इनसान

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हम ढूँढते रहते है आपस में समानता,
ताकि बँट सके फिर समूह में,
कह सके किसी को अपना
कह सके किसी को बेगाना
कहते हैं होता है आदमी सामाजिक प्राणी,
फिर न जाने क्यों बांट देता है वो खुद को,
असंख्य टुकड़ों में,
कभी धर्म के नाम पर,
कभी जाति के नाम पर,
कभी भाषा के नाम पर,
कभी रंग के नाम पर,
यही नहीं रुकता है वो,
खुद को बांट कर न पाता है जब चैन,
अपनी बेचैनी मिटाता है फिर बाँट कर,
भाषा को धर्म के नाम पर,
खाने को धर्म के नाम पर,
कपड़ों को धर्म के नाम पर,
ताकि अपनी नफरतों को पोस सके
उनमें अपना वजूद तलाश सके

© विकास नैनवाल ‘अंजान’

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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0 Comments on “इनसान”

  1. सही कहा विकास जी की आज इंसान ने अपने आप को इतनी जगह बांट दिया हैं कि उसका मूल रूप कहीं खो गया हैं। सुंदर प्रस्तूति।

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