टूट टूट कर बार-बार मैं बनता रहा हूँ,
इंसा हूँ गिर गिर कर सम्भलता रहा हूँ
गमो के लिहाफ में लिपटी थी मेरी ज़िन्दगी,
मैं गमों पर अपने बेसाख्ता, हँसता रहा हूँ
तेरे इश्क का था कुछ ऐसा मुझ पर सुरूर,
अश्को को समझ मैं शराब, पीता रहा हूँ,
न है मंजिल की अब कोई मुझे खबर,
सुकून ए तलाश में आवारा फिरता रहा हूँ
न हो हैरान देख ज़िंदा, अंजान को तू यूँ,
ये लाश है मेरी, जिसे ताउम्र ढोता रहा हूँ
©विकास नैनवाल ‘अंजान’
टूट टूट कर बार-बार मैं बनता रहा हूँ,
इंसा हूँ गिर गिर कर सम्भलता रहा हूँ
बहुत सुन्दर…., मर्मस्पर्शी भावाभिव्यक्ति ।
जी, आभार मैम।
वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा
आभार संजय जी।