ऑटो वाले भाई साहब का इंतजार करते हुए कुछ करने को नहीं था तो ये ही खींच लिया |
पूरा अक्टूबर बिना कहीं गये बीत गया था। मन यात्रा के लिए व्याकुल हो रहा था। घुमक्कड़ी के कीटाणु मन की जमीन पर फुदकने लगे थे। उनको शांत करने का एक ही तरीका था कि कहीं चला जाये। अब मैं चाहे एक दिन के लिए ही सही लेकिन कहीं घूमने का प्लान बनाना चाहता था। ऐसे ही मन में ग्वालियर का ख्याल आया। मेरे सहकर्मी दीपक ने उधर अपना बचपन बिताया था। उसी से हुई बातों के दौरान मुझे पता चला था कि वो भी घूमने के लिए अच्छी जगह है। मैंने थोड़ा बहुत गूगल किया तो पता चला कि उधर देखने को काफी कुछ था। वो काफी कुछ मुझे पसंद आया था और साथ में ये बात भी कि ग्वालियर के इलावा उसके आसपास के इलाके में भी घूमने के काफी कुछ था। मैंने सोचा कि अगर शनिवार को ग्वालियर को देखना हो गया तो रविवार को आस पास की जगह देखा जा सकता है। यानी समयाभाव नहीं हुआ तो घूमने के लिए काफी कुछ था। अब मेरा मन पक्का हो चुका था।
अब ऐसा हुआ कि व्हाट्सएप्प समूह में ऐसे ही वीकेंड को लेकर बातें चल रही थी तो मैंने भी अपने प्लान के विषय में उधर बताया। मैं उधर अकेला ही जा रहा था। ऐसे में मनीष भाई ने पूछा कि अगर मुझे कोई तकलीफ नहीं तो क्या वो भी साथ में आ सकते तो मुझे अति प्रसन्नता हुई। अकेले जाने से अच्छा किसी के साथ जाना होता है। फिर मैं थोड़ा अन्तर्मुखी स्वभाव का हूँ और मनीष भाई बहिर्मुखी स्वभाव के तो ये भी अच्छा था। मैं अक्सर अनजान लोगो से बातचीत में झिझकता हूँ तो पूछना पाछना इतना नही हो पाता। खाली अकेले होता हूँ तो मजबूरीवश ये काम कर लेता हूँ। लेकिन अब मनीष भाई आ रहे थे तो इस मामले में हल्का हो सकता था। वो पूछने के काम में मदद कर सकते थे।
तो थोड़ी बहुत बातचीत के बाद तय हो गया कि वो आयेंगे। हाँ, बस उनकी शर्त ये ही थी कि वापस रविवार की सुबह तक आना होगा क्योंकि उन्हें कुछ काम निपटाने थे। मुझे इसमें कोई दिक्कत नहीं थी। रविवार को आने से मुझे आराम मिलना था। शाम तलक तो मैंने वैसे भी आना ही था तो सुबह आने में क्या दिक्कत होती।
उन्होंने पूछा कि किस तरह से जाया जायेगा तो मैंने कहा ट्रेन तो मुश्किल है लेकिन बस से जाया जा सकता है। बस के विषय में मैंने सर्च किया था तो मुझे पता चला कि दो बसें सराय काले खाँ बस स्टैंड से जाती हैं (स्रोत)। एक साढ़े आठ की और एक साढ़े दस बजे की। इसके इलावा एक लिंक से ये भी पता चल गया कि ग्वालियर के लिए बसे अक्सर 51 से 53 प्लेटफॉर्म के बीच मिलती हैं(स्रोत)। फिर उधर से आगरा वगेरह जाने के लिए भी रेगुलर सर्विस थी। तो हमारे पास ये भी विकल्प था कि अगर हमारी बस छूट भी जाती तो हम आगरा से कुछ जुगाड़ कर सकते थे।यानी मंजिल तक पहुँचने के काफी साधन हमारे पास उपलब्ध थे और इस बाबत मैं निश्चिन्त था।
शुक्रवार आया तो मैंने अपना सामान पैक कर लिया था। मेरा विचार रूम में आकर फिर उधर से बैग उठाकर एमजी रोड मेट्रो स्टेशन जाने का था। हम 8 बजे करीब सराय काले खाँ पहुँचना चाहते थे क्योंकि ग्वालियर के लिए निकलने वाली बस साढ़े आठ की थी। जल्दी पहुँचने का फायदा ये था कि अगर भीड़ भाड़ होती तो बाद की बस का जुगाड़ हो जाता और अगर भीड़ नहीं होती तो हम ग्वालियर जल्दी पहुँच जाते और घूमने को वक्त काफी मिल जाता। मेरा मन ग्वालियर की डायरेक्ट गाड़ी पकड़ने का था क्योंकि रात के सफ़र में गाड़ी बदलना बड़ा मुश्किल का काम होता है। आप सो रहे होते हो और फिर अनजान जगह में में उतर कर बस बदलने में परेशानी हो सकती है। और मैं सफ़र को जितना स्मूथ हो सके उतना स्मूथ बनाना चाहता था।
ऑफिस का दिन साधारणतः बीता। मनीष भाई से चैट पर बातचीत होती रही और उन्हें मैंने बस की लिस्टिंगस भी भेज दी थी। वही लिंक जो ऊपर दिए हैं। उनसे उन्हें ज्यादा मदद तो नहीं मिली लेकिन हमने निर्धारित किया कि हम छः साढ़े छः बजे तक मेट्रो पहुँच जायेंगे।
तो मैं छः पैंतीस के करीब तक मेट्रो पहुँच गया था। मनीष भाई से मैं निरंतर संपर्क में था तो मुझे पता था कि वो भी जल्द ही पहुँचने वाले हैं। सराय काले खाँ किस तरह जाया जायेगा इसके विषय में मुझे खाली गूगल सर्च के माध्यम से ही पता था। उसके हिसाब से हमारा प्लान था कि हम आई पी जाएँ और उधर से ऑटो लेकर सराय काले खाँ तक जायें। अभी तक ये ही प्लान मुझे जच रहा था।
मैं मेट्रो के बाहर मनीष भाई का इन्तजार कर रहा था कि मुझे ध्यान आया क्यों न योगी भाई से इस विषय में राय ली जाये। दिल्ली के रास्तों के विषय में उनका ज्ञान असीमित है। मैंने उन्हें कॉल लगाया और उन्होंने राय दी कि मैं जोरबाग से होते हुए जाऊँ तो छोटा पड़ेगा। वैसे भी आईपी पहुँचने में टाइम लगेगा और उधर से ऑटो वाला भी बीस तीस रूपये ले लेगा। इसकी तुलना में जोरबाग से मैं जल्दी पहुँच जाऊँगा और उधर से ऑटो भी अस्सी रूपये तक में मान जाएगा। मुझे उनकी बात जंची। मैंने उनका शुक्रियादा अदा किया और उनके दिशा निर्देश के हिसाब से सराय काले खाँ तक का सफ़र करने का मन बना लिया।
अब बस मनीष भाई के आने का इन्तजार था। उनका इंतजार करते करते मैं अपने उपन्यास में खो गया। अभी दो तीन ही पृष्ठ पढ़े होंगे कि उनका कॉल आ गया। मैंने फोन उठाया और उन्हें मैंने बताया कि मैं किधर खड़ा हूँ। कुछ ही देर में वो उधर आ गये और हम मिले। मैंने उन्हें योगी भाई से हुई बातचीत बताई और अब हम जल्द से जल्द जोरबाग पहुँचना चाहते थे। हम मेट्रो स्टेशन में दाख़िल हुए। उधर ज्यादा भीड़ नहीं थी और कुछ ही देर में हम मेट्रो में सफर कर रहे थे।
हमारी बातचीत चल रही थी और कभी कभी मैं अपने साथ लाये उपन्यास के पन्ने भी पढ़ लेता था। मैं उस वक्त डोनाल्ड ई वेस्टलेक का उपन्यास 361 पढ़ रहा था। बातचीत का विषय पल्प फिक्शन के दिग्गजों का प्रेरणा के नाम पर पूरा का पूरा प्लाट उठाने की प्रवृत्ति थी। बातचीत के दौरान इस पर भी बात हुई कि ये प्रवृत्ति कैसे हिंदी अपराध साहित्य के तीन स्तम्भ माने जाने वाले लेखकों में भी पाई जाती है। मनीष भाई ने हाल ही में एक मूवी पेबेक देखी थी जिसका कथानक एक बड़े मकबूल किरदार की श्रृंखला के उपन्यास से मिलता था। मुझे पता था कि पे बेक रिचर्ड स्टार्क जो कि डोनाल्ड ई वेस्टलेक का ही छद्दम नाम था के उपन्यास पर आधारित थी। मैंने उन्हें ये भी बताया कि उक्त लेखक ने रिचर्ड स्टार्क के कई उपन्यासों से प्रेरणा ली है विशेषकर पार्कर श्रृंखला के उपन्यासों से। ऐसी ही बातचीत चलती रही और घूम फिर कर शारदिंदु बंधोपाध्याय की कृत व्योमकेश बक्षी तक पहुँची जो काफी हद तक शर्लाक होल्मस से प्रभावित था। बातचीत का लब्बोलबाब ये था कि पाठक जब तक जागरूक होकर उठाई हुई कृति को नही नकारेगा तो उसे ऐसे ही परोसा जायेगा। वैसे हिंदी अपराध साहित्य को अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिलने लगी है। इससे एक फायदा ये होगा कि ऐसे कथानक जिन्हें ज्यों का त्यों विदेशी लेखकों से उठाया जाता है वो आने बंद हो जायेंगे। अंत में केवल मौलिक और उच्च कोटि की कृति ही टिकेगी। बाकी किसके ढोल में कितनी पोल है सब सामने आती रहेगी। इससे फायदा हिंदी अपराध साहित्य का ही होगा। ऐसे ही बातचीत करते करते कब जोरबाग़ स्टेशन आ गया पता ही नहीं चला।
मेट्रो से हम उतरे तो अब बात बाहर निकलने की थी। मुझे भी इधर से सरायकाले खाँ पहुँचने का आईडिया नहीं था तो पूछना ही बनता था। मनीष भाई ने एक व्यक्ति से पूछा और उचित दिशा निर्देश मिलने पर हम लोग स्टेशन से बाहर आये। अब ऑटो ढूँढने की बारी थी। एक ऑटो वाले भाई साहब को पकड़ा तो वो 100 या 110 रूपये में जाने को तैयार हो गये। हमे लेट भी हो रही थी इसलिए हमने ज्यादा बहस करना उचित नहीं समझा। ऑटो वाले भाई ने हमे थोड़ा रुकने को बोला तो हम उसका वेट करने लगे। वो अपना ऑटो चालू करने की कोशिश कर रहे थे जो कि चालू होने का नाम नहीं ले रहा था। उन भाई का ऑटो चालू करने का तरीका बहुत मनोरंजक था। वो ऑटो को पकड़ कर थोड़ी देर तक खींचते और फिर कूद कर ड्राइविंग सीट पर बैठकर उसे स्टार्ट करने की कोशिश करते। एक दो बार वो इसमें नाकामयाब हुए। फिर हम उनके पास गये तो उन्होंने हमसे कहा- ‘आप लोग तो जवान हो। जरा धक्का लगा दीजिये। अभी चालू हो जायेगा।’
हम लोग भी कुछ नहीं कर रहे थे तो तैयार हो गये। हम अब ऑटो को धक्का लगाते। साथ में ऑटो वाले भाई भी धक्का लगा रहे थे। ऐसे ही धकियाते हुए ऑटो को थोड़ी दूर तक ले जाते और कुछ देर में ऑटो वाले भाई फुदक कर ड्राइविंग सीट पर बैठते और ऑटो चालू करने की कोशिश करते। हम तीन चार बार यही किया लेकिन ऑटो था कि कसम खाए हुए था कि चलेगा नहीं। तीन चार बार धक्का लगाने से भी जब वो नहीं चला तो ऑटो वाले भाई साहब ने कहा,‘आप लोग थोड़े आगे में रेड लाइट है उधर तक पैदल चलो। मैं थोड़ी देर में आपको उधर ही मिलता हूँ।’
अब हम आगे बढ़ने लगे। रात थी और आसमान में चाँद अपने चांदनी बिखेर रहा था। हमारे सफ़र की शुरुआत ही ऐसी हुई थी। अब देखना था कि आगे क्या होता। मनीष भाई ने कहा भी लो आपको ब्लॉग के लिए तो मसाला मिल गया। मैंने खीसें निपोरकर उन्हें देखने लगा। थोड़ी देर चलने के बाद मनीष भाई ने कहा कि दूसरा ऑटो ले लेते हैं तो मैंने कहा कि जब इतना इन्तजार कर लिया है तो थोडा और सही। बस साढ़े आठ की जरूर थी लेकिन सराय काले खां से लगातार आगरा के लिए बसें जाती रहती थीं। अगर ग्वालियर वाली छूट भी जाती है तो आगरा की पकड़ लेंगे और उधर से ग्वालियर की ले लेंगे। ऐसे ही बात करते करते थोडा वक्त और बीता और हमने सोचा ऑटो वाले भाई तो हमारी तरफ आ नहीं रहे तो हम ही उनकी तरफ चलने लगे। अब तो मेरे मन में भी दूसरा ऑटो लेने का ख्याल आने लगा था। हम वापस जा रहे थे कि एक खाली ऑटो आता दिखा। वो हमारे वाला ही था।ड्राईवर भाई विजय मुस्कान मुस्कुरा रहे थे और उन्होंने हमारे बगल में ऑटो रोका। हम अपने रथ में सवार हुए और सराय काले खाँ की तरफ बढ़ चले।
उधर तक का सफर सामान्य था। ऑटो वाले भाई रस्ते में पड़ने वाले स्टेडियम वगेरह के विषय में बताते जा रहे थे। मनीष भाई भी उनसे गुफ्तगू करते जा रहे थे। मुझे थोडा बातचीत करने में झिझक महसूस होती है तो मैं दोनों की बातें सुन रहा था। ऐसे ही बातचीत में सफ़र खत्म हुआ और ऑटो वाले भाई साहब ने हमे अपने गंतव्य स्थान यानी सराय काले खाँ तक छोड़ा। उन्होंने हमे टर्मिनल के गेट तक छोड़ा जहाँ से अंदर घुस कर हमे बस मिलनी थी। हमने किराया दिया और उनसे विदा ली।
टर्मिनल में दाखिल होते हुये |
अब हम टर्मिनल में दाखिल हुए। हमे अब पता करना था कि ग्वालियर की बस किस नंबर पर खड़ी होती है। एक दो जगह से पूछते पाछते (पूछने का काम सारा मनीष भाई ही कर रहे थे) हम लोग ग्वालियर की बस खड़े होने के स्थान तक पहुँचे तो उधर पहुँच कर हमे एक झटका लगा।
उधर से हमे बताया कि ग्वालियर की बस तो निकल गई है। हमारे होश फाकता हो गये थे। हमने उनसे पूछा कि अभी तो वक्त है तो उन्होंने कहा कि बस उधर से तो निकल चुकी है लेकिन वो पुल के बगल में खड़ी होगी। हमने कहा कि इसके बाद भी कोई बस है तो उन्होंने इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि उधर के लिए ये आखिरी है। अभी बस के चलने में पाँच दस मिनट थे। हमने अब आव देखा न ताव और लगे भागने। हमारा मकसद बस को पकड़ना था और हम भागते जा रहे थे।
हम भागते हुए टर्मिनल से निकले। निकलते हुए भी बस के विषय में पूछते जा रहे थे। टर्मिनल से निकल कर हम सड़क की ओर दौड़े। दौड़ते हुए हमे एक बस उधर मिली तो हमने उसके विषय में पूछा। उनका जवाब सुनते ही हमारी जान में जान आई। हमने चैन की साँस ली। ये ग्वालियर वाली ही बस थी। हमने उनसे टिकेट के लिए पूछा तो उन्होंने कहा बस में ही मिल जायेगा। इसमें मुझे कोई अलग बात नहीं लगी। अक्सर उत्तराखंड की बसों में भी बस में टिकेट मिल जाता था। इसलिए हम लोग बस में बैठ गये। हमने अपना सामान सेट किया और थोड़ी देर बैठ कर आराम किया और भागने से जो पसीना आने लगा था उसे पोंछा।
अभी बस चलने में वक्त था।थोड़ी देर में मनीष भाई ने कहा कि बाहर चलते हैं तो मैं भी राजी हो गया। उनका कुछ खाने का मन था। हम लोग बाहर आये। हमने दो तीन फोटो खिंचवाये। मनीष भाई चिप्स लेने के लिए चले गये। मैंने मूंगफली ले ली। बस के सफ़र में मूंगफली खाने का अपना मज़ा है। हाँ, बस इतना ध्यान रखना चाहिए कि कूड़ा न हो। बस में मूंगफली छिलकर जो लोग छिलके बस में डाल देते है उनसे मुझे बहुत कोफ़्त होती है। पूरी बस कूड़ाघर बना देते हैं ऐसे लोग। मैं तो अक्सर जिस पन्नी में मूंगफली देते हैं उसी में छिलके डाल देता हूँ। एक तो इससे कूड़ा भी नहीं होता और दूसरा जब आखिरी की मूंगफलियाँ बचती हैं तो एक ट्रेजर हंट वाली फीलिंग आती है। उंगलियाँ घुमा घुमा कर देखना पड़ता है कि मूंगफली किधर है।
बड़ी दौड़ भाग के बाद पकड़ में आई है। ऐसे न जाने दूँगा। |
बस मिलने से राहत मिली तो जो बस टर्मिनल का फोटो खींचने से रह गया था तो उसकी भरपाई करने की कोशिश करी |
बस के सफ़र का साथी मूंगफली |
अब हमें हमारी पक्की सीट मिल गई थी और हम उनसे हटने वाले नहीं थे। हमने उसमे अपनी तशरीफ़ टिकाई और बस के चलने का इंतजार करने लगे। कंडक्टर भाई के चढ़ते ही सोयी हुई बस ने अंगडाई लेनी शुरू कर दी थी और थोड़ा बहुत हिलने डुलने के बाद वो सड़क की तरफ बढ़ने लगी।
हमारा सफ़र चालू हो गया था। हमने अपने समूह में एक दो फोटो प्रेषित करीं और फिर खाने पीने में व्यस्त हो गये।
बस का सफ़र साधारण था। थोड़ी देर तक तो हम जगे रहे लेकिन जैसे लाइट बंद हुई तो सोने लगे। एक बार एक टोल पार करके बस रुकी। उधर पहले कंडक्टर लघु शंका के लिए रुका। फिर उसके देखा देखी एक दो आदमी और उतरे। मनीष भाई भी उतरे और मैं बैठा रहा। बैठे बैठे बोर होने लगा तो मैं भी उतर गया। अब कंडक्टर वापस आ रहा था। लोग बाग़ ऐसे ही एक एक करके उतर रहे थे तो उसने कहा एक ही बार में उतर जाते। हम सब चढ़ने को हुए तो एक महीला उतर गईं। अब हमे लग गया कि और वक्त जायेगा और इससे कंडक्टर साहब भी थोड़ा सा गरमा से गये। उन्होंने किसी को भी उतरने को मना किया और महिला का इंतजार होने लगा। उनके आते ही बस आगे बढ़ चली।
आगे का सफ़र साधारण था। नींद के झोंकों में ही सफ़र व्यतीत हो रहा था और नींद जब खुली तो बस खाने के लिए एक स्थान पर रुकी थी। मैं जब उतरा तो हैरान सा था। ऐसा लग रहा था कि किसी ने गाँव में आकर बस रोक ली हो। जो ढाबा था वो भी गाँव वाला ही लग रहा था। खाने की क्वालिटी से लेकर चाय की क्वालिटी भी ठीक नहीं थी। मैंने उधर मन मारकर एक चाय ली। लेकिन चाय का स्वाद अच्छा था। तो मैं तो संतुष्ट हो गया। मुझे ढंग की चाय मिल जाये और मेरा गुजारा हो जाता है। मनीष भाई का तो मन ही उचट गया था। उनका कदाचित कुछ खाने का मन हो रहा था। मैं चाय पी रहा था कि मनीष भाई आगे को निकल गये। उधर भी एक ढाबा टाइप ही था। मैं चाय खत्म करके उधर को गया तो मुझे ताज्जुब हुआ। ये अच्छी जगह थी। हमने उनसे दो कुल्हड़ वाली स्पेशल चाय बोली। मनीष भाई भी तब तक शायद कुछ खा चुके थे। फिर उधर काउंटर में लगे पेठे देखने लगे। काउंटर में विभिन्न तरह के रंग बिरंगे पेठे थे। पान वाला, गुलाब वाला, अंगूरी इत्यादी। मैंने चाय पी तो दूसरे ढाबे वाले की चाय इससे बेहतर लगी। ऐसा लगा स्पेशल चाय के पैसे व्यर्थ ही दिए। मनीष भाई को पेठे पसंद आ गये थे तो उन्होंने एक डिब्बा अपने लिए बंधवा लिया। मुझे पेठे खाने का इतना शौक नहीं है तो मैंने खाली फोटो ही ली।
ढाबा जिधर गाड़ी रुकी थी |
चाय का इन्तजार करते मनीष भाई |
पेठे |
पेठे |
पेठे |
तरह तरह के पेठे दर्शाता होर्डिंग |
इसके बाद हमने चाय निपटाई और वापस गाड़ी में बैठ गये। गाड़ी अब दुबारा चलने लगी। ऐसे ही सफ़र कटता रहा। गाड़ी में हो रही बातचीत से लग रहा था कि हम ग्वालियर तीन बजे से पहले पहुँच जायेंगे। ये सुनकर मैं यही सोच रहा था कि उधर अगर इतनी जल्दी पहुँच गये तो क्या करेंगे। खैर, अब जो होता तो वो देख ही लेते।
बस ग्वालियर से दस पंद्रह मिनट की दूरी पर थी कि उसे रोक दिया गया। हम दोनों ही हैरान थे कि आखिर ऐसा क्यों किया गया। खैर, इस राज से कुछ ही देर में पर्दा उठ गया। बस जहाँ रुकी थी उधर एक ढाबा था। हमे बताया गया कि जो लोग ग्वालियर से आगे झाँसी वगेरह जा रहे थे उन्हें बस बदल कर दूसरी में जाना होगा। यात्रियों को इस तरह परेशानी तो होनी ही थी। थोड़ी बहुत चिल्लमचिल्ली भी हुई। लोग बस वालों को कोसने लगे कि इनका ये रोज का काम है। उधर से सवारी ले आते हैं और फिर परेशान करते हैं। मुझे उनसे सांत्वना थी लेकिन चूंकि बस रुकी हुई थी तो मैं तो चाय की तलाश में निकल गया। मैंने जल्द ही एक चाय का कप लिया और चाय सुडकते हुए सारी गतिविधि देखने लगा। उधर ही हमे पता चला कि मध्य प्रदेश में सरकारी बसें बंद कर दी गई हैं। सब कुछ प्राइवेट है। इसलिए बस कंपनी वाले मुनाफा बढाने के लिए ऐसा करते हैं। जब उनकी कंपनी की एक बस ग्वालियर से आगे जा ही रही है और उसमे सीट भी है तो व्यापार सुलभ निर्णय यही है कि एक गाड़ी में सारे यात्री जाएँ। लेकिन इसके चलते यात्रियों को परेशानी होती है उससे व्यापारियों का इतना फर्क थोड़े न पड़ेगा। वो तो अपनी सुलभता देखेंगे और देखें भी क्यों न जब यात्रियों के पास विकल्प नहीं हैं। मनीष भाई मेरे साथ ही थे। कुछ देर में यात्रियो के स्थानान्त्रण की जटिल प्रक्रिया पूरी हुई और हम लोग ग्वालियर के लिए निकल पड़े।
अब बस ने ग्वालियर के बस स्टैंड पर जाकर रुकना था।
कुछ ही देर में बस ग्वालियर के बस स्टैंड पर रुक गई। अभी वक्त तीन के करीब ही हो रहा था और हमारे पास सवाल था कि ये वक्त कैसे काटा जाये। मैं सबसे पहले एक प्याला चाय पीना चाहता था तो मैंने वो पिया। फिर हम ऐसे ही आस पास टहलने लगे। पन्द्रह बीस मिनट हमने ऐसे ही काटे। फिर हम घूम फिर कर उधर ही आ गये जिधर चाय पी थी। उधर ही एक सुलभ शौचालय था। हम उधर गये और प्रकृति की पुकार(कॉल ऑफ़ द नेचर) का जवाब दिया। उधर एक एक करके ही गये थे। वो भी अजीब तरह का था। निवृत्त होने के लिए तो कई छोटे छोटे बातरूम थे लेकिन पानी एक हौज से ही ले जाना पड़ता था। अक्सर ऐसी जगहों में पानी बाथरूम में ही उपलब्ध होता है लेकिन क्या किया जा सकता था। हाँ, सफाई थी तो निपटने में आसानी हुई। जब फ्रेश हो लिए तो एक और चाय पी और उधर ही मौजूद लोगों से ग्वालियर फोर्ट के विषय में पूछा। उन्होंने ही बताया कि फोर्ट तो पाँच बजे ही खुल जाता है। अब चार तो बजने वाले थे तो ज्यादा वक्त नहीं काटना था। थोड़ी भूख भी लगी थी तो चाय वाले भाई, जो पोहा भी बेच रहे थे, से ही एक एक प्लेट पोहा दोनों ने ले लिए। पोहा खाने के बाद भी एक और चाय ली और फिर थोडा रुकने के बाद घूमने जाने का फैसला किया।वक्त काटना था तो एक चाय मैंने और ली। ये वाली चाय दूसरे दुकानदार से ली। उन्होंने स्पीकर पर गाने चला रखे थे तो वो सुनकर वक्त काटा। चाय खत्म हुई तो हम उठे और फिर एक ऑटो वाले भाई के पास गये।
उन्हें फोर्ट जाने के लिए कहा तो उन्होंने पूछा पैलेस जाना है। हमने पूछा कि पैलेस खुल गया होगा तो उन्होंने कहा कि हाँ। तो हमने कहा कि चलो उधर ही चलो। वो चालीस रूपये में जाने को राजी हो गये। सुबह का वक्त था और शेयरिंग में जाने के लिए इतंजार करना पड़ता जो हम करना नही चाह रहे थे। इसलिए हम उसमे बैठ गये। अब ग्वालियर दर्शन शुरू हो चुका था।
क्रमशः
इस यात्रा की सारी कड़ियाँ
ग्वालियर #1: दिल्ली से ग्वालियर
ग्वालियर #2: ग्वालियर बस स्टैंड से किला गेट तक
ग्वालियर #3: ग्वालियर किला और वापसी
शानदार यात्रा विवरण,
एक एक पल की पूरी व्याख्या,
लेखन का आनंद व पाठक को रोमांच इसी विस्तार में आता है।
किले की प्रतीक्षा।
बस वाले से और बसों की जानकारी ले लेते।
वाह भाई क्या एक एक बात का बिल्कुल सटीक विवरण दिया है और रोमांच की धकधक भी लगा दी कि बस मिलेगी की नही और किला 5 बजे खुलने वाला है जैसे…राज्य सरकारी परिवहन की बस में निकले घुमक्कड़…मज़ा आ गया….
आपकी टिपण्णी हमेशा प्रोत्साहित करती हैं, संदीप भाई। शुक्रिया। उस वक्त तो हम दौड़ भाग में इतने लगे रहे कि बस के विषय में जानकारी हासिल करने का मौका ही नहीं लगा।
धन्यवाद प्रतीक, भाई। मैं घुमक्कड़ी के दौरान अक्सर राज्य परिवाहन की बसों में सफर करने की ही कोशिश करता हूँ। सफर थोड़ा लंबा जरूर हो जाता है और पब्लिक ट्रांसपोर्ट होने के कारण उसी के हिसाब से योजना बनानी पड़ती है। लेकिन कई तरह के अनुभव हो जाते हैं।
शानदार वर्णन । किले की प्रतीक्षा
जल्द ही लिखता हूँ। शुक्रिया।
यात्रा-वृत्तांत लेखन में मैंने कोई प्रकाशित या परिपक्व कंटेंट नहीं पढ़ा है।यह पहली है और निश्चित ही आपके लेखन ने प्रभावित किया है।यात्रा के दौरान हर पल की व्याख्या की है और तस्वीर ने इस यात्रा-वृत्तांत को और भी रोचक और प्रभावी बना दिया है।वर्तनी में अशुद्धियाँ हैं कई जगह पर ज्यादा नहीं है।आगे के पार्ट्स की प्रतीक्षा में।
शुक्रिया। जिधर भी वर्तनी गलत हो तो बता दीजिये। सुधार कर लूँगा।
बहुत खूब , शानदार यात्रा वर्णन . .
अौर मूवी का नाम पे चेक है। . .
जिस पर एक नामी लेखक ने नावल लिखा था।
पे बैक भी है और इस पे लिखने वाले लेखक दूसरे हैं।लेकिन छोड़िये वो जुदा मसला है। शुक्रिया। टिपण्णी करने के लिए।
An interesting narration of events. Keep it up
शुक्रिया।
सर नमस्कार
सर नमस्कार
नमस्कार सर। स्वागत है ब्लॉग पर।
रोचक यात्रा वर्णन।
जी आभार…