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बुक हॉल अप्रैल 2022 #2: कुछ किताबें हिन्द युग्म कीं और फिक्शन कॉमिक्स का सेट |
पिछली पोस्ट मैं मैंने बताया कि कैसे कुछ ऐसी किताबें मेरे पास अप्रैल में पहुँची जो कि मैंने नवंबर में ऑर्डर की थी। पर अप्रैल 2022 में मेरे पास आने वाली सभी पुस्तकें ऐसी नहीं थी। अप्रैल में मेरे पास किताबें मुख्यतः तीन खेपों में पहुँची। ऐसे में यही सही रहेगा कि मैं इन खेपों के विषय में आपको बतलाऊँ।
वैसे इस बार खास बात ये थी कि यह सभी किताबें अप्रैल के आखिर के दो हफ्तों में ही आई थीं।
तो चलिए ज्यादा देर न करते हुए जानते हैं कि अप्रैल में आई ये कौन सी किताबें थीं। चूँकि इस बार किताबें ज्यादा आई हैं तो मैंने फैसला किया है कि दो अलग अलग पोस्ट में इनके विषय में बताना सही रहेगा। इस पोस्ट में कुछ किताबों के विषय में लिखूँगा और कुछ के विषय में अगली पोस्ट में लिखूँगा।
साहित्य विमर्श से ली सहचर की किताबें
साहित्य विमर्श प्रकाशन से इस बार मैंने ग्राहक के रूप में चार पुस्तकें और मँगवाई है। वहीं इसमें खास बात ये है कि यह चारों ही पुस्तकें साहित्य विमर्श से प्रकाशित नहीं है। साहित्य विमर्श प्रकाशन ने हाल ही में अन्य प्रकाशनों की पुस्तकें अपने पोर्टल में रखना शुरू कर दिया है और काफी वाजिब दामों में वह यह पुस्तकें मुहैया करवा रहा है तो सोचा क्यों न मैं इसका फायदा उठाऊँ और ऐसी पुस्तकें लूँ जो कि मुझे लेनी ही थी। तो इसलिए चार पुस्तकें मैंने मँगाई। ये चार पुस्तकें निम्न हैं:
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साहित्य विमर्श से मँगवाई अन्य प्रकाशन की किताबें |
लप्पुझन्ना
अगर आप हिन्दी ब्लॉगिंग से जुड़े हैं तो शायद आपने
अशोक पाण्डे का नाम सुना ही होगा। अशोक पाण्डे अपने ब्लॉग
कबाड़खाना और
लपूझन्ना के लिए पाठकों के बीच में प्रसिद्ध थे। आजकल वो उत्तराखंड से जुड़ी वेबसाईट
काफलट्री से भी जुड़े हुए हैं। वहीं फेसबुक पर भी वो निरंतर लिखते रहते हैं जहाँ पर उनके पाठक उन्हें बड़े चाव से पढ़ते हैं। लपूझन्ना उनका लिखा हुआ उपन्यास है जिसे उन्होंने अपने ब्लॉग लप्पूझन्ना में किश्तों में आधा-अधूरा लिखा था। अब यह पूरा हो पुस्तक की शक्ल में आया है तो पहाड़ी जीवन को दर्शाते इस उपन्यास को लेना बनता ही था।
किताब परिचय
1970 के दशक के उत्तरार्ध में, उत्तर भारत के एक छोटे-से क़स्बे रामनगर में बिताए गए एक बचपन का वृत्तांत है लपूझन्ना। नौ-दस साल के बच्चे की निगाह से देखी गई ज़िंदगी अपने इतने सारे देखे-अदेखे रंगों के साथ सामने आती है कि पढ़ने वाला गहरे-मीठे नॉस्टैल्जिया में डूबने-उतराने लगता है। बचपन के निश्चल खेलों, जल्लाद मास्टरों, गुलाबी रिबन पहनने वाली लड़कियों, मेले-ठेलों, पतंगबाज़ी और फ़ुटबॉल के क़िस्सों से भरपूर लपूझन्ना भाषा और स्मृति के बीच एक अदृश्य पुल का निर्माण करने की कोशिश है। सबसे ऊपर यह उपन्यास आम आदमी के जीवन और उसकी क्षुद्रता का महिमागान है जिसके बारे में हमारे समय के बड़े कवि संजय चतुर्वेदी कहते हैं—‘रामनगर की इन कथाओं में लपूझन्ना कोई चरित्र नहीं मिलेगा। समाधि लगाकर देखिए तो लपूझन्ना कैवल्य भाव है –
सैर में सैर है छोटा सा एक रामनगर
और टेसन पै टिकस दिल के बराबर हैगा
क़ौम-ए-आदम के लफंटर जो हिंयां रैते हैं
उनके इंसान में इंसान का ग्लैमर हैगा।’
लाल चौक
‘लाल चौक’ रोहिण कुमार की लिखी हुई किताब है। किताब का परिचय पढ़कर पुस्तक पढ़ने की इच्छा हो गई थी तो मँगवा ली थी।
किताब परिचय
बीते कुछ समय से शेष भारत के लोगों के लिए कश्मीर राष्ट्रवाद के ‘उत्प्रेरक’ के तौर पर काम आने लगा है। ‘दूध माँगोगे तो खीर देंगे, कश्मीर माँगोगे तो चीर देंगे’ जैसे फ़िल्मी डायलॉग के ज़रिए जम्मू-कश्मीर को भारत और पाकिस्तान के भूगोल, इतिहास और संस्कृति-सभ्यता की बाइनरी में रखते हुए ‘पाने-खोने’ के विमर्शों में उलझाकर रख दिया गया है। इन सबके बीच कश्मीरियत भी है, जिस पर बात कम होती है। जम्मू-कश्मीर के लोग हैं, उनके मानवाधिकार, उनके नागरिक अधिकार हैं, तमाम गंभीर, मौखिक और कथित क़ानूनी आरोप झेलते घाटी के युवा हैं, जो अपना भविष्य अंधकार में पाते हैं। एक बड़ी आबादी है जिसके दिमाग़ पर एक युद्धरत कश्मीर की छाप जमती चली जा रही है। कश्मीर में सेना है, आफ़्स्पा है, निगरानी और तलाशी के अंतहीन सिलसिले हैं। भय है, दमन है, साहस भी है, प्रतिरोध भी है। ये चीज़ें आम जनमानस की ‘प्रमाणपत्रीय’ निर्णय लेने वाली चेतना में विचार या फ़ैसले के लिए जगह नहीं पातीं। ‘लाल चौक’ उन्हीं अनकहे और ‘साज़िशन’ अंधकार में धकेले जा रहे तथ्यों पर रोशनी डालती है, जो सिर्फ़ तथ्य भर नहीं हैं, कथ्य भर नहीं हैं, बल्कि एक बड़ी आबादी का जीवन हैं और जिन्हें दशकों से जिया जा रहा है।
यार जादूगर
नीलोत्पल मृणाल की पहली पुस्तक
डार्क हॉर्स मैंने 2016 के करीब पढ़ी थी। इस उपन्यास के बाद उनकी दो और किताबें आई लेकिन उन्हें पढ़ नहीं पाया। ये वाली पुस्तक इस बार देखी तो खरीदने से खुद को नहीं रोक पाया। यह बात भी रोचक लगी कि किताब का जो परिचय दिया है उससे किताब के कथानक का कुछ पता नहीं चलती है। लगता है इसे पढ़ना एक सरप्राइज ही रहने वाला है।
किताब परिचय
यार जादूगर हिंदी साहित्य की मुख्य धारा के उपन्यासों में विषय-वस्तु के लिहाज से एकदम नया और चौंकाने वाली कहानी है। कल्पना की जमीन पर बोया गया ऐसा यथार्थ जो मानवीय संबंधों और उसके मनोविज्ञान पर दार्शनिकता की गाँठ खोलता रेशा-रेशा उघाड़ते हुए एक प्राकृतिक शाश्वत सत्य के समीप पहुँच पूर्ण होता है।
यार जादूगर मृत्यु का महोत्सव है और जीवन का लोक संगीत भी, जो मृत्यु की अनिवार्यता को स्वीकार कर जीवन की सार्थकता को मलंग हो स्वीकार करने की कोशिश है।
अंतिमा
मानव कौल जितने अपनी अदाकारी के लिए चर्चित हुए हैं उतना ही अपने लेखन के लिए भी हुए हैं। अपनी काव्यात्मक भाषा के लिए वह जाने जाते हैं। मेरी कई मित्र उनकी फैन हैं तो उन्होने मानव को पढ़ने की सलाह दी थी। हाँ, कहानी संग्रह मैं कम ही पढ़ पाता हूँ तो उनका उपन्यास लेना चाहता था। इस बार अच्छी कीमत में मिल गया तो ले लिया। अब देखना है कि कैसा बना है। वैसे इस उपन्यास का परिचय पढ़कर भी किताब के विषय में ज्यादा कुछ पता चलता नहीं है।
किताब परिचय
कभी लगता था कि लंबी यात्राओं के लिए मेरे पैरों को अभी कई और साल का संयम चाहिए। वह एक उम्र होगी जिसमें किसी लंबी यात्रा पर निकला जाएगा। इसलिए अब तक मैं छोटी यात्राएँ ही करता रहा था। यूँ किन्हीं छोटी यात्राओं के बीच मैं भटक गया था और मुझे लगने लगा था कि यह छोटी यात्रा मेरे भटकने की वजह से एक लंबी यात्रा में तब्दील हो सकती है। पर इस उत्सुकता के आते ही अगले मोड़ पर ही मुझे उस यात्रा के अंत का रास्ता मिल जाता और मैं फिर उपन्यास के बजाय एक कहानी लेकर घर आ जाता। हर कहानी, उपन्यास हो जाने का सपना अपने भीतर पाले रहती है। तभी इस महामारी ने सारे बाहर को रोक दिया और सारा भीतर बिखरने लगा। हम तैयार नहीं थे और किसी भी तरह की तैयारी काम नहीं आ रही थी। जब हमारे, एक तरीक़े के इंतज़ार ने दम तोड़ दिया और इस महामारी को हमने जीने का हिस्सा मान लिया तब मैंने ख़ुद को संयम के दरवाज़े के सामने खड़ा पाया। इस बार भटकने के सारे रास्ते बंद थे। इस बार छोटी यात्रा में लंबी यात्रा का छलावा भी नहीं था। इस बार भीतर घने जंगल का विस्तार था और उस जंगल में हिरन के दिखते रहने का सुख था। मैंने बिना झिझके संयम का दरवाज़ा खटखटाया और ‘अंतिमा’ ने अपने खंडहर का दरवाज़ा मेरे लिए खोल दिया।
फिक्शन से आई कॉमिक्स और उपन्यास
इस ब्लॉग को रेगुलर पढ़ने वाले यह जानते ही होंगे कि मैं कॉमिक बुक भी उतने ही चाव से पढ़ता हूँ जितना कि उपन्यास। अप्रैल में आई एक खेप कॉमिक बुक्स की भी थी।
कुछ वक्त पहले मैंने फिक्शन कॉमिक्स द्वारा प्रकाशित गर्व पढ़ी थी जो पसंद आई थी। इसके बाद मुझे उनकी दूसरी कॉमिक बुक्स का पता लगा। इन्हीं कॉमिक्स में एक सीरीज पसंद आई तो जब सही कीमत हुई तो मैंने वो मंगवा ली। फिक्शन के इस पार्सल में निम्न चीजें थीं:
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फिक्शन कॉमिक्स की तरफ से आई कॉमिक्स और एक उपन्यास |
फिक्शन के इस पार्सल में मेरी फिक्शन कॉमिक्स द्वारा प्रकाशित अमावस शृंखला आई है। अब तक इस शृंखला में छः कॉमिक बुक्स और एक उपन्यास आया है। इस सीरीज में जो कॉमिक्स हैं वो हैं: अमावस, अमावस रिटर्न्स, अमावस अलाइव, अमावस पजेस्ड, अमावस टर्मिनेशन और अमावस अनटोल्ड। इनके अलावा एक उपन्यास, जिसका नाम अमावस ही रखा गया है, भी इस शृंखला का हिस्सा है। यह सभी रचनाएँ (कॉमिक बुक्स + उपन्यास) आशुतोष सिंह राजपूत द्वारा लिखी गई हैं और हॉरर विधा की हैं और परिपक्व पाठकों के लिए हैं। इसके अतिरक्त ज्यादा जानकारी मुझे नहीं है लेकिन उम्मीद हैं जल्द ही पढ़कर जानकारी भी प्राप्त हो जाएगी।
फिक्शन कॉमिक्स आप उनकी साइट पर जाकर मँगवा सकते हैं:
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तो ये थी अप्रैल में आई दो खेपों की पुस्तकें। इसके अलावा भी भी कई पुस्तकें और आईं मेरे पास। इनके विषय में अगले पोस्ट में जानेंगे।
क्या आपने इनमें से कोई किताब पढ़ी हुई है? अगर हाँ, तो आपको वो कैसी लगी? मुझे बताना न भूलिएगा।
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किताबों के बारे में दी गई आपकी जानकारी सदा मन के क़रीब लगी । आजकल न के बराबर पढ़ पा रही हूँ । समय मिलते इनमें से बुक्स ज़रूर खरीदूंगी । बहुत बहुत आभार उपयोगी जानकारी साझा करने के लिए ।
लप्पुझन्ना में रामनगर देखा तो उत्सुकता बढ़ी कि किताब में क्या है, क्योंकि यह हमारे क्षेत्र से है बहुत अच्छा लगता है न , लालचौक, यार जादूगर और अंतिमा के बारे में पढ़कर मन पढ़ने को उत्सुक हुआ। यह पढ़कर अच्छा लगा कि आप फिक्शन से आई कॉमिक्स और उपन्यास भी पढ़ते हैं। पढ़ना तो हमें भी अच्छा लगता है लेकिन सच कहें तो घर-दफ्तर के बीच झूलते-पिसते यह इच्छा पूरी हो ही नहीं पाती। बस ब्लॉग लिख लेते है और खुश हो लेते हैं
आपको किताबें पढ़ने का शौक है और आप पढ़ते हैं यह जानकार बहुत अच्छा लगा।
इसी सन्दर्भ में कृपया आपसे निवेदन है कि यदि आप मेरी पुस्तक 'गरीबी में डॉक्टरी' ऑनलाइन या ऑफलाइन खरीदकर समीक्षा लिखें तो मुझे ख़ुशी होगी। यद्यपि इस पुस्तक में १० कहानी हैं, लेकिन इसकी मुख्य कहानी 'गरीबी में डॉक्टरी ' को मैं चाहती हूँ कि अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे, क्योंकि इसका मुख्य किरदार भले ही हमारे गढ़वाल का नहीं है लेकिन उसकी हमने हर तरह से मदद की और वह अब हमारे घर के सदस्य जैसा है, इसलिए हम उसकी व्यथा-कथा लिखने में समर्थ हो सके। शेष पूरी जानकारी आप मेरी इस प्रकाशित पुस्तक से जान सकते हैं।
सादर
https://www.kavitarawat.com/2022/03/blog-post_15.html
https://hindi.shabd.in/books/10082107
जी आभार। मैं भी कम ही पढ़ पाता हूँ फिर भी पुस्तके खरीदने के मोह से खुद को बाहर नहीं निकाल पाता हूँ। लगता है ये अलग तरह का शौक है।
जी दफ्तर के कारण तो मेरा भी पढ़ना उतना नहीं हो पाता लेकिन फिर भी कोशिश रहती है कि कम से कम दस पंद्रह पेज रोज पढ़ ही लूँ। इसमें दस मिनट ही लगते हैं लेकिन पढ़ने की क्षुधा शांत हो ही जाती है।
जी कोशिश रहेगी।
किताबों के बारे में जानकारी
जी आभार।