वेस्ट टू वंडर पार्क – दिल्ली

वेस्ट टू वंडर पार्क - दिल्ली
17th November 2019,रविवारकहाँ: सेवन वंडर्स पार्क,दिल्ली
कैसे जा सकते हैं: मेट्री से पिंक लाइन पकड़ कर हज़रत निजामुद्दीन मेट्रो स्टेशन और उधर से पैदल या रिक्शा लेकर पार्क तक आसानी से पहुँचा जा सकता है

पार्क सोमवार को बंद रहता है
टिकट: 50 से 100 रूपये 
जाने का सबसे अच्छा वक्त: अँधेरा होने से एक आध घंटे पहले




रविवार का दिन था और बारह के करीब वक्त हो चुका था। शनिवार की छुट्टी मैंने घर की सफाई करते हुए बिताई थी और अब मैं सोमवार से पहले कहीं घूमकर आना चाहता था। घुम्म्कड़ी के जीवाणु उछल कूद मचाने लगे थे और इनका एक ही इलाज मुझे मालूम था। और वह यह था कि कहीं किसी तरफ निकल लिया जाए।

पिछले काफी दिनों से मैं दिल्ली में मौजूद सेवेन वंडर पार्क में जाने की योजना बना रहा था लेकिन कुछ न कुछ गड़बड़ उधर हो जाती थी। योजना परवान नहीं चढ़ पा रही थी। इस सप्ताहंत इधर ही था तो सोचा क्यों न इस इच्छा को पूरा ही कर लिया जाए। पहले मैंने मनीष भाई को मेसेज डाला और उन्हें आने को कहा। मनीष भाई के साथ मैंने ग्वालियर, चित्तोड़गढ़, कुम्भलगढ़,महरौली पुरातत्व उद्यान,आम महोत्सव, सफदरजंग का मकबरा और लोधी उद्यान की घुमक्कड़ी की है। सोचा वो इधर होंगे तो एक और घुमक्क्ड़ी उनके साथ हो जाएगी।

लेकिन अफ़सोस मनीष भाई ने मना कर दिया। उन्होंने रविवार का दिन सफाई के लिए मुकर्रर किया था और वह इसी में व्यस्त थे। खैर, मुझे तो जाना था और इस कारण मैंने फिर किसी और से नहीं पूछा।

अब मेरी योजना ये थी कि मैं सूरज ढलने से एक आध घंटे पहले उधर पहुँचूँ। ऐसे में यह होता कि मैं दिन के उजाले में भी कलाकृतियों को देख सकता था और रात होने पर बिजली से उन्हें चमचमाते भी देख सकता था। दोनों का कंट्रास्ट अद्भुत होता और तसवीरें भी वाह वाह आती।


मैंने सुना भी था कि रात को यह जगह बहुत खूबसूरत हो जाती है।इसलिए  मेरी योजना ये थी कि साढ़े तीन चार बजे करीब घर से निकलूँगा और उधर पाँच साढ़े पाँच बजे पहुँच जाऊँगा। यह ऐसा वक्त रहेगा जब दिन का उजाला रहेगा और रात ढलने वाली होगी। दोनों ही तरह से चीजें मुझे दिख जाएँगी। प्लान अच्छा था लेकिन तब जब सफल होता।

वो हुआ यूँ कि शनिवार को मैंने कपड़े भिगोने रखे थे तो न जाने मेरे दिमाग में कहाँ से ये विचार आ गया कि मुझे कपड़े धोकर जाना चाहिए। विचार के आते ही न जाने मेरे अन्दर इतनी स्फूर्ति कहाँ से आ गयी कि मैं आलस के खोल को त्याग कर कपड़े धोने लगा। कपड़े धोते धोते साढ़े तीन हो गये। इस कसरत से ये हुआ कि मुझे भूख भी लग आई तो मैंने जल्द जल्द अपने लिए मसाला ओटस तैयार किया। बात का लब्बोलुबाब यह है कि जहाँ मुझे साढे तीन बजे कमरे से निकलना था वहाँ मुझे निकलते निकलते साढ़े चार हो गये।

घर से  निकलकर ऑटो से बस स्टैंड की तरफ बढ़ा तो बीच में ही ट्रैफिक मिल गया जो हटने का नाम नहीं ले रहा था। यह ट्रैफिक सिविल अस्पताल से सामने बस स्टैंड  तक लगा हुआ था। मुझे बस स्टैंड ही जाना था। मैंने  थोड़ी देर ऑटो में ट्रैफिक हटने का इंतजार किया लेकिन घोंघा गति से आगे सरकते ट्रैफिक में  कोई तब्दीली न आते देखकर मैंने इसे छोड़कर आगे का रास्ता पैदल तय करने की सोची। ऑटो से उतरा, पैसे चुकाए और आगे बढ़ने लगा। और किस्मत देखिये साहब मेरे उतरकर आगे बढ़ते ही जाम ऐसे खुला जैसे मेरे ही ऑटो से उतरने का इन्तजार कर रहा हो। इसे ही कहते हैं किस्मत का मारा। क्या आपके साथ कभी ऐसा हुआ है? मेरे साथ अक्सर होता है। कई बार ऑनलाइन साइट्स पर मैं किसी प्रोडक्ट की कीमत के कम होने का इंतजार करता हूँ। लेकिन वह होती नहीं दिखाई देती है। फिर मैं थक हारकर उसे खरीद लेता हूँ और फिर अचानक न जाने क्या होता है कि खरीदकर जब वह प्रोडक्ट मेरे पास पहुँच जाता है तो उसी दिन उसकी कीमत ने गिरावट आ जाती है। खैर, अब क्या हो सकता था।मैं आगे बढ़ा और दस मिनट चलने के बाद वहाँ पहुँचा जहाँ से मुझे सिकन्दरपुर के लिए ऑटो मिलना था। ऑटो में बैठा। जल्द ही ऑटो भर गया और कुछ देर में मैं सिकन्दरपुर पहुँच गया।

स्टेशन से प्लेटफार्म में पहुँचने में दिक्कत नहीं हुई। प्लेटफार्म में पहुँचा तो जल्द ही गाड़ी भी आ गयी और मैं उसमें चढ़ गया। मैंने गूगल में देख लिया था कि मुझे पहले आई एन ए उतरना था जहाँ से मुझे मयूर विहार 1 की तरफ जाने वाली मेट्रो  पिंक लाइन पर पकड़नी थी। उसी जगह निजामुद्दीन स्टेशन ने आना था जहाँ से कुछ दूरी पर यह पार्क मौजूद था।

मैंने अपने लिए एक जगह चुनी और उधर बैठकर अपनी किताब खोल ली। सफर में एक किताब मेरे साथ हमेशा चलती है। इन्ही के बदौलत ही तो मैं एक साथ दो दो और कभी कभी तीन तीन सफर कर लेता हूँ। इस बार भी मैं एक तरफ तो आई एन ए मेट्रो की तरफ जा रहा था वहीं दूसरी तरफ किताब के पन्नों में सवार होकर अमेरिका में विचरण कर रहा था। और अमेरिका के इस सफर में मेरा साथ डेविड फेनर था।

अब आप सोच रहे होंगे कि यह किस्सा क्या है? तो बात ऐसी है मालको कि मेरे हाथ में जेम्स हेडली चेस का उपन्यास ट्वेल्व चिंक्स एंड अ वुमन था। यह उपन्यास एक प्राइवेट डिटेक्टिव डेविड फेंनेर के एक केस के विषय में है।

डेविड फेंनेर अपने ऑफिस में बैठा आराम कर रहा होता है जब उसके पास एक औरत आती है। वह औरत चाहती है कि डेविड उसकी बहन का पता लगाये। उसकी बहन लापता है और उसे अंदेशा है कि कहीं उसके साथ कुछ बुरा न घटित हो गया हो। वह डेविड को इसके लिए पैसे भी देने को तैयार होती है और पैसे दे भी देती है कि डेविड को एक व्यक्ति का फोन आता है। फोन में मौजूद व्यक्ति डेविड को बताता है कि जो लड़की उसके पास आई है वो पागल है और वह जल्द ही उसे लेने आ रहा है। फोन सुनकर वह लडकी घबरा जाती है। डेविड को उस पर दया आती है और वह उस लड़की की मदद करने का फैसला करता है। वह अपनी सेक्रेटरी को उस लड़की के साथ ऐसी जगह भेजता है जहाँ वो सुरक्षित हो।  वहीं जाते जाते वह लड़की १२ चीनियों और एक औरत का जिक्र करती है जिससे डेविड का माथा ठनकता है। डेविड आगुन्तक का इन्तजार करता है लेकिन कोई नहीं आता है। आती है तो सिर्फ एक चीनी व्यक्ति की लाश जो शायद डेविड को फँसाने के लिए उसके ऑफिस के बाहर छोड़ी गयी थी। डेविड किसी तरह उससे पीछा छुड़ाता है तो उसकी सेक्रेट्री का उसे फोन आता है कि वह घबराई हुई लड़की उसे गच्चा देकर न जाने कहाँ गायब हो गयी है। और फिर हालात ऐसे बनते हैं कि डेविड को उस लडकी की लाश बरामद होती है। डेविड बात की तह तक जाने का फैसला करता है। इस काम में उसके साथ क्या क्या होता है यही इस उपन्यास का कथानक बनता है।

रोमांच से भरा यह कथानक ट्रेन में मेरे ध्यान को अपने पर बनाये रखने में सक्षम था। कहानी पढ़ते पढ़ते कब  आई एन ए आया मुझे पता ही नहीं चला। मैं आई एन ए उतरा और उधर से उतर कर पिंक लाइन की तरफ गया। थोड़ा चलना पड़ा लेकिन जल्द ही मैं मयूर विहार 1 की तरफ जाने वाली ट्रेन में था। यहाँ फोन के सिग्नल पूरी तरह से गायब हो गये थे और मैं अपनी किताब में ही मशगूल था। जल्द ही निजामुद्दीन स्टेशन आया और मैं उधर उतर गया।

बाहर जाकर मैं दो नम्बर गेट से बाहर निकला। अगर आपको निकलना हो तो आप तीन नम्बर गेट से बाहर निकलना। गेट से बाहर आकर मैंने गूगल मैप खोला तो मुझे नजदीक ही वेस्ट टू वंडर पार्क के होने का अंदाजा हो गया। मैं अब पार्क के तरफ बढ़ने लगा।

छः बज गये थे और रात हो गयी थी। मेरा प्लान उजाला रहते उधर पहुँचने का था लेकिन वह तो फ़ैल हो गया था। खैर अब क्या किया जा सकता था। नक्शे पर देखते हुए मैं आगे बढ़ने लगा। सामने एक फ्लाईओवर दिख रहा था।  मुझे फ्लाईओवर से पहले ही बायें हाथ को मुड़ना था। फिर सीधा चलते जाने पर पार्क पहुँच जाना था।

मैं अब पार्क की तरफ बढने लगा। वैसे स्टेशन से बाहर निकलकर आपको ऑटो भी उधर जाने के लिए मिल जायेंगे। अगर आप चलना न चाहें तो ऑटो में पार्क तक जा सकते हैं। मुझे क्योंकि चलना पसंद है तो मैं उधर की तरफ बढ़ गया।
अब जब तक मैं उधर पहुँचता हूँ तब तक पार्क के विषय में मुझे जो जानकारी मिली वो आपको बता देता हूँ।

बदरीनाथ की दुल्हनिया फिल्म में फिल्माए गये एक गीत को देखकर एस डी एम सी के कमिश्नर पुनीत गोयल जी को यह विचार आया कि कोटा की तरजीह में उन्हें भी दिल्ली में एक सेवन वंडर पार्क बनाना चाहिए। इस सोच के अंतर्गत उन्होंने विशेषज्ञों की एक टीम को कोटा भेजा जो उधर मौजूद पार्क को जांचती और उसी तर्ज पर इधर काम की शुरुआत करती। इन विशेषज्ञों की टीम में डॉक्टर अलोक सिंह,श्री के एस मीणा और श्री कनन मौजूद थे। यह टीम कोटा गयी और यह निर्धारित किया कि सीमेंट जैसे पारम्परिक समाग्री का उपयोग कर इस पार्क का निर्माण किया जाएगा। इस प्रोजेक्ट की में २५ करोड़ का खर्चा आना तय हुआ। इसके लिए टेंडर भी निकाले गये लेकिन यह बेल मुंडेर नहीं चढ़ी।


फिर 2018 की जनवरी में वेस्ट टू आर्ट पहल के तहत एस डी एम सी ने 30 कलाकृतियों को बनाया और उन्हें दिल्ली की मुख्य मुख्य जगहों पर लगाया। ऐसी ही एक कलाकृति एक फ्यूज़न थी  जिसमें दिल्ली की तीन प्रमुख स्मारकों – कुतब मीनार, लाल किला और लोटस टेम्पल  को एक साथ दर्शाया गया था। इस कलाकृति और प्रोजेक्ट को काफी सराहना मिली थी। इस प्रोजेक्ट की सफलता जी देखकर पुनीत गोयल जी ने अपने सेवेन वंडर वाले विचार को दोबारा किर्यान्वित करने की सोची। बस इस पार स्क्रेप मटेरियल से इनके निर्माण का फैसला किया।


इस बड़े प्रोजेकट के लिए कंसलटेंट के तौर पर डॉक्टर अनुज कुमार पौद्दार को चुना गया। उन्होंने उन सामग्रियों की सूची बनाई जो कि एस डी एम सी के पास मौजूद थी और जिन्हें इस प्रोजेक्ट में इस्तेमाल कर सकते थे। फिर एक प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाई गयी और कंसलटेंट भारत में मौजूद ऐसे पार्क्स का दौरा करने गये। काफी चर्चाओं के बाद यह इसका प्रोपोसल फ्लोट किया गया और yawedo art pvt ltd को यह कॉन्ट्रैक्ट दिया गया। यह कॉन्ट्रैक्ट उन्हें अगस्त के मध्य में दिया गया था और उन्हें यह छः महीने में पूरा करना था लेकिन फिर चूँकि चुनाव नजदीक आ रहे थे तो छः महीने से यह टाइम लाइन पाँच महीने तक सिमट गयी। काफी मुश्किलातें हुई लेकिन नितिन मेहता की बागडौर में यह प्रोजेक्ट किसी तरह निर्धारित वक्त में खत्म किया जा सका।

पार्क बनने की यह दास्तान पूरी की पूरी पार्क में मौजूद बोर्ड्स में लिखी गयी। आप उधर जाकर इसे पढ़ सकते हैं।

दिल्ली के सेवेन वंडर पार्क की कहानी बताते बोर्ड्स। यह बोर्ड्स पार्क में ही मौजूद हैं।

तो ये थी पार्क की जानकारी ।

पार्क के गेट के अगल बगल पार्किंग के लिए जगह बनी हुई थी जो कि गाड़ियों से अटी पड़ी थी। पार्क के अंदर से एफिल टावर साफ़ दिखाई दे रहा था। अँधेरे में वह चमक रहा था। उसे देखकर मैं उत्साहित हो गया और मुझे लग गया कि आना बेकार नहीं हुआ था।

बाहर से दिखता एक वंडर

मैं गेट की तरफ बढ़ा तो उधर उत्सव का सा माहौल था। तरह तरह के चीजे बेचने वाले लोग उधर मौजूद थे। कहीं पर गुड़िया के बाल थे तो कहीं पर खिलौने थे तो कहीं पर चाट पापड़ी बिक रही थी। गेट के बगल में ही टिकट घर था जहाँ टिकट लेने वाले लोग कतार में खड़े थे। मैं भी उधर लग गया।

मेरी बारी आई तो मैंने एक टिकट लिया। ज्यादातर लोग पार्क में अपने दोस्तों या किन्ही और लोगों के साथ आते हैं तो शायद इस कारण जब मैंने एक टिकट माँगा तो एक बार को टिकट खिड़की पर बैठे व्यक्ति को यकीन ही नहीं हुआ। उन्होंने एक बार मुझसे पूछा कि क्या एक ही टिकट चहिये तो मैंने जब हाँ कहा तब उन्होंने मुझे वह टिकट दिया।

पार्क का टिकट घर

मैंने टिकट लिया और फिर गेट पर खड़े होकर कुछ फोटो खींचने की सोची। लेकिन फोटो सही आई नहीं क्योंकि पार्क का साइन जगमगा रहा था। ऐसे में कुछ भी पढ़ना मुश्किल था और कैमरे के साथ मुझे कलाकारी आती ही नहीं है तो इस समस्या का समाधान कैसे हो यह मुझे पता नहीं था। खैर, जैसी फोटो आई मैंने वो ली और अंदर दाखिल हुआ।

अंदर घुसते ही एक प्रांगण था  जिसे लड़ियों से ढका हुआ था। आकाश में टिमटिमाते लड़ियों के बल्ब देखकर ऐसा लग  रहा था जैसे तारे उतर कर पार्क के नज़दीक आ गए हों। गेट से घुसते ही सामने एक चमचमाता मोर भी दिखाई दे रहा था जो कि आपका स्वागत करता प्रतीत हो रहा था। उसी के बगल में एक बाज़ जैसी कलाकृति भी थी जो कि किसी प्रकाश पुंज की भाँति जगमगा रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे आप किसी स्वप्न में दाखिल हो गए हों।

मैंने सभी की फोटो ली। फिर मैं बाएँ मुड़ा।

मेरे बायें हाथ में एक फव्वारा  था जहाँ कई लोग फोटो खींचा रहे थे। फव्वारे के एक तरफ एस डी एम सी और दूसरे तरफ सेवेन वंडर्स पार्क का साइन लगा हुआ था। लोग उनके आस पास भी सेल्फी खिंचवा रहे थे, फोटो खिंचवा रहे थे। मैंने दोनों ही साइनस के फोटो लिए। थोड़ी देर फव्वारे का आनन्द लिया और आगे बढ़ गया।

अब मुझे जगमगाते वंडर देखने थे।

पार्क का गेट। कुछ लोग अंदर जा रहे थे और कुछ बाहर खड़े होकर खाने पीने का मज़ा लूट रहे थे
टिमटिमाते हुए बल्ब तारों का जमीन पर आने का आभास करा रहे थे
अपनी रोशनी से उद्यान को जगमगाता हुआ यह बाज बरबस ही आपको अपनी ओर आकर्षित कर देता है
ये मोर आपके स्वागत में पँख फैलाये खड़े रहते हैं
फव्वारा और उसका आनंद लेते बच्चे और बड़े
फव्वारे के एक तरफ एस डी एम सी का बड़ा सा साईन है
फव्वारे के दूसरे तरफ सेवेन वंडर्स ऑफ़ वर्ल्ड का साइन है

पार्क गोलाकार है और आप तरफ से चलना शुरू करतें हैं तो रास्तों में आगे बढ़ते हुए आपको अलग अलग अजूबे देखने को मिलते हैं। फव्वारे से होते हुए मैं आगे बढ़ा तो निम्न अजूबे दिखाई दिए।

गीजा का पिरामिड 

पीज़ा का झुका हुआ  मीनार

एफिल टावर

झुरमुट से झाँकता एफिल टावर
यही एकलौता ऐसा अजूबा है जिसके नीचे पब्लिक जा सकती है
टावर के नीचे सेल्फी खिंचवाते लोग

रोम का कोलोसियम 

ताज महल



क्राइस्ट द रिडीमर

लिबर्टी की मूर्ती

इन सभी अजूबों के अगल बगल में तख्तियाँ लगी हुई हैं। हर अजूबे के निकट दो तख्तियाँ हैं। एक तख्ती असल अजूबे के विषय में जानकारी देती है। दूसरी तख्ती पार्क में मौजूद अजूबों के प्रतिरूप की जानकारी देती है। पार्क के इन अजूबों के प्रतिरूपों का आकार क्या है, इनको बनाने के लिए किस किस तरह की सामग्री का इस्तेमाल हुआ है और इन्हे बनाने में कितना वक्त लगा है यह सब जानकारी आपको इन तख्तियों को पढ़कर मिल जाएगी। आप जब इधर घूमने जाएँ तो इन्हे जरूर पढ़ें। इस जानकारी को पढ़ने के बाद आप इन कलाकृतियों का असल महत्व समझ सकते हैं। आप जानेंगे कि इन प्रतिरूपों को बनाने में कितनी मेहनत लगी और फिर आप सोचते हैं कि इतने वर्षों पहले असल अजूबों को बनाने वाले इनसानों ने यह कारनामा कैसे सम्भव कर दिखाया होगा। आप यह सब सोचते हुए हैरत में पढ़ने के आलावा कुछ और नहीं कर सकते हैं।

यह सभी अजूबे जगमगा रहे थे और लोगों का ध्यान अपने तरफ आकर्षित करने में सक्षम थे।लोग इनके आस पास फोटो खिंचवाने में व्यस्त थे। मैंने भी काफी फोटो उतारे। वाकई कमाल का विचार था पुनीत गोयल जी का। आप जब पार्क में इन अजूबों की को देखते हुए चलते हैं तो आस पास रखी बेंचों में बैठ सकते हैं। पार्क में परिवार के बैठने के लिए भरपूर जगह और बेंच है। आप इधर बैठकर थोड़ा आराम कर सकते हैं और इन अजूबों का लुत्फ़ उठा सकते हैं। भागती दौड़ती ज़िंदगी में एक आराम की साँस ले सकते हैं।

जब अजूबे खत्म हो जाते हैं तो एक कृत्रिम छोटा सा झरना आपका स्वागत करता है।यहाँ पर एक पुल सा बना है जहाँ पर खड़े होकर आप इस झरने को गिरते देख सकते हैं।  इस झरने में कुछ मछलियाँ भी तैरती दिखाई दी जाती हैं। ये अलग बात है कि वहीं पर खड़े एक गार्ड साहब  ने बताया कि ये मछलियाँ प्लास्टिक की हैं। जब उन्होंने यह बताया तब कुछ बच्चे मछलियों को लेकर काफी उत्साहित नज़र आ रहे थे लेकिन उनकी बात सुनने के बाद उनके उत्साह में काफी कमी आ गयी। फिर भी वो बच्चे ये सुनिश्चित करने के लिए पुल पर खड़े रहे थे और पूरी तहकीकात करके ही उधर से आगे बढ़े थे।

झरने के आगे जाते ही कुछ तार के जानवर दिखाई देते हैं जो जगमग जगमग करते हुए आपके स्वागत के लिए खड़े रहते हैं। इन जानवरों को देखकर ऐसा लगता है जैसे आप किसी मायावी संसार में दाखिल हो गये हों। झरने का बहता पानी और यह चमकते जानवर आपको यह अहसास दिलाने के लिए काफी हैं कि आप किसी फंतासी लैंड में जी रहे हैं। अगर इसके अलावा इधर से गुजरते हुए जंगल की आवाजें भी आने लगे। जैसे जानवरों की गुर्राहट, झींगुर की आवाज़ें,पक्षियों की चहचाहट तो उद्यान में घूमने का मज़ा दोगुना हो जायेगा। क्यों क्या कहते हैं?

मैं चल ही रहा था कि यहीं पर कुछ ऐसा हुआ जिसने मेरा ध्यान आकर्षित किया। एक व्यक्ति फोटो खींचने के चक्कर में बाड़े को पार करके जानवरों के निकट पहुँच गया था। तभी पार्क में मौजूद गार्ड ने सीटी बजाकर उसे बाहर आने को बोला। जब गार्ड उन्हें टोकने गया तो वो उससे ही बहस करने लगे। ऐसे लोगों ने पर्यटक स्थल का माहौल खराब किया रहता है। मेरे हिसाब से ऐसे लोगों से सख्ती से  निपटा जाना चाहिए और इन पर जुर्माना भी लगाया जाना चाहिए। थोड़ी देर उधर बहस बाजी चलती रही जो कि एक तो चोरी ऊपर से सीना जोरी का उदाहरण थी।

झरने और जानवरों को पार करके जब आप आगे बढ़ते हैं तो आपको छतरियाँ  बनी दिखती  हैं जहाँ आप आराम से बैठकर अपने परिवार के साथ माहौल का मज़ा ले सकते हैं। इन्ही के सामने एक और चीज थी जो मुझे रेस्टोरेंट लग रही थी। उधर अभी काम चल रहा था तो मुझे उम्मीद है जल्द ही वह चालू होगा। इधर से बाहर को मैं निकला तो उसी फव्वारे के निकट पहुँच गया जहाँ से मैंने सफर शुरू किया था। वहीं पर एक ग्राफिटी था जिसने मेरा ध्यान अपनी और खींचा और मैंने उसकी कुछ तसवीरें निकाल ली।

मैंने इस चक्कर में तो काफी फोटो ही ली थी और पर अब मैं आराम से कलाकारी का लुत्फ़ लेना चाहता था तो मैंने एक और चक्कर मारने की सोची। मैंने दोबारा आराम से पूरे पार्क का चक्कर काटा। इस बार आस पास की तस्वीरें भी ली और फिर जब यह चक्कर खत्म हुआ तो पार्क से बाहर निकल आया।

जब तक मैं पार्क के बाहर तक पहुँचता हूँ तब तक आप पार्क के कुछ और चित्र देखिये।

पूरे पार्क में हरियाली से घिरे हुए ऐसे पथ बने हैं जिन पर चलते हुए आपको ऐसा लगता है जैसे आप किसी मायावी संसार में विचरण क्र रहे हैं
जगमगाता जिराफ और उसजे साथ खेलते कुछ नन्हे मुन्हे
पार्क में विश्राम करने के लिए बनाई गयी छतरी
पार्क में मौजूद छोटा सा झरना
कल कल बहता पानी अँधेरे में रोमांच पैदा कर देता है
पार्क में मौजूद जगमगाते जीव – हिरण जिराफ और हाथी
पार्क में मौजूद मायावी हाथी और बाघ
परिवारों के लिए बनाई गयी छत्रियाँ जहाँ बैठकर आप गप्पे मार सकते हैं
यहाँ विराजिए
आराम फरमाते सैलानी
पार्क के निकट इस ग्राफिटी ने मेरा ध्यान बरबस ही अपने तरफ आकर्षित कर दिया
इस पेड़ के पास सुनाने को कई कहानियाँ हैं
गोदी में चले आओ .. कहकर बुलाती बेंच

मैं पार्क से बाहर आया। लोग अभी भी अंदर आ रहे थे। बाहर का बाज़ार वैसे ही सजा हुआ था। मुझे कुछ खाने का मन नहीं था। हाँ, चूँकि मौसम में हल्की ठंडक थी तो एक कप चाय पीने का मन करने लगा। लेकिन मैंने सोचा पहले मेट्रो तक चल लेता हूँ। उधर पहुँचकर ही चाय पियूँगा। मैं अपने आप से वाकिफ हूँ। मुझे पता है कि अगर मैं इधर चाय पी लेता तो भी मेट्रो के नज़दीक पहुँच कर एक बार चाय पीता जरूर। इसलिए मैंने अपने मन को इधर कड़ा किया और कुछ और फोटो लेकर पार्क को विदा कहा।

पार्क के दोनों चक्कर मारने में मुझे कम से कम आधा घंटा-पैंतालीस मिनट लगे था। अगर दोस्तों के साथ मैं इधर आया होता तो आराम से इधर दो तीन घंटे बिता सकते हैं। अगर मेरी माने तो आप अँधेरा ढलने से एक आध घंटे पहले इधर आएं। और फिर अँधेरा ढलने के बाद पार्क में हुए बदलावों को देखें। दोनों का फर्क देखना अपने आप में बेहतरीन अनुभव होगा।  मैं इसका अनुभव आज तो नहीं ले पाया था लेकिन अगली बार जब आऊँगा तब जरूर ऐसा करूँगा।

पार्क के बाहर लगा बाज़ार
पार्क के बाहर लगी खिलौनों की दुकान

पार्क से पैदल ही मैं सीधे मेट्रो स्टेशन के नजदीक पहुँचा। जब मैं आया था तो 2 नम्बर गेट से निकला था। अब वापसी तीन नंबर गेट से करने वाला था। लेकिन उससे पहले मैंने एक चाय वाले भाई को ढूँढा। नज़दीक ही एक चाय वाले भाई थे। मैं उनके पास पहुँचा और एक कप चाय का आर्डर उन्हें दिया। चाय मिली तो मैंने एक मट्ठी भी ले ली। चाय मट्ठी खाये हुए काफी दिन हो गए थे। कुछ देर मैंने चाय और मट्ठी का स्वाद लिया।

मैं सोच रहा था कि यह एक छोटी मगर खूबसूरत घुमक्कड़ी साबित हुई थी। काफी दिनों से इधर आने की सोच रहा था और आज इस सोच को अमलीजामा मैंने पहना ही दिया।  चाय और मट्ठी खाते हुए मैं इससे संतुष्ट था। घुमक्क्ड़ी के जीवाणुओं को भी अपनी खुराक मिल गयी थी और वह अब शांत होकर आराम फरमा रहे थे। कुछ दिनों बाद उन्होंने फिर जगना था और फिर मुझे किसी और सफर पर निकलना था लेकिन तब तक के लिए मैं विश्राम कर सकता था।

मुझे अब सामने मेट्रो दिख रहा था और मेरे जेब में मौजूद किताब के पन्नों में दबा हुआ डेविड मुझे अपनी कहानी सुनाने के लिए वापस आतुर लगने लगा था। चाय बेहतरीन बनी हुई थी। मैंने चाय का आखिरी घूँट भरा, भाई साहब को पैसे दिए और चाय के लिए धन्यवाद दिया।

मैं अब मेट्रो की तरफ बढ़ने लगा।

मेट्रो गेट नम्बर 3 जहाँ मेट्रो और डेविड फेनेर मेरा इन्तजार कर रहा था

समाप्त 

#पढ़ते_रहिये_घूमते_रहिये #फक्कड़_घुमक्कड़

© विकास नैनवाल ‘अंजान’

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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0 Comments on “वेस्ट टू वंडर पार्क – दिल्ली”

  1. बहुत बढ़िया घुमक्कड़ी.. सुझाव भी अच्छे लगे । photos के साथ जानकारियां सजीव हो उठी ।

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