गया और हम लोग अब नाश्ता आने का इंतजार करने लगे। जल्द ही नाश्ता भी आया और हमने पेट भरकर नास्ता किया। मेरे लिए सादे पराठे और ओम्लेट था वहीं राकेश भाई के लिए आलू के पराठे थे। नाश्ता निपटाकर हमने खुद को चाय से तृप्त किया और उसके बाद रिसेप्शन पर मौजूद व्यक्ति का शुक्रियादा अदा करके और नाश्ते के पैसे अदा करके हम लोग रेस्टोरेंट से बाहर आ गये।
बाहर निकलने से पहले हमने रिसेप्शन पर मौजूद भाई से बैजनाथ के विषय में पूछा था तो उन्होंने हमे बता दिया था कि हमे होटल के सामने से ही बस मिल जाएगी। हमे बस थोड़ा इन्तजार करना होगा। यह सुनकर हम खुश थे।
हम बाहर निकले और बस का इन्तजार करने लगे। मैंने रेस्टोरेंट की फोटो ली और फिर इधर की कुछ फोटो लेकर सोशल मीडिया में व्यस्त हो गया। थोड़ी देर बाद मैंने नजर उठाकर देखा तो पाया कि राकेश भाई अपने कैमरे को आसमान की तरफ ताने क्लिक पर क्लिक किये जा रहे थे। मैंने उनके कैमरे की दिशा में देखा तो ऊपर उड़ते बाजों पर नजर पड़ी। राकेश भाई को पक्षियों की तस्वीर उतारने का शौक है और उन्हें जैसे ही बाज दिखे वो उन्हें अपने कैमरे में कैद करने लगे। जब तक बस नहीं आई तब तक वो इन पक्षियों को अपने कैमरे रुपी मुट्ठी में सम्भालने में व्यस्त रहे। और बस उन्हें देखता रहा क्योंकि मोबाइल से उन बाजों की फोटो लेने का कोई तुक नहीं था। लेता भी तो कुछ पता नहीं चलता।
होटल रीजेंसी में नाश्ता करने के बाद तृप्त हुए राकेश भाई |
होटल के बगल में यह खूबसूरत चाय चुस्की और मैगी पॉइंट थे। उस वक्त बंद था तो इसमें खाने का लुत्फ़ न ले पाए। |
दस पन्द्रह मिनट के बाद ही हमे एक बस आती दिखाई थी। बस को इशारा किया तो ड्राईवर साहब ने बस को रोक दिया और हम फट से उसमें चढ़ गये। हमे उधर सीट आसानी से मिल गयी थी तो एक एक सीट हमने लपक ली। और अब बैजनाथ की तरफ हमारा सफर शुरू हुआ।किसी मदमस्त हाथी की तरह कभी दायें घूमती, कभी बायें घूमती बस पहाड़ी घुमावदार सड़क पर दौड़ने लगी। हमे भी बस के साथ इधर से उधर घूमते रहते।
कौसानी से बैजनाथ सोलह सत्रह किलोमीटर दूर है। चूँकि रास्ता पहाड़ी था। फिर बस सवारी उतारकर और चढ़ाकर चल रही थी तो लगभग एक घंटे में हम लोग बैजनाथ पहुँच चुके थे। इस दौरान हमने आगे की यात्रा की योजना भी बना ली थी। हमे यह पता था कि कौसानी से ग्वालदम चालीस किलोमटर के लगभग है और बैजनाथ से लगभग तेईस किलोमीटर। राकेश भाई ने कल ग्वालदम की बात की तो मेरा मन उधर जाने का भी हो गया था। बैजनाथ चूँकि मन्दिर था तो हमने उधर ज्यादा वक्त बिताना नहीं था। हमने यह योजना बना ली थी कि जल्द से जल्द बैजनाथ करेंगे और फिर उधर से ग्वालदम के लिये निकल चलेंगे। वैसे एक बार को तो हमने यह भी सोचा था कि अगर जिस बस पर बैठे हैं वो ग्वालदम जाएगी तो पहले ग्वालदम ही चला जायेगा लेकिन फिर पता किया तो कंडक्टर साहब ने बताया कि हमे बैजनाथ उतरना ही पड़ेगा। उधर से ग्वालदम के लिए गाड़ी मिल जाएगी।ऐसे में पहले बैजनाथ देखना ही सही था।
बैजनाथ आया तो हमे उतार दिया गया। सामने हमे बैजनाथ की तरफ जाता बोर्ड दिख रहा था और वहीं पर मौजूद एक ढाबे में मुझे चाय बनती दिख रही थी। मैं यह सोच रहा था कि पहले किधर को जाऊँ।
पहुँच गये बैजनाथ |
सुबह का चमकता पहाड़ और मुट्ठी में किया बाज आप इधर देख सकते हैं |
क्रमशः
कौसानी यात्रा की सभी कड़ियाँ:
कौसानी ट्रिप 1
कौसानी ट्रिप 2
कौसानी ट्रिप 3
कौसानी ट्रिप 4
कौसानी ट्रिप 5
कौसानी ट्रिप 6
कौसानी ट्रिप 7
कौसानी ट्रिप 8
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
#फक्कड़_घुमक्कड़ #हिन्दी_ब्लॉग्गिंग #पढ़ते_रहिये_लिखते_रहिये
आपकी तरह ही मेरी भी आदत है भाई में सुबह सुबह नहीं उठ सकता में भी आराम से ही उठता हु और फिर चाय भी लगती है…बढ़िया निर्णय लिया आपने कि ग्वालदम जाए और बैजनाथ में मंदिर और चाय में से आपने किसको चुना इसको जानने की प्रतीक्षा रहेगी
जी आभार प्रतीक भाई। आप आते हैं ब्लॉग पर तो अच्छा लगता है। जल्द ही नई कड़ी लाने की कोशिश रहेगी।
प्रकृति के सानिध्य में व्यतीत समय की बात ही कुछ और है .
बहुत सुन्दर चित्रों के साथ बेहतरीन जानकारी .
जी सही कहा आपने मैम। आभार।
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार (10-04-2020) को "तप रे मधुर-मधुर मन!" (चर्चा अंक-3667) पर भी होगी।
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
जी चर्चाअंक में मेरी पोस्ट को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार। चर्चा में शामिल लिंक्स को पढ़ने का इन्तजार है।
जी आभार ओंकार जी….
बहुत सुंदर वर्णन है
जी आभार…
सुन्दर रचना