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कई बार कुछ शब्द आप ऐसे सुन लेते हैं कि आपको उनसे प्रेम सा हो जाता है। आप उन्हें फिर हमेशा इस्तेमाल करते हैं। बार बार इस्तेमाल करते हैं। इतना इस्तेमाल करते हैं कि लोग आपको उन शब्दों से जानने लगते हैं।
लेकिन अब अंततोगत्वा ने इन दोनों ठेल कर अपने लिए जगह बना दी है।सही भी है शब्द ही ऐसा है कि दो की जगह लेता है। यह शब्द बोलते हुए तो जबान कलाबाजी खाती है लिखते हुए भी दो तीन बार गूगल बाबा की शरण में जाना पड़ता है कि सही ही तो लिख रहा हूँ। लेकिन बात यह है कि अंततोगत्वा के अंततोगत्वा मेरी ज़िंदगी में आने के कारण काफी बदलाव हो गए हैं। यह बदलाव अच्छे हैं जिनसे मैं काफी खुश हूँ।
आजकल ऑफिस से कमरे में पहुँचने के लिए दस सीढ़ियाँ चढ़ता हूँ तो मुखारबिंद से अनायास ही निकल जाता है अंततोगत्वा ऊपर पहुँच ही गया। इसके बाद एक गहरी साँस छूट जाती है और मुझे इतनी ख़ुशी होती है जितनी किसी पर्वतारोही को किसी पहाड़ी के चोटी पर पहुँचने पर भी क्या होती होगी।
#मने_कह_रहे_हैं
© विकास नैनवाल ‘अंजान’
😂
जी शुक्रिया।
अंततोगत्वा हमने आपका लेख पढ़ ही लिया।
आप गुरुग्राम में रहते हैं क्या?
जी, आभार।
जी, फ़िलहाल गुरुग्राम में ही रहनबसेरा है।
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बहुत से लोग आपकी तरह कुछ वाक्यांशों को कदाचित पसन्द कर अपनी दिनचर्या का अंग बना लेते हैं और अंततोगत्वा भूल जाते हैं । बहुत सुन्दर लेख विकास जी ।
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 30 नवंबर 2019 को साझा की गई है……… "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा….धन्यवाद! ,
जी, लेख आपको अच्छा लगा यह जानकार अच्छा लगा।
सांध्य दैनिक मुखरित मौन में मेरी रचना को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार श्वेता जी।
बहुत सुंदर और सार्थक प्रस्तुति
जी, आभार मैम।
वाह वाह……
जी आभार…