कौसानी यात्रा 1
पिछली कड़ी में आपने पढ़ा कि हम लोग बैजनाथ मंदिर देखने के पश्चात ग्वालदम जाने वाली गाड़ी में बैठ गये थे। डेढ़ बजे से थोड़ा पहले हम ग्वालदम के लिए निकले थे और ढाई बजे के लगभग ग्वालदम में पहुँच चुके थे।
अब आगे:
चाय नहीं पियूँगा!!
ग्वालदम के विषय में मैंने सबसे पहले राकेश भाई से तब सुना था जब कौसानी पहुँचकर इन्होने होटल एजेंट से इसके विषय में पूछा था। उस वक्त तो मैंने राकेश भाई से कुछ पूछा नहीं था लेकिन बाद में जब पूछा तो राकेश भाई ने बताया कि ग्वालदम से हिमालय की चोटी बहुत नजदीक लगती है। यह सुनकर मेरा भी ग्वालदम जाने का मन करने लगा था। और आज हम ग्वालदम में थे।
यहाँ तक जो सड़क हमे लायी थी उसमें इतने मोड़ थे और गाड़ी इतनी बलखाई थी कि मेरे पेट की हालत थोड़ा ठीक नहीं थी। मुझे अजीब सा होने लगा था। वही राकेश भाई नींद लेने के बाद चुस्त दुरस्त लग रहे थे। हम टैक्सी से उतरे और हमने आस पास नजर फिराई। यह एक छोटा कस्बा नुमा जगह थी। किधर जाना था हमे पता नहीं था लेकिन सबसे पहले राकेश भाई को चाय पीनी थी। हम लोग मार्किट से निकलती हुई एक सड़क पर बढ़ गये।
यहाँ एक छोटा सा ढाबा था जिसके बाहर कुछ कुर्सियाँ लगी हुई थीं। राकेश भाई उधर विराज गये। उन्होंने मेरी तरफ देखकर दो चाय का आर्डर दिया। मैंने चाय पीने से मना कर दिया। राकेश भाई की आँखों में मुझे हैरानी तैरती हुई दिखी। हैरानी मुझे खुद भी थी। आश्चर्यजनक रूप से मेरा चाय पीने का मन नहीं कर रहा था। शायद गाडी के पीछे बैठकर मुझे जो झटके लगे थे उन्ही के कारण ऐसा हुआ था। पेट अजीब सा था, थोड़ा उलटी आने जैसा हो रहा था और कुछ खट्टा या मसाले दार खाने का मन कर रहा था। पहले मन किया की एक कुरकुरे का पैकेट खा लूँ या लिम्का पी लूँ या दोनों चीज कर लूँ। जब मैं इस तरह महसूस करता हूँ तो अक्सर इन चीजों को खा पीकर राहत मिलती है लेकिन फिर मैंने इनमें से मैंने कुछ भी न करने का फैसला किया।
राकेश भाई जब तक चाय पी रहे थे तब तक मैं इधर उधर टहलने लगा। मैं सड़क पर सामने की ओर निकल गया। सामने ही मुझे एक हिमाच्छादित चोटी दिख रही तो मैं उसकी तरफ आकर्षित हो उसकी फोटो खींचने के लिए उस दिशा में बिक्लुल वैसे ही बढ़ रहा था जैसे एक बालक अपने बालसुलभ कौतुहल के चलते किसी चमकीली वस्तु की तरफ बढ़ता है। मैं आगे बढ़ा तो मेरा सफर खत्म हुआ। पेड़ों के झुरमुट के बीच से चोटी का कुछ ही हिस्सा दिखाई दे रहा था। सामने एक कंपाउंड था। उधर कुछ कुर्सियाँ लगी हुई थी। यह एक सरकारी दफ्तर सा प्रतीत हो रहा था। हो सकता था कि उस कंपाउंड में जाकर सबसे कोने में खड़े हो जाओ तो वह पहाड़ साफ़ दिखाई दे। यह किस चीज का दफ्तर था मैं जानना चाहता था। मैंने पहाड़ से नजर हटाकर आसपास डाली तो दिखाई दिया कि वह एक पुलिस चौकी थी। मेरे चलते क़दमों में ब्रेक लग गये। आगे जाकर फोटो नहीं खींची जा सकती थी। निराश मन से मैं वापस लौट आया।
चाय की दुकान से दिखता दृश्य |
एक सुखद आश्चर्य
हम मुख्य सड़क पर चल रहे थे। इस सड़क के दोनों तरफ दुकाने थी। ग्वालदम एक छोटा सा कस्बा है । बाज़ार के नाम पर कुछ दुकाने हैं। एक आध स्कूल होंगे। एक आध बैंक होंगे। एक कृत्रिम झील भी मुझे दिखी थी जिसके चारों और छोटे छोटे घर बने हुए थे। चलते हुए मैं सोच रहा था कि मैं वापस आते हुए इसके सामने रुकूंगा।
मुझे ऐसा लग रहा था जैसे मैं किसी जन्नत में हूँ। मेरा सपना रहा है ऐसे किसी छोटे से कस्बे में बसना। कस्बाई जीवन का धीमापन मुझे भाता है। मैं खुद कस्बे से आता हूँ शायद इसलिए भी ऐसा है । मुझे लगता है कि अच्छा जीवन आप कस्बे में ही बिता सकते हैं। आप उधर दिन को गुजरते हुए महसूस कर सकते हैं वरना शहरों की आपाधापी में तो कब जीवन गुजर जाता है पता ही नहीं लगता। बस भागते रहो! भागते रहो!
मुख्य सड़क पर आधा एक किलोमीटर तक चलते हुए हम लोग एक जगह पर पहुँच कर रुके। यहाँ से हमे पर्वत श्रृंखलाएं साफ़ दिखाई दे रही थी। वह पर्वत श्रृंखलाएं चमचमा रही थी और उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था जैसे वो हमे देख कर मुस्करा रहे हों। वातावरण में एक प्रकार की ठंडक थी जिसे महसूस करना मुझे अच्छा लग रहा था। जहाँ पर हम रुके थे वहाँ से शहर की तरफ मुड़ने पर एक सड़क ऊपर को जाती थी जहाँ कि एसएसबी का काउंटर इंटेलिजेंस और जंगल वारफेयर स्कूल है। यहाँ फौजियों को गुरिल्ला वारफेयर की शिक्षा दी जाती है। मैंने एक तरफ सड़क से ऊपर को देखा तो उधर ही कुछ इमारतें थी जहाँ शायद सेना के लोग रहते होंगे।
यहाँ हम जितनी देर तक खड़े हो सकते थे खड़े रहे। हमारे देखते देखते एक और व्यक्ति उधर आया और वह भी सामने दिखती चोटियों को अपने कैमरे में कैद करने लगा। हिमालय के अलावा सड़क ने नीचे दिखती एक जगह ने मेरा ध्यानाकर्षण किया। एक बार तो मन किया कि नीचे उधर चला जाए और एक रात वहाँ रुका जाए लेकिन ये करना मुमकिन नहीं था। हम ग्वालदम को केवल छूकर इस वक्त जा रहे थे। मेरे मन में उम्मीद थी कि कभी इधर कुछ वक्त जरूर बिताऊंगा। कम से कम एक या दो हफ्ते।
अब हम वापस जाने के लिए मुड़ गये।
ग्वालदम से दिखती त्रिशूल चोटी |
राकेश भाई द्वारा खींची गयी त्रिशूल पर्वत की फोटो |
नीचे दिखते घर जहाँ जाकर मेरे मन में रहने का ख्याल आया था |
ग्वालदम में मौजूद काउंटर इंटेलिजेंस और जंगल वारफेयर स्कूल |
उत्तराखंड चाय विकास बोर्ड का बोर्ड |
वापसी के रस्ते में हम लोग उस कृतिम झील के सामने भी रुके जो कि सड़क के किनारे ही थी। झील के आस-पास घर बने हुए थे जिन्हे देखकर मन में एक इच्छा जग रही थी कि काश इन घरों में अपना बसेरा होता। मैं धूप में बैठा इस झील को देखते हुए कहानियाँ लिखता, किरदारों की रचना करता और अपने काल्पनिक किरदारों को ग्वालदम के साथ गूंथ देता।
लेकिन यह भी मन के किसी कोने में यह भी उभरा कि तब शायद इनका महत्व खत्म हो जाता। हम जिस चीज के ज्यादा निकट होते हैं उसको ज्यादा नजरअंदाज करने लगते हैं। यह मेरा अब तक का अनुभव रहा है। और अगर मैं इधर रह रहा होता तो शायद मेरे साथ भी ऐसा ही होता। लेकिन अभी तो मैं कल्पना कर रहा था और इस कल्पना को करने में मेरा कुछ जा नहीं रहा था।
वापस चलते हुए मैं राकेश भाई को यही बता रहा था कि मेरी दिली इच्छा ऐसे किसी छोटे से कस्बे में गुजर बसर करने की है। कभी कभी मन में ख्याल आता है कि किसी बैंक वगैरह का फॉर्म भरना था ताकि किसी छोटे से कस्बे में रह सकूँ। खैर, ऐसे ही बातें हम करते रहे और चलते रहे। ऐसे में सड़क पर हमे कुछ बच्चे दिखे। इन बच्चों में से कुछ के पास मेडल्स थे और कुछ के पास ट्रोफी थी । शनिवार था और शायद उनके विद्यालय में कोई स्पोर्ट्स डे था। उन्हें देखकर मुझे अपने बचपन की याद आ गयी।
वैसे मैंने आजतक स्पोर्ट्स में कुछ जीता नहीं है लेकिन कईयों को जीतते हुए देखा है। चीजें न जीतने पर भी उस दिन मजा जरूर आता था। पढाई होती नहीं थी, खेलने वाले खेल में मशरूफ रहते थे और हम लोग अलग मटरगश्ती करते थे। मुझे याद है एक बार एक स्पोर्ट्स डे तो रांसी के स्टेडियम में भी हुआ था। खेलने वाले खेल रहे थे और हम लोग नजरे बचाकर जंगल के रास्ते पहले कन्डोलिया पहुँचे थे और फिर अपने घर। जंगल के रास्ते कन्डोलिया जाने का वह सफर अलग रोमांचक था। हम लोग अक्सर चीड़ के पत्तों को एक साथ इक्कठा करके उनकी गद्दी बनाते थे और फिर उस पर बैठकर फिसलते हुए पहाड़ से नीचे की तरफ बढ़ जाते थे। बहुत ही मजेदार अनुभव होता था। बीच में पेड़ रहते थे तो संतुलन खोने पर ज्यादा चोट नहीं आती थीं। जंगल हमारे लिए रहस्यमई होता था और उससे जुड़े कई किस्से हम लोग जंगल से गुजरते हुए एक दूसरे को सुनाते थे। उस वक्त क्योंकि जवान हो रहे थे तो इन किस्सों में जंगलों की झाड़ियों में कॉलेज के प्रेमी युगलों के प्रेमरत पकड़े जाने के किस्से ज्यादा होते थे। वहीं जंगलों में मौजूद भूत या जानवरों के किस्से भी एक दूसरे को डराने के लिए सुनाते थे और इससे यह सफर और रोमांचक हो जाता था। अगर जंगल में हमे किसी झाडी में सरसराहट होती दिखती तो पहले ख्याल आता कि इसमें प्रेमी जोड़े हैं और उसके बाद ख्याल आता है कि भालू या तेंदुआ है। और हम साँस रोके उस चीज के निकलने का इंतजार करते। अक्सर झा ड़ी से कोई चिड़िया ही निकलती। वह हमे टुकुर टुकुर देखती जैसे कह रही हो बेवकूफों तुम्हे किस बात की अपेक्षा थी और फिर फुदकते हुए अपने रास्ते हो लेती। फिर हम अपनी बेवकूफी पर हँसते हुए हम आगे बढ़ जाते। क्या यह बच्चे भी यह सब करते होंगे? इन्हें देखकर मैं यही सोच रहा था? करते तो होंगे। एक पहाड़ दूसरे से इतना भिन्न थोड़े न होता है। ग्वालदम पौड़ी से इतना भिन्न थोड़े न होगा।
वह झील जिसने मेरा ध्यान आकर्षित किया था |
ऐसे ही किसी कोटेज में बैठकर मैं अपना उपन्यास लिखना चाहूँगा |
ऐसे ही ख्यालों में खोये हुए आगे बढ़ते हुए हम वापस उस चौराहे में पहुँचे जहाँ से हमे गरुड़ के लिए टैक्सी मिलनी थी। उधर ही एक टैक्सी लगी थी जिसे चलने में वक्त था तो हमने उसकी आगे की सीट में अपना सामान डाला और फिर सड़क के सामने मौजूद एक दुकान पर चाय पीने चले गए। मेरे पेट की हालत अब ठीक थी और मुझे थोड़ा अच्छा लग रहा था। फिर काफी देर से हम चल रहे थे तो एक चाय तो बनती ही थी। इस बार चाय के साथ नमक पारे का स्वाद भी हमने चखा।
चाय पीते हुए और नमक पारे खाते हुए कुछ वक्त गुजारा। मैं उधर मौजूद लोगों को देख रहा था और उनकी भाषा समझने की कोशिश कर रहा था। यह जगह गढ़वाल से उतनी दूर नहीं थी तो भाषा का कुछ हिस्सा मुझे गढ़वाली सा लगा था। कुछ समझ आ रहा था कुछ नहीं। यह आम बात है। मेरी मंगेतर इधर नजदीक की ही हैं और उनकी गढ़वाली भी मुझे इतनी समझ नहीं आती है। यही हाल उनका है। उन्हें मेरी गढ़वाली समझने में काफी दिक्कत होती है। शब्दों को कहने का लहजा और थोड़ा व्याकरण भी अलग सा है। लेकिन यह चीज मुझे रोचक लगती है। चाय पीते हुए मैं यही सोच रहा था कि क्या मेरी मंगेतर को इधर की भाषा समझ आती होगी। शायद हाँ, क्योंकि दूरी मापी जायें तो पौड़ी से ज्यादा नजदीक ग्वालदम उनके लिए पड़ता है। मैंने बाद में उनसे इस बाबत पूछा था तो उन्होंने बताया था उनके गाँव के कईयों को यहाँ की भाषा समझ आ जाती है। यह बात मुझे रोचक ;लगी थी।
हमारी चाय खत्म हो गयी थी और अब गाड़ी में बैठना था। हम लोगों ने पैसे अदा किये और फिर टैक्सी की तरफ बढ़ चले।
ग्वालदम से गरूड़: एक शराबी, शूमार्कर और शिकायतकर्ता
कुछ ही देर में टैक्सी भर गयी और हम लोग गरूड़ के लिए बढ़ चले। घुमावदार सड़के और उनके दोनों तरफ हरे भरे पेड़ देखकर मन कर रहा था कि इनकी फोटो खींचता ही रहूँ। जहाँ जहाँ मौका लगा उधर कुछ तसवीरें खींची भी। सफर साधारण ही रहा।
हाँ,बीच में एक आध बार बस ड्राइवर साहब गुस्से में आ गए थे। एक बार तो उन्होंने किसी से बात करने के लिए गाड़ी रोकी तो एक पियक्क्ड़ उनकी गाड़ी के आगे आ गया और बोनट पीटने लगा। शायद वो उसे और उसकी हरकतो से वाकिफ थे इस कारण उसे खूब गाली भी सुनाई और खिड़की से हाथ भी चलाये।
इसके अलावा एक और चीज हुई। ड्राईवर साहब गाड़ी बड़ी तेज भगा रहा थे। सड़के घुमावदार थी तो कई मोड़ आ ही जाते थे। ड्राईवर साहब मोड़ों पर भी गाड़ी न तो धीमी करते और न ही हॉर्न देते। ऐसे में एक मोड़ पर अचानक से एक गाड़ी हमारे सामने आ गयी तो ड्राईवर साहब हकबका गये और उन्होंने मुश्किल से गाड़ी सम्भाली। दूसरे ड्राईवर को गाली बकी और फिर हमारी तरफ देखकर मुस्कराकर बोले- “यहाँ का रास्ता खतरनाक है। कई एक्सीडेंट हो चुके हैं इधर?” मैं उन्हें देखकर पहले थोड़ा मुस्कराया और फिर कुछ देर रुक कर बोला – “मोड़ों पर हॉर्न क्यों नहीं देते हैं आप?” यह सुनकर वह झेंप कर मुस्कराने लगे। उतनी गाड़ी की गति में कोई फर्क नहीं पड़ा था। हाँ, गाहे बगाहे अब वो हॉर्न जरूर देने लगे थे।
मुझे इन ड्राईवर साहब को देखकर माइकल शूमार्कर की याद आ रही थी। वह फार्मूला वन रेसर नहीं बल्कि हमारी स्कूल बस के ड्राईवर थे। जब मैं पौड़ी में पढ़ता था तो पौड़ी के कस्बे से स्कूल तीन किलोमीटर की दूरी पर था। हम स्कूल बसों से ही स्कूल जाया करते थे। इन्हीं बसों में से एक में एक ड्राईवर अंकल थे जिनकी दिली इच्छा बस को प्रकाश की गति से चलाने की जान पड़ती थी। उन्हें हम माइकल शूमार्कर कहते थे। उनका अंदाज भी निराला था। वह औसत कद के थोड़े गोल मटोल से बंदे थे। बाल हल्के भूरे और काले थे। दाड़ी जब उगी रहती थी तो उसमें हल्की सफेदी होती थी। वह कमीज पेंट पहनते थे। अक्सर उनके पैरों में हवाई चप्पल ही मैंने देखे थे। वह ड्राइविंग सीट पर जब बैठते तो अपनी चप्पलों को किनारे उतारकर एक्सलेरेटर और ब्रेक पर नंगे पाँव ही रखते थे। वैसे तो वह बहुत सौम्य प्रकृति के थे लेकिन ड्राइविंग सीट पर बैठने पर उनके अंदर न जाने क्या परिवर्तन हो जाता और उनकी गाड़ी हवा से बातें करने लगती थी। हम बच्चों की दिली इच्छा यही रहती कि हम लोग उनके सामने वाली सीट पर बैठे और गाड़ी को भागता हुए देखें। वह गाड़ी चलाने में बढ़े दक्ष थे। गाड़ी तेज जरूर होती थी लेकिन उनके नियंत्रण में होती थी। अब टैक्सी के ड्राईवर साहब जिस तरह से गाड़ी चला रहे थे उस चलाने के तरीके ने मेरे मन में अचानक ही माइकल शूमार्कर की याद ताज़ा कर दी।
इन दो घटनाओं के सफ़र में ऐसा कुछ नहीं हुआ जिसने ड्राईवर साहब को गुस्सा दिलाया हो।
बीच में एक बार एक अम्मा को गाड़ी में जरूर बैठाया गया। उन्हें सामने वाली सीट में ही बैठना था। अब सामने मैं और राकेश भाई बैठे ही हुए थे तो इस बार हमे एडजस्ट करना पड़ा और ड्राईवर साहब, राकेश भाई,मैं और अम्मा आगे वाली सीट में किसी तरह फंसकर आगे बढ़ने लगे। हमारी किस्मत अच्छी थी कि अम्मा को ज्यादा दूर नहीं जाना था। वह अपने गन्तव्य स्थान पर उतरे और हम लोग फिर से सामान्य रूप से बैठने को आज़ाद हो गये।
जब हमारे साथ आगे यह हो रहा था तो गाड़ी में हमारी सीट के पीछे वाली सीट में अलग ही ड्रामा खेला जा रहा था। पीछे वाली सीट में एक महनुवभव बैठे थे। उनके दफ्तर में कुछ छुट्टी का लोचा पड़ गया था। एक व्यक्ति बिना किसी को पूर्व इत्तेला किये छुट्टी पर चले गया था जिसके कारण शायद इन पर अतिरिक्त बोझ आ गया था तो वो उसकी शिकायत कर रहे थे। आधे सफर तक वो एक से दूसरे व्यक्ति तक फोन मिलाते रहे और उक्त व्यक्ति की शिकायत लगाते रहे। छुट्टी जाने वाले की खैर नहीं थी। उसका क्या होगा मैं यह सोचकर मुस्करा रहा था। दफ्तर में यह सब चलता ही रहता। मैंने भी कई लड़ाई झगड़े होते देखे हैं। न जाने लोग क्यों भूल जाते हैं कि हमे जब इतना वक्त ऑफिस में बिताना है तो लड़ झगड़ कर कोई फायदा नहीं है। उससे माहौल ही खराब होता है। सामंजस्य बनाकर चलो तो सब सही रहता है। शायद जो दूसरा व्यक्ति था वो अकड़ कर रहता हो। इनकी बातों से तो ऐसा ही लग रहा था लेकिन असल में क्या होता है यह कौन जान पाया है। ऑफिस में भी एक की चार और चार की चौदह लगाने वाले होते हैं। चाटवाले के पास उतना मसाला नहीं होता होगा जितना कि ऑफिस वाले बातों में लगाकर उस बात को आगे परोसते हैं। मैं उनकी बातें सुन रहा था और दफ्तरी उठा पठक का सजीव प्रसारण देख रहा था। ऑफिस भी एक जी जंजाल हो जाता है। उनके बगल में एक छोटी लड़की थी जो कि उनके साथ सफर कर रही थी। वह शायद उनकी बेटी थी और अपने पिताजी को शिकायत लगाते हुए सुन रही थी और शायद ऑफिस में क्या क्या होता है यह सीख रही थी।
ऐसा ही हमारा सफर चलता रहा और हम अपनी मंजिल तक बढ़ते रहे। बीच में एक दो जगह पहाड़ी शादी के प्रोग्राम भी हमे दिखे थे। पहाड़ी गीत हमे बजते हुए सुनाई दिए थे और टैक्सी से जाते हुए टेंट में मौजूद लोगों को और टेंट के बाहर खड़े बैंड वालों को ही हम देख पाए थे।
गाड़ी से चलते हुए खींची गयी एक फोटो |
बढ़ते हुए मंजिल की ओर |
चला चल चल मुसाफिर |
ये नीला आसमान, ये ऊंचे पहाड़ और ये खेत बुलाये हैं मुझे |
बढ़ते रहो! मंजिल तक रुकना नहीं |
गरूड़ से कौसानी: सफर, चाय और एक कहानी
गरूड़ तक पहुँचने में हमे लगभग पाँच बज गये थे। अब हमें कौसानी के लिए कुछ ढूँढना था। हमने काफी कोशिश की लेकिन कुछ मिला नहीं। जिन एक दो टैक्सी ड्राईवर से बात की उन्होंने बताया कि गाड़ी बुक करके जाना पड़ेगा। गाड़ी बुक करना महंगा ही पड़ता और हम दोनों ही इसके पक्ष में नहीं थे। उधर से कौसानी सोलह किलोमीटर के करीब है तो पैदल भी नहीं चला जा सकता था। हम थोड़ा परेशान थे। अब लग रहा था जैसे यही रहना पड़ेगा या पैदल निकलना पड़ेगा। एक दो नॉर्मल गाड़ियों से भी हमने पूछा था तो उन्होंने भी हमे ले जाने के लिए मना कर दिया था। राकेश भाई और हमने बातचीत की और सोचा कि इधर रुक कर अँधेरा होने तक देख लेते हैं। जाने की कोई व्यवस्था होती है तो ठीक है वरना इधर ही कहीं रहने का ठिकाना ढूँढ लेंगे। अब हम बस आती जाती गाड़ियों को देख रहे थे। ऐसे में हमे उधर से एक स्कूल बस आती दिखी। वैसे उससे कोई उम्मीद तो नहीं थी लेकिन फिर जब देखा कि उसमें स्कूल के लोग नहीं बल्कि आम लोग बैठे हैं तो मन में एक उम्मीद जगी । हमने इशारा किया और उन्होंने बस रोकी। हमने(यानी राकेश भाई ने) उनसे बातचीत की। किस्मत अच्छी थी क्योंकि उन्होंने सहर्ष ही हमे ले जाना स्वीकार कर दिया। वो सोमेश्वर घाटी की तरफ जा रहे थे और कौसानी हो कर जा रहे थे। अब हम बस में बैठ गए। अब यह तो निश्चित था कि कौसानी तो पहुँच ही जायेंगे।
बस में बैठे राकेश भाई |
बस मैं बैठा मैं |
बस चलने लगी और हम निश्चिंत होकर बैठ गये। राकेश भाई अलग सीट पर थे और मैं अलग सीट पर और हम दोनों अपने में ही खोये हुए थे। ड्राइवर साहब के बगल में एक व्यक्ति बैठा हुआ था जिससे ड्राइवर साहब कुछ दिनों पहले हुए एक्सीडेंट के विषय में बातचीत कर रहे थे। एक बस और ट्रक का एक्सीडेंट था। शायद रोडवेज की बस थी। उन्होंने बताया कि उस एक्सीडेंट में कितने लोग घायल हुए और कितने बचे। ज्यादा नुकसान नहीं हुआ था। शायद एक्सीडेंट किसी बाइक वाले के कारण हुआ था और इसलिए बातचीत का विषय बाइक हो गयी। वो बताने लगे कि उन्हें पहाड़ में बाइक चलाने में डर लगता है क्योंकि मोड़ पर कब कैसी गाड़ी आ जाये पता ही नहीं चलता है। ऊपर से बाइक वालों के एक्सीडेंट भी होते रहते हैं। जब तक वो भाई साहब उधर रहे तब तक ऐसी बातें होती रही। मैं उनकी बातें सुनता रहा। जब पौड़ी में था तो ऐसे एक्सीडेंट की खबर आये दिन सुनता था। कई गाड़ियाँ थोड़ी सी असावधानी के कारण रास्ते में पलट जाती थी। ऐसे ही एक एक्सीडेंट से जुड़ा एक किस्सा मुझे याद आता है।
मैं जब छोटा था(तीसरी चौथी में रहा होऊँगा) तो मेरा एक बड़ा भाई(ताउजी के लड़के) एक भैया के पास ट्यूशन पढ़ने जाते थे। वो भैया आई ए एस की तैयारी कर रहे थे और बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर अपना खर्चा चलाते थे। खैर, बात ये हुई कि उनकी नई नई शादी हुई थी और वो कहीं से आ रहे थे। वे बस से सफर कर रहे थे। अचानक बस का संतुलन बिगड़ा और बस पलटने को हुई। बस में अफरा तफरी मच गयी। भैया खिड़की की तरफ बैठे हुए थे। भैया ने अपनी पत्नी को देखा और उससे कहा कि अपनी जान बचा लेना। और फिर बिना कुछ आगा पीछे देखकर खिड़की के रास्ते बाहर कूद गए। अब हुआ यूँ कि बस का संतुलन बिगड़ा। पत्नी जी बस में ही रह गयी लेकिन बस सड़क से नीचे एक खेत में गिरी और पलट कर सीधी हो गयी। भाभी को कुछ नुकसान नहीं हुआ। किसी को भी नुकसान नहीं हुआ था। फिर दोनों पति पत्नी एक साथ वापस लौट आये थे।
उसके बाद भैया ने भाभी से नज़रे किस तरह मिलाई होगी यह सोचकर हमे बहुत हँसी आती थी। इतना तो भाभी को पता चल गया रहा होगा कि सात जन्मों का रिश्ता अभी इतना मजबूत नहीं है। यह किस्सा भैया ने ही हमे सुनाया था। हम बहुत हँसते थे यह सुनकर। अब इसके पीछे का कारण सोचता हूँ तो एक ख्याल यह भी आता है कि उनकी अरेंज मैरिज थी। शायद उस वक्त उनके अंदर पत्नी से उतना भावनात्मक लगाव नहीं रहा होगा और इस कारण भैया ने खुद की ही जान बचाने की सोची। क्या वो आज भी ऐसा ही करेंगे? शायद नहीं। वैसे ये भी हो सकता है कि है उन्हें उस वक्त टाइटैनिक के जैक की याद आ गयी हो जिसने बिना बात ही अपनी जान दे दी थी। खैर, इस किस्से ने उन दिनों हमारा भरपूर मनोरंजन किया था।
हमारा गरूड से कौसानी का सफर चलता रहा। कुछ ही लोग बस में थे। हम भी थे। मुझे संशय था कि बस वाले ने हमे ऐसे ही लिफ्ट दी है या वो हमसे पैसे लेंगे। लेकिन मैंने पैसे देने का मन बना ही लिया था। हमे उन्होंने भारी मुसीबत से जो निकाला था। अगर वो हमे न मिलते तो हमे अभी गरूड़ में ही रूम लेकर रहना पड़ता। जब हम कौसानी के नजदीक पहुँचे तो पहले हमे होटल रेजेंजी दिखा जहाँ हमने सुबह नाश्ता किया था। अब इतना तो पता चल गया था कि हम नजदीक थे। अगर रात न हुई होती तो इधर से ही होटल तक चले जाते लेकिन रात में यह सफर करना ठीक नहीं था। कौसानी के चौराहे पहुँचने में ही भलाई थी।
रेजेन्सी के बाद सड़क घूम कर ऊपर की तरफ बढ़ रहे ही। हमे इधर से ही पहाड़ी पर एक टिमटिमाती हुई बिल्डिंग नजर आई। मुझे लग रहा था कि वह हमारा होटल है लेकिन राकेश भाई को ऐसा नहीं लग रहा था। इसी बात को लेकर हमारी चर्चा होती रही।
आखिरकार हम कौसानी पहुँचे। हमने ड्राइवर साहब का शुर्किया अदा किया और साथ में पैसे भी दिए। हम बस से उतरकर अब उसी चौराहे पर खड़े थे जहाँ हमे एक दिन पहले होटल के एजेंट मिले थे। मुझे चाय की तलब लगी थी लेकिन सभी दुकान बंद नजर आ रही थी।अब क्या कर सकते थे। चाय अब होटल में जाकर ही नसीब होनी थी। हमे एक जनरल स्टोर खुला मिला और हम उसकी तरफ बढ़ गये। मुझे टूथब्रश और कुछ बिस्कुट खरीदने थे। चाय के साथ खाने के लिए कुछ तो चाहिए था। हम जब यह सामान खरीद रहे थे तो उधर ही हमे हमारे एजेंट साहब मिल गये। उन्होंने हमे होटल छोड़ने की पेशकश की तो हमने उन्हें बताया कि हम उधर चलकर पहुँच जायेंगे। वैसे भी ज्यादा दूर जगह नहीं थी और मौसम ठंडक लिए बेहतरीन हो रखा था। ऐसे मौसम में चलने का अपना मजा होता है। उन्होने हमसे यह भी पूछा कि हमे सुबह किधर जाना है। जब हमने रामनगर बोला तो उन्होंने सलाह दी कि सुबह आठ बजे हम यहाँ बाज़ार पहुँच जाए ताकि हमे उधर जाने के लिए बस मिल जाये। हमने उन्हें तो हाँ बोल दिया लेकिन मैं मन ही मन जानता था कि यह होना मुमकिन नहीं था। मैं इतनी जल्दी उठ नहीं सकता था और उठकर तैयार नहीं हो सकता था।
हमने सामान लिया और होटल की तरफ बढ़ने लगे। होटल के रास्ते में चलते हुए हमे एक चाय की दुकान मिली। मेरी तो यह देखकर बांछे खिल गयी। एक महिला उधर अपनी पड़ोसन से बात कर रही थीं। जब हमने उनसे चाय के लिए पूछा तो उन्होंने बनाने की बात की। हमे कौन सा कहीं जाना था। हम बैठकर चाय बनने का इन्तजार करने लगे। चाय मिल रही थी तो बिना पिए जाना बनता नहीं था। चाय वाली महिला का एक कुत्ता भी उधर था जो कि बड़ा क्यूट था। राकेश भाई उसके साथ खेलने लगे। हमारी चाय आई और हम चाय पीने लगे। अगले दिन की योजना पर भी बातें होने लगी। हमने चाय खत्म करी, महिला का शुक्रियादा किया, पैसे अदा किये और होटल की तरफ बढ़ने लगे।
रात हो चुकी थी। सड़क के दोनों तरफ जंगल और इक्का दुक्का घर, लॉज इत्यादि थे। दाहिने और पहाड़ों पर घरों में ब्लब जल गये थे और वह टिमटिमा रहे थे। तापमान कम था। हम चल रहे थे तो इतनी ठंड नहीं लग रही थी। यह माहौल कहानी सुनाने को बेहतरीन था। मैंने कई महीनो से मन में पक रही एक कहानी राकेश भाई को सुनाई। उन्होंने सुनी और बोला कि यह तो जूनून मूवी की तरह लग रही है। मैंने उन्हें देखा। अँधेरा था इस कारण शायद उन्हें मेरे चेहरे पर उभरे भाव शायद न दिखे हों। मैंने जूनून मूवी नहीं देखी है। बचपन में देखी हो तो पता नहीं लेकिन अभी याद नहीं है। खैर, दुःख हुआ यह जानकर। उन्हें भी शायद मेरे मन के भाव पता लग गये और उन्होंने बोला कि बिल्कुल भी वैसी नहीं है लेकिन थीम उस जैसा है। यह सुनकर मुझे राहत मिली। अब मैंने अपनी कहानी को पूरा करने का मन बना लिया था। लिखकर ही जूनून देखी जाएगी। मैं अब टॉपिक बदलना चाहता था इसलिए मैं उन्हें अलग अलग तरह के हॉरर की शैलियों के विषय में बताने लगा जैसे स्लेशेर, क्रीचर फीचर, हॉन्टेड हाउस इत्यादि। उनसे ज्यादा मैं खुद को तसल्ली दे रहा था कि मेरी कहानी मेरी अपनी थी। फिर ऐसे ही बातों का सिलसिला दूसरी तरफ मुड़ गया।
हम बातें करते हुए चलते जा रहे थे। कभी कभी कोई होटल और उसमें जल रही रोशनियाँ अँधेरे को थोड़े देर के लिए हम करती और फिर जब हम होटल पार कर देते तो अँधेरा हमे अपने आगोश में दोबारा ले लेता। चलते हुए हमे वो होटल भी दिख गया जो हमे सड़क पर कौसानी की तरफ आते हुए दिखा था। वह हमारा होटल नहीं था। हम काफी देर से चल रहे थे और हमारा होटल नजर नहीं आ रहा था। मैंने राकेश भाई से पूछा कि क्या हो हम ऐसे ही चलते रहे और हमारा होटल कभी आये ही नहीं। वो बस मुस्करा दिए। ऐसे ही तरह तरह की बातें कर हम आगे बढ़ते रहे और आस पास देखते रहे। जंगल इतने घने नहीं थे लेकिन फिर जानवरों का क्या पता चलता है। पहले दिन हम क्योंकि स्कूटर में गये थे तो रास्ता छोटा लगा था लेकिन अब एक तो रात का वक्त था और दूसरा हम पैदल जा रहे थे तो रास्ता ज़रूरत से ज्यादा लम्बा प्रतीत हो रहा था। हमारे पास चलने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं था।
आखिरकार रास्ता खत्म हुआ और हम लोग अपने होटल पहुँचे। हमने राहत की साँस ली। अब हम होटल की छत पर खड़े थे और सामने पहाड़ों को देख रहे थे। पहाड़ों में मौजूद घरों की जलती रोशनियाँ बेहद सुंदर लग रही थी। राकेश भाई ने मुझे बताया कि कम लाइट में फोटो कैसे ली जाती है। यह बड़ा धैर्य का कार्य होता है। उनके अनुसार आई एस ओ कम करके और शटर स्पीड बढ़ाकर काम किया जाए तो अच्छी फोटो आएगी लेकिन इसके लिए एक अच्छा ट्राई पोड ही चाहिए होता है क्योंकि अगर इस दौरान कैमरा थोड़ा सा भी हिला तो फोटो बिगड़ कर धुंधली हो जाती है। उन्होंने अपना सेट अप तैयार किया। मेरा फोन बैटरी कम होने के चलते कोमा में जाने वाला था तो मैं रूम में चला गया। मुझे फोन को चार्ज पर लगाना था। फोन चार्ज पर लगाने के बाद मैं फ्रेश होने लगा। फ्रेश हुआ और फिर पढ़ने के लिए उपन्यास निकाल दिया। तब तक राकेश भाई भी आ चुके थे। उन्होंने फोटो मस्त खींचे थे। उन्हें देखकर मैं भी लालायित हो गया लेकिन ट्राइपॉड के न होने के कारण फोटो धुंधली ही आनी थी तो मैंने फैसला किया की कभी ट्राइपॉड के साथ फोटो खींची जाएगी। तकनीक तो मुझे पता चल गयी थी।
अब राकेश भाई फ्रेश होने गए। वो लौटे तो हमने चाय और चिकन पकोड़ों का आर्डर दिया। वो आया और हमने खाया। चिकन पकोड़े बहुत स्वादिष्ट बने थे। चाय इस बार क्राफे में आई थी तो काफी चाय थी। चाय पीते हुए मैं आराम से लाल घाट के प्रेत पढ़ने लगा। अनिल चौधरी के अनुभव वाकई रोचक थे। उसके साथ ही मेरा वक्त बीतने लगा। राकेश भाई अपने फोन पर व्यस्त हो गये। वह फेसबुक और व्हात्सप्प में कोई क्विज खेल रहे थे।
आर्डर देते राकेश भाई, मेरा उपन्यास मेरे आने का इंतजार करता हुआ |
चाय और स्नैक्स |
जब चाय आई थी तो हमने खाने का आर्डर दे ही दिया था। खाना आने तक मैं उपन्यास में ही खोया रहा। आठ बजे करीब खाना भी आ गया। मेरे लिए दाल चावल और राकेश भाई के लिए रोटी और सब्जी। हमने भोजन किया। भोजन स्वादिष्ट बना हुआ था। भोजन के उपरान्त चाय पीने का मन होने लगा तो हमने एक और बार की चाय मंगवाई। फिर चाय पीते पीते ही मैंने उपन्यास पढ़ने में खो गया।
खा लो जी खाना |
राकेश भाई खाना खाकर लेट गए थे और कुछ देर में सो गए थे। उपन्यास पढ़ने के दौरान मुझे भी नींद आने लगी। मैंने घर वालों से एक बार बात की। बात करने के लिए मैं बालकोनी में गया। बाहर पहाड़ पर मौजूद घरों के जलते बल्ब ऐसे लग रहे थे जैसे कई जुगनू पहाड़ की सतह पर विराजमान हो। घर बात करने के बाद मैंने पहाड़ की तस्वीर उतारने की कोशिश की। आई एस ओ को कम किया। शटर स्पीड को बढ़ाया। और फिर क्लिक किया। लेकिन चूँकि मेरे पास ट्राईपोड नहीं था तो हाथ हिलना ही था। हाथ हिला और फोटो धुंधली सी आई।
मैंने फोटो देखी और मेरे होठों पर एक मुस्कान तैर गयी। क्या यह फोटो मेरे जीवन को नहीं दर्शा रहा था। मेरा जीवन भी तो इतना धुंधला ही है। कुछ भी साफ़ कहाँ दिखलाई देता था? मैं बस इस धुंध में भटक रहा था? क्या यह धुंध कभी छ्टेगी? फोटो की धुंध तो एक ट्राईपोड से हट जायेगी लेकिन मेरे जीवन की धुंध? क्या मुझे भी कोई ट्राईपोड मिलेगा जो मुझे संतुलित कर सके और मेरे आँखों पर छाई इस धुंध को साफ कर सके?
ऐसे कई प्रश्न मेरे मन में उमड़ने घुमड़ने लगे? मैंने एक गहरी साँस छोड़ी और अपने बिस्तर को देखा….
(हा हा…. कैसा लगा आपको ? अरे मैं इतना दार्शनिक नहीं हूँ। बस ऐसे ही आप लोगों की टांग खींच रहा था। मैंने फोटो देखी थी तो मुझे पता चल गया कि जिसका काम उसी को साजे और करे तो बुद्धू बाजे।)
फिर अपनी बेवकूफी पर मुस्कराता हुआ मैं बिस्तर की तरफ बढ़ गया। थकान लग रही थी। आज का सफर बेहतरीन कटा था। मैं अब सोना चाहता था। मैं बिस्तर में लेट गया और आज के सफर के विषय में सोचने लगा। पहाड़ों से उतरना, फिर नाश्ता करना, बस का सफर, बैजनाथ का सफर, ग्वालदम और वापिस। काफी अनुभवों को मैंने इकट्ठा कर दिया था। मैं संतुष्ट था।
जीवन की धुंध को दर्शाती एक कलाकृति!! |
अपने लिए साधारण कैमरा ही ठीक है भाई |
राकेश भाई का कमाल |
सुबह क्या करना था यह मैं सुबह ही सोचना चाहता था। मुझे पता ही नहीं चला कब मैं निंदिया रानी की गोद में चला गया।
क्रमशः
राकेश भाई का इन्स्टा हैंडल:
ghumakkad_rakesh
राकेश भाई को फेसबुक पर भी follow कर सकते हैं। वो बेहतरीन फोटोज पोस्ट करते रहते हैं:
राकेश शर्मा
कौसानी यात्रा की सभी कड़ियाँ:
कौसानी ट्रिप 1
कौसानी ट्रिप 2
कौसानी ट्रिप 3
कौसानी ट्रिप 4
कौसानी ट्रिप 5
कौसानी ट्रिप 6
कौसानी ट्रिप 7
कौसानी ट्रिप 8
उत्तराखंड की मैंने दूसरी यात्राएँ भी की हैं। वो यात्रा वृत्तांत आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सकते हैं:
उत्तराखंड
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
#फक्कड़_घुमक्कड़ #हिन्दी_ब्लॉग्गिंग #पढ़ते_रहिये_लिखते_रहिये
बहुत बढ़िया। शानदार लिखते हैं आप।
जी आभार सर।
बहुत सुन्दर यात्रा वर्णन और उतनी ही सुन्दर फोटोज । दोनों के मिश्रण ने लाजवाब यात्रा वृत्तांत तैयार कर दिया इसके लिए आपको व राकेश भाई को बहुत बहुत बधाई ।
जी, आभार मैम। इस यात्रा में तो हम बस कौसानी को छूकर ही आ पाए थे। भविष्य में ऐसी यात्रा की योजना है कि उधर ही कम से कम एक हफ्ता बिताया जा सके। बेहद खूबसूरत जगह है कौसानी, ग्वालदम का इलाका।
पहाड़ो में अक्सर ऐसे ही गाडी चलते है मुझे भी पहाड़ो में शुमाकर जैसे लोगो के साथ बैठने में डर लगता है…..चाय मेरी घूमक्कड़ी का imp हिस्सा है अब लग रहा है कि आपकी घूमक्कड़ी का भी अभिन्न हिस्सा है….जिस कॉटेज को देख कर आपको उपन्यास पढ़ने का मन किया वो ही डाक बंगला है झील के पीछे….ssb सेंटर के सामने जहा से आपने फोटो लिए वो पॉइंट फेमस है त्रिशूल दर्शन के लियव वहा से वान भी दीखता है….पौड़ी में आपका गाव कौनसा है और आपके ससुराल वाले गाव का क्या नाम है…बढ़िया लेख
वाह! उस कॉटेज में रुकने की व्यवस्था भी होती होगी फिर तो। मैं उधर रहना चाहूँगा। मैं उपन्यास लिखने की बात कर रहा था। एक आध हफ्ते जिंदगी की आपाधापी से फुर्सत मिले तो जो उपन्यास लिख रहा हूँ वो पूरा हो जाए। जी हम लोग उधर कुछ ही देर के लिए थे और वान के विषय में पता नहीं था तो त्रिशूल ही देखकर संतुष्ट हो गये। पौड़ी कस्बे में ही मेरा घर है। ससुराल थराली के निकट है।
बहुत सुंदर यात्रा वर्णन एवं सुंदर फोटोज।
वृत्तांत आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा मैम। वह जगह ही इतनी सुंदर थी कि फोटोज खींचने के लिए मुझे ज्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ी। धन्यवाद मैम।