झाँसी और ओरछा की घुमक्कड़ी #3: झाँसी का किला और रानी महल

झाँसी ओरछा की घुमक्कड़ी
3/12/2018


झाँसी स्टेशन में उतरा, वहाँ पखाना काण्ड हुआ और उसके बाद राकेश भाई से मिलकर हम लोग बाइक में बैठकर झाँसी के किले की तरफ बढ़ चले। उससे पहले वीरांगना महारानी लक्ष्मी बाई पार्क मौजूद था जिसके सामने राकेश भाई ने बाइक रोक दी थी। सामने ही झाँसी का संग्रहालय था। दोनों ही चीजों को देखने में राकेश भाई की रूचि नहीं थी इसलिए हम आगे बढ़ गये।

इतना आपने पिछली कड़ी में पढ़ा। अब आगे-

झाँसी के किले पहुँच ही गये 

अब हम झाँसी के किले की तरफ बढ़ चले थे। उद्यान के गेट के बाहर कुछ व्यक्ति थे जिनसे हमने दिशा की पुष्टि कर ली थी। मुश्किल से एक किलोमीटर दूर ही झाँसी का किला था। हम  बाइक पर सवार होकर इधर की तरफ बढ़ने लगे। जब तक हम उधर पहुँचते हैं तब तक चलिए जानते हैं झांसी के विषय में कुछ बात ही कर लेते हैं।


झाँसी के विषय में कुछ बातें:

  1. झाँसी बुन्देलखण्ड के उस इलाके में पड़ता है जो कि पहुज नदी के किनारे बसा है। 
  2. बुन्देलखण्ड का द्वार कहा जाने वाला झाँसी पहुज और बेतवा नदी के बीच में बसा है। 
  3. प्रारम्भ में झाँसी के ऊपर चन्देल राजाओ का राज था। उस वक्त  इसका नाम बलवंतनगर हुआ करता था। 
  4. 1817 से 1854 तक झाँसी झाँसी राज्य की राजधानी थी जिस पर मराठा राजाओं का राज था। 
  5. 1854 में ब्रिटिश गवर्नर जनरल ने उत्तराधिकारी न होने का कारण देते हुए इस राज्य को हड़पना चाहा था। उस वक्त क़ानून था कि जिस रियासत का कोई उत्तराधिकारी नहीं होता था उसे अंग्रेज अपने राज्य में जोड़ लेते थे। उन्होंने रानी लक्ष्मी बाई के दत्तक पुत्र दामोदर को झाँसी का उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया था और लक्ष्मी बाई जी को अपनी रियासत देने का हुक्म सुनाया था। रानी ने अंग्रेजों का यह हुकुम मानने से मना कर दिया था और जून 1857 से जून 1858 तक झाँसी में राज किया था। उन्होंने किस तरह से अंग्रेजी सरकार से लोहा लेकर उन्हें नाको चने चबवा दिये थे यह हर भारतीय को पता ही है।बचपन से लेकर हमे झाँसी के विषय में कुछ पता था तो वो थीं झाँसी की रानी और शायद ज्यादातर भारतीयों को यह पता होगा।

झाँसी नाम झाँसी कैसे पड़ा इसके पीछे भी एक रोचक लोककथा है। कहते हैं एक बार ओरछा के राजा ने अपने मित्र जैतपुर के राजा से पूछा कि  क्या उन्हें बंगरा की पहाड़ी पर बना नया किला दिख रहा है। इसके उत्तर में जैतपुर के राजा ने कहा ‘झाँई सी’ यानी हल्का हल्का दिख रहा है। यही शब्द बाद में बिगड़कर झाँसी बना।
(स्रोत)


दूसरी किंवदति  के अनुसार ओरछा के राजा बीर सिह देवजू  ने दूर् से पहाड़ी पर छाया देखी जिसे बुन्देली भाषा में “झॉई सी” बोला गया, इसी शब्द् के अप्भ्रन्श् से शहर का नाम पडा।
(स्रोत) 

अब ये दोनों बातें हैं। सच क्या हैं? झूठ क्या है? वैसे मूल कथा तो दोनों में एक जैसी ही हैं। मुझे दोनों ही रोचक लगी तो इधर लिख दी।

चलिए कथा सुनाते सुनाते इतना वक्त तो गुजर ही चुका है कि हम लोग आराम से किले के निकट पहुँच ही चुके हैं। तो वापस वृत्तांत पर आते हैं।

झाँसी का किला

हम किले के निकट आ गये थे। किला दूर से ही दिख रहा था। किले तक जाने के लिए चढ़ाई थी और मुख्य द्वार के सामने बाइक पार्किंग की जगह भी थी। हमने उधर जाकर बाइक लगाई और फिर किले में टिकट घर की तरफ बढ़े ।  मेरे पास तो पैसे थे नहीं इसलिए राकेश भाई टिकट लेने को गये।

टिकट घर की सामने वाली दीवार में कुछ खूबसूरत फूल उगे हुए थे। मैंने उनकी तस्वीर निकाली। उधर ही झाँसी के किले के विषय में जानकारी देता बोर्ड था तो उसे भी पढ़ा और उसकी तस्वीर भी निकाली।

फूल खिले हैं गुलशन गुलशन 
झाँसी के किले के विषय में जानकारी देता बोर्ड 

 राकेश भाई ने दो टिकट लिए और अब हम अंदर दाखिल होने वाली लाइन में लग गये। ज्यादा लोग नहीं  थे। सामने एक ही गार्ड थे जो कि एक छोटी सी मशीन लेकर चेक कर रहे थे। साथ साथ वो आगुन्तकों के बैग खुलवाकर भी चेक कर रहे थे। बीड़ी,सिगरेट,तम्बाखू इत्यादि वो अपने पास जमा करा दे रहे थे। हमारे से पहले वाले के साथ ऐसा ही हुआ। उसकी बीड़ी तम्बाखू रख ली गई। हमारी बारी आई तो उन्हें ऐसी कोई वस्तु हमारे पास मिली नहीं। मेरे बैग में किताबें देखकर वो अचकचा ही गये थे। ऐसा लग रहा था जैसे शायद पहली बार ऐसा कुछ किसी के बैग से उन्होंने बरामद किया होगा।

खैर, उन्होंने उसे जब्त नहीं किया और बैग को बंद करके हम लोग अंदर दाखिल हुए । अंदर एक प्रांगण था। बायें तरफ किला था। किले की दीवार में छोटी सी बगिया थी जिसमे कुछ सुन्दर फूल उगे हुए थे। दायें तरफ प्रांगण के बीच में  एक छोटी सी तोप रखी हुई थी। यही पर जन प्रसाधन की व्यवस्था भी थी। वही निकट में कुछ मजदूर थे जो कि उधर काम कर रहे थे। मौसम में गर्मी काफी थी तो मैंने टी शर्ट ही डाली हुई थी। हुड बैग के हवाले कर दिया था। राकेश भाई जो कि अब तक  जैकेट में थे उन्होंने भी अपनी जैकेट को तिलांजली दे दी थी।

किला और बगिया

पहले हमने उस छुटकी तोप को देखने का मन बनाया। हम तोप के निकट गये और उसकी कुछ तसवीरें हमने उतारी।
इस तोप का नाम कड़क बिजली तोप है। कड़क बिजली तोप के विषय में कुछ बातें:

  1. कड़क तोप गंगाधर राव के काल की है। 
  2. यह तोप सिंह की मुखाकृति से शोभित है। 
  3. यह तोप चलने पर बिजली की कड़क उत्पन्न करती थी और शायद इसलिए इसे कड़क तोप कहा गया। 
  4. यह तोप गुलाम गौस खाँँ द्वारा संचालित होती थी।
  5. इस तोप का कुल माप 5.5 मीटर X 1.8 मीटर और व्यास 0.6 मीटर है

यह सब बातें वहीं पर लगे बोर्ड में भी दर्ज हैं।

तोप का फ्रंट व्यू 

कड़क बिजली तोप
कड़क बिजली तोप की जानकारी देता बोर्ड

 उस तोप को देख देख कर मुझे ब्योमकेश बक्षी का एपिसोड किले का रहस्य याद आ रहा था। क्या कहा? आपने ब्योमेकेश बक्षी का वो एपिसोड नहीं देखा है। तो टेंशन क्यों ले रहे हैं। इधर ही लेख के अंत में लगा दूँगा। आराम से देखिएगा।

किले का रहस्य में भी रहस्योद्घाटन में एक तोप ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। रह रह कर मैं यही सोच रहा था कि क्या ऐसा ही कोई रहस्य इस तोप में बंद तो नहीं। क्या पता इसके अन्दर भी कोई सोने की मोहरे तो नहीं। या क्या पता इस तोप के अंदर किले में मौजूद गुप्त खजाने का नक्शा ही हो। कैसा हो मुझे वो नक्शा मिले और हम लोग खजाने की तलाश में आगे बढे। हमे मुसीबतों का सामना करना पड़ेगा, उन मुसीबतों से जूझकर हम खजाने की तह तक पहुँचेंगे। अहा!! क्या अद्भुत समय होगा वो।

मैं अपने दिमाग में पकने वाले ख्याली पुलाव की भीनी भीनी सुगंध से मोहित हुआ जा रहा था कि तभी राकेश भाई किले के द्वार से किले में दाखिल होते दिखे। मैंने अपने ख्याली पुलाव की हंडिया दिमाग के चूल्हे से हटाई, चूल्हे को बंद किया और उनके पीछे पीछे किले की सीढ़ियों की तरफ बढ़ने  लगा।

अब हम सीढ़ियाँ चढ़कर अंदर दाखिल होने लगे।

जब तक हम फोटो खींचते हुए,पोस बनाते हुए सीढ़ियाँ चढ़ते हैं तब तक आपको झाँसी के किले के विषय में मुख्य बातें बता दूँ:

  1. झाँसी के किले का निर्माण बंगरा नामक पहाड़ी पर 1613 में ओरछा के राजा बीर सिंह जूदेव द्वारा किया गया है। यह बुन्देला राजाओ का मजबूत गढ़ रहा है।
  2. १७ वी शताब्दी में मुगलो के लगातार आक्रमण के कारण राजा छत्रसाल ने मदद के लिए मराठा राजा पेशवा बाजीराव को कहा। वो मदद के लिए आये और मुगलो की सेना को करारी हार का सामना करना पड़ा।  इस मदद का आभार व्यक्त करने के लिए पेशवा बाजी राव को महाराज छत्रसाल ने अपनी रियासत का कुछ हिस्सा दिया जिसमे झाँसी का यह किला भी मौजूद था।
  3. यह किला झाँसी रेलवे स्टेशन से लगभग 3 किलोमीटर दूर है। 
  4. दुर्ग पंद्रह एकड़ में फैला हुआ है जिसमें बारह बुर्ज और दो तरफ रक्षा खाई हैं। 
  5. नगर के दीवार में खंडेराव,दतिया,उन्नाव,ओरछा,बड़गाँव,लक्ष्मी सागर,सैनयार,भान्देर एवं झिरना नामक दस द्वार थे। इनके अलावा गनपतगिर,अलीघोल,सुजान खाँँ तथा सागर खिड़की बनाई गई थी।
  6. झाँसी संग्रहालय से इधर पैदल भी पहुँचा जा सकता है। झाँसी संग्राहलय एक बस स्टॉप भी है तो आप स्थानीय बस लेकर उधर उतर सकते हैं। वरना ऑटो भी ले सकते हैं।
  7. किले के अन्दर बारादरी ,भवानी शंकर तोप,गणेश मन्दिर,गुलाम गौस खाँँ की कब्र, पंच महल,कुदान स्थल,शिव मंदिर  और फांसी घर देखने लायक है।

सामने ही एक  बोर्ड था। बोर्ड किले में मौजूद अलग अलग दर्शनीय स्थलों की दिशाओं की तरफ इंगित कर रहा था। कुछ स्थल दायें थे, कुछ बायें थे और कुछ सीधा जाकर थे। हम दायें मुड़ गये। हम अब एक एक करके किले में मौजूद चीजों को देखना चाहते थे।

किले में मौजूद अलग अलग दर्शनीय स्थलों की तरफ इंगित करता बोर्ड

किले के अन्दर हम लोग एक घंटे तक रहे और इस एक घंटे में हमने जितनी चीजें हो सकती थी देखीं। हाँ, जो भी पॉइंट इधर थे काफी पॉइंट्स के आगे कुछ तख्ती न होने की वजह से हम कयास ही लगाते रहे कि कौन सी चीज क्या है? काल कोठरी और फाँसी गृह के मामले में यह संशय ज्यादा था। मंदिर के विषय में भी ऐसा ही महसूस हुआ। किले की बीचों बीच एक सुन्दर सा बाग़ भी था जिसे देखकर मन प्रसन्न हो जाता था। किले की दीवारों पर चढ़कर आप आस पास का झाँसी शहर भी देख सकते थे। यह काम भी हमने किया।

अब देखिये किले की कुछ तस्वीरें :

अमोध बाग

किले की दीवार से दिखता प्रवेश दरवाजा 

किले की दीवार से दिखता शहर और एक खेल का मैदान

पंच महल

  1. यह एक पंच तलीय भवन था जो कि राजा बीरसिंह जूदेव  द्वारा निर्मित कराया गया था। 
  2. रानी लक्ष्मी बाई जी ने भी इसके भूतल का प्रयोग अपने सभा कक्ष के तौर पर किया था। 
  3. प्रथम कक्ष के तल में रानी  ठहरती थी। 
  4. इसका ऊपरी तल अंग्रेजो ने बनाया था।

पंच महल 

 कालकोठरी
इसका निर्माण मराठों ने किया था। इसका प्रयोग जेल के तौर पर होता था। बाद में अंग्रजों ने इसमें एक तल जोड़कर जेल के तौर पर ही इसका उपयोग किया।

ये भी कुछ था- काल कोठरी या फाँसी घर ये नहीं पता ….न कोई तख्ती थी न कोई बताने वाला 

एक छोटा सा मंदिर 

कुदान स्थल: वह स्थल जहाँ से रानी लक्ष्मी बाई अपने पुत्र के साथ घोड़े समेत छलाँग मारी थी  

ध्वज स्थल 

पंच महल के पाँचों तले इसमें दिख सकते हैं 

समाधियाँ
यहाँ तीन संयुक्त समाधियाँ हैं। गुलाम गौस खाँँ,जो कि मुख्य तोपची थे, मोती बाई जो कि महिला तोपची थीं और खुदा बक्श जो कि अश्वारोही नेता थे। इन तीनों ने १८५८ के युद्ध में वीरगति प्राप्त करी थी।

गुलाम गौस खाँँ, खुदा बक्स और मोती बाई की संयुक्त समाधि

रास्ते में फूलों की क्यारियाँ भी थीं। उधर ये महाशय मौजूद दिखे तो उन्हें कैद कर लिया।

हम लोग साढ़े दस बजे करीब किले में दाखिल हुए थे और अब साढ़े ग्यारह बजे के करीब किले से निकल रहे थे। एक या डेढ़ घंटे में पूरा किला आराम से घूमा जा सकता है। बाकी अगर पिकनिक वगेरह मनानी हो तो पूरा दिन भी बिताया जा सकता है। हमे तो अभी ओरछा भी जाना था तो हम इधर से निकलकर रानी महल तक जाना चाहते थे। रानी महल झाँसी के किले से ज्यादा दूर नहीं था,बामुश्किल आधा किलोमीटर होगा।

हम किले से बाहर निकले। पार्किंग से अपनी बाइक  उठाई। पार्किंग वाले भाई से ही रानी महल के विषय में पूछा और फिर उस और बढ़ चले। बीच में एक दो से भी पूछना पड़ा लेकिन दस मिनट में ही हम रानी महल के सामने थे।

रानी महल 

रानी महल



राकेश भाई ने बाइक को पार्किग पर लगाया जो कि सड़क के दूसरे तरफ था। मुझे भूख लग आई थी लेकिन सोचा कि रानी महल देखने के बाद ही कुछ नाश्ता पानी होगा। हम लोग अंदर बढे और हमने टिकट ली।
हम अंदर दाखिल हुए तो उधर कुछ मूर्तियाँ रखी हुई थी। ऐसा लग रहा था जैसे वो किसी पुरातत्वीय खुदाई से निकली हों। मैंने एक तस्वीर ली ही थी कि वहाँ मौजूद व्यक्ति ने कहा कि इसकी अनुमति नहीं है। मैंने फिर कोई अन्य तस्वीर नहीं ली। मूर्तियों को देखकर मुझे चाँद बावड़ी वाली यात्रा की याद आ गई। ऐसे ही स्लैब और मूर्तियाँ चाँद बावड़ी में मौजूद थी। हाँ, उधर फोटो लेने से कोई नहीं रोक रहा था।

टोकने से पहले ली गई एक तस्वीर…ऐसे ही कई मूर्तियाँ उधर रखे हुए थे जो कि आस पास के इलाकों से उधर लाई गईं थीं

खैर,कई बार संग्रहालयों में मना करते हैं। क्यों करते हैं ये वही जाने। महल के भीतर दाखिल होने से पहले उसके विषय में कुछ बातें जान लेते हैं। वैसे ये बातें आपको उधर लिखे बोर्ड में भी देखने को मिल जाएगी।

  1. इस महल का निर्माण नेवालकर परिवार(1769- 1796 ई) के रघुनाथ राव द्वीतीय द्वारा करवाया गया। कालान्तर में यह रानी लक्ष्मी बाई के निवास के रूप में काम आने लगा।
  2. पश्चिमी भाग के अतिरिक्त तीन ओर से यह एक समतल छत वाला दो मंजिला महल है।
  3. महल के आयताकार आँगन में एक कुआँ और तथा दोनों और दो दो फव्वारे हैं।
  4. इसके अतिरिक्त महल में अनेक लघु कक्ष, छः बड़े  कक्ष(हॉल),तथा बहुपर्त्तीय मेहराबों से सुसज्ज्ति समानन्तर गलियारें बने हुए है। लकड़ी की छतें तथा धरनियाँ अभी भी मूल रूप में विद्यमान है।
  5. महल के भूमि तल पर बने कक्षों के भीतर क्रमशः ललितपुर,झाँसी जिलों के अंतर्गत मदनपुर,दुधई,चाँदपुर तथा बरुआसागर से प्राप्त प्राचीन प्रतिमाएं संग्रहित हैं

कुछ तसवीरें देखिये अब :

ऊपर की मंजिल की खिड़की से दिखता महल का आँगन। सामने बाग,कुआँ  और फव्वारे हैं।

कमरे की खिड़की की जाली  से दिखता पीछे का बाज़ार 

छत

कमरा और बीच में राकेश भाई अपनी ली हुई फोटो को निहारते हुये 

दूसरा कमरा 

महल का एक और हिस्सा 

रानी महल ज्यादा बड़ा नहीं है। महल के कुछ हिस्से बंद थे। जो हिस्से खुले थे हम उधर थोड़ा बहुत घूमे थे। जब हम उधर थे तो इक्का दुक्का ही पर्यटक उधर थे जो कि हमारे लिए अच्छा था।

महल में दाखिल होते हुए तो मुझे लग रहा था कि मैं किसी सरकारी ऑफिस में हूँ। वैसे महल का मूल आकार देखकर मुझे अपने गाँव के घर की भी याद आ रहा था। उसकी बनावट भी ऐसी ही है। हाँ, गाँव के घर में इतने सारे कमरे नहीं है। होते तो वो भी महल न होता। हा हा।

 महल के कमरे वाकई खूबसूरत थे जिनकी तस्वीर आप ऊपर देख सकते हैं। हम कुछ देर तक उन्हें निहारते रहे। उनकी कलाकारी की तारीफ करते रहे। फिर जी भर के देखने के बाद बाहर निकल आये।

हम ग्यारह सैंतीस में अन्दर दाखिल हुए थे और ग्यारह पचपन के करीब बाहर आ गये थे।

हम महल से बाहर निकले और बाइक की तरफ बढ़े। मेरा चाय पीने का मन था लेकिन पहले हम अपनी अगली मंजिल की तरफ बढ़ना चाहते थे। रास्ते में ही चाय का जुगाड़ कर लेते।

राकेश भाई ने बाइक को पार्किंग से निकाला और उसे सड़क पर लाये। मैं बाइक में उनके पीछे बैठा और हम लोग अपनी अगली मंजिल की तरफ बढ़ चले।

अगली मंजिल क्या थी इसे अगले पोस्ट में ही लिखूँगा।

ऊपर ब्योमकेश बक्षी के एपिसोड की बात की थी तो उसे नीचे देख सकते हैं:

अब आज्ञा दीजिये। जल्द ही मिलेंगे। तब तक के लिए पढ़ते रहिये घूमते रहिये।

#फक्कड़_घुमक्कड़
#पढ़ते_रहिये_घूमते_रहिये

क्रमशः 

झाँसी और ओरछा भ्रमण की सभी कड़ियाँ:
दिल्ली से झाँसी
झाँसी रेलवे स्टेशन से किले की ओर
झाँसी का किला और रानी महल
ओरछा किला
ओरछा भ्रमण:मंदिर, कोठियाँ ,छतरियाँ इत्यादि 
© विकास नैनवाल ‘अंजान’

About विकास नैनवाल 'अंजान'

मैं एक लेखक और अनुवादक हूँ। फिलहाल हरियाणा के गुरुग्राम में रहता हूँ। मैं अधिकतर हिंदी में लिखता हूँ और अंग्रेजी पुस्तकों का हिंदी अनुवाद भी करता हूँ। मेरी पहली कहानी 'कुर्सीधार' उत्तरांचल पत्रिका में 2018 में प्रकाशित हुई थी। मैं मूलतः उत्तराखंड के पौड़ी नाम के कस्बे के रहने वाला हूँ। दुईबात इंटरनेट में मौजूद मेरा एक अपना छोटा सा कोना है जहाँ आप मेरी रचनाओं को पढ़ सकते हैं और मेरी प्रकाशित होने वाली रचनाओं के विषय में जान सकते हैं।

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0 Comments on “झाँसी और ओरछा की घुमक्कड़ी #3: झाँसी का किला और रानी महल”

  1. मैं सन 80 से 83 तृक झांसी में नियुक्ति पर रहा और जब भी झांसी किला और रानी का महल देखने की इच्छा जाहिर की तो यार दोस्तों ने कहा, अरे क्या है वहां! कबूतरों की गुटर गूँ, दुनिया भर की बीट और …बस!ऐसे भीगा हुआ कंबल डालने वाले मित्रों को बिना बताए एक दिन किला देखने पहुंच गया। काफी सारे हिस्सा मिलिट्री के अधिकार में था। कबूतरों वाली बात भी सही थी। पर फिर भी अच्छा लगा। किसी ने बताया था कि किले से एक सुरंग भी ग्वालियर की ओर निकलती है। वही ढूंढता रहा पर मिली नहीं। किले से शहर का विहंगम दृश्य अच्छा था।
    आपकी शैली बहुत आकर्षक है। अन्य पोस्ट पढ़ने जा रहा हूँ।

  2. दिल से आभार सुशांत जी। हाँ,दोस्त लोग ऐसे ही होते हैं। मैं फूलों की घाटी में गया था तो उधर भी कई लोग निराश दिखे थे। कह रहे थे ये क्या है? जबकि हमे वही चीजें स्वार्गिक आनंद दे रही थीं। बस नज़रिये का फर्क होता है।

  3. हाल ही में मणिकर्णिका फ़िल्म देखी और अब उसके बाद आपका ब्लॉग पढ़ा तो थोड़ा बहुत पता था गुलाम गौस खा गंगाधर राव वगैरह और आपके पोस्ट को पढ़कर और झांसी के किले और झांसी के बारे में पता चला…गुलाम गौस खा का किरदार डैनी ने फ़िल्म में निभा कर उसके बारे में सबको जानकारी दे दी लेकिन आपने झांसी की उनके साथ कि और दो समाधियों को भी बताया…बढ़िया पोस्ट…

  4. आपने इतना सुंदर यात्रा वृत्तांत लिखा है कि अब यात्रा का प्लान बना लिया मैंने तो।

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