24वाँ दिल्ली पुस्तक मेला, दरयागंज का सन्डे मार्किट और एक मिनी मीट

24वाँ दिल्ली पुस्तक मेला, दरयागंज का सन्डे मार्किट और एक मिनी मीट
पिछ्ला सप्ताहंत बेहतरीन बीता। दिल्ली में पुस्तक मेला लगा हुआ था तो शनिवार को उधर गया और  रविवार को दरयागंज गया और  साथ में कुछ मित्रों से मिलना भी हुआ। बस दुःख ये है कि फोटोएँ काफी कम खींची। खैर, आप भी चलिए मेरे साथ।

शनिवार 2 सितम्बर 2017
दिल्ली में पुस्तक मेला लगा हुआ था तो उधर जाने का मेरा मन था। पुस्तक मेला २६ अगस्त से 3 सितम्बर तक लगना था। चूँकि मैं २४ को ही अपने  घर पौड़ी चले गया था तो मुझे उस सप्ताहंत में पुस्तक मेले में जाने का मौका नहीं मिला। सप्ताह के बाकी दिनों में काम काज का सिलसिला ऐसा रहता है कि कहीं भी जाना असम्भव रहता है। इसलिए  २६-२७ अगस्त के पश्चात दो या तीन सितम्बर ही ऐसी तारीक बची थीं जो मेरे लिए पुस्तक मेले में भ्रमण करने  लिए उपयुक्त थी। और मैंने इन्ही दो दिनों में उधर जाने का फैसला लिया।

दो सितम्बर को शनिवार था और मैं जल्द ही उठ गया। मौसम में बदली छाई हुई थी। मुझे उम्मीद थी कि बारिश नहीं होगी। सुबह उठकर जल्दी नाश्ता किया और पुस्तक मेले के लिए निकल गया। शनिवार को मैंने डॉक्टर हु एंड द ऑटन इनवेज़न पढना शुरू किया था और मेट्रो का सफ़र उपन्यास पढ़ते हुए और उसके इंटरेस्टिंग वाक्यों को गुडरीडस और फेसबुक पे साझा करते हुए बीता। ये तृतीय डॉक्टर का उपन्यास है।  अगर आप डॉक्टर हु सीरीज देखते हैं तो आपको पता होगा कि एक ही डॉक्टर के अलग अलग सीजन में अलग रूप होते हैं। 1963  को चला ये शो आज भी बदस्तूर जारी है।और डॉक्टर कई रूप ले चुका है। मैंने नेटफ्लिक्स पे ये सीरीज देखी थी और मुझे पसंद आई थी। उसके बाद मैने डॉक्टर हु का एक नावेल संडे मार्किट के दौरे पे मिला था। (उस दिन मैंने क्या क्या लिया था आप इधर जाकर पढ़ सकते हैं।) खैर, उसे पढने के बाद मेरे मन में और डॉक्टर हु के उपन्यास पढने की ललक जागी और मैंने तीन चार खरीद लिए थे। डॉक्टर हु एंड द ओटन इन्वेजन उन्ही में से  से एक है।

उपन्यास रोचक था और इसे पढ़ते हुए कब राजीव चौक आया पता ही नहीं चला। फिर ट्रेन बदली और प्रगति मैदान की तरफ बढ़ा। राजीव चौक से प्रगति मैदान दो तीन स्टेशन के बाद ही आ जाता है तो जल्द ही मैं मेट्रो से एग्जिट करके पुस्तक मेले की ओर बढ़ रहा था।  मैं करीब साढ़े नौ बजे रूम से निकला था और करीब दस बजकर पचपन मिनट पर पुस्तक मेले में दाखिल हो गया था।

मेले का टिकट तीस रूपये का था। मैंने टिकट लिया और अन्दर दाखिल हुआ। मैं पिछले पुस्तक मेलों में काफी सामान खरीद चुका था (दिल्ली पुस्तक मेला २०१६,विश्व पुस्तक मेला 2017)। उनके इलावा भी गाहे बघाहे किताबें खरीदता रहता हूँ तो मेरा ज्यादा किताबें लेने का मन नहीं था। मेरे मन में दो किताबें थी जो मैं लेना चाहता था। एक स्टेफेन किंग का उपन्यास इट था और दूसरा राहुल संकृत्यायन जी की किताब घुम्मकड़ शास्त्र।  जब पुस्तक मेले में दाखिल हुआ था तो मन में इन्ही दो किताबों को लेने का विचार था।

लेकिन फिर पुस्तक मेले में घुसते ही कुछ और किताबों के नाम याद आने लगे। अक्सर ऐसा होता है मेरे साथ।  मैंने सोचा राजकमल प्रकाशन से  ‘प्रोफेसर शंकु के कारनामे’ और ‘जहाँगीर की स्वर्ण मुद्रा’ सरीखे उपन्यास भी ले लूँगा। जहाँगीर की स्वर्ण मुद्रा मैंने कुछ दिनों पहले अमेज़न से मंगवाया था लेकिन उसकी प्रति जो मुझे मिली थी वो काफी क्षत विक्षित हालत में थी तो मैंने उसे वापस करवा दिया। यानी घर से निकलते हुए मन में दो किताबें थी और पुस्तक मेले में आते ही दो किताबें उस सूची में जुड़ गयी थी। अब देखना था कि इनमे से कितनी मुझे मिल पाती।

पुस्तक मेले में एंट्री

पुस्तक मेले में इस बार भीड़ मुझे काफी कम दिख रही थी। किताबें 9-11 हॉल में थी। मैं उनमें दाखिल हुआ और स्टाल्स में घूमने लगा। पहले चक्कर में मैं कुछ खरीदना नहीं चाह रहा था खाली अलग अलग प्रकाशनों के पास जाता और कुछ देर ब्राउज करके निकल जाता। हाँ, जो पसंद आती उनको मन में नोट कर लेता।  मैंने सोचा था पहले चक्कर में जिन किताबों के विषय में मन बनाया है उनको ढूँढू और अगर वो न मिले तो ही दूसरों पर हाथ डालूँ। किताबघर, एनबीटी और साहित्य अकादमी के स्टाल में मौजूद लोगों से  मैंने राहुल संकृत्यायन के घुमक्कड़ शास्त्र के विषय में पूछा था लेकिन वो उनके पास नहीं थी। हिंदी बुक सेण्टर का स्टाल भी उधर था लेकिन घुम्मक्कड शास्त्र उधर भी नहीं थी। साथ में अंग्रेजी उपन्यासों वाली जगह में इट भी ढूँढने की कोशिश की थी लेकिन वो भी कहीं दिखाई नहीं दी थी। राजकमल और वाणी प्रकाशन का स्टाल मुझे दिखाई नहीं दिया।
एक बार पूरा मेला घूम चुकने के बाद मैं बाहर निकल आया। मुझे लगा था कि दूसरा हॉल होगा जहाँ  ये दोनों प्रकाशन होंगे। बाहर आने पर 12 नंबर हॉल की तरफ गया तो उधर दूसरा मेला लगा था जहाँ शायद स्टेशनरी का सामान बिक रहा था। इसमें मुझे रुचि नहीं थी। हाँ, अब यकीन हो गया था कि पुस्तक मेले में से राजकमल और वाणी प्रकाशन नदारद थे। राजकमल वालों का बीएचयू में अलग से मेला चल रहा है और शायद इसलिए उन्होंने इस मेले को महत्व नहीं दिया। इसके इलावा वाणी वाले शायद देहरादून पुस्तक मेले को शायद ज्यादा तरजीह दे रहे थे। इससे मुझे थोड़ी निराशा हुई। क्योंकि अब प्रोफेसर शंकु के कारनामे और जहाँगीर की स्वर्ण मुद्रा नहीं ले सकता था। यानी हालत ऐसी थी कि जिन किताबों का मन बनाकर आया वो तो मिलनी नहीं थी।

अब मैंने दूसरा चक्कर लगाने की सोची। मैं दोबारा प्रकाशनों के स्टाल पर जाने लगा। एनबीटी में कुछ किताबों ने आकर्षित किया। मुझे विज्ञान गल्प में इंटरेस्ट रहा है और हिंदी में ये कम ही मिलता है इसलिए विज्ञान गल्प के दो कहानी संग्रह देखे तो इन्हें ले लिया।   इसके बाद मैंने उन स्टाल्स का दौरा लगाना शुरू किया जो अंग्रेजी के उपन्यास बेच रहा था। एक जगह १०० रूपये के तीन मिल रहे थे तो उधर से छः उपन्यास ले लिए। सम्यक प्रकाशन के आगे से गुजरते हुए मैंने पहली चक्कर में गुलामगीरी देखी थी। उस वक्त मुझे याद आया था कि मैं इस किताब को काफी दिनों से ढूँढ रहा था इसलिए मैंने सोचा था कि दूसरे चक्कर में इसे खरीद लूँग। दोबारा उधर से गुजरा तो इसे झट से ले लिया।

200 रूपये में ये छः किताबें लपकी
हिंदी किताबे जो खरीदी

अब काफी किताबें हो गयी थी। मैं स्टाल्स पे थोड़े देर ही रुक रहा था। ज्यादा रुकने पर और खरीद करने का जो डर था। एक बार राजकॉमिक्स के स्टाल पर खड़ा कुछ कॉमिक्स देख रहा था और मन बना रहा था कि लूँ या नहीं। मेरे पास काफी कॉमिक्स पढ़ी थी और मैंने सोचा उन्हें निपटा कर ही लूँगा। तभी एक लड़कों का समूह बगल में आया। उन्होंने परमाणु को देखा और कहा ये तो फ़्लैश का कॉपी है। मुझे उनकी बात सुनकर हँसी सी आ गयी । नौसीखिए बन्दे। परमाणु कॉपी जरूर है लेकिन एटम का। मैंने उन्हें बताया लेकिन उनको एटम के विषय में कोई जानकारी नहीं थी। वो कॉमिक्स के शौक़ीन भी नहीं लग रहे थे और बकैती करने उधर आये थे। वो थोड़े देर रुके और निकल गये। अब मेरा मन भी कॉमिक्स से ऊब गया। मैंने वहीं खड़े एक व्यक्ति से राज के नोवेल्स के विषय में पुछा तो उसने एक गट्ठर के तरफ इशारा किया। मैं उधर गया और सरसरी निगाह मारी तो मुझे कोई भी उपन्यास ऐसा नहीं दिखा जो पढ़ा न हो। इसलिए राज से बिना कुछ लिए आ गया। एक बार डायमंड में घुसा। उधर गुलशन नंदा के दो उपन्यास दिखे, पहले मन में आया ले लूँ लेकिन फिर अपने हाथ में मौजूद उपन्यासों को देखा और सोचा कि ये कहाँ जा रहे हैं। जनवरी में एक और पुस्तक मेला लगना है तब ले लिए जायेंगे। और मैं डायमंड कॉमिक्स के स्टाल से भी बिना कुछ लिए ही निकल गया। अब ज्यादातर मैंने देख लिया था। कुछ रुचिकर नहीं बचा था तो वक्त खराब करने से कोई फायदा नहीं था। मैंने वक्त देखा तो एक बजने को थे। लगभग दो घंटे मैंने उधर बिताये थे। मैंने आज के सफ़र को समाप्त करने की सोची।

योगी भाई से व्हाट्सएप्प के माध्यम से ये निर्धारित किया था कि अगले दिन यानी रविवार को हम लोग पहले दरयागंज के संडे मार्किट जायेंगे। उसके बाद जब राघव भाई आ जायेंगे तो उनके साथ मिलकर गुरु जी यानी राजीव सिन्हा जी के ऑफिस जायेंगे और अंत में पुस्तक मेले का एक और चक्कर लगा आयेंगे। ये प्लान मुझे सूट कर रहा था। राघव भैया से मिलने की उत्सुकता भी थी। मैंने सोचा पुस्तक मेले की तसवीरें रविवार को ही ले लूँगा और वापस मेट्रो की तरफ बढ़ चला।

अब मुझे अपने रूम तक जाना था। मैं तो उधर निकल गया आप तब तक उन किताबों की सूची देखिये जो पुस्तक मेले से मेरे घर आई :

  1. गुलामगिरी – ज्योतिबा फूले
  2. उर्दू की नई कहानियाँ
  3. नेगल – विलास मनोहर
  4. बीता हुआ भविष्य (बाल फोंडके द्वारा सम्पादित १९ विज्ञान कथाओं का संकलन)
  5. कुम्भ के मेले में मंगलवासी – अरविन्द मिश्र 
  6. The Tusk that did the damage – Tania James
  7. The Spear – James Herbert
  8. The Master and the Margaraita – Mikhail Blugakov
  9. Eva’s Eye – Karin Fossum
  10. Foreign – Sonora Jha
  11. A walk in the woods – Bill Bryson
 
रविवार 3 सितम्बर 2017
रविवार को प्लान के हिसाब से मैं जल्दी उठ गया था। संडे मार्किट दस ग्यारह बजे के बाद ही लगना शुरू होता है तो मैंने योगी भाई को यही कहा था।  राघवेन्द्र भैया  की ट्रेन भी 9 बजे तक पहुँचने वाली थी। इसलिए मेरा विचार था कि ग्यारह बजे करीब ही संडे मार्किट पहुँचा  जाये। फिर उधर से गुरूजी के इंस्टिट्यूट और उसके बाद पुस्तक मेले। यानी पूरे दिन भर घूमना ही था। मैं साढ़े नौ – पौने दस बजे के करीब रूम से निकला। मैंने योगी भाई को मेसेज डाला कि मैं ग्यारह बजे के करीब चांदनी चौक स्टेशन पहुँच जाऊंगा। राघवेन्द्र जी ने  मेसेज डालकर ये बता दिया था कि ट्रेन लेट थी तो उन्हें पहुँचने में बारह बज जायेंगे।
 मैंने अपने पास डॉक्टर हु एंड द ऑटोन इन्वेजन रख ली।  आजकल यही पढ़ रहा हूँ।  शनिवार को पढ़ना शुरू किया था और सोचा था कि रविवार में निपटा दूंगा। वैसे भी मेट्रो में अगर अकेले जाना हो तो किताब से अच्छा साथी और कौन हो सकता है।
खैर, रूम से निकलकर मेट्रो पहुँचा।  भीड़ नहीं थी तो आसानी से सीट भी मिल गयी। मैंने अपना उपन्यास निकाला और पढना शुरू कर दिया। डॉक्टर हु के अब तक ७५ पृष्ठ पढ़े थे। कहानी रोचक होती जा रही थी।  इसलिए पता भी नहीं लगा कि कब चांदनी चौक आ गया। बीच बीच में योगी भाई और राघव भाई से चैट हो रही  थी। राघव भाई की ट्रेन और लेट होनी थी तो अब उनका इंतजार करने का कोई फायदा नहीं था। भारतीय रेल जिंदाबाद।  अब मैं और योगी भाई ही संडे मार्किट जाने वाले थे और फिर नयी दिल्ली स्टेशन ताकि राघव भाई से मिलकर आगे की बातें निर्धारित हो सकें।
स्टेशन पहुँच कर मैंने योगी भाई को कॉल तो उन्होंने कहा कि वो लाल किले के पास वाले मेट्रो पे मिलेंगे। लाल  किला के नज़दीक तो चांदनी चौक ही मुझे पता था लेकिन फिर भी मैं थोड़ा कंफ्यूज हो गया। मैंने उनसे कहा कि मैं उन्हें लाल किले की एंट्री के पास मिलूँगा। उन्होंने इसके लिए हामी भरी और मैं मेट्रो से निकल कर लाल किले के लिए निकल पड़ा। थोड़ी देर में मैं लाल किले के एंट्री के सामने खड़ा था। अब उनका इन्तजार करना था।

लाल किले के लिए निकलते हुए योगी भाई ने अपनी सेल्फी भेजी थी
लाल किले की एंट्री के नज़दीक से दिखता श्री दिगंबर जैन लाल मंदिर

धूप काफी तेज थी और की मेरे पसीने निकल रहे थे। दस पन्द्रह के इंतजार और दो तीन कॉल्स के बाद, जिसमे मैंने उन्हें बताया कि मैं लाल मंदिर के अपोजिट खड़ा हूँ, आखिर योगी भैया आते हए दिखे। उन्होंने कहा कि वो अक्सर उस मार्किट में दिल्ली गेट की तरफ से आते थे। मुझे दिल्ली गेट वाले  रास्ते का कोई आईडिया नहीं था क्योंकि मैं जब भी इधर आया था चांदनी चौक के रास्ते ही आया था। अब हम संडे मार्किट की ओर चल पड़े। बीच में कपड़ों की रेहड़ी भी थी। उधर कुछ कपडे देखे लेकिन कुछ पसंद नहीं आये तो सीधा बुक मार्किट की तरफ बढ़ चले।  कुछ ही देर में हम उधर पहुँच गये थे।

मैं फैसला करके आया था कि खाली उन रेहड़ियों से किताबें लूँगा जहाँ बीस बीस या दस दस रूपये में उपन्यास मिलते हैं। संडे मार्किट में ऐसी रेहड़ीयाँ ही मुझे आकर्षित करती हैं। इधर जाकर काफी कुछ अच्छा मिल जाता है। लेकिन ये बात है कि इधर ज्यादातर  उपन्यास अंग्रेजी में होते हैं तो अगर आप हिंदी उपन्यासों में कुछ खरीदना चाहें तो शायद आपको निराशा हो।
हमने घूमना शुरू कर दिया था। हम लाल किला वाले कोने से शुरू हुए थे और दिल्ली गेट के मेट्रो तक जाना था। घूमते हुए एक जगह पे गन्ने का जूस दिखा तो हमने एक एक छोटा ग्लास ले लिया। मैं नहीं लेना चाहता था लेकिन योगी भाई ने इतने सौहार्द से बोला कि न नहीं किया गया।  मुझे प्यास भी लगी थी तो मैंने उसी दुकान से एक पानी की बोतल ले ली। फिर हम किताबें देखने लगे लेकिन मेरे मतलब की रेहड़ी मुझे अभी तलक नहीं दिखी थी। ऐसे ही चलते चलते हम दूसरे कोने तक पहुँच गये। उधर कुछ कचोड़ी की दुकान थी। योगी भाई ने मुझसे  पूछा कि भूख लगी है तो मैंने उन्हें कह दिया कि मैं तो नाश्ते में छोले भठूरे खा कर आ रखा हूँ। उन्होंने नाश्ता नहीं किया था तो उन्हें भूख लग गयी थी। मैंने उनसे कहा कि वो खा लें और उन्होंने अपने लिए एक कचोड़ी की प्लेट ले ली। थोड़ी देर में उसे निपटाकर हमने बगल में ही मौजूद लस्सी वाले से एक एक कुल्हड़ लस्सी का लिया और उसे पिया। अब पेट पूजा हो गयी थी तो दूजा काम करने का मौका था। हम गली में आगे बढ़ गये। उधर घूमते हुए मुझे अपने पसंद की रेहड़ी मिल गयी। उधर काफी किताबें थी और वो मुझे पसंद भी आयीं तो मैंने जल्दी से उन्हें ले लिया। मुझे जेम्स हर्बर्ट को पढने की इच्छा बहुत दिनों से थी और उधर संयोगवश जेम्स हर्बर्ट के काफी उपन्यास थे तो मैंने जितने उस रेहड़ी में थे सारे उठा लिए। इसके इलावा लॉरेंस ब्लाक का एक उपन्यास दिखा तो अपनी किस्मत को धन्यवाद देकर उठा लिया। मैंने कभी सोचा नहीं था कि लॉरेंस ब्लाक का कोई उपन्यास मुझे बीस रूपये का भी मिलेगा। इसके इलावा एक दो डीन कूंटज के उपन्यास भी मैंने लिए। योगी भाई ने भी अपने लिए कुछ किताबें ली। मैंने उसी दुकान से दस किताबें उठा ली थी।

अब मैंने काफी किताबें ले ली थी। मेरा मन और किताबें लेने का नहीं था तो ऐसे ही थोड़ी देर हम घूमते रहे। अब मेरा मन वापस जाने को था। राघव भाई ने भी आना था। उनसे हमने पता किया था तो वो 2 बजे के करीब आने वाले थे। अब हम वापस चांदनी चौक की तरफ चलने लगे। वापस जाते हुए एक दुकान पर मुझे हिंदी पल्प की कुछ किताबें दिखी जो वो तीस रूपये में बेच रहा था। मैंने दो ले ली। फिर हम आगे बढ़ गये।

एक जगह दस दस की हिंदी पल्प की किताबें भी दे रहा था तो तो उधर से योगी भाई ने कुछ किताबें ली। मैंने उधर देखा लेकिन मुझे कुछ पसंद का नहीं मिला तो मैंने उधर से कुछ भी नहीं लिया। अब मैं चांदनी चौक की तरफ चलने लगा। पहले तो योगी भाई साथ चलते रहे लेकिन फिर उनके मन में शायद कुछ और विचार थे। मैं उधर से नयी दिल्ली की तरफ जाना चाहता था। हम चांदनी चौक की तरफ जा रहे थे तो योगी भाई ने कहा कि उधर क्यों जा रहे हो। मुझे चाय पीने का मन कर रहा था तो मैंने उनसे कहा। उन्होंने कहा रोड क्रॉस करेंगे तो चाय वाला मिल ही जाएगा। मैंने कहा फिर नयी दिल्ली भी तो जाना है तो उन्होंने कहा कि इधर से ही रिक्शा मिल जायेगा। मुझे और क्या चाहिए था। मैं दिल्ली इतना नहीं घूमा हुआ हूँ और योगी भाई को इधर के रास्तों का विशेष ज्ञान है। कभी कभी तो मुझे लगता है कि योगी भाई शर्लाक होल्म्स की तरह जूतों में लगी मिट्टी से ये बताने की काबिलियत रखते हैं कि वो व्यक्ति नयी दिल्ली के आसपास के किस इलाके से आ रहा है। मैंने उनकी बात मान ली (कानपुर जाते हुए उनकी बात मानने में फायदा भी हुआ था। ) और कुछ ही देर में चाय वाले के पास पहुँच गये। उधर चाय पी और योगी भाई ने कोल्ड ड्रिंक। चाय इतनी अच्छी नहीं थी। न उसमे अदरक था न मसाला। बस तलब मिटी लेकिन जो चाय पीने पर आनन्द आता है वो नहीं मिला। अब हमे नयी दिल्ली जाना था। हमने उधर से एक रिक्शा लिया और नयी दिल्ली स्टेशन की तरफ बढ़ चले।

हम मेट्रो के गेट के बाहर राघव भाई का इन्तजार करने लगे। प्यास काफी लगी थी तो स्टेशन के गेट के बाहर एक पानी वाला था। वो पाँच रूपये में एक लीटर पानी दे रहा था तो उससे पानी ले लिया। ऐसी मशीन हर जगह होनी चाहिए। ठन्डे पानी से अपना गला तर किया। कुछ देर बाद राघव भाई को दुबारा फोन  किया तो पता लगा कि राजीव भाई राघव भाई को लेने आ गये हैं और उनके साथ खड़े हैं। सिन्हा जी की क्योंकि क्लास थी तो उनके यहाँ जाने का प्लान कैंसिल कर दिया था। अब राघव भैया पहाडगंज में ही ठहरने वाले थे। थोड़ी देर इस बात का कंफ्यूजन रहा कि वो लोग किधर हैं। मुझे फोन पर बात करना सबसे मुश्किल काम लगता है। योगी भाई बात करते करते फोन मुझे पकड़ा देते और मुझे कुछ सुनाई न देता। मैं फोन फिर उन्हें ही दे देता। ऐसे ही मेट्रो के आस पास चक्कर काटते हुए योगी भाई ने एक और बार मुझे फोन पकड़ाया। उधर राजीव भाई थे और वो उस होटल का नाम बता रहे थे जिधर वो ठहरे हैं। वो नाम बोलते मुझे सुनाई ही नहीं देता तो मैंने उनसे कहा कि वो व्हाट्सएप्प कर दें। उन्होंने नाम मेसेज किया। उसके बाद मैंने फोन योगी भाई को दिया तो राजीव भाई ने शायद उन्हें को और भी दिशा निर्देश दिए। हमने फिर एक रिक्शा लिया  और पहाड़गंज की तरफ बढ़ गये। कुछ देर भटकने के बाद और राजीव भाई द्वारा लोकेशन  भेजने के बाद हम लोग आखिर होटल में पहुँच गये। राघव भैया से मिले और एक छोटी मीट शुरू हुई। थोड़ी देर में देवराज अरोड़ा जी भी आ गये। उनसे मैं पहली बार मिल रहा था। उनके जिंदादिली के अब तक किस्से ही सुने थे लेकिन आज देख भी लिया था।  सब लोगों से मिलना हुआ, बातचीत हुई। बातचीत के विषय आने वाली भोपाल मीट से लेकर फिटनेस, साहित्य इत्यादि थे।  राघव भैया के द्वारा सबको पुस्तकें भी उप्हारस्वरुप दी गयी। किताबें जब गिफ्ट में मिलती हैं तो मुझे बहुत अच्छा लगता है।  नाश्ता पानी हुआ और ये महफ़िल आठ बजे तक जमी। हाँ, गुरु जी की कमी खली। उनकी क्लास थी इसलिए वो आने में असमर्थ थे, अगर आते तो मीट में चार चाँद लग जाते।  देवराज जी थोड़ा जल्दी चले गये थे लेकिन हम राजीव भाई, योगी भाई और मैं आठ पौने आठ तक उधर रहे। राघव भाई के साथ उनके अनुज भी थे। उनकी तबियत थोड़ी नासाज़ थी इसलिए वो ज्यादातर आराम ही कर रहे थे।

राघव भाई, योगी भाई और मैं
राघव भाई और राजीव भाई
देवराज अरोड़ा जी
राघव भैया द्वारा दी गयी पुस्तकें
आठ बजने को थे और चूँकि हमे दूर जाना था तो हम भी अपने अपने बसेरों की तरफ निकलना चाहते थे।  हमने राघव भाई से इजाजत ली और वो हमे छोड़ने नीचे तक आये। राघव भाई के छोटे भाई दवाई लेकर थोडा राहत महसूस कर रहे थे और उन्हें हमने ऑटो में बिठा दिया था।  अगले दिन पता चला कि उन्हें वायरल था लेकिन अब वो ठीक हैं। एक अच्छे दिन की समाप्ति हो चुकी थी। हमने रिक्शा लिया जिसमे राजीव भाई, योगी भाई और मैं मेट्रो तक गये। योगी भाई को उधर एक काम याद आ गया और वो उसे निपटाने चले गये। मैंने और राजीव भाई ने मेट्रो में एंट्री ली। उन्हें सेंट्रल सेक्रेटेरिएट में मेट्रो बदलनी थी। तब तक बातचीत होती रही। अमेज़न प्राइम पर, नेटफ्लिकस पर, उनकी साईट पर और सेर्गेई लुक्यानेनको द्वारा लिखी फंतासी श्रृंखला पर जिसे मैंने कुछ दिनों में पढ़ना शुरू करूंगा। ऐसे ही बातचीत करते हुए केन्द्रीय सचिवालय भी आ गया और उन्होंने भी अलविदा कहा। उनके जाते ही मैंने एक सीट पर कब्जा किया और डॉक्टर हु के कारनामों में खो गया।जब तक मेरा स्टेशन आता है तब तक आपके लिए रविवार को ली या मिली किताबों की सूची।20 रूपये प्रति किताब के दर से मिली किताबें

  1. Hope to die – Lawrence Block
  2. Doctor Who: Whishing Well – Trevor Baxendale
  3. Hannibal – Thomas Harris
  4. Creed – James Herbert
  5. The Ghosts of Sleath – James Herbert
  6. Moon- James Herbert
  7. Once – James Herbert
  8. The Good Guy – Dean Koontz
  9. Demon Seed – Dean Koontz
  10. The Husband – Dean Koontz

30 रूपये प्रति किताब के दर से मिली किताबें

  1. विषकन्या – राज भारती
  2. पलटवार – सुरेन्द्र मोहन पाठक

राघव भाई द्वारा उपहारस्वरुप दी गयी किताबें :

  1. पृथ्वी राज मोंगा संकलित कहानियाँ
  2. बस का टिकट – गंगाधर गाडगिल
ये सप्ताहांत काफी अच्छा बीता था। किताबों और दोस्तों का साथ मिला था। दोनों ही मेरी पसंदीदा चीजें हैं। और ज़िन्दगी में क्या चाहिए होता है। हाँ, एक बात का दुःख है कि पुस्तक मेले और दरयागंज मार्किट की तस्वीरें नहीं ली। किताबों के निकट जब होता हूँ तो तस्वीरें खींचने का ख्याल मन में आता ही नहीं है तब तो किताबों के ढेर को देखकर एक ही गाना मन में बजता है ‘तेरे चेहरे से नज़र नहीं हटती नजारे हम क्या देखें’। हा हा। खैर, भले ही फोटो न खींची हों यादें तो हैं मन में उन्ही से काम चला लेंगे।क्या आप भी पुस्तक मेले में गये थे ? उधर आपने क्या खरीदा। कमेंट में जरूर बताइयेगा। ऊपर मौजूद किताबों में से  आपने कौन सी किताबें पढ़ी हैं और आपको वो कैसे लगी?

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहत हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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0 Comments on “24वाँ दिल्ली पुस्तक मेला, दरयागंज का सन्डे मार्किट और एक मिनी मीट”

  1. शानदार लिखा विकास भाई ।आप अगर स्क्रिप्ट लिखोगे तो आग लगा दोगे लाइक विकास अंजान की आग ।सच में मजेदार दिन था ,आप सब के साथ मैं भी युवा हो लिया ।लेख में सुधार हेतु फैक्ट्स से इतर थोड़ा चरित्र चित्रण की भी ज़रूरत यथा मेट्रो ,मेले ,मीट में जिनसे प्रथम साक्षात्कार हुआ उनकी क्या छवि बनी मन में ?? विभिन्न जॉनर की पुस्तकों के प्रति आपका लगाव मोहित करता है ।ऐसे ही अपनी आभा से आलोकित करते रहे 😊😊

  2. शुक्रिया,राघव भाई। वो करता तो लेख काफी लम्बा हो जाता। लेकिन अगले लेख से ध्यान रखूँगा। अभी रिपोतार्ज की तरह लिख रहा था।धन्यवाद अपनी राय देने के लिए। इससे काफी सुधार होगा।

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