मैकलॉडगंज ट्रिप #4 – मैकलॉडगंज

मैकलॉडगंज ट्रिप
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सोमवार १२ दिसम्बर २०१६

आज ट्रिप का तीसरा एवम आखिरी दिन था। हमने आखिरी दिन म्क्लोडगंज घूमने के लिए रख दिया था। इसका एक कारण ये था कि कि इधर देखने के लिए मुख्यतः पाँच पॉइंट्स थे जिन्हें आसानी से कवर किया जा सकता था और फिर साढ़े पांच बजे हमारी बस भी जिसे पकड़ कर हमे गुडगाँव जाना था।

सुबह मेरी नींद सवा पांच बजे के करीब खुल गयी थी। मैं फ्रेश होने गया और फिर दुबारा लेट गया। नींद नहीं आ रही थी तो सोचा कि थोडा ब्यौरा लिख दूँ। फोन पर वही लिख रहा था। मनन को उससे दिक्कत हो रही थी क्योंकि कीपैड की आवाज़ हो रही थी तो मैंने लिखना बंद कर दिया(ये कहना सही होगा कि मुझसे उसे बंद करवा दिया गया :-p :-p ) और लेट गया। मैं उस वक्त बागबान के अमिताभ की तरह महसूस कर रहा था। उसकी टाइपिंग जब बंद करवा दी गई होगी तो उसे कितना दुःख हुआ होगा यह आज मुझे असल में मालूम हुआ था। अब कुछ नहीं हो सकता था तो अपने दुःख को अपना लिहाफ बनाया और अपनी टांग से मनन पर दुलत्ती मारने की इच्छा की लेकिन फिर बिना कुछ किये सो गया।

फिर मेरी नींद साढ़े आठ बजे खुली। मैने मनन से कहा कि वो कॉफ़ी पिएगा तो उसने कहा कि हाँ तो मैंने रिसेप्शन पे फोन करके अपने लिए एक चाय और एक कॉफ़ी मंगवाई। थोड़ी देर बार रिसेप्शन से कॉल आया और उन्होंने कहा कि आपकी नाश्ते वाली चाय तैयार है तो उसके अतिरक्त आपको चाय और कॉफ़ी चाहिए तो मैंने उन्हें वही नाश्ते वाली लाने को बोला।

फिर प्रशांत भी रूम में आ गया और उसने कहा कि साढ़े नौ बजे तक तैयार हो जायें क्योंकि तभी गाड़ी वाला आने वाला था।  चाय और कॉफ़ी भी आ चुकी थी तो मैंने चाय पी और उसके बाद मनन चूँकि तैयार हो चुका था तो मैं भी तैयार हो गया।

फिर हमने नीचे जाकर नाश्ता किया। नाश्ते में चाय पराठे और ओम्लेट ही था। नाश्ता करते हुए  मनन की लिखना बंद करवाने वाली बात पर टांग खींची। मैंने कहा मनन ने मुझे  बागबान के अमिताभ जैसा फील करवाया। जैसे उसका बेटा उसे रात में किताब लिखने से रोक देता है वैसे ही ये मुझे डायरी लिखने से रोक रहा था।  इसी तर्ज पर थोड़ा बहुत मज़ाक हुआ। उसकी काफी टांग भी खींची।

फिर हम रूम में आये और सामान लेकर नीचे गये। मुझे लग रहा था कि हम गाड़ी से ही बाकी पॉइंट्स जायेंगे लेकिन नीचे पहुंचकर पता लगा कि पहला पॉइंट जो कि भाग्सू  वाटरफॉल था उधर हम पहले पैदल चल लेंगे और फिर बाकी के पॉइंट्स गाड़ी से ही कवर किये जायेंगे।  तो अब आज का  भ्रमण शुरू हो चुका था।

१) भाग्सू वाटर फॉल, शिवा कैफ़े और भाग्सू नाग मंदिर  
भाग्सू जल प्रपात हमारे होटल से ज्यादा दूर नहीं था। भाग्सू जल प्रपात तक जाने के आपको एक भाग्सूनाग  मंदिर से होकर गुजरना पड़ता है। इस मंदिर में एक कुण्ड भी था और एक हस्त कला की दुकान भी थी। हमने निश्चय किया कि पहले प्रपात देख लिया जाए और फिर वापस आते हुए अगर मन किया तो मंदिर देखा जायेगा। तो हम जल प्रपात की तरफ बढ़ चले।

जल प्रपात की ओर बढ़ते हुए मुसाफिर अनीषा और प्रशांत
जल प्रपात दूर से दिखता हुआ

जल प्रपात पहुंचे तो उधर पानी का स्तर काफी कम था। जब हम इधर के लिए निकल रहे थे तो हमसे कहा गया था कि जल प्रपात के ऊपर एक शिवा कैफ़े नाम की जगह है जो बहुत खूबसूरत है और हमे उधर जरूर जाना चाहिए । जल प्राप्त पे पानी इतना नहीं था और पर्यटकों की भीड़ भी बहुत थी। इसलिए हमने थोड़ी देर उधर रूककर शिवा कैफ़े जाने का निश्चय किया।

शिवा कैफ़े के लिए रास्ता बना ही हुआ था। तो जाना सरल था।
इधर एक मज़े दार वाकया हुआ। जब हम ऊपर चढ़ रहे थे तो कुछ लोग खच्चरों को लेकर नीचे आ रहे थे। प्रशांत सबसे आगे था। हमने खच्चरों को देख लिए था और चूँकि रास्ता संकरा था तो हम ऐसी जगह पे रुक गये थे जिधर से वो जा सके। प्रशांत हमसे आगे था। थोड़ी देर में प्रशांत हमे भागते हुए नीचे आता हुआ दिखा। ये देखने में बहुत ही फनी था। हम बहुत हँसे। उसने कहा वो भी किनारे को हुआ तो था लेकिन खच्चर उसके तरफ आते जा रहे थे जिससे वो डर सा गया था। हमारी हँसी उसको भागते देख रुक नहीं रही थी। बस मुझे एक बात का मलाल रहा कि हम ऐसे में उसकी कोई फोटो नहीं खींच पाए वरना बार बार उसकी फोटो देखकर हँसते।

कैफ़े के तरफ जाने का दिशा निर्देश देता बोर्ड
पहाड़ों पर कुछ बकरियाँ भी घास चरते हुए मिली
ऊपर से खच्चर आते हुए। ऐसे ही कोई खच्चर प्रशांत की दौड़ का कारण बने थे।
मनन अपनी कुटिल मुस्कान के साथ
शिवा कैफ़े की तरफ बढते हुए  त्रिमूर्ति : मनन, अनीषा और प्रशांत

इसके बाद कुछ अप्रत्याशित नहीं हुआ। हम शिवा कैफ़े पहुँचे जो कि वाकई बेहद खूबसूरत था। उसकी साज सज्जा पुराने गाँव के घरों की तरह की गयी थी। उसपे प्लेन पत्थरों का इस्तेमाल किया था। कुछ पत्थरों पर चित्रकारी की थी जो कि उसको एक खूबसूरत लुक दे रही थी। शिवा कैफ़े के पीछे पहाड़ थे। मैं उधर भी गया और पत्थरों के बीच काफी घूमा। ये तीन कैफ़े में ही रहे। फिर थोड़ी देर हमने उधर फोटो खिंचवाई।अन्दर संगीत बज रहा था जो इस प्राकृतिक माहौल  को और खुशनुमा कर रहा था।    फिर चाय पी। चाय, संगीत और प्रकृति का अद्भुत मिश्रण इधर था जिसने इस अनुभव को बेहतरीन बनाया।

कैफ़े के तरफ आते हुए
शिवा कैफ़े
पत्थरों पे की गयी चित्रकारी

फिर चाय पीकर हम वापस नीचे जल प्रपात की तरफ आ गये।
वापस आते समय भी जल प्रपात पे काफी भीड़ थी इसलिए हम उधर ज्यादा नहीं रुके।  वापस आते समय कई छोटी दुकाने पड़ती हैं जहाँ छोटे छोटे सौविनेर ले सकते हैं। हम इधर भी रुके और प्रशांत ने एक स्विस नाईफ लिया।  फिर हम मंदिर की तरफ आये।

मैं तो वैसे भी नास्तिक हूँ तो मुझे मंदिर में इतनी रूचि नहीं थी तो मैं उधर नहीं रुका। हाँ, मंदिर के प्रांगण में मौजूद तालाब अच्छा लग रहा था। उसमे जो हस्तकला की दुकान थी उधर भी हम गये लेकिन मुझे कुछ पसंद नहीं आया। बाकी मन्दिर साधारण था।

मंदिर के बनने के  पीछे एक पौराणिक कथा है। हर मंदिर के पीछे के कथा होती है। यात्रा की जल्दबाजी में हमे ये पूछने का ध्यान नहीं रहा। लेकिन मन में उत्सुकता थी तो गुडगाँव पहुँच कर मैंने नेट में ढूँढा और ये कहानी पता लगी।

कहते हैं जब राजा भाग्सू ने नाग देवता की झील से पानी लेने का अपराध किया था तो वो उससे रुष्ट हो गये थे। और दोनों के बीच युद्ध हुआ था। फिर उन्हें मनाने के लिए इस मंदिर का निर्माण राजा भाग्सू ने किया था(स्रोत )।
कहानी रोचक है। अब सच कितनी और झूठ कितनी वो मैं नहीं कह सकता।

यहाँ से निकल कर हम होटल पहुँचे।  हमने मनु भाई को कॉल किया। वो ही हमे मैकलॉड गंज के बाकी चार पॉइंट्स घुमाने वाले थे। वो आये तो हमने अपना सामान गाड़ी में डाला और नाडी व्यू की तरफ जाने के लिए निकल गये।

२) नाडी व्यू

नाडी व्यू पे जाते हुए मनु भाई ने हमे बताया कि वो रात को एक विदेशी ग्रुप को लेकर जाने वाले थे और ये रात का सफ़र खतरनाक हो सकता था। उन्होंने ये भी कहा कि ज्यादातर विदेशी लोग रात को सफ़र करना पसंद करते है क्योंकि इससे उनका दिन का वक्त घूमने फिरने के लिए बच जाता है। मुझे भी ये बात जंची। एक पर्यटक के लिए दिन का वक्त ही घूमने फिरने के लिए होता है और अगर वो रात में सफ़र में सो सकता है तो अपना काफी वक्त बचा सकता है और काफी ज्यादा जगह घूम सकता है। लेकिन पहाड़ी इलाकों में ये रात का सफ़र खतरनाक हो सकता है इसलिए मनु भाई की बात भी सही थी।

हम नाडी व्यू पॉइंट पहुँचे। मनु भाई ने हमे ये भी बताया कि पहले घाटी में रात को पार्टियों का भी आयोजन होता था लेकिन फिर चूँकि शराब और नशे के कारण लोग झगड़ा करने लगते थे तो ये आयोजन बंद करने पड़े। उस वक्त मैं यही सोच रहा था  कि उधर रात के वक्त बॉन फायर जलाकर पार्टी करने में कितना मज़ा आता रहा होगा। ऐसा माहौल हो तो शराब की जरूरत किस बेवकूफ को होगी। ऐसे में अगर मद्धम संगीत हो तो ही इतना मज़ा आ जाएगा। मुझे अपनी ज़िन्दगी का लुफ्त उठाने के लिए बाहरी नशे की ज़रूरत आज तक नहीं पड़ी। लोगों को इसकी जरूरत क्यों पड़ती है इसका कारण मुझे आज तक पता नहीं चला।

नाडी व्यू से घाटी और पहाड़ दिखते थे। इधर काफी होटल बने हुए थे। ये एक मनोरम जगह थी जहाँ सुबह सुबह मोर्निंग वाक के लिए आना बड़ा ही खूबसूरत रहता होगा। जहाँ व्यू पॉइंट था उधर एक व्यक्ति दूरबीन लेकर भी खड़ा था और सामने के व्यू पॉइंट दिखा रहा था। पहाड़ों में ये अक्सर होता है। मेरे होम टाउन पौड़ी में भी ऐसी दूरबीन है और जब मैं नैनीताल गया था तो उधर भी ऐसी दूरबीन थी। उस दिन कोहरा था तो व्यू पॉइंट दिखने भी नहीं थे।

हमने दूरबीन नही ली और ऐसे ही तसवीरें खिंचाई। फिर हम उस सड़क पे आगे चलने लगे जिसपे ये व्यू पॉइंट था। वो सड़क एक आश्रम को जाती थी। उधर हमारे मतलब का कुछ था नहीं तो हम वापस आ गये।

दूरबीन के निकट हम तीन : प्रशांत मनन और मैं

३) डल लेक

नाडी व्यू से निपट कर हम डल लेक की तरफ आये। पहले मुझे लगा कि ये कृतिम झील होगी लेकिन मनु भाई ने बताया ये प्राकृतिक है। उन्होंने ये भी बताया था कि इसका पानी किधर से आता है लेकिन मुझे वो अब  याद नहीं है (उस वक्त लिख लेना चाहिए था)।  डल झील कुछ ख़ास नहीं थी। झील के आसपास थोड़ा गंदगी थी और ऐसा लग रहा था जैसे उस पास काम हो रहा है। लेक के किनारे बेंच लगे हुए थे जिसमे लोग बैठे हए थे। सर्दियों में इधर धूप सेंकने का अपना आनंद होता होगा। इसके दूसरे छोर पे एक मंदिर था जिसके आसपास कई बन्दर थे। हमने एक पूरा चक्कर मारने की सोची।

बंदरों को देखकर मुझे अपने यहाँ के कंडोलिया मंदिर की याद आ गयी। अगर इधर से झील की जगह केवल एक पार्क हो जाये तो सारा वातावरण उधर की याद दिलाता है। मेरे साथ अनीषा चक्कर मार रही थी। प्रशांत और मनन पता नहीं किधर गायब हो गये थे तो मैंने उसे ही कंडोलिया के उस बंदर के विषय में बताया जिसका खौफ़ हमारे बचपन के वक्त पे हुआ करता था। वो भी पौड़ी की है तो वो उधर की जगहों से वाकिफ थी। ये बन्दर काफी बड़ा और तगड़ा हुआ करता था। इसके साथ इसके आँख के सामने से एक हड्डी सी निकली हुई थी जो दांत जैसी दिखती थी। हम इसे दांत वाला बन्दर कहते थे। (अब ये नाम बचकाना लगता है क्योंकि बिन दांत वाला बंदर तो होता ही नहीं है। )वो इसे बहुत भयावह बना देती थी। यह बन्दर बच्चो का पीछा करने के लिए बदनाम था। वो बच्चों को देखते ही उनके पीछे दौड़ लगाता था और पीछा बड़ी मुश्किल से छोड़ता था। (वैसे किसी ने उसे भागते हुए देखा नहीं था। हाँ, बैठे हुए टुकुर टुकुर देखते हुए ही देखा था। ) मुझे याद है जब उस साल कन्डोलिया मन्दिर का भंडारा था तो बस मन में यही आशा थी कि ये बंदर हमे न दिखे और अगर दिखे भी तो ये पीछा न करे।

डल झील के मंदिर के बंदर ऐसे नहीं थे। उन्होंने हमे परेशान नहीं किया। हमने चक्कर पूरा किया और फिर देखा तो प्रशांत और मनन नदारद थे। हम इसी सोच में डूब गये कि अचानक वो दोनों किधर चले गये। हमने मनु भाई से पूछा लेकिन उन्हें भी इसका कोई आईडिया नहीं था। फिर थोड़ी देर इंजतार करने के बाद वो सामने से आते दिखे। शायद वो लघु या दीर्घ में से एक तरह की शंका निपटा कर आये थे।
इधर हमने ज्यादा फोटो भी नहीं खींची। मैंने तो एक भी नहीं खीची।

४) सैंट जॉन चर्च
अब हमारा अगला पड़ाव सैंट जॉन चर्च था। यह चर्च जंगल के मध्य में बसा हुआ था। इधर हमने कुछ वक्त बिताया। चर्च को अगर आप देखते हैं तो ये एक कठोर व्यक्ति की तरह लगता है। इसमें न कोई साज सज्जा है और न ही कोई श्रृंगार। शायद ये उस वक्त की फिलोसोफी को दर्शाता है कि धर्म कठोर और उसका प्रांगण सादा होना चाहिए। आप उधर आयें तो भव्यता से दूर जाएँ। इस चर्च का ये रूप आप पर असर भी डालता है। वहाँ एक महिला आई हुई थीं जिन्हें इसका ये रूप पसंद नही आया। वो कह रही थी कि ये इतना सादा कठोर क्यों है। इसमें पेंटिंग होनी चाहिए ताकि ये अच्छा दिखे। लेकिन इसका मसकद ही आपको शायद ये एहसास दिलाना है कि इधर चंचल नहीं आपको गम्भीर होना है। ये एक सम्मान की भावना आपमें जगाता है।

इसके कंपाउंड में एक घंटी भी है जिसका की अपना इतिहास है।

भारतीय सेना द्वारा चर्च और घंटी का इतिहास
घंटी इधर सुरक्षित रखी है

चर्च के बगल में ही एक कब्रिस्तान भी है जहाँ कई कब्रे हैं। इसके इलावा इधर जेम्स ब्रूस का स्मारक भी है। ये उनकी विधवा मैरी लुइसा(Mary Louisa) ने बनवाया था। जेम्स ब्रूस भारत के वाइसराय और गवर्नर जनरल रह चुके थे और उन्होंने अपना अंतिम वक्त इधर ही बिताया था।

यहाँ घूम कर जब हम बाहर निकले तो उधर एक चाय वाले बैठे था। मुझे चाय पीने की तलब लग रही थी तो मैंने उनसे एक चाय और बिस्कुट करने को बोला। बाकी लोगों ने कुछ लेने से मना कर दिया। जब चाय का घूँट मारा तो मज़ा आ गया। अब तक के सफ़र की सबसे बेहतरीन चाय मैंने यही पी थी। होटलों की चालीस रूपये वाली चाय भी इसके आगे सचमुच फीकी थी। मैंने उनसे चाय की तारीफ की और फिर हम अपने आखिर पॉइंट दलाई लामा टेम्पल के लिए निकल गये।

५) दलाई लामा टेम्पल

हमारा आखिरी पॉइंट दलाई लामा टेम्पल टेम्पल काम्प्लेक्स था। उधर जाते हुए टेम्पल का इतिहास और तिब्बत को आज़ादी दिलाने के पोस्टर भी लगे हुए थे। हम अंदर जा रहे थे तो हमारी चेकिंग हुयी। हम तो ठीक  ठाक निकल गए लेकिन प्रशांत के पास जो स्विस नाइफ था उसे उन्होंने अपने पास रख दिया। हम उसके विषय में भूल ही गए थे। उन्होंने कहा हम उसे वापस आते हुए ले सकते हैं।
मंदिर का प्रांगण काफी विशाल था। हम थोड़ी देर इधर घूमे। हमने प्रेयर व्हील भी घुमाए।(मेरे लिए तो ये खेल होता है जिसमे मुझे मज़ा आता है। लेकिन बौद्ध लोगों के लिए इसका काफी धार्मिक महत्व है। ) इधर काफी शान्ति पूर्ण वातावरण था और लोग अपने हिसाब से पूजा कर रहे थे। हम जब ऊपरी मंजिल में गये थे लोग दंडवत प्रणाम के तरीके से पूजा कर रहे थे। वो खड़े होते। फिर दंडवत प्रणाम करते और इस प्रक्रिया को दोहराते। उधर इसके लिए व्यवस्था की गयी थी और गद्दे बिछाए गये थे। आप उधर ये प्रक्रिया दोहरा सकते थे।

हम घूमते हुए निकल गये। ऐसे पूजा स्थलों में मुझे तस्वीर लेना सही नही लगता है। लोग आस्था के साथ आते है और उसका सम्मान होना चाहिए। ये दूसरी बात है क्योंकि मैं नास्तिक हूँ तो मैं इधर थोड़ा असहज हो जाता हूँ क्योंकि ऐसे क्रिया कलापों का मुझे कोई औचित्य नज़र नहीं आता है। खैर, वो उनकी श्रद्धा है और जब तक ये श्रद्धा किसी को नुक्सान नहीं पहुँचाती तब तक हर किसी को इसका सम्मान करना चाहिए। फिर चाहे वो किसी भी धर्म की हो।

हम थोड़ा वक्त उधर बिताकर निकल आये। फिर प्रशांत अपना स्विस नाइफ वापस ले आया। और हम गाड़ी की तरफ बढ़ चले।

घुमते हुए पौने पांच बज गये थे। हमने मनु भाई (जिनकी गाड़ी में हम घूम रहे थे) से खाने की अच्छी जगह के विषय में पूछा तो उन्होंने हमे ‘carpe diem’ नामक रेस्टोरेंट का नाम सुझाया। रेस्टोरेंट काफी खूबसूरत था। हमने उसके रूफ टॉप पे बैठकर खाना खाया। उधर दो तरीके से खाने की व्यवस्था थी। एक तो आप टेबल और कुर्सियों पे बैठकर खाना खा सकते थे और दुसरे विकल्प के तौर पर आप कुशन पर बैठकर खाना खा सकते थे। सबसे दूसरा विकल्प ही चुना। हम दिन भर घूम रहे थे तो मौजो के कारण मैं डर रहा था कि कहीं उधर पसीने की बदबू न आने लगे लेकिन सबके आत्मविशवास ने मेरे अन्दर भी विश्वास फूँक दिया। हम अब आलथी पालथी मारकर बैठे हुए थे। हमने खाना मंगवाया और चाव से खाया।

खाना वाकई लाजवाब था। फिर जब हम रेस्टोरेंट से निकल रहे थे तो मनु  भाई ने हमे एक और दिलचस्प चीज बतायी। रेस्टोरेंट के नीचे वाले फ्लोर में टेबलों के ऊपर काँच बिछा हुआ था। उधर उस कांच के नीचे आप अपनी फोटो लगा सकते थे ताकि जब आप अगली बार आयें तो देख सकें। ये मेरे लिए एक अलग अनुभव था। मैंने अपनी दो फोटो उधर डाली। मनन और अनीषा ने एक एक फोटो डाली।

फिर हम नीचे आ गये, मनु भाई से विदा ली और  बस स्टैंड की तरफ निकल गये। सवा पांच होने वाले थे और बस का वक्त हो चुका था। दस मिनट में हम बस स्टैंड पहुँच गये। अभी बस चलने में कुछ वक्त था। हमने अपने सामान डिक्की में डलवाए। इधर एक बात और हुई। हमे आते वक्त सामान डलवाने के लिए जो दस रूपये प्रति बैग देने पड़े थे वो इधर नहीं देने पड़े। मैं थोडा हैरान था। खैर, फिर हम लोग बस जाने का इन्तजार करने लगे।

हमारा दो दिन का सफ़र खत्म होने की कागार पर था लेकिन हम खुश थे। हमने इस ट्रिप पे कई यादें संजोयी थी और इसे खूब एन्जॉय किया था। अगर आप समूह में यात्रा करते हो तो कई बार न चाहते हुए भी थोड़ा बहुत बहस हो सकती है। कुछ ही ऐसी ट्रिप होंगी जिनमे ऐसा न होता होगा। यह ट्रिप उन्हीं में से एक थी।  काफी कुछ सीखने को मिला, काफी आनन्द आया और काफी यादें भी इक्कट्ठा की।

मैं बस के इस छोर पर खड़ा रहकर इधर से उधर घूम रहा था और वो तीनो दूसरी तरफ थे।  मुझे अक्सर अपने लिए अलग वक्त की जरूरत होती है। ये मेरे लिए काफी जरूरी है।  पूरे दिन भर में कुछ वक्त ऐसा चाहिए होता है जिसमे मैं अकेला रहूँ। अगर ऐसा न हो तो मैं थोड़ा चिढ़चिढ़ा हो जाता हूँ। ये मेरे को अपने को रिचार्ज करने के लिए चाहिए होता है। इसीलिए मैं अलग था। जब बस चलनी शुरू हुई तो हम बस की तरफ आ गये।

अब हम वापस अपनी काम काजी ज़िन्दगी की तरफ जा रहे थे।

इस ट्रिप में सब सही हुआ बस एक गलत बात हुई। जिस बस में हम बैठे थे वो एक विडियो कोच थी। हमने टिकेट पहले ही करवा ली थी। बस चलनी शुरू हुई तो उसमे उन्होंने ‘ए दिल है मुश्किल’ चला दी। न जाने हमने क्या पाप किये थे जो ये टॉर्चर झेलना पड़ा। बस, अच्छा ये हुआ कि आधी में उसने इसे रोक दिया। तब जाकर साँस में साँस आई।



नोट : जिन भी तस्वीरों में मेरा नाम नहीं है वो मनन, प्रशांत या अनीषा  में से किसी एक ने खींची हैं।  

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहत हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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0 Comments on “मैकलॉडगंज ट्रिप #4 – मैकलॉडगंज”

  1. वाह बहुत ही शानदार विवरण, हमें भी यहां जाने का मौका मिला है, वो भी अचानक और अनजाने में। जब ज्वालामुखी रोड पर हमारी बैजनाथ वाली ट्रेन छूट गई तो आंखें बंद करके यही कहा कि जिधर की बस आएगी और जो भी आएगी उसी पर उधर को ही चले जाएंगे चाहे जहां की आए। और जो बस आई वो धर्मशाला की आई थी अच्छा था कि ज्वालादेवी की नहीं आई वरना हम उधर ही दुबार जाते एक ही दिन में दो बार।

  2. आपने पुरानी की गई यात्रा इस साल मार्च की याद करा दी…बहुत अच्छी जगह है…में भी गया था शिवा कैफ़े तक

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