साहित्य आजतक – रविवार 3 नवम्बर 2019 |
शनिवार को साहित्य आजतक गया तो था लेकिन मैं ज्यादा सत्रों में शिरकत नहीं कर पाया था। यही कारण था कि मैंने उसी वक्त अगले दिन जाने की योजना बना दी। उस दिन साथ में मित्र भी थे तो सत्रों से ज्यादा वरीयता उन्हें ही दी थी। देना बनता भी था। अब अकेले जाने का विचार था। मुझे अकेले घूमना भी पसंद है क्योंकि इसमें आपके ऊपर कोई अतिरिक्त जिम्मेदारी नहीं होती है। आप अपनी मर्जी के मालिक होते हैं। जहाँ चाहे बैठ गये। मन किया तो उठ गये और अगर मन नहीं किया तो बैठे रहे। सही बोलूँ तो मुझे दोनों ही तरह से घूमना पसंद है यानी दोस्तों के साथ भी और अकेले भी। दोनों का अनुभव अलग होता है और मज़ा भी अलग तरह का होता है।
शनिवार को मैं ग्यारह-बारह बजे करीब ही केंद्र में पहुँच गया था और रविवार को भी पहले यही करने का इरादा था। लेकिन रविवार को जब उठा तो दिमाग में खयाल आया क्यों नहीं शनिवार के अनुभवों का वर्णन लिख दूँ। मुझे डायरी लिखने का शौक भी है। अक्सर लिखता रहता हूँ। यहाँ भी तो पोस्ट डायरी नुमा ही होती हैं। लिखने को लेकर साथ एक दिक्कत ये भी है कि मैं तभी लिख पाता हूँ जब मन होता है। और मन कभी कभी ही करता है। आज मन हो रहा था तो उसके अनुसार ही काम करना था क्योंकि आज इसे टाल देता तो न जाने कब फिर ये मन इस डगर पर आ पाता।
मैं यह भी सोच रहा था कि ब्लॉग पर कई दिनों से यात्रा वृत्तांत नहीं डाला है। ऐसा नहीं है मैंने लिखे नहीं हैं। वृत्तांत लिखकर रखे हुए हैं लेकिन आलस के चलते उन्हें पोस्ट में तब्दील नहीं कर पा रहा हूँ। यही कारण था कि मैंने सोचा कि लिख लो। कुछ नहीं तो एक और पोस्ट का मटेरियल तैयार हो जायेगा। ये भी उसी फोल्डर में रखा रहेगा जिसमें बाकी आराम फरमा रहे हैं।
फिर मैं लिखने बैठा तो लिखता ही रहा और पूरा अनुभव लिखने के बाद ही रुका।
इसके बाद कंप्यूटर बंद करने की सोच ही रहा था कि फिर ख्याल आया कि यार इसे एडिट करके ब्लॉग में डाल ही देता हूँ क्योंकि लिख तो लिया ही है। फोटो मैंने इतनी खींची नहीं थी तो उसकी मुझे कोई चिंता नहीं थी। ज्यादा एडिटिंग नहीं करनी थी और इस कारण यह आसानी से लग जाता। लगे हाथ एक पोस्ट भी बन जाती। यानी इस मामले में मेरी पाँचों उँगलियाँ घी में थी और सिर कड़ाही में।
यही सोचकर मैंने इस अनुभव को पोस्ट का आकार दिया और यकीन मानिए जब यह निपटा तब तक ग्यारह से ऊपर वक्त हो चुका था। मुझे देर तो हो गयी थी लेकिन पहले मैंने खाना खाकर जाने की योजना बनाई थी तो मैंने पोस्ट प्रकाशित करने के बाद खाने की तैयारी करने की सोची। थोड़ी देर भी होती तो चल सकता था। मैंने पोस्ट प्रकाशित की और फिर अब अगले चरण की तरफ बढ़ गया।
अगला चरण यानी नाश्ता। मैं उठा और किचन में गया। मैंने दाल पहले ही उबाल दी थी लेकिन अब मुझे उस पर छौंका देना था। प्याज टमाटर लहसन काटने के बाद बर्तन में तेल डाला और उसके गर्म होने का इन्तजार करने लगा। मैंने प्याज और लहसन गर्म हुए तेल में डाले ही थे कि बिजली ने आँख मिचोली करने का फैसला किया और उड़न छू हो गयी। मेरे प्याज और लहसन गर्म तेल में पड़ कर आवाज़ तो निकालने लगे थे लेकिन आगे की प्रक्रिया अब नहीं हो सकती थी। मैं इंडक्शन में खाना बनाता हूँ और बिना लाइट के वह किसी काम का नहीं है। धत्त तेरे की! मेरे मुँह से निकला। और कुछ देर तक मैं प्याज और लहसन को गर्म तेल में नाचते और फिर शांत होते देखता रहा।
अब क्या किया जाए? मैं अब पशोपेश में था। मुझे जाना तो था लेकिन भूखा जाने का मेरा विचार नहीं था। ऊपर से आजकल मैं घर का खाना ही पसंद करता हूँ क्योंकि थोड़ा शरीर पर ध्यान दे रहा हूँ। एक बार तो मन निराश सा हुआ लेकिन फिर सोचा कि चलो खड़े रहने से कुछ नहीं होगा। नहा लेता हूँ। अगर तब तक बिजली रानी आ गयी तो खाना बनेगा, नहीं तो मैं बाहर ही कुछ खा लूँगा।
इससे ज्यादा मेरे हाथ में कुछ नहीं था। यही विचार करके मैं नहाने जा ही रहा था कि बिजली आ गयी और इसके साथ मेरे चेहरे की खोयी मुस्कान भी लौट आई। ऐसा लगा जैसे वह बिजली मेरी छोटी बहन हो जो मुझे सताने के लिए यह सब कर रही हो। इससे पहले कि इसकी शरारत फिर शुरू हो जाये मैंने सारा काम निपटाने का फैसला किया। छौंका लगाया, दाल डाली और फिर इंडक्शन में टाइमर सेट करके नहाना चले गया। मन में उम्मीद कर था कि अब बिजली रानी कोई खुराफात न करे।
लौट कर आया तो अभी टाइमर खत्म होने में वक्त था। इतनी देर में मैंने दाल के साथ खाने के लिए जो अंडे बॉईल किये थे वो छिले और फिर उसके बाद तैयार होने लगा।
कुछ ही देर में मैं तैयार था और साथ में खाना बन चुका था। मैंने खाना खाया। फिर पानी की एक बोतल भरी और बर्तनों को सिंक में रखकर इंदिरा गाँधी सेंटर फॉर आर्ट्स के लिए रवाना हो गया। कहीं निकलो तो पानी साथ में ले जाने में ही समझदारी होती है। बार बार कौन बोतल खरीदे। वैसे भी केंद्र में पानी बोतल में भरने की सुविधा थी तो घर से बोतल लेकर चलने में समझदारी ही थी।
मैं घर से बाहर निकला तो देखा कि धुँध से बुरा हाल था। धुँध की चादर ने गुरुग्राम को अपने आगोश में लपेट रखा था। लोग सहे जा रहे थे लेकिन फिर इसमें हाथ भी तो उन्हीं का है। घर से बस स्टैंड पहुँचा और उधर से सिकन्दर पुर के लिए दूसरा ऑटो लिया। मैं आधे घंटे में ही सिकन्दरपुर मेट्रो से अपने गन्तव्य स्थल की तरफ बढ़ रहा था।
बस स्टैंड के लिए आने वाले ऑटो इसी चौक पर छोड़ते हैं |
सिकंदर पुर मेट्रो स्टेशन से दिखता नजारा |
मेट्रो स्टेशन, कोहरा और ट्रेन का इंतजार |
मेट्रो में साधारण भीड़ थी। कुछ भी खचाखच मैं नहीं भरा हुआ था। मैंने दो डिब्बों के बीच की बगल वाली सीट के बाजू की जो जगह होती है उधर अपनी टेक लगा दी और बैग से किताब निकालने लगा। शनिवार को मैंने पाठक साहब का उपन्यास फिफ्टी फिफ्टी देर रात तक जग कर खत्म कर दिया था और आज मैं उसमें मौजूद कहानी चाबी का रहस्य खत्म करने की फ़िराक में था। बीस पृष्ठों की यह कहानी किताब में उपन्यास के अतिरिक्त थी। मैं इसे ही सिकन्दरपुर से केन्द्रीय सचिवालय तक के सफर के दौरान खत्म करने का इरादा रखता था। मैंने किताब खोली और कहानी में डूब गया।
चाबी का रहस्य कहानी उन चुनिन्दा कहानियों में से एक है जिनमें पाठक साहब खुद किरदार के रूप में हाजरी भरते हैं। अक्सर इनमें पाठक साहब अपने एक पुलिसिया मित्र अमीठिया के सहायक के तौर पर आते हैं। यह मामला भी ऐसा ही था। रूही एक एक्सोटिक डांसर थी जो उन दिनों काफी प्रसिद्ध थी। वह एक खास तरीके का डांस क्लब्स में पेश करती थी। उसके नृत्य के खासियत यह होती थी कि नृत्य के दौरान उसके जिस्म में कपड़े नहीं बल्कि साँप लिपटे होते थे। वही रूही पाठक साहब के पास आई थी और उनसे मदद की उम्मीद रखती थी। रूही को लग रहा था कि उसकी जान खतरे में है और पाठक साहब अगर अपने दोस्त अमीठिया से बात करें तो उसकी जान बच सकती है। इस बात के लिए वह किसी तरह पाठक साहब को राजी भी कर देती है लेकिन जब तक पाठक साहब कुछ कर पाते उसकी मृत्यु हो जाती है। पुलिस के अनुसार उसने आत्महत्या की है और पाठक साहब के अनुसार दाल में कुछ काला है। आखिर मामला क्या है? इसी मामले की सच्चाई कहानी के दौरान पता लगती है।
कहानी रोचक थी और मुझे बाँध कर रखने में सक्षम थी। हाँ, बीच में एक दो कॉल आये तो मुझे वो लेने पड़े लेकिन उसके अलावा मेरा पूरा ध्यान कहानी पर ही था। आस पास कौन थे इससे मुझे कोई लेना देना नहीं था। यही कारण था कि मुझे पता ही नहीं लगा कि कब केन्द्रीय सचिवालय आ गया। तब तक मैं कहानी पढ़ना खत्म कर ही चुका था। अगर ऐसा न होता तो शायद पहले मैं केन्द्रीय सचिवालय पर रुककर इस कहानी को पढ़ता और फिर आगे बढ़ता। लेकिन चूँकि अब ऐसा करने की जरूरत नहीं थी तो मैं सीधा आगे बढ़ गया। मौसम में कुछ खास बदलाव नहीं था। जब घर से निकला था तो भी धुंध और हल्की थी ठण्ड हवा में थी और अभी भी यही हाल थे। मुझे अच्छा लग रहा था। मौसम में हल्की ठंडक हो तो चलने फिरने में मजा आता है। मैं अब आई जी एन सी ए के तरफ बढ़ने लगा।
रास्ते में सड़क पर कई बंदर भी दिखे लेकिन उन्हें भी इनसानों की आदत थी तो मैंने भी भी उन्होंने नजरअंदाज किया और उन्होंने भी मुझे नज़रअंदाज किया। हाँ, अगर मेरे हाथ में खाने पीने का कुछ होता तो क्या वो मुझे नजरअंदाज करते? मुझे नहीं लगता या शायद कर भी देते क्योंकि वो उतने उग्र लग नहीं रहे थे। वरना सामान छीनने वाले वानर तो दूर से ही पहचाने जाते हैं। मैं बिना किसी हादसे के उधर से आगे सेण्टर की तरफ बढ़ गया।
केंद्र पर पहुँचा तो सबसे पहले मैंने चाय पीने का फैसला किया। चाय जरूरी थी क्योंकि जल्दबाजी के चक्कर में मैं घर से चाय पीकर नहीं निकला था। पहले एक कप चाय पी, तृप्त हुआ और उसके पश्चात मैं गेट की तरफ बढ़ गया। गेट के सामने ही कई खोमचे वाले भाई खड़े थे। अभी मैंने कुछ नहीं लेना था तो मैंने केवल एक तस्वीर ली और आगे बढ़ गया।
गेट से अंदर दाखिल हुआ तो भीड़ भाड़ पहले दिन की ही तरह मिली। क्योंकि मैं कल भी आ चुका था तो मैंने सीधा हाथ में स्टाम्प लगवाया और अंदर दाखिल हो गया। अन्दर जाते हुए कुछ तस्वीर ली। रस्ते में ही देखा कि एक जगह नुक्कड़ नाटक जैसा कुछ हो रहा था। मैं उधर कुछ देर खड़ा हुआ तो सही लेकिन मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ा। मुझे लगा जैसे वह किसी तरह की एक्सरसाइज कर रहे थे। चूँकि चीजें मेरे सिर के ऊपर से जा रही थी तो मैं आगे बढ़ गया।
इंदिरा गाँधी नेशनल सेण्टर ऑफ़ आर्ट्स |
हो गये जी दाखिल |
सेण्टर में हो रहा नुक्कड़ नाटक |
शनिवार को संदीप जी ने बताया था कि उनका सेशन भी आज है तो मैंने सोचा क्यों न उनसे मिल लिया जाये। उनका स्टाल नजदीक था तो मैं उधर की तरफ चला गया। कई स्टाल उधर लगे थे। एक जगह पर लल्लन टॉप नामक साईट का स्टेज भी था और उधर सवाल जवाब का सिलसिला चल रहा था। कुछ न कुछ कहीं न कहीं हो रहा था। लोग अपनी पसंद की जगह पर जा रहे थे और उसका रसावदन कर रहे थे।
ऐसा ही होना चाहिए। हिन्दी में खाँचों में पाठकों और साहित्य की शैलियों को काफी बाँटा जाता रहा है। यह चीज टूटनी चाहिए। हर तरह के साहित्य के लिए मंच मिलना चाहिए और फिर पाठको को अपने हिसाब से चुनने के लिए छोड़ देना चाहिए। ऐसा जब होगा तब यकीन मानिये तभी हर तरह का साहित्य समृद्ध होगा। गंभीर वाले लोकप्रिय का रस लेने लगेंगे और लोकप्रिय वाले गम्भीर का रस लेने लगेंगे। हमारी गलती यह रही हैं कि हमने साहित्य के साथ पाठकों को भी खाँचों में बाँटा है। हमे लगता है जो लोकप्रिय साहित्य का आनन्द लेता है वो गम्भीर नहीं पढ़ सकता है और जो गम्भीर पढ़ता है उसे लगता है कि वह खुलकर लोकप्रिय साहित्य का आनन्द नहीं ले सकता है।
हमे इस सोच को हटाने की जरूरत है कि एक तरह का साहित्य पढ़ने वाला दूसरे तरह का साहित्य नही पढ़ेगा। दोनों के प्रतिद्वंदी मानने की जगह इस तरह का महौल होना चाहिए कि दोनों को ही जगह दी जाये।
खैर, मैं भटक रहा हूँ। मुझे संदीप जी से मिलना था तो तो मुझे मिल ही गये। वो अपने प्रकाशक रेड ग्रैब्स के बूथ पर थे। वहाँ जाकर उनसे बातचीत हुई और उनके सेशन के वक्त का पता किया। नेट में साढ़े तीन था लेकिन उन्हें पौने चार बताया जा रहा था। थोड़ी बहुत उलझन थी। वह उलझन उधर सुलटाई गयी। अभी सेशन शुरू होने में तो वक्त था इस कारण मैंने उनसे इजाजत ली और आगे मंचों की तरफ बढ़ने लगा। तब तक मैं थोड़ा घूमना फिरना चाहता था।
मैं मंचों की तरफ जा ही रहा था कि मुझे पराग डिमरी जी दिखे। पराग जी संगीत प्रेमी हैं और उन्होंने संगीतकार ओ पी नैयर जी पर भी एक किताब ‘दुनिया से निराला हूँ, जादूगर मतवाला हूँ’ लिखी है। उनकी यह किताब काफी प्रसिद्ध है। पराग जी से मेरी मुलाकात पाठक साहब के ग्रुप के कारण ही हुई थी। वो बाहर की तरफ जा रहे थे तो उन्होंने मुझसे संदीप जी के विषय में पूछा। मैंने उन्हें बताया कि वह अपने प्रकाशन के बुक स्टाल पर हैं। पराग जी संदीप जी से मिलना चाहते थे तो मैं भी उनके साथ दोबारा उधर पहुँच गया।
संदीप जी मिले और बातचीत होने लगी। पराग जी ने संदीप जी की किताब ली। मैं भी प्रकाशन के चक्कर काटने लगा। एक लेखक प्रेमचन्द गुप्ता जी की किताब मुझे पसंद तो आई लेकिन वहाँ मौजूद संस्करण की हालत खराब थी। फिर दूसरी किताब मुझे राजवीर सिंह प्रजापति की सस्सी पसंद आई जिसकी हालत अच्छी थी तो मैंने वो ले ली। अभी हाल में ही राहत साहब की बायोग्राफी मुझे सुनाते रहे लोग वाक्या मेरा भी आई है। मैंने प्री आर्डर की थी लेकिन शनिवार को आकर कैंसिल कर मैंने रविवार को लेने की योजना बना दी थी। किताब के लेखक दीपक रूहानी जी उधर ही थे तो मैंने किताब ली,उसमें उनके हस्ताक्षर लिए और कुछ फोटो भी ली। उनसे किताब के ऊपर भी बात की । पराग जी और संदीप जी की साथ में फोटो ली। फिर उनकी एक फोटो अपने ब्लॉग के लिए भी ली। इसी दौरान उधर जनता स्टोर नामक किताब के लेखक नवीन चौधरी जी भी आये और उनसे भी बात चीत हुई। हँसी मजाक का दौर चलता रहा। मैं सबको सुनता रहा। थोड़ी देर में बातचीत का दौर खत्म हुआ। पराग जी ने उधर से विदा ली और मैं भी उनके साथ से निकल गया।
पराग जी संदीप जी के साथ |
दीपक रूहानी जी किताब पर हस्ताक्षर करते हुए |
दीपक रूहानी जी के साथ |
सस्सी और मुझे सुनाते रहे लोग वाक़िआ मेरा |
उधर निकलने के बाद पराग जी ने बताया कि उन्हें कुछ काम है तो वह अब इवेंट से जाना चाहेंगे। वह बाहर की तरफ निकल गए और मैं इवेंट में मंचों की तरफ बढ़ने लगा।
मंच की तरफ बढ़ते हुए |
झूलती किताबें |
पार्क में मौजूद वसुदेव कुटंबकम और दीवार पर बनी कलाकृति ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया |
राहत इन्दोरी : मुझे सुनाते रहे लोग वाक़िआ मेरा
मैं अब स्टेज 3 की तरफ बढ़ने लगा। तीन बजे स्टेज 3 पर राहत साहब आने वाले थे। उधर पहुँचा तो देखा सर उधर मौजूद थे। नीचे कुर्सियाँ सभी भरी थी और लोग उन पर विराजमान थे। सीट थी नहीं तो मुझे पीछे जहाँ जगह मिली मैं उधर खड़ा हो गया। क्योंकि उन्हें सुनना ही था तो कोई दिक्कत नहीं थी। फिर स्टेज पर हंस राज हंस जी आये और उसके बाद दीपक भाई भी आये और मॉडरेटर साहब ने चर्चा प्रारम्भ की। पौने घंटे चली इस चर्चा में कितना मजा आया यह मैं शब्दों में ब्यान नहीं कर सकता।
एक उदारहण देखिये :
जब उनसे पूछा गया कि ग़ज़ल कैसी होनी चाहिए या किस तरह की शायरी को तरजीह देनी होती है तो उन्होंने कहा :
मुझे अब तक यह लगा है कि मैं तीस पैंतीस साल में ग़ज़ल को समझ नहीं पाया हूँ। ग़ज़ल पढ़ने के लिए ग़ज़ल पढ़ाने के लिए ग़ज़ल समझने के लिए आदमी को थोड़ा सा दीवाना, थोड़ा सा आशिक, थोड़ा सा पागल और थोड़ा सा बदचलन होना चाहिए।
राहत साहब ने सभी प्रश्नों के उत्तर तो बेहतरीन तरीके से दिए ही और साथ में जो उन्होंने शेर पढ़े उन्हें सुनकर तो सभी लोग उनके कायल हो गये।
हाँ, शनिवार की तरह बीच में दो एक अड़चने पड़ी। एक बार बगल में हो रहे एक नुक्कड़ नाटक की आवाज इतनी तेज हो गयी कि उसने बात चीत की लय को तोड़ दिया और दूसरा वही ढोल ताशे वाली बात हुई। वी आई पी लॉन्च से स्टेज तक ले जाने के लिए न जाने इतने शोर शराबे की क्या जरूरत थी। राहत साहब कहाँ चुप रहते उन्होंने भी इस चीज की अपने अंदाज में भर्त्सना की और इसमें भी लोगों की वाहवाही लूटी।
पुस्तक विमोचन करते हंसराज हंस जी |
बातचीत का दौर चल पड़ा है |
मैं चर्चा के विषय में ज्यादा कुछ नहीं लिख रहा हूँ क्योंकि मैं चाहता हूँ आप खुद पूरी चर्चा का आनंद लें। पूरी चर्चा आप निम्न लिंक पर जाकर देख सकते हैं:
मुझे सुनाते रहे लोग वाक़िआ मेरा का लोकार्पण और चर्चा
फिलहाल राहत साहब द्वारा इस चर्चा में कहे गए कुछ शेर मैं आपके लिए पेश करता हूँ:
4) कश्ती तेरा नसीब चमकदार कर दिया,
इस पार के थपेड़ों ने उस पार कर दिया
अफवाह थी के तबियत खरीब है,
लोगों ने पूछ पूछ कर बीमार कर दिया
दो गज सही मगर ये मेरी मिल्कियत तो है,
ऐ मौत तूने मुझे जमींदार कर दिया
5)ऐसी सर्दी है के सूरज भी दुहाई माँगे,
जो हो परदेस में वो किससे रजाई माँगे
अपने हाकिम की फकीरी पे तरस आता हैजो
गरीबों से पसीने की कमाई माँगे
सारा दिन जेल की दीवार उठाते रहिये,
ऐसी आज़ादी कि हर शख्स रिहाई माँगे
पराये देश में हिन्दी
राहत जी का सेशन खत्म हुआ तो कुछ देर पश्चात संदीप जी का सेशन पराये देश में हिन्दी शुरू हुआ। इस सेशन में संदीप जी, तेजेन्द्र शर्मा जी और मृदुल कृति जी ने भाग लिया। यह तीनों ही विदेश में रहते हुए हिन्दी में लिख रहे हैं। जहाँ तेजेन्द्र जी और संदीप जी यूनाइटेड किंगडम में रहते हैं वही मृदुल कृति जी ऑस्ट्रेलिया में प्रवास कर रही हैं। यह प्रेरक बात है। यह सेशन भी काफी रोचक था। विदेश में रहकर हिन्दी में यह लोग क्यों लिख रहे हैं? विदेश में हिन्दी लेखन की क्या चुनौतियाँ हैं? हिन्दी को भारत में वही महत्व क्यों नहीं दिया जाता? आखिर ऐसा क्या किया जा सकता है कि हिन्दी को उसका महत्व मिले। यह सब प्रश्न चर्चा के दौरान पूछे गये और इनके उत्तर उपस्थित कथाकारों ने अच्छे उत्तर दिए।
जब मृदुल जी से पूछा गया कि वह विदेश में रहकर हिन्दी में लिखने के विषय में क्या कहना चाहती हैं, तो उन्होंने उत्तर एक कविता से दिया। मैं उस कविता को इधर लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ।
यानी अगर आपके मन में भाषा के प्रति स्नेह है तो आप कहीं भी रहें आप अपनी भाषा नहीं छोड़ सकते हैं। यह एक रोचक सेशन था जिसमें पराये देश में हिन्दी के कई पहलुओं की जानकारी मिली।
मैं ज्यादा कुछ लिख नहीं रहा हूँ क्योंकि मैं चाहता हूँ कि आप इस सेशन को खुद ही सुने। इस सेशन को निम्न लिंक पर जाकर देखा जा सकता है।
पराये देश में हिन्दी
सेशन के बाद संदीप जी की पुस्तक द रिवेंज ऑफ़ चंडालस का भी विमोचन हुआ।
पराये देश में हिन्दी सेशन में बोलती |
The Revenge of Chandals का विमोचन करते हुए |
संजीव पालीवाल जी की किताब नैना का कवर लांच
मैं इस सेशन के बाद उठने की सोच रहा था कि स्टेज से एक ऐसी उद्घोषणा हुई जिसने मेरा ध्यान स्टेज की तरफ आकर्षित कर दिया। मुझे बताया गया कि एक उपन्यास का कवर लॉन्च होने वाला है। उपन्यास का नाम नैना है और यह हिन्दी में लिखी गयी एक अपराध कथा है। हिन्दी में लिखी अपराध कथाओं में मेरी हमेशा से ही रूचि रही है और यही कारण था कि मैं इस कवर लॉन्च देखने के लिए रुक गया।किताब के लेखक संजीव पालीवाल जी को स्टेज पर बुलाया और उनके साथ सुप्रिय प्रसाद जी, जो कि आज तक में न्यूज़ डायरेक्टर हैं, को बुलाया गया है।
इसके बाद कवर लॉन्च के लिए अंजना ओम कश्यप जी का इन्तजार होने लगा। वो भी इधर उधर व्यस्त रही होंगी तो उन्होंने आने में थोड़ा वक्त लिया। तब तक लेखक किताब और उसके सम्भावित कवर पर बात करते रहे। अंजना आईं और फिर थोड़ी बातचीत किताब और उसके विषय के ऊपर की गयी। प्रोग्राम के दौरान बीच में एक तरह की बहसबाजी हो गयी थी। स्टेज से कुछ पूछा गया। इधर दर्शकों के बीच में से एक बुजुर्ग चिल्लाए और थोड़ी बहुत बहसबाजी हुई।
खैर, फिर बातचीत आगे बढ़ी। किताब का कवर नुमाया हुआ। यह भी पता लगा कि किताब जनवरी के वक्त लॉन्च होगी। यह जानकर मुझे अच्छा लगा। हिन्दी अपराध साहित्य को अच्छे अपराध कथा लेखकों की जरूरत है। अगर ऐसा होता है तो अपराध साहित्य के लिए बेहतर होगा। वहीं मीडिया से जुड़े व्यक्ति हिन्दी में लिखेंगे तो उम्मीद है इस शैली का और विकास होगा। मुझे किताब का इन्तजार है।
अपनी किताब के विषय में बताते हुए संजीव पालीवाल जी |
नैना का आवरण दिखाते लेखक, पत्रकार और दूसरे महोदय |
पुस्तक के विषय में बताते लेखक महोदय |
पूरा वीडियो आप निम्न लिंक पर जाकर देख सकते हैं:
नैना का कवर लॉंच
नैना का कवर लॉन्च भी समाप्त हो गया था। पाँच बजने को आये थे। राहत साहब का मुशायरा साढ़े पांच बजे था लेकिन चूँकि मुझे घर पहुँचने में काफी वक्त लग जाता तो दिक्कत हो जाती। इस कारण मैंने घर के लिए वापिस जाने का प्लान बना दिया। वैसे भी आज के लिए काफी घूम गया था। फिर चूँकि मुझे पता था कि यह सभी प्रोग्राम आजतक वाले यूट्यूब या अपनी साईट में डालेंगे तो मैं उधर जाकर मैं कभी भी इनका रस ले सकता हूँ। इसी कारण मैंने घर लौटने का सोच लिया। अब बस मुझे एक बार की चाय पीनी थी क्योंकि मैंने काफी देर से चाय नहीं पी थी। मौसम में अभी भी ठंडक थी। मैंने आते हुए यह बात नोट की थी कि एक व्यक्ति स्टेशन के सामने ही चाय बना रहे हैं। उस वक्त सोचा था कि उनसे ही चाय पियूंगा। अब मेरा यही करने का विचार था। यही सोचते सोचते मैं साहित्य आजतक से निकला और मेट्रो स्टेशन की तरफ बढ़ने लगा।
चलते चलते मैं चाय वाले भाई साहब के पास पहुँचा। मैंने चाय के लिए बोला और फिर चाय का इंतजार करने लगा। तभी उधर से एक लड़का और लड़की जोड़े में निकले। उन्हें देखकर चाय वाले बोले- “जब एक लड़के को एक लड़की मिल जाती है तो वह खुद को दुनिया का सुल्तान समझने लगा है। ऐसा चौड़ा होकर घूमता है और फिर बर्बाद हो जाता है।”
उनके बगल में एक व्यक्ति बैठे थे उन्होंने कहा -“सही कह रहे। कुछ ही दिनों पहले एक खबर पढ़ी थी कि एक लड़का अपनी गर्लफ्रेंड के खर्चे उठाने के लिए चोरी चकारी करने लगा था।”
चाय वाले-“और नहीं तो क्या??”
मैं सोचने लगा कि अजीब विडम्बना है करे कोई भी लेकिन बिल लड़की के नाम पर ही फाड़ते हैं लोग इसलिए मैंने मुस्कराते हुए कहा – “नहीं ऐसा नहीं है। लड़की पर निर्भर करता है। अक्स लड़कियाँ सुधार भी देती हैं लड़कों को।”
वो लोग मेरी बात सुनकर ऐसे मुस्कराए जैसे कह रहे हों कि कितने मासूम हो तुम। फिर वो चाय वाले भाई अपने साथ साथी से कहने लगे- “वो याद है। (एक नाम लिया।)”
आदमी -“कौन?”
चाय वाला-“वो स्वीपर।”
आदमी – “हाँ हाँ”
चायवाला- “वो भी तो उस भंगन के चक्कर में पड़ा था और फिर खुद ख़ुशी करी उसने”
आदमी – “सच में..”
चायवाला- “और नहीं तो क्या? बर्बाद हो जाते हैं सब।”
चाय वाला मुझसे मुखातिब होते हुए- “लीजिये सर चाय पीजिये।”
वो लोग फिर अपनी बातचीत शुरू करने वाले थे। मैं इस दुखांत प्रेम कहानी के विषय में और जानना चाहता था कि आखिर उस सफाई कर्म चारी की क्या कहानी थी? वह किसके चक्कर में पड़ा था और उससे खुद ख़ुशी क्यों करनी पड़ी? कई प्रश्न मेरे मन में कुलबुला रहे थे लेकिन फिर तभी उधर एक और लड़का और लड़की आ गये। उन्होंने दो चाय का आर्डर दिया। और इस कारण चाय वाले भाई और उस आदमी की बात में विराम लग गया। फिर वो इधर उधर की बात करने लगे। मैंने पहले सोचा कि उस दुखांत प्रेम कहानी के विषय में पूछूँ। कहानियाँ केवल किताबों में ही नहीं मिलती हैं, वो तो जीवन में अपने आस पास मौजूद लोगों में वास करती हैं। इस प्रेम कहानी के चक्कर में मैं दो बार की चाय पी चुका था लेकिन मुझे लग गया था कि अब उनकी बातचीत का सिलसिला उधर की तरफ नहीं मुड़ना था । मैंने खुद को यह सोचकर दिलासा दिया कि कुछ कहानियाँ ऐसी भी होती हैं जिन्हें हमारी किस्मत में पूरा जानना नहीं होता है। उदाहरण के लिए मैंने डिकेंस का उपन्यास निकोलस निकलबाई आधा ही पढ़ा है। हमेशा शुरुआत करता हूँ और फिर आधे में छोड़ देता हूँ। यह कहानी भी ऐसे ही कहानियों की सूची में शामिल हो गयी थी। इसे जानना मेरी किस्मत में शायद नहीं था। मैंने चाय के पैसे दिए। चाय स्वादिष्ट बनी थी तो उसकी तारीफ की और फिर स्टेशन की तरफ बढ़ गया।
2019 का साहित्य आजतक मेरे लिए तो खत्म हो चुका था। अब मुझे ट्रेन में जाना था। जहाँ मति नंदी की किताब सादा लिफाफा मेरा इन्तजार कर रही थी। मैंने वापसी के सफ़र में कुछ पृष्ठ पढ़े भी लेकिन आज 18 नवम्बर तक भी मैं उसे खत्म नहीं कर पाया हूँ जबकि तब से मैंने तीन चार दूसरी किताबें पढ़ ली हैं।
साहित्य आज से लौटते हुए एक और चीज थी जिस पर अचानक से मेरा ध्यान गया। यह घटना मेट्रो से सम्बन्धित है। मैं एमजी रोड मेट्रो पर उतरता हूँ। वहाँ जब हम प्लेटफार्म से बाहर निकल रहे होते थे तो कुछ दिनों पहले प्रणाली में एक बदलाव हुआ था। जहाँ आपको टोकन डालना या कार्ड लगाना होता है उधर मौजूद गेट अब पहले से खुले रहते थे। अगर आप बिना टोकन डाले या कार्ड लगाये आगे बढ़ते तो ही वो बंद होते थे लेकिन अगर आप ऐसा नहीं करते हो तो वो खुले ही रहते थे। आपको केवल कार्ड लगाना होता था और आगे बढ़ना होता था। लेकिन इस प्रणाली को समझने में लोगों को कई बार काफी वक्त लग जाता था। वो थोड़ा आगे बढ़ते तो गेट बंद हो जाता। पीछे आते तो गेट खुल जाता। बड़ी उलझन हो जाती थी और आने जाने में काफी वक्त लग जाता था। उस वक्त चिढ होती थी। लेकिन इस बार ये नोटिस किया कि प्रणाली बदल दी है। पहले जैसे कर दी है। अब गेट बंद रहते हैं। आप कार्ड लगाओ तो खुलते हैं। थोड़ा बिजली ज्यादा लगती है लेकिन कम से कम भीड़ तो जमा नहीं हो जाती। यह देख अच्छा लगा। वैसे अगर आप मेट्रो में सफर करते हैं तो एंट्री करते वक्त आपको किस तरह का गेट पसंद आते हैं? जो पहले से ही खुले रहते हैं या जो पहले बंद रहते हैं और कार्ड लगाने पर खुलते हैं? हो सके तो बताइयेगा।
खैर, यह थी साहित्य आजतक की घुमक्कड़ी। आपको कैसी लगी? मुझे बताइयेगा। बाकी चलता हूँ। फिर मिलूँगा और ले चलूँगा आपको किसी दूसरे सफर पर। तब तक के लिए इजाजत दीजिये और पढ़िए रहिये,घूमते रहिये।
#फक्कड़_घुमक्कड़ #पढ़ते_रहिये_घूमते_रहिये
समाप्त
बहुत खूब , विडियो सेशन के बीच बीच मे काफी एड है …
दीवर पर जो modern art बना है उसके बारे मे कुछ पता हो तो जानकारी दीजिये🙏🙏
बढ़िया है। मैंने भी वीडियो लिया था लेकिन उसका ऑडियो इतना अच्छा नहीं है। खैर, मैं कुछ शेर इधर ही डाल दूँगा। दीवार पर बनी कलाकृति के विषय में मुझे भी कुछ ज्यादा पता नहीं चला। अगली बार जाना होगा तो पता करके आऊँगा।
साहित्य आजतक की घुमक्कड़ी भी आपके अन्य घुमक्कड़ी वृत्तांतों जैसी ही है । रोचक जानकारियों से भरपूर । "राहत इन्दोरी : मुझे सुनाते रहे लोग वाक़िआ मेरा" बहुत अच्छा लगा ।
जी आभार। राहत साहब को सुनना वास्तव में अलग और बेहतरीन अनुभव होता है। मज़ा आ जाता है।
बहुत सुंदर लेखन , आप की क्वालिटी सच मे काबिले तारीफ है
जी, आभार संजय जी।