घुमक्कड़ी 28th अक्टूबर 2018 को की गई
सुबह पौने सात बजे करीब नींद खुली। मैं उठा,बाथरूम गया और फिर 8:30 का अलार्म लगाकर सो गया।
कल मैं सुबह 2:15 के करीब उठ गया था। उठने के पश्चात दिल्ली से मुम्बई का सफर,फिर मुम्बई में सेशन और उसके बाद बार में पार्टी चली। जब अपने रूम में पहुँचा तो रात के ग्यारह साढ़े ग्यारह बजे गए थे। कमरे में पहुँचने के बाद चाय मंगवाई और हाथ मुँह धोकर सी आई डी देखते हुए चाय पी। सी आई डी का आखिरी एपिसोड था। 21 साल चलने के पश्चात कोई धारावाहिक बन्द हो रहा था। यह एक बड़ी बात थी। एपिसोड देखते हुए चाय पी और फिर सो गया।
अब जाकर उठा था तो नींद पूरी नहीं हुई थी और इसलिए दोबारा सो गया था। डेढ़ घण्टे बाद फिर उठा।उठने के पश्चात फ्रेश वगेरह हुआ। जब लगने लगा कि ठीक ठाक हूँ तो रूम के बाहर गया। एक बन्दा दिखा तो उनसे चाय के लिए बोला। फिर चाय आने का इंतजार करने लगा। साथ ही मैंने रानी सुरेश कुकशाल जी का लिखा उपन्यास ललिता निकाल लिया। कल इसे पढ़ना शुरु किया था। ललिता गढ़वाल की पृष्ठ भूमि पर रचा गया उपन्यास है। उपन्यास की नायिका ललिता एक सीधी साधी लड़की है जिसने परिवार को ही अपना सब कुछ समर्पित कर दिया। अब जब उसके बच्चे बड़े होकर अपने जीवन में रम चुके हैं तो उसे यह ख्याल सालता है कि अपना जीवन देकर उसने बदले में क्या पाया? क्या उसे खुद को भी तरजीह देनी चाहिए थी। उपन्यास फ़्लैश बैक में लिखा गया है। हम ललिता को बचपन से उसकी अभी की अवस्था तक आते हुए देखते हैं। मैंने 70 पृष्ठ के करीब कल एअरपोर्ट और फ्लाइट में पढ़ लिए थे। अब चाय का इंतजार करते हुए कुछ पृष्ठ पढ़े। फिर चाय चुसकते हुए बाकी का उपन्यास पूरा किया।
बीच बीच में मुझे बाथरूम भी जाना पड़ता था। कल दिन में और रात को काफी मिर्ची वाला खा लिया था जो कि अब असर दिखा रहा था। चाय पीने और उपन्यास पढ़ने में पौने दस बज गए। अब क्या या जाए? मैं ये सोच रहा था तो पहले नहा-धोकर नाश्ता करने का ख्याल आया। मैं नहाया और फिर नीचे रिसेप्शन पर गया। उधर से पता लगा कि नास्ता रेस्टोरेंट में होगा तो उधर पहुँचकर बुफे पर टूट पड़ा। मन भरकर नास्ता किया।
उधर एक रोचक वाकया हुआ। मेरा रूम आफिस के तरफ आए करवाया गया था। मैंने कल जब चेक इन किया तो मुझे बताया कि नाश्ता बुकिंग में नहीं था। मैंने नाश्ता भी इसमें सम्मलित करने को कहा और 150 रुपये के करीब चुकाए। इसी के साथ रात की चाय का पैसा भी दिया। अब जब मैं नाश्ता कर रहा था तो उधर जो मैनेज कर रहे थे उन्होंने मेरा रूम नम्बर पूछा। मैंने बताया और उन्होंने कहा कि मेरा नाश्ता बुक नहीं हुआ है। मैंने उन्हें बताया कि कल भुगतान कर चुका हूँ तो उन्होंने कहा कि वो जाँच करवाएंगे। उन्होंने पता किया तो पाया की पेमेंट थी लेकिन वो जोड़ा नहीं गया था। मुझे भुगतान नहीं करना पड़ा। मैंने नाश्ता निपटाया और फिर ऊपर गया। तैयार हुआ और चेक आउट के लिए आया।उन्होंने बोला कि मेरा सब हिसाब क्लियर है। मैंने कहा कि मैंने एक चाय मंगाई थी जो उन्हें याद नहीं थी। मैंने उन्हें उसके पैसे दिए और फिर होटल से बाहर निकल गया।
अब क्या किया जाए। मेरे मन में यही ख्याल था।मैंने पहले गूगल मैप पर गेटवे ऑफ इंडिया जाने की सोची। उसका लोकेशन फीड किया और चलने लगा। कोलाबा पहुंचकर मैंने एक दो जगह कॉल लगाया। सोचा पुराने परिचितों से मिल लूँगा लेकिन कहीं भी सफलता हासिल नहीं हुई।गलती मेरी ही थी। पहले ही बताना चाहिए था। अब खड़े पैर कौन आ सकता था।खैर,उधर से गेटवे की तरफ बढा। मैं रेडियो क्लब वाले रास्ते से बढ़ा था।
हमारा आफिस पहले उधर ही हुआ करता था तो शाम को हम कई बार गेटवे की तरफ निकल जाया करते थे। बरसात के मौसम में कई बार भुट्टे खाने उधर चले जाते थे। इस वक्त धूप निकली हुई थी। भीड़ आज भी थी। एक चश्मे वाले भाई साहब किन्ही विदेशी महोदय को चश्मे बेच रहे थे। कुछ फोटो खींचने वाले पर्यटकों को उनसे फ़ोटो खिंचवाने के लिए मना रहे थे। पर्यटक कभी ताज को देख रहे थे,कभी गेटवे और कभी सामने मौजूद अथाह समुंदर और उसमें तैरती कश्तियों को निहार रहे थे। मेरे लिए यह सब देखा हुआ होकर भी अभिनव था।मैं इन्हें आज पर्यटक की नज़र से देख रहा था।मैंने कुछ देर उधर फ़ोटो खींची। फिर उधर से आगे बढ़ गया।
मैं जब तक दूसरी जगह पर पहुँचता हूँ तब तक ताज होटल और गेटवे ऑफ़ इंडिया के विषय में कुछ रोचक बातें आप पढ़ लीजिये।
होटल ताज
- ताज महल पैलेस होटल या ताज महल होटल गेट वे ऑफ़ इंडिया के सामने ही मौजूद है
- प्रथम विश्व युद्ध में इसे 600 कमरों वाले हॉस्पिटल में बदल दिया गया था
- यह भारत की पहली इमारत है जिसकी वास्तुशैली को कॉपी राइट किया गया है
- दिसंबर 1903 को यह पहली बार खुला था
- होटल के मूल वास्तुशिल्पी सीताराम खांडेराओ वैद्य और डी एन मिर्ज़ा थे जबकि इसके निर्माण को पूरा एक अंग्रेज इंजीनियर डब्ल्यू ए चैम्बर्स ने किया था
- इसके निर्माण में उस वक़्त 250000 पौंड का खर्चा आया था
- गेट वे ऑफ़ इंडिया मुम्बई के दक्षिण में समुद्र तट पर स्थित है।
- गेट वे ऑफ़ इंडिया का निर्माण बीसवीं शताप्दी में हुआ था। इसका निर्माण ब्रिटेन के राजा जॉर्ज पंचम और रानी मैरी के 1911 में भारत आगमन की याद में हुआ था।
- इसका आधार शिला 31 मार्च 1911 को रखी गई थी और इसका निर्माण 1924 में जाकर पूरा हुआ।
- गेट वे ऑफ़ इंडिया के वास्तुशिल्पी जॉर्ज विटेट थे।
- यह बसाल्ट पत्थर का बना है और इसकी ऊँचाई 26 मीटर के करीब है।
- चर्च गेट लोकल स्टेशन या सी एस टी लोकल स्टेशन से टैक्सी लेकर इधर आसानी से पहुँचा जा सकता है।
- गेट ऑफ़ इंडिया से टूरिस्ट बोट भी चलती हैं जिसमें आम आदमी सफर कर सकता है। एलीफैंटा की गुफाओं तक जाने के लिए भी नाव इधर से ही मिलती है।
(स्रोत:विकीपीडिया )
फिर सन्त एंड्रू चर्च की फ़ोटो खींची और एसियाटिक लाइब्रेरी की तरफ बढ़ गया। चूँकि यह नेवी का एरिया था और उधर गार्ड्स तैनात थे तो मैंने उन गेट्स की फोटो खींचना मुनासिब नहीं समझा। अब मेरा मन था कि मैं एशियाटिक लाइब्रेरी में पहुँचकर उसकी सीढ़ियों में बैठकर नागिन कहानी संग्रह की एक कहानी पूरी पढ़ लूँगा। मैं होटल के कमरे में कुछ पृष्ठ पढ़ लिए थे और आगे क्या होगा यह जानने की इच्छा मन के किसी कोने में थी। उस भव्य इमारत की छाव में किताब पढ़ने का अपना अलग सुख होगा। मैं यह सोच रहा था और अपने मन में ख्याली पुकाव पका रहा था। थोड़ी देर उधर आराम करूंगा, कहानी पढ़ूँगा और फिर चाय वगेरह पीकर मुम्बई सेंट्रल के लिए गाड़ी पकड़ कर उधर के लिए निकल लूँगा। मैंने नागिन कहानी संग्रह होटल की एक कहानी होटल के रूम में ही पढ़ ली थी। यह ऐसी कहानियों का संग्रह है जिसमें इच्छाधारी नाग नागिन और ऐसे दूसरे जीव हैं जो अपना रूप बदल सकते हैं। कहानी संग्रह काफी रोचक है।
अब जब तक मैं एशिएटिक लाइब्रेरी पहुँचता हूँ तब तक आप संत एंड्रू चर्च और लाइब्रेरी के विषय में कुछ बातें जान लें।
संत एंड्रू चर्च 1815
- इस चर्च का निर्माण 1815 में जेम्स क्लो नामक पादरी के मुंबई आने से शुरू हुआ था
- इस चर्च का निर्माण 7th जनवरी 1819 को खत्म हुआ और इसके निर्माण में 45,354 रूपये की लागत आई
स्रोत : चर्च के विषय में और रोचक बाते आप इस लेख को पढ़कर जान सकते हैं। यह लेख चर्च की 200 वे वर्षगांठ में टाइम ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित हुआ था : टाइम्स ऑफ़ इंडिया
एशियाटिक लाइब्रेरी
- एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना 26 नवम्बर 1804 में सर जेम्स मैकिंटोश ने की थी
- इस टाउनहॉल में एक लाख से ऊपर किताबें हैं जिनमे से तकरीबन १५००० अति दुर्लभ और काफी कीमती हैं
- इस टाउनहॉल का निर्माण 1830 में जाकर खत्म हुआ था
- यह ग्रीक और रोमन वास्तुशिल्प से काफी प्रभावित है
स्रोत: विकीपीडिया
मुझे अपनी बनाई योजना जँच रही थी। ख्याली पुलाव से उठने वाली खुशबु बड़ी सोंधी थी और मैं उसी के खुमार में बढ़ा चला जा रहा था। परन्तु जब मैं उधर पहुँचा तो मेरी बनाई योजना में पानी फिर गया। वहाँ पहुँच कर देखा कि लाइब्रेरी के ठीक सामने मौजूद फुटपाथ पर काफी भीड़ है और सड़क पर एक अस्थाई सा बैरिकेड लगा।कैमरे और लाइटस लगी हैं। कुछ ही लोग और एक आध फोटोग्राफर लाइब्रेरी के प्रांगण में दिखाई दे रहे हैं। मैंने अनुमान लगाया कि उधर किसी चीज की शूटिंग चल रही थी। बैरिकेड के विपरीत दिशा में शूटिंग देखने वालों की भीड़ थी। अब जो मैंने सोचा था वह मुझे नहीं मिला था। मेरा उधर रुकने का कोई इरादा भी नहीं था। मैंने लाइब्रेरी की एक दो फ़ोटो ली और फिर आगे बढ़ गया। आगे एक चाय वाले भाई मिले। उनसे एक कटिंग चाय ली और फिर चाय पीने लगा।
|
संत एंड्रू का चर्च |
|
संत एंड्रू का चर्च |
|
एशियाटिक सोसाइटी मुंबई |
चाय पीते हुए मैं सोच रहा था कि अब क्या किया जाए। वक्त काफी था। मैंने गूगल में मुम्बई सेंट्रल डाला तो पता लगा वो चार साढ़े चार किलोमीटर दूर है। मैंने फिर उधर तक पैदल चलने की ठानी।वैसे भी कल व्यायाम किया नहीं था। व्यायाम भी हो जाता और कुछ घूम घाम भी हो जाती।
यही सोचकर मैं बढ़ने लगा। पहले मुझे एक पारसी अग्नि मंदिर मैप पर दिख रहा था। मैंने आजतक कोई ऐसा मंदिर नहीं देखा तो इसे देखने के लिए उत्सुक था। मैं रास्ते की तरफ बढ़ रहा था तो मुझे एक आकर्षक इमारत दिखी। इसके कोनो में दाढ़ी वाले दो मूर्तियाँ थी जिसके चेहरे तो मानव जैसे थे लेकिन उनका शरीर किसी जानवर का था। क्या संयोग था कि मैं आज ऐसे ही जीवों की कहानियाँ पढ़ रहा था और इधर इन आधे इंसान और आधे जानवर के शरीर वाले मिथकीय जीवों की मूर्ती मुझे दिख रही थी। मुझे इनके विषय में कोई जानकारी नहीं थी।
मूर्तियों के साथ ही ऊपर एक स्तम्भ था जिस पर घड़ी लगी थी।अपने विशेष रूप के कारण मुझे लगा कि कहीं यही तो पारसी मंदिर नहीं था। यही सोचकर मैं उसकी तरफ बढ़ा। उसकी फोटो उतारी। फिर उसके चारों तरफ घूमने लगा। मैं कोई बोर्ड तलाश रहा था जिससे पता लग सके कि यह क्या है? मुझे बोर्ड दिखा और पता लगा कि इसका नाम बोमनजी होरमरजी वाडिया क्लॉक टावर है।
|
बोमनजी होरमरजी वाडिया क्लॉक टावर |
मुझे अब फायर मंदिर देखना था। पहले मेरे सामने रिज़र्व बैंक की बिल्डिंग आई जिसकी तस्वीर मैंने ली। फायर मंदिर तो मुझे नहीं दिखा लेकिन एक आर्य समाज फोर्ट दिख गया। मैंने उसकी फोटो ली। मंदिर भी इधर ही आसपास था। मैंने उसकी लोकेशन डाली और थोड़ा बहुत घूमने के पश्चात मैं उस तक पहुँच गया। पारसी धर्म में अग्नि मंदिर उनका पूजा का स्थल है। आग पारसी धर्म में पवित्रता के एजेंट के रूप में देखा जाता है। मंदिर खूबसूरत था।उधर गैर पारसियों का प्रवेश निषेध था और इसलिए तस्वीर लेकर मैं आगे बढ़ गया। उधर जिस बात ने मुझे आकर्षित किया वह थे गेट पर बने हुए वही अर्ध मानव। आखिर यह क्या हो सकते हैं? यह प्रश्न मेरे मन में कुलबुला रहा था। उस वक्त तो मैं उधर से निकल गया लेकिन बाद में अपने घर पहुँच कर मैंने इस बारे गूगल किया तो पता लगा कि यह लामासु (lamassu) हैं। लमासु मिथकीय जीव होते हैं जिनका सर तो आदमी का होता है लेकिन शरीर बैल या शेर का बना होता है। इन्हे सुरक्षा से जोड़ा जाता है, और माना जाता है कि यह सुरक्षा प्रदान करते हैं और इसलिए इन्हे महलों, मंदिरों इत्यादि के प्रवेश द्वार पर लगाया जाता था। शायद यही कारण था कि यह जीव क्लॉक टावर और इस मंदिर के द्वार पर मौजूद थे। यह जीव उन दो इमारतों को सुरक्षा प्रदान कर रहे थे। है न रोचक बात। घूमते घूमते न जाने क्या क्या मिल जाता है।
|
भारतीय रिज़र्व बैंक |
|
आर्य समाज फोर्ट |
|
पारसी अग्नि मंदिर |
|
मंदिर का द्वार जहाँ तख्ती टंगी है |
अब मेरी मंज़िल मुम्बई सेंट्रल थी। इसके पश्चात मुझे जैसे जैसे कुछ रोचक दिखता उसकी तस्वीर मैं ले लेता। मैं मैप पर दिखते रास्ते पर चलता जा रहा था। रास्ते में मुम्बई की म्युनिसिपल इमारत,मुम्बई सेंट्रल स्टेशन भी आये। मैंने इनकी तस्वीरें ली। विक्टोरियन वास्तुकला के नमूने ये इमारतें काफी रोचक लग रही थी। मुम्बई सेंट्रल के बाहर से गुजरने पर मुझे एक बोर्ड दिखा कि यह यूनेस्को वर्ल्ड हेरिटेज साइट थी। मुझे यह देखकर आश्चर्य नहीं हुआ। इमारत है ही इतनी खूबसूरत कि इसका विश्व धरोहर होना लाजमी था। कहा जाता है भारत में ताज महल के पश्चात मुंबई की छत्रपति शिवजी टर्मिनस की फोटो ही सबसे अधिक खींची जाती है। हो भी क्यों न। यह इमारत आपको अपने कदम रोककर इसे एक बार जी भर कर देखने के लिए विवश कर देती है। मैंने भी इसे मन भरकर देखा और फिर आगे बढ़ गया। उस वक्त मन में यही ख्याल था कि ऐसी इमारतें भारत में और होनी चाहिए थी।
ऐसे ही चलते जा रहा था। गूगल मुझे गलियों से लेकर जा रहा था। एसियाटिक लाइब्रेरी से मुम्बई सेंट्रल चार किलोमीटर की दूरी थी। मेरे लिए यह एक ट्रेक थी। मैं गलियों से गुजर रहा था। कुछ बाज़ारों से भी गुजरा। कहीं भीड़ भाड़ थी और कहीं सामान बिकने के लिए रखे थे। मुझे रास्ते में कुछ भी रोचक लगता तो उसकी तस्वीर ले लेता। ऐसे ही होते हुए मैंने मोती टॉकीज पार किया।
मैंने ये पार ही किया था कि मुझे दो औरतें दिखी। वो घर के बाहर थी और उन्होंने कुछ ज्यादा ही मेकअप लगाया हुआ था। जिस हिसाब के एरिया से मैं गुजर रहा था मुझे यह तो लग गया था कि इधर आर्थिक रूप से सम्पन्न लोग नहीं रहते हैं। पर उन औरतों की मौजूदगी ने हैरान किया। लेकिन मैंने उसे उतनी तरजीह नहीं दी और आगे बढ़ गया। पर अब ऐसी औरतों की तादाद बढ़ गई थी। कुछ औरतें सड़क के किनारे खड़ी थी और एक दो औरतों को मैंने कुछ आदमियों से बात करते हुए देखा। उनमें से एक औरत अत्यधिक खूबसूरत थी। मेरी आँखें कुछ देर के लिए उसके चेहरे पर ठिठक कर रह गई थी और इसी चीज ने मुझे अहसास करवाया कि मैं कहाँ आ गया था। मैंने नई नजर से इलाके को देखा तो सच्चाई सामने दिख गई। यह शायद कोई रेड लाइट एरिया था। कुछ औरतों घरों के बाहर बैठी थी। कुछ सड़क के पास खड़ी थी लेकिन सबके भाव ऐसे जैसे किसी का इंतजार कर रहे हों। मैंने अपने चलने की गति साधारण रखी लेकिन सीधा बढ़ता रहा। मैं अब न दाएं देख रहा था और न बाएं देख रहा था। इसके अलावा मैं इस बात का ख्याल भी रख रहा था कि चलते हुए कहीं किसी औरत को ऐसा न लगे कि वह मेरी तवज्जो का मरकज थी। मुझे डर था कि कहीं ऐसा समझ कर वह औरत मेरे पास न आ जाये। इसलिए मैं सड़क के किनारे चलने के बजाय बीच में चल रहा था।
मैं अब गुलशन सिनेमा के पास था और जिस तरह अचानक उन औरतों की आबादी में इजाफा हो गया उसी तरह अचानक इधर से वो औरते गायब हो गई थी। अभी वह थीं और अभी नहीं।मैंने राहत की साँस ली और फिर आराम से चलने लगा। इधर से मुम्बई सेंट्रल ज्यादा दूर नहीं था। मैं चलते हुए मुम्बई सेंट्रल की तरफ बढ़ने लगा।
|
झुरमटों से झाँकता गुम्बद |
|
चौराहे के पार मौजूद रोचक इमारत |
|
बृहन्मुंबई महानगर पालिका और सी एस टी स्टेशन |
|
बृहन्मुंबई महानगर पालिका की इमारत |
|
छत्रपति शिवाजी टर्मिनस |
|
राह चलते दिखी एक और खूबसूरत इमारत |
|
भीड़ के पार एक मस्जिद |
|
एक मंदिर |
|
मोती टॉकीज |
|
गुलशन |
रास्ते में नक़्शे में मुझे दिखा कि महालक्ष्मी भी नज़दीक है। मैंने एक बार उधर जाने की भी सोची। मैं नक्शे के हिसाब से उधर की तरफ बढ़ने भी लगा था। पर फिर मैं एक मोहल्ले में घुस गया। रास्ता मिला नहीं और इस कारण मैंने सोचा स्टेशन ही चला जाये। वैसे भी मंदिर जाने की इच्छा मन में इतनी नहीं रहती है। अब मैं मुम्बई सेंट्रल की तरफ बढ़ गया और उधर कुछ देर में पहुँच गया। उधर पहुंचकर मैंने कुछ तस्वीरें ली। फिर स्टेशन में एंट्री की। अब मेरा इरादा नागिन की पहली कहानी खत्म करने का था। मैंने किताब निकाली ही थी कि फोन बज उठा। अयाज़ सर थे जिन्हें सुबह कॉल लगाया था। उनसे बात की और उन्होंने कहा कि वो मिलने आएंगे। अभी उनके आने में देर थी तो मैंने सोचा जो घूमा फिरा है उसके विषय में कुछ लिख ही लिया जाए और वो लिखने लगा।
मैंने लिखना खत्म किया और उसके बाद मुझे चाय की तलब महसूस हुई। मैं बाहर गया और स्टेशन के गेट के नज़दीक बैठे चाय वाले भाई से एक चाय खरीदी। चाय पीने के पश्चात मैं अंदर आया और फिर मैंने किताब खोल ली। मैंने एक दो पन्ने पढ़े ही थे कि एक बार फिर फोन बज गया। अयाज़ भाई का कॉल आया। उनसे मिले भी काफी वक्त हो गया था। मन में उत्साह था। मैं स्टेशन से बाहर निकला और थोड़ा बहुत दिशाओं के आदान प्रदान के पश्चात हम लोग मिल गए। मिलने के पश्चात हम रेस्टोरेंट में बैठे और उधर हल्का फुल्का नाश्ता किया। साढ़े चार बजे तक उधर हम बैठे रहे।बातचीत में पता ही नहीं लगा कब एक डेढ़ घंटा गुजर गया।बी ट्रैन का वक्त हो चुका था तो हम उधर से उठ गए।हम वापस स्टेशन तक आये। वो प्लेटफार्म तक मुझे छोड़ने आये और वो उधर से अपने घर चले गए और मैं ट्रैन में जाकर बैठ गया। ट्रैन में बैठकर मुझे याद आया कि फोटो खींचनी तो रह ही गई। मिलने के उत्साह और बातचीत में यह ध्यान ही नहीं रहा।
अब नई तस्वीर तो नहीं है इसलिए एक पुरानी तस्वीर से ही काम चला लेते हैं। यह तस्वीर तब की है जब 2015 में मुंबई से दिल्ली की तरफ आने वाला था।
|
बायें से दायें: अयाज़ भाई,मैं, राजेंद्र और दीपक |
ट्रैन स्टेशन में लगी हुई थी और मैं उधर जाकर अपने बर्थ में घुस गया। ट्रैन में मैं रोचक वाकया हुआ। मैं अपनी सीट पर आकर बैठ गया था। मैंने फोन भी चार्ज पर लगा दिया था। पानी वगेरह मिलने लगा तो एल भाई ने बोला उनकी सीट 29 है। मेरे मन मे खटका सा हुआ यो मैंने पूछा वो कोच बी 9 है क्या?उन्होंने बताया वो बी 10 थ। मैं गलत में आ गया था। मैंने बी 9 के विषय में पूछा तो उन्होंने बताया। में सही कोच की तरफ बढ़ गया।
मैंने अपनी सही सीट पर अपना सामान रखा,फोन चार्ज करने लगाया और नागिन खोलकर बैठ गया। अब मुझे इन मिथकीय जीवों की कहानी पढ़ते हुए ही समय गुजारना था।
तो यह थी मेरी कुछ घंटों की घुमक्कड़ी। आशा करता हूँ आपको पसंद आई होगी। आपको मेरे साथ घूमकर कैसा लगा? यह बताना न भूलियेगा?
अब मुझे आज्ञा दीजिये। फिर मिलेंगे किसी और घुमक्कड़ी के वृत्तांत के साथ। तब तक के लिए #पढ़ते_रहिये_घूमते_रहिये #रीड_ट्रेवल_रिपीट। #फक्कड़_घुमक्कड़
समाप्त
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
ललिता उपन्यास और cid के और चाय के बाद फाइनली आप मुम्बई की घुमक्कडी पर निकले…लेकिन जाने अनजाने में पैदल ही बिना ज्यादा जाने आपने बहुत कुछ घुम लिया कुछ वो भी जो बाहर से आये घुमक्कड नही घूमते जैसे रेड3light एरिया और पारसी फायर कुआ…पढ़कर मजा आ गया कि ऐसी भी घुमक्कडी होती है और उपन्यास के बिना तो आपका लेख पूरा ही नही होता…
बहुत बढ़िया, विकास भाई
जी,शुक्रिया प्रतीक भाई।
शुक्रिया, विजय जी।
वाह !
अभी तक मुंबई गया नहीं।आपने घुमवा दिया।कुछ जगह ही सही।
नागिन वाली कौन सी बुक पढ रहे है विकास भाई ?
शुक्रिया जी।
जी, मयूर दिडोलकर का कहानी संग्रह है। इस किताब का विषय में मैंने आज ही इधर लिखा है।
https://vikasnainwal.blogspot.com/2018/11/nagin-by-mayur-didolkar.html
शानदार
लेकिन जहां मेट्रो का जिक्र किया है वो लोकल ट्रेन है, मेट्रो नहीं।
जी,सही कह रहे।जाने कैसे लिख दिया इसे। सुधार कर लिया गया है। शुक्रिया।