मोल्ठी #2 :बस्ग्याल तभी मनेलु जब छोया फुट्ला(बरसात तभी मानी जायेगी जब छोया फूटेंगे)

मोल्ठी #2 :बस्ग्याल तभी मनेलु जब छोया फुट्ला(बरसात तभी मानी जायेगी जब छोया फूटेंगे)
 यह यात्रा 7/9/2018, शुक्रवार  को की गई

अपने ननिहाल गये हुए काफी वक्त हो चुका था। पिछली बार दो हजार सोलह में अक्टूबर के महीने गया था। यह प्राइवेट नौकरी के श्राप ही है जिसके चलते कहीं भी जाना दुश्वार हो जाता है। जब घर आता था तो दो एक दिन के लिए ही आता था और इसलिए कहीं और जाने का वक्त ही नहीं लगता था। इस बार थोड़ी लम्बी छुट्टियाँ आया तो सोचा कि एक बार ननिहाल भी जाना चाहिए।

उधर दिल्ली से मामा भी आ रखे थे और उन्होंने भी फोन करके आने को बोला था। ऐसे में जाने के दो कारण थे ही। मामा के अच्छा टाइम पास भी हो जाता है। वैसे तो मैं गुडगाँव में ही रहता हूँ लेकिन उनके यहाँ जाने का वक्त भी नहीं लग पाता है। इसलिए मैं जाने के लिए तैयार था।

सुबह उठा। परसों इब्ने सफी का एक उपन्यास बहरूपिया नवाब पढ़ा था तो उसके विषय में एक पोस्ट की और फिर नहा धोकर पौड़ी बस स्टैंड पहुँच गया। नाना जी ने मुझे ब्लीच लाने के लिए कहा था। बरसात से होने वाली परेशानियों में काई भी थी। यह रास्ते में जम जाती है और रास्ते को फिसलने वाला बना देती है। बचपन में मुझे याद है बरसात के दिनों में हम कई बार ऐसे काई वाले रास्तों में फिसलते थे। अक्सर रास्तों के बगल में मौजूद दीवारों में कंडाली(बिच्छू घास) उगी होती थी और हम लोग बचने के लिए दीवार पकड़ते तो गीली कंडाली हाथ पर लग जाती और दोगुना चोट लगती।

अगर आपको कंडाली का अनुभव है तो यकीन मानिए फिसलकर गिरने और गीली कंडाली पकड़ने के बीच अगर आपको कुछ चुनना पड़े तो आप ख़ुशी ख़ुशी फिसलना कबूल करेंगे। हम भी यही करते लेकिन कई बार चीजें स्वचालित रिफ्लेक्स के कारण हो जाती है और फिर जो हाथ का हाल होता।वो  दुश्मन को भी न हो। इतनी चुभन होती है लगता है जैसे कई चीटियों ने काट दिया हो। जहाँ पर कंडाली लगती उधर ऐसे सूज जाता जैसे चींटी के काटने पर होता है। उस जगह को घिसते घिसते हालत बुरी हो जाती और जब तक घर में जाकर हम लोग उस हिस्से पर सरसों का तेल नहीं मल देते तब तक चैन नहीं मिलता। वैसे तो पहाड़ी घरों में कंडाली का प्रयोग उद्दंड बच्चों को ठीक करने के लिए होता है। पर वह अक्सर सूखी कंडाली होती है। गीली होकर उसकी मारकक्षमता कई गुना बढ़ जाती है और घर वाले इतने निर्दयी नहीं होते कि गीली से वार करें।

खैर, ये तो काई से जुड़ी यादें थी जो इसका नाम सुनते ही मन के किसी कोने से बाहर आ गई थीं। और इसी काई को निकालने के लिए नाना जी ने ब्लीच मंगवाया था ताकि साधाराण रास्ते में चलते हुए खतरों के खिलाड़ी न बनना पड़े। गाँव के विषय में मुझे यह पता चला भी था कि कई लोग फिसल कर गिर चुके थे। मैंने दुकान से ब्लीच लिया और स्टेशन पहुँच गया।

साढ़े नौ बजे का वक्त था और अब मुझे किसी गाड़ी का इन्तजार था। मुझे पैडुल जाना था जो कि पौड़ी से तेरह चौदह किलोमीटर दूर था। पहले मन में था कि कोई ट्रैकर(मैक्स) वगेरह कोटद्वार या सतपुली जा रही होगी तो उसी में बैठ जाऊँगा। पर ख्याल करने के लिए आदमी स्वतंत्र होता है। होता वही है जो होना होता है।

मुझे दस बजे तक कोई गाड़ी नहीं मिली। एक कोटद्वार सतपुली के लिए बस लगी हुई थी और मेरी नज़र उस पर थी लेकिन वो चलने का नाम नहीं ले रही थी। मैने सोचा था कि अगर वो चलेगी तो उससे ही पेडुल तक जाऊँगा। सवा दस बजे तक इन्तजार करने के बाद जब दूसरी कोटद्वार सतपुली वाली बस आ गई तो मजबूरन उसे आगे बढ़ना पड़ा। बस चलने के लिए हिली डुली तो मैं भी उसमे सवार हो गया। भीड़ ज्यादा नहीं थी और मैं बोनट के बगल में जो तीन सीटर सीट होती है उसमें से आखिरी वाली में बैठ गया। पहले ही दो लोग उसमें बैठे हुए थे। बस चलने लगी और फिर मैंने बीस रूपये पैडुल तक के दिए और अपने साथ लाया गया अजीत कौर जी का उपन्यास पोस्टमार्टम खोल दिया।

इस उपन्यास की कहानी एक लड़की सुना रही है। वो अपने से दो साल छोटे शादी शुदा आदमी के साथ प्रेम सम्बन्ध में है। इसी सम्बन्ध का शायद वो पोस्टमार्टम कर रही है। मैं बीच में था तो अभी तो कयास ही लगा सकता था।

पैडुल आने में ज्यादा वक्त नहीं लगना था। मुश्किल से आधा घंटा लगा होगा। मैंने कुछ पृष्ठ पढ़ लिए थे और जैसे पसुन्डाखाल आया तो एक बार को मुझे लगा पैडुल आया होगा। अब जब इतनी दिनों बाद आना जाना होगा तो ऐसी गफलत होना लाजमी था। कंडक्टर साहब से एक वृद्दा ने भी यही सवाल किया कि पसुंडा आया या पैडुल? और उनके सवाल के जवाब ने भी मेरी शंका का निवारण किया। इधर से पैडुल कुछ ही किलोमीटर दूर था तो मैंने किताब अंदर रखी और आँख मूँद कर बैठ गया। किताब न हो तो मुझे नींद आने लगती है। लेकिन फिर आँख खोल ली। क्योंकि बस चलने लगी थी और थोड़ी देर में मेरा गंतव्य स्थल अना था।

जिस सीट में बैठा था उसकी एक खराबी यह भी थी कि देखने के लिए ड्राईवर को छोड़कर कुछ नहीं होता। बाहर की तरफ देखना हो तो गर्दन को किसी न किसी कोण में मोड़ना होता है और  आप इस अवस्था को ज्यादा देर तक बरकरार नहीं रख सकते हैं। खैर, मुझे भी ज्यादा देर तक यह सब न करना पड़ा क्योंकि जल्द ही बस पैडुल पहुँच गई थी।

मैं बस से उतरा और मोल्ठी जाने के लिए निकला। मोल्ठी जाने के लिए पहले हम गाँव के बीच से होकर जाते थे। यह रास्ते ऊबड़ खाबड़ होते थे और पहाड़ी पगडंडियों से होकर जाता था। यह सब बहुत दिनों पहले की बात थी। अब एक सीधी रोड बन गई थी जो सीधा मोल्ठी तक जाती थी। पिछली बार मैं उसी रोड से पैडुल से पैदल गया था और आज  भी मेरा यही विचार था।

मैं सड़क से नीचे को उतरा। सड़क से उतर कर एक दुराहा था और मैं  थोड़ा संशय में था कि किस दिशा में मोल्ठी जाने वाली रोड थी। वहीं कुछ व्यक्ति बैठे हुए थे।

मैंने उनसे पूछा-“भाई साहब, मोल्ठी जाणो रस्ता कू च? (भाई साहब मोल्ठी जाने का रास्ता कौन सा है?)”
“यख बटी चल जा(रस्ता तरफ इशारा करिकी)। सीधा रोड आली। (यहाँ से (रास्ते के तरफ इशारा करते हुए ) चले जाओ। सीधा मोल्ठी की रोड आएगी।)”,उनमें से एक व्यक्ति बोला
“शुक्रिया।”,मैंने कहा
उन्होंने शुक्रिया के जवाब में अपने सिर को हल्की से जुम्बिश दी और मैं इंगित रास्ते की तरफ बढ़ चला। वो अपनी बातों में दोबारा तल्लीन हो गये थे।

मैं जब पैडुल उतरा था तो नानाजी का कॉल आ गया था। उन्होंने कहा कि मैं उधर से गाड़ी करके भी आ सकता हूँ। टैक्सी वाले ने सौ रूपये ही लेने थे। लेकिन यह बरसात का मौसम था। हर जगह हरियाली थी और इस कारण गाड़ी में जाने का मेरा कोई विचार नहीं था। मुझे पैदल जाना था और मैंने उन्हें कहा कि मैं पैदल आऊँगा। वैसे भी दो ढाई किलोमीटर का ही तो रास्ता था। नानाजी हँसने लगे। वो मेरी आदत से वाकिफ थे।

मैं रास्ता में था तो मुझे यह दिखा। एक छोटी सी धारा बह रही थी। सामने हरी भरी पहाड़ी थी और बहते पानी की ध्वनी कल कल करती हुई संगीत सा सुना रही थी। मैंने उसकी तस्वीर उतारा और सोचा आज मोल्ठी जाने का रास्ता बरसाती श्रृंगार में दिखेगा। मुझे याद नहीं था कि कब मैं पिछली बार इधर बरसात के मौसम में गया था।वैसे तो पिछली बार जब मोल्ठी गया था तो रास्ते में हरे भरे पेड़ और जंगल मिले थे लेकिन बरसात के मौसम में जो चटक हरी चुनरी पहाड़ और खेत  ओड़ लेते है उससे जगह के सौन्दर्य में चार चाँद लग जाते हैं।

अब मैं आगे बढ़ता जा रहा था और तसवीरें खींचता चला जा रहा था। एक रोड बनी हुई थी जिसपर मुझे आगे बढ़ना था लेकिन मैं रह रह कर पीछे मुड़ता या आसपास के नजारे देखता। मेरा मन कर रहा था कि ऐसा कोई भी दृश्य न हो जिसे मैं मिस कर सकूँ। मैं हर चीज को अपनी आँखों,स्मृति और कैमरे में कैद करना चाहता था। गाँव तक पहुँचने  में मुझे पौना घंटा लगा होगा। मैं दस इक्यावन को पैडुल पर उतरा था और ग्यारह चालीस तक गाँव पहुँच गया था।

गुडगाँव में रहते हुए ही मैंने सुना था कि मोल्ठी के भैरों मंदिर का पूरी तरह से पुनर्निर्माण हो चुका है। वो मंदिर अब दूर से ही दिख रहा था और गाँव की खूबसूरती को चार चाँद लगा रहा था। दूसरे और भी कई बदलाव उधर हुए थे। अयाल में एक मुर्गी फार्म खुल चुका था जो कि पहले नहीं था। कुछ घर और बन गये थे। कुछ दुकाने खुल गई थीं।

मेरा हमेशा से मानना रहा है कि आप किसी एक जगह पर ज़िन्दगी में दो बार नहीं जा सकते। क्योंकि जब अब दोबारा जाते हो तो उस वक्फे के बीच कुछ आप बदल चुके होते हो और कुछ वो जगह। वो चीज इधर दृष्टिगोचर हो रही थी। इन दो वर्षों में कुछ मैं बदल गया था और काफी कुछ मोल्ठी बदल गया था।

मैं गाँव में दाखिल हुआ और घर पहुँचा। मैं मामा,नानीजी और नानाजी से मिला। कुछ ही देर में चाय आ गई। अब मैं थोड़ा चाय पी लेता  हूँ तब तक आप निम्न तस्वीरों का लुत्फ़ उठाईये।

गाँव पहुँच गया
रास्ता
कंडाली

हमने चाय पी। इधर उधर की बात की और फिर दिन का खाना खाया। इसके बाद थोड़ा आराम किया। नानाजी ने घर में गमले लगाये हुए थे तो मैंने फूलों की कुछ तसवीरें ली। मैं आज आया हुआ था तो मैंने सोचा कि मैं इस बार धारा भी होकर आऊंगा।

हर गाँव में एक धारा होता है जहाँ से लोग पानी भरते हैं। यह पानी का प्राकृतिक स्रोत होता है जहाँ से आपनी आता रहता है। हम जब छोटे में इधर आते थे तो नहाते भी थे। धारे का पानी कई बार काफी ठंडा होता है और इसके नीचे नहाने में मजा आता था। इसके अलावा मैं नया नया बना मंदिर भी देखना चाहता था। मैंने मामा से इस विषय में बोला और भी जाने को तैयार हो गये। उन्होने कहा कि इधर एक नर्सरी भी खुली हुई है जहाँ सबज़ियाँ उगाई जा रही हैं। खेतों में तो बंदर कुछ रखते नहीं तो लोग नर्सरी से खीरे, मुंगरी(मक्के), और दूसरी छोटी मोटी सब्जियाँ खरीद कर ला जाते हैं।

बंदरों का आतंक तो पौड़ी में भी था। वो आते थे और खीरे,टिंडे, बैंगन,मुंगरी सब पर हाथ साफ करके चले जाते थे। मम्मी मुझे उन्हें भगाने के लिए कहती तो मैं कहता कि वो कहाँ जायेंगे। उनके लिए बचा ही कहाँ है। तो मुझे मम्मी से सुनने को मिलता- वो तेरी तरह आलसी हैं। जैसे तू आलस के कारण बहाने मार रहा है वैसे ही उन्हें भी अब जब इधर सब आसानी से मिल रहा है तो वो जंगल में मेहनत करके कुछ क्यों ढूँढने लगे। मैं झेंपकर सा रह जाता।

बन्दर पहाड़ में हर गाँव में हो चुके हैं। इधर भी बंदरों का आतंक था। इसमें कोई नई बात नहीं थी।  लेकिन यह नर्सरी भी मेरे लिए नई थी। लोग मेहनत कर रहे थे और नर्सरी और मुर्गी फार्म इस बात का सबूत था कि उनको मेहनत का फल भी मिल रहा था। दोनों ही सही चल रहे थे। यह जानकार मुझे अच्छा लगा।

हम थोड़ी देर लेटे रहे और फिर उठकर घूमने जाने के लिए तैयार हो गये। मामा पहले मंदिर जाना चाहते थे लेकिन मैंने कहा कि मंदिर ऊपर है और धारा नीचे तो पहले धारा होकर आते हैं और उसके पश्चात आखिर में मंदिर होकर वापस घर आयेंगे। उन्होंने भी हामी भर दी। हम गाँव से होते हुए सड़क पर आ गये। यह वही सड़क थी जो गाँव तक आती थी। धारा पर मेरी जो भी याद है वो बचपन की है। उस वक्त गाँव के बीच से ही उधर होकर जाया जाता था। हम दस जून के मेले या पुजाई में इधर आते थे। मोल्ठी का दस जून का मेला काफी प्रसिद्द है। कभी उस दिन भी इधर आऊँगा। खैर, हम इधर आते और सुबह बच्चों को नहाने के लिए धारे में ले जाया जाता। जब बड़े लोग बाल्टी से ठंडा ठंडा पानी हमारे सिर पर उड़ेलते तो सांस सी अटक जाती थी। पहले तो ठंड लगती लेकिन एक बार शरीर को पानी की आदत हो जाती तो नहाने में मजा आने लगता। लेकिन यह यादें बचपन की थी। मुझे नहीं याद कि वयस्क होने के बाद मैं कभी धारे में गया होऊँगा। हम गाँव से उतरकर सड़क पर आये और उस सडक पर आगे बढ़ गये।

हम चल रहे थे तो सड़क पर पानी की धार बह रही थी। मामा ने कहा कि- छोया फूट्या छन(छोया फूटे हुए हैं)।
मैं – छोया क्या हौंदन? (छोया क्या होते हैं?)

यह शब्द मैंने पहली बार सुन रहा था।

मामा – बारिश के मौसम में  जब काफी बरसात हो जाती है तो पानी जमीन से फूटकर निकलने लगता है। उसे छोया कहते हैं। नानाजी इस बार दिल्ली आये थे तो कह रहे थे कि- अब ब्स्ग्याल चलणु च किले कि छोया फुटन लग ग्येनी। अब जाकर बरसात हो रही है क्योंकि अब छोया फूटने लगे हैं।

मेरे लिए यह अचरच की बात थी। हम गाँव, उसकी संस्कृति और उसके शब्दों के इतने कट चुके हैं कि इन बातो का हमे पता ही नहीं है। हमने आजतक शहरों में छोया देखा नहीं। देखा है तो नालियाँ जिससे बरसात का गंदला पानी बहकर यातायात और जनजीवन को अस्त व्यस्त कर देता है। अगर इस तरह गाँव आते तो कभी छोया देखने को मिलता और तभी कोई बताता। लेकिन कहते हैं कभी नहीं से अब सही। अब मैं छोया देख रहा था। पहाड़ के पत्थर वैसे तो पूरे साल भर गीले से रहते हैं। हल्का हल्का पानी उनसे रिस्ता रहता है। लेकिन कहते हैं बरसात के मौसम में जब अच्छी बारिश हो जाती है तो पानी का स्तर इतना हो जाता है कि जगह जगह से पानी के स्रोत फूटने लगते हैं। जमीन को चीर कर पानी बाहर आने लगता है। और यही फूटता पानी अच्छी बारिश का मापदंड है।

हम ऐसे ही आगे बढ़ते जा रहे थे। मामा ने मुझे अपना स्कूल दिखाया, अपने खेत दिखाए, जंगल के वो पेड़ दिखाए जो उनके हिस्से के हैं। वो एरिया भी दिखाया जहाँ से एक पेड़ तब काटा गया था जब मम्मी की शादी हुई थी। उरेगी का स्कूल दिखया।एक घाट भी दिखाया जिसे चखुड़ी घाट कहते थे। यह वह जगह थी जहाँ आस पास के लोग मृत लोगों की अंतिम क्रिया करवाने के लिए आते थे। उन्हें उधर जलाया जाता था। मैं सब चीजो को सुन रहा था और तस्वीरे लेते जा रहा था। मामा का बचपन इधर बीता था। वो अपनी यादों में खोये हुए थे। वो भी दिल्ली से न जाने कितने वर्षों बाद आये थे।

हम काफी आगे गये और फिर वापस हो लिए।

जब हम वापस आ रहे थे तो मामा ने कहा – “तुझे पता है कि चीड़ का जंगल कैसी आवाज़ करता है।”
अब मैं उन्हें क्या कहता? मुझे तो ये नही पता चीड़ का पेड़ क्या होता है। उन्होने पेड़ों की तरफ इशारा करते हुए कहा। ध्यान से सुन। मैंने सुनने की कोशिश की और जंगल से सूं सूं की आवाज़ आ रही थी। हवा के चलने से ये हो रहा था। मुझे ध्यान लगाते देखा तो कहा कि पानी की आवाज़ पर ध्यान मत दे तब सुनाई देगा। फिर उन्होंने कहा कि वो सूं सूं की आवाज़ करता है। वह लोगों को पुकारता है।
आज उसकी पुकार मैंने पहली बार सुनी थी। एक अलग सा अनुभव था।

अब हम आगे बढे। नीचे नर्सरी दिख रही थी। मामा ने कहा उधर जाना है?

मैंने कहा कि धारा ही चलते हैं। उधर जाकर क्या करेंगे? उन्होंने हामी भरी और हम आगे बढे। कुछ देर बाद हम धारे में थे। धारे के बगल में रोड बन गई थी जिस कारण वो गहराई में धंसा हुआ सा प्रतीत हो रहा था। देखकर दुःख सा हुआ। यह सीमेंट के बने रास्ते के कारण था। विकास का एक पहलू यह भी है। विकास तो हो रहा है लेकिन कई चीजे लुप्त होती जा रही है। वो धंसती जा रही हैं। कुछ इस धारे के तरह और ऐसा ही रहा तो कभी वो चीजें गायब ही हो जाएँगी। उम्मीद है इस धारे के साथ ऐसा न हो।

हम थोड़ी देर उधर रुके और धारे का पानी पीया। उधर बहते पानी का आनन्द लिया। फिर हम लोग गाँव की तरफ बढ़ चले। अब हमे मंदिर जाना था। लेकिन जाने से पहले कुछ बातें मोल्ठी के भैरवनाथ मंदिर के विषय में जान लेते हैं:
– यह मंदिर ममगाई वंशजों के अराध्य देव हैं
-भगवान् भैरवनाथ शिव के अवतारी हैं और उन्ही की तरह शांत और क्रोध दोनों ही गुण रखते हैं
-मोल्ठी गाँव में स्वयं नाद्बुद्ध भैरव की पूजा अर्चना होती है, जो खुद को पांच वर्ष का बालक बताते हैं
-पूर्वजों के अनुसार इस मन्दिर को चार सौ से ऊपर वर्ष हो चुके हैं
-उन्हीं के अनुसार मोल्ठी गाँव चाँदपुर गढ़ी के प्रथम राजा द्वारा ममगाई वंशजों के लिए बसाया गया था। उन्होंने यहाँ मंदिर के आलवा न्यायालय भी बनाया था
– दस जून को इधर मेला होता है जो कि काफी प्रसिद्ध है।

इसके आलवा उधर मंदिर से जुड़े कई ऐतिहासिक किस्से जुड़े हुए हैं। कुछ के साथ तो अलौकिक बातें भी जुडी हैं।  ऐसे ही कई किस्से उधर मौजूद एक पैम्फलेट पर दिए गये हैं। उनकी चर्चा किसी और दिन करूंगा।

मंदिर का इतिहास दर्शाता पैम्फलेट  

गाँव से होते हुए हम मंदिर पहुँचे। मंदिर पुनर्निमाण के बाद अब  भव्य लग रहा था। थोड़ी देर हम मंदिर के प्रांगण में रहे। हल्की हल्की बारिश शुरू हो चुकी थी। वहीं पर एक महिला बैठी हुई थी जो रिश्ते में नानी लगती थी। मामा उनसे बात करने लगे। मैंने नमस्ते किया। मंदिर के पीछे ही एक खेत था जिसको दर्शाते हुए मामा ने कहा कि वो उधर बचपन में मैच खेला करते थे। महिला ने यह सुनकर कहा कि अब भी उधर मैच होता है। बारिश हो रही थी तो मैंने फोन को अन्दर रख दिया था। फिलहाल मन्दिर में भैरवनाथ जी मूर्ती नहीं थी। वह टूट गई थी तो नई मूर्ती लाई गई थी। पुरानी मूर्ती को जलमग्न कर दिया गया था। मूर्ती होती तो मैं उसकी फोटो भी खींचता। चलो किसी और दिन आना होगा तो मन्दिर से जुड़े ऐतिहासिक किस्सों के साथ फोटो भी लगाऊंगा। मंदिर के दरवाजों में अभी ताला लगा था। सुबह शमा उधर भजन बजते थे। आजकल यह ड्यूटी नानाजी निभा रहे थे। चाबी उन्ही के पास थी। मामा ने ही यह मुझे बताया।

अब हम वापस जाने लगे। मंदिर देखकर मेरे मन के एक ख्याल आया था। उसके छत में बनी पट्टी पर गणेश जी और उनकी दो पत्नियों की मूर्तियाँ थी। मंदिर भैरों का था। मुझे यह बात अटपटी लगी। पहाड़ों के अपने देवी देवता रहे हैं। चामुंडा देवी, झाली माली,राज राजेश्वरी,धारी देवी,नागराजा,नरसिंह इत्यादि। एक अलग संस्कृति है। ऐसे में अपनी पहचान को बचाए रखना चाहिए। मुझे तो ऐसा लगता है। अगर उधर मूर्तियाँ भैरों से जुड़ी होती तो शायद ज्यादा प्रासंगिक होता। मन में यह ख्याल आया तो मामा से कहा। उन्होने बोला अब मंदिर में सजावट के लिए ऐसे ही किया जाता है। फिर भी मेरे मन में था कि अगर मन्दिर से जुडी मूर्तियाँ उधर उकेरी गई होती तो शायद मंदिर थोड़ा यूनिक और ज्यादा कलात्मक बनता। फिर उनकी कुछ कहानी होती और जिस देवता को मंदिर समर्पित है उससे लोग ज्यादा परिचित होते। मैं मन्दिर कमिटी का हिस्सा होता तो यह सुझाव देता। पर नास्तिक लोगों को ऐसी समिति का हिस्सा नहीं बनना चाहिए। इसलिए ख्याली पुलाव पकाकर ही मैं खुश हो गया।

बारिश अभी भी हो रही थी। मंदिर के ऊपर ही एक प्राथमिक विद्यालय था। हम उस तक गये। मामा भी उधर पढ़े थे।  और फिर उधर से होकर वापस हम घर आ गये।

घर आकर हमने चाय पी और उसके पश्चात तैयार होकर पौड़ी के लिए निकल गये।

आज की यह यात्रा अच्छी हुई थी।काफी कुछ जानने को मिला था। काफी कुछ सीखने को भी मिला था। पैडूल पहुँचने के बाद हम गाड़ी आने का इन्तजार करने लगे। आधा पौने घंटा इन्तजार के बाद गाड़ी आई और हम उस पर सवार होकर हम पौड़ी के लिए बढ़ चले। जब तक मैं और मामा घर पहुँचते हैं तब तक आप इन तस्वीरों का आनन्द लें।

गाँव के घर में मौजूद फूल
गाँव के घर में गमले में उगे कुछ फूल
गाँव के घर में गमले में उगे कुछ फूल
घर से दिखता मंदिर
नर्सरी
छोया फूट गया
छोया फूट गया है
दूर वो उरेगी का स्कूल दिखता हुआ
चखुड़ी घाट
सुलू या सुरेयी का कैक्टस…मामा कहते थे कि इससे रबर भी बनाया जाता था
भैरों का मंदिर
मोल्ठी का धारा
धतूरे का फूल
धतूरे का फूल
भैरों देवता का मंदिर

चलिए तो ये थी एक दिन की छोटी सी घुमक्कड़ी। अब किसी और यात्रा में मिलेंगे। तब तक के लिए पढ़ते रहिये और घूमते रहिये।

#रीड_ट्रेवल_रिपीट
#फक्कड़_घुमक्कड़
©विकास नैनवाल ‘अंजान’

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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19 Comments on “मोल्ठी #2 :बस्ग्याल तभी मनेलु जब छोया फुट्ला(बरसात तभी मानी जायेगी जब छोया फूटेंगे)”

  1. कमाल का यात्रा वृतांत बहुत दिन बाद ऐसा कुछ पढ़ा, यक़ीन मानिये बहुत जबरदस्त लगा | पहाड़ी क्षेत्र का आकर्षण मुझे हमेशा से रहा और अगर वो इस तरह का मौसम में हो तो

    आप बहुत किस्मत वाले है जो इन चीजो का देख महसूस कर सकते ��
    वैसे एल बात बता दू की चीड़ का पेड़ मैंने देखा है ��

    अंत में
    एक बेहतरीन यात्रा वृतांत ������ दिल खुश हो गया

  2. वाह बहुत बढ़िया नौनिहाल की घुमक्कड़ी…एक हर घुमकक्कड़ी में आपका उपन्यास पढ़ना कायम है….दूसरा उत्तराखंड के सूदूर गाव की बढ़िया घुमकक्कड़ी करवाई आपने…बहुत बढ़िया भाई…

  3. जी उपन्यास तो घुमक्कड़ी का साथी रहा है। कुछ कहानियाँ घुमक्कड़ी बनाती हैं और कुछ कहानियाँ उपन्यास बनाते हैं। आपका कमेन्ट हमेशा प्रोत्साहित करता है। दिल से शुक्रिया प्रतीक भाई।

  4. बहुत सुन्दर, अति सुन्दर विकास जी| बहुत ही अच्छा लगा आपका ननिहाल का यात्रा वृत्तांत पढ़कर और साथ मे जो आपने तस्बीर को भी शामिल किया है अपने यात्रा के दौरान ली हुई| इससे तो और भी मनोरम हो गया| ऐसा लग रहा था मानिये पढ़कर की मे खुद भी आपके साथ यात्रा कर रहा हु| बहुत दिनों बाद हिंदी मे इस तरह का लेख पढने को मिला| मे आपके ब्लॉग से वाकिफ नहीं था| दरअसल मे हुआ यु की मे गूगल मे एक शब्द ढूढ़ रहा था| और ओ शब्द 'छोया' था| इसी शब्द के खोज के दौरान मे आपके ब्लॉग तक पहुच गया और आपकी सुन्दर सी ब्रितांत को पढने को मिला और इतना ही नहीं साथ मे में जिस शब्द की तलाश मे था उसका बिस्तृत रूप से बर्णन किया हुआ मिला| यहाँ पर में आपको आपकी भासा का भी तारीफ करना चाहूँगा| आपने बहुत ही खुबसूरत और सुद्ध हिंदी मे लिखा है और ऐसी कई शब्दों का प्रयोग किया है जो हम आमतोर पर इस्तोमाल नहीं करते या सुनने को नहीं मिलते पर बहुत ही खुबसूरत होते है ये शब्द जैसे की "कयास","गफलत" इत्यादि| अंत मे यही कहना चाहूँगा की बहुत ही अच्छा लगा और उम्मीद है की आगे भी आपकी लेखनी को ज्यादा से ज्यादा पढने को मिले| शुक्रिया|

  5. तहे दिल से शुक्रिया कृष्णा जी। मैं भी कोशिश करूंगा ब्लॉग पर अधिक से अधिक लिख सकूँ। आप इदह्र आये और अपने विचारों से मुझे अवगत करवाया। मैं अभीभूत हूँ। अपना ये प्यार बनाये रखें। यह मुझे लिखने को प्रेरणा देता रहेगा।

  6. Wow, lovely what a beautiful place.It is not a famous place but it's natural beauty is better than many more famous places. Personally I like unusual n rare natural spots, I don't like well developed n professionalism places. Thank u very much for your guidance, I must want to go that natural , beautiful n green spot.

  7. बहोत ही‌ जबरदस्त वृत्तांत विकास जी!! मज़ा आया! थोड़ा मार्गदर्शन करेंगे जी? एक तो फोटो का अलाईनमेंट बड़ा ठीक हुआ है, उसे कैसे किया? मेरे ब्लॉग पर तो उसमें ब्लॉगर के सेटींग्ज बदलने के बाद गड़बड हो रहा है| और वो वॉटर मार्क कैसे चिपकाए फोटोज पर? मार्गदर्शन के लिए धन्यवाद! 🙂

  8. अत्यंत सुन्दर लेखनी, आत्मीयता से भरपूर। बिल्कुल वैसे जैसे मेरा कोई दोस्त मेरे साथ बैठकर मुझे अपनी यात्रा के बारे में बता रहा है, तस्वीरें दिखाते हुए।

  9. वाह एक और बढ़िया यात्रा वृतांत। धन्यवाद इसे विस्तार से लिखने के लिए। प्राकृतिक दृश्यों को देखकर विश्वास करना मुश्किल हो रहा था परंतु आपने स्वयं उन चीजों को अपनी नंगी आंखों से अनुभव किया है अहा कितना सुखद रहा होगा। आपके अंदर खूबसूरती से छायाचित्र लेने की कला भी बखूबी है। धतूरे का फूल पहली बार देखा जो कि मुझे इस वृतान्त में हटकर लगा। एक बार फिर से आपका शुक्रिया।।

  10. जी ब्लॉग आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। वाटरमार्क के लिए कई टूल्स आते हैं। उसका इस्तेमाल कर सकते हैं। मैं तो कई बार पैंट से ही वाटरमार्क लगा देता हूँ अगर फोटो कम हैं तो। अलाईनमेंट में तस्वीर को थीम के अनुसार बड़ा छोटा ही लगाना होता है। ब्लॉगर में तस्वीर की सेटिंग से हो जाता है। जल्द ही इस पर भी कुछ लिखता हूँ।

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