10 दिसम्बर 2016
हम अपने होटल में आ चुके थे और फिर उसी दिन यानी 10 दिसंबर को ही त्रिउण्ड ट्रेक करने की योजना बना चुके थे। इसलिए जल्दी जल्दी फ्रेश हुए और ट्रेक के लिए निकल पड़े।
हमे गालू देवी मंदिर जाना था जहाँ से ट्रेक शुरू होती थी। ये ट्रेक का स्टार्टिंग पॉइंट हमारे होटल से दो से ढाई किलोमीटर दूर था। हमारे पास दो विकल्प थे। एक तो ये कि हम गाड़ी करके उधर जाते और दूसरा पैदल जाने का। अब चूंकि ट्रेक करने आये थे तो एक्स्ट्रा दो ढाई किलोमीटर चला जा सकता था।
हमने होटल में एक व्यक्ति से पूछा तो उन्होंने बताया कि ऊपर ही छोटी मोटी दुकानें थीं जहाँ रूककर नाश्ता किया जा सकता था। ये सुनकर हमने ये निर्णय लिया कि ऊपर ही खाया जायेगा। जब हम होटल से निकले होंगे तो पौने नौ – नौ बजे रहे होंगे।
हमारा देव नाम का एक दोस्त है ये साइन दिखा तो उसकी याद आ गई |
गालू देवी मन्दिर के निकट |
हम पौने दस बजे तक ऊपर दुकान तक पहुँच गये थे जिधर हमने नाश्ता किया। नाश्ता सबने अपने मन पसंद का किया। उधर एक मजाकिया बात हुई। हम सबने अपने अनुसार चीजें मंगवाई थी। और साथ में पेय भी मंगवाया था। मैंने और अनीषा ने चाय मंगवाई थी, मनन ने कॉफ़ी और प्रशांत ने ब्लैक कॉफ़ी मगवाई थी। जो व्यक्ति हमारा सामान लाया था तो हमसे ज्यादातर हिंदी में ही बात कर रहा था। लेकिन जब ब्लैक कॉफ़ी की बारी आई तो उस व्यक्ति ने उधर एक कौकेशियन समूह को सम्बोधित करके अंग्रेजी में बोला कि एनी वन हैस आर्डरड ब्लैक कॉफ़ी। उस समूह में तीन लोग थे दो आदमी और एक औरत। हमे उसे बताना पड़ा कि आर्डर हमारा था। लेकिन उसके इस व्यवहार की हम काफी देर तक चुटकी लेते रहे। शायद ज्यादातर भारतीय उधर ब्लैक कॉफ़ी आर्डर नहीं करते होंगे।
नाश्ता करके हम निकले तो साढ़े दस हो चुके थे। नाश्ता करते वक्त मैंने कोई तस्वीर नहीं खींची थी। अब तो उस रेस्टोरेंट का नाम भी भूल चुका हूँ। अब सोचता हूँ फोटो खींचनी चाहिए थी।
एक तरह से ट्रेक शुरू ही हो चुका था। जहाँ से ऑफिसियल ट्रेक शुरू होना था यानी जहाँ तक गाड़ी जाती थी उधर एक व्यक्ति बैठकर जाने वालों की एंट्री कर रहा था। मनन ने उधर एंट्री की और हमने ट्रेक शुरू की।
ट्रेक 7 किलोमीटर लंबी थी और लोगों के मुताबिक इसमें तीन से चार घंटे तो लगना ही था। ट्रेक मुझे तो काफी मजेदार लगी। ट्रेक सीधा साधा है। रास्ता बना हुआ है और आपको उसपे चलते जाना है। कहीं भी खोने या रास्ता भटकने की संभावना नहीं है। बीच बीच में चाय पॉइंट्स भी थे जिधर चाय पीते हुए फोटो खींचने का कार्यक्रम भी चला।
थके हुए पथिक आगे की योजना बनाते हुए – प्रशांत,अनीषा,मनन |
एक चाय पॉइंट की तस्वीर |
मैजिक व्यू चाय पॉइंट, बोर्ड के हिस्साब से १९८४ में स्थापित हुआ ये चाय पॉइंट सबसे पुराना है। तो एक फोटो तो बनती है। मनन, अनीषा और योर्स ट्रूली |
एक पॉइंट पे नीचे की और कुछ घर बने हुए थे। मेरा उधर जाने का मन था। चाय बनने में वक्त था तो मैंने उधर जाने की सोची। मनन मना करने लग गया। लेकिन जगह खूबसूरत थी और जाना तो था। प्रशांत तैयार हो गया और हम नींचे गये। हमने कुछ फोटो ग्राफी भी उन घरो के सामने की।
प्रशांत |
ऊपर चाय पॉइंट है |
फिर हम ऊपर आ गये और चाय पीकर चल दिए। मेरा मन तो उस चाय पॉइंट के ऊपर पहाड़ में चढ़कर फोटो खिंचवाने का भी था लेकिन चूँकि देर हो रही थी तो मुझे ये ख्याल छोड़ना पड़ा।
चढ़ाई पे विजय पाता मनन |
ये खच्चर ऊपर त्रिउंड से आ रहे थे। ऊपर दुकाने हैं तो उनके लिए सामान ले जाने के लिए इनका उपयोग होता है शायद। |
जब हम ऊपर आ रहे थे तो आते हुए एक चाय पॉइंट पड़ा था जिसमे एक बोर्ड लगा था। ये बोर्ड ये घोषित कर रहा था कि वह चाय पॉइंट उधर का सबसे पुराना चाय पॉइंट था। वो 1984 से उधर था। मुझे उधर चाय पीनी थी लेकिन ऊपर जाते वक्त इसमें वक्त लगना था इसलिए ये निर्णय लिया गया था कि नीचे आते वक्त ये लिया जायेगा। नीचे उतरते वक्त चूंकि रास्ते में इतनी परेशानी नहीं होती है इसलिए ये ही तय हुआ था कि उधर ही रुका जायेगा। हाँ, उसके पास फोटो हमने जाते हुए खिंचवा ली थी इसलिए फोटो ऊपर ही डाली है। और एक तरह से ये सही कहा। क्योंकि आते वक्त रौशनी कम हो चुकी थी इसलिए मुझे उम्मीद है कि तब हम फोटो खिंचवाते तो वो ज्यादा साफ़ नहीं आती।
नीचे आते हुए ये विशाल तना दिखा। इसके भीमकाय आकार ने मुझे आकर्षित किया था। जाने कितने साल में इसने इतना आकार लिया होगा और कैसे ये कट गया। |
हम चलते रहे। रात हो रही थी। पूरा चाँद आसमान में रौशनी बिखेर रहा था। मुझे तो थोड़ा बहुत दिख रहा था इसलिए मैंने टोर्च का प्रयोग नहीं किया। मेरा मानना है कि आपको जितना हो सके बिना कृतिम मदद के काम करना चाहिए। शरीर का जितना उपयोग करें वो उतना दक्ष होता है। अगर थोड़े में ही हम कृतिम साधनों का उपयोग करने लगे तो शरीर को वैसी आदत हो जाती है। इसलिए जब तक मैं चाँद की रौशनी में देख सकता था तब तक मेरा इरादा उसी का उपयोग करने का था। बाकी तीन लोगों ने तो अपने फोन से रौशनी करी हुई थी लेकिन मुझे जरूरत नहीं और फिर मेरे फोन की बैटरी भी खत्म ही हो गयी थी।
किसी तरह हम गालू मंदिर के निकट एंट्री स्थल तक पहुंचे तो उधर देखकर हैरान थे। उधर अँधेरा और सन्नाटा था। अब हमे दो ढाई किलोमीटर चलकर अपने होटल तक जाना था। क्योंकि हम चार थे तो हमने पैदल चलने का निश्चय किया। वैसे भी रास्ता सरल था। एक रोड को हमने पकड़ना था और चलते रहना था। वैसे भी गालू देवी मंदिर से होटल का रास्ता केवल ढाई किलोमीटर ही था और भले ही अँधेरा था लेकिन बज सात के करीब ही रहे थे। हमने एक रोड पकड़ ली और उसके तरफ जाने लगे। रोड में गहरा अँधेरा था। रोड के दोनों तरफ पेड़ थे इसलिए चाँद की रौशनी भी नहीं आ रही थी। अब टोर्च का प्रकाश ही चलने में मदद कर रही है। सड़क भी ऊबड़ खाबड़ थी। हम ये ही सोच रहे थे कि यह जगह इतनी प्रसिद्ध है लेकिन यहाँ की मुनिसिपलिटी ने इधर सड़क के किनारे बिजली के खम्बे लगाने की जहमत तक नहीं उठाई है।
अब हम अंदाजे से चल रहे थे। एक बार ऐसा रास्ता आया कि जहाँ से दो उल्टी दिशाओं में रोड जाती थी। हमने एक तरफ देखा कि सड़क के नीचे रौशनी है और हमे लगा कि उधर पोल लाइट है और हम उधर मुड़ गये। वैसे ये भी हैरानी वाली बात थी कि इस सडक में कहीं भी पोल लाइट नहीं थी। जब रौशनी की तरफ पहुंचे तो वो कोई ऑफिसियल जगह निकली और पोल लाइट उसी की थी। एक पल को तो लगा कि हम गलत रस्ते आ गये हैं लेकिन फिर हम ने सोचा कि हम एक बार शहर पहुँच जाएँ तो होटल तक आसानी से आ ही जायेंगे। रात के वक्त आपको समय का सही अंदाजा भी नहीं होता है। फिर अँधेरे में हमे वो चीजें भी दिखती हैं जो दिन के वक्त हम नज़रअंदाज कर देते हैं। जैसे इसी इमारत को लीजिये जिसकी पोल लाइट की तरफ हम आकर्षित हुए थे। दिन में हमे ये नहीं दिखी थी। हमे लग ही रहा था कि हम काफी देर से चल रहे हैं लेकिन फिर थोड़ी देर चलते हुए हमे एक रास्ता जाना पहचाना लगा। ये पत्थरों में लिखा देव कॉटेज का एक विज्ञापन था। हमने सुबह ही मनन की फोटो इनमे से एक विज्ञापन के साथ खींची थी। इसलिए हमे पता था कि हमे अपने होटल जाने के लिए देव कॉटेज की तरफ जाना है। अब हमारी जान में जान आई। जो माहोल कुछ देर पहले संजीदा हो गया था, उसपे अब हल्कापन था। हँसी मजाक, टांग खिंचाई दुबारा शुरू हो गयी। इसके बाद तो सफ़र मक्खन था और हम जल्द ही अपने होटल की रिसेप्शन पे थे।
सफ़र थका देने वाला था लेकिन अंत में हमे ख़ुशी थी कि हमने अपना एक दिन बचा लिया था। अब हमारी योजना पेट भरकर खाना खाने की थी, जिसका की आर्डर दिया जा चुका था। मैं रजाई में घुस कर उपन्यास पढना चाहता था। फिर हमने ये सब काम किये और सो गये। सुबह हमे मैकलॉडगंज के आसपास की जगहों में घूमना था।
उसका विवरण अगले पोस्ट में।
तब तक के लिए अलविदा।
क्रमशः
मैकलॉडगंज ट्रिप की सभी कड़ियाँ:
नोट : जिन भी तस्वीरों में मेरा नाम नहीं है वो मनन, प्रशांत या अनीषा में से किसी एक ने खींची हैं।