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कौसानी यात्रा 1
कहा जाता है ‘भूखे पेट न होय भजन गोपाला’ और यह काफी हद तक सही भी है। अगर मुझसे पूछा जाए तो मैं कहूँगा ‘बिन चाय न होय भजन गोपाला’। अगर कुछ कर रहा होऊँ और चाय पीना का मौका मिल जाए तो मैं पहले चाय पीने को तरजीह देता हूँ।
हम लोग बैजनाथ जाने की सड़क पर खड़े थे। सामने चाय की दुकान दिखाई दे रही थी और उसी के बगल से होता हुआ रास्ता बैजनाथ मन्दिर के लिए जा रहा था। मेरे मन में यही उहोपोह थी क्या किया जाए। फिर बिन चाय न होय भजन गोपाला का पालन करते हुए मैंने एक चाय का आर्डर कर ही दिया।
राकेश भाई सुबह ही चाय पी चुके थे और अभी इतनी जल्दी नहीं पीना चाहते थे। लेकिन मुझे तो पीना था इसलिए मैंने चाय ली और उसके बनने का इन्तजार करने लगा। साथ ही हम यह बात करने लगे कि जल्दी जल्दी मन्दिर देखते हैं। आस पास के नजारे देखकर फिर जल्दी ग्वालदम के लिए निकलते हैं। साढ़े बारह हो ही गये थे। हम सोच रहे थे कि आधा घंटे में मन्दिर देखकर इधर से निकल लेंगे क्योंकि फिर ग्वालदम जाना था। उधर पता नहीं कितना वक्त लगता। और उधर देर हो जाती तो शायद कौसानी पहुँचना मुश्किल हो जाता। इन सब बातों का हमे भान था। यही सब बात कर रहे थे कि चाय आ गयी।
चाय ठीक थी। ग्रामीण इलाकों में चाय का एक अलग स्वाद होता है। उसमें मसाले नहीं डले होते हैं लेकिन फिर भी पीना अच्छा लगता है। हाँ, चूँकि मेरे अनुभव यह रहे हैं कि गाँव में चाय अत्यधिक मीठी बनाते हैं तो मैं अक्सर कम मीठे की चाय के लिए बोल देता हूँ। जल्द ही मेरे हाथ में एक चाय का कप था और मैं चाय की चुस्कियाँ ले रहा था। साढ़े ग्यारह हो चुके थे। पाँच मिनट में मैंने चाय पी और हम लोग बैजनाथ मंदिर की तरफ बढ़ गये। रास्ते में लगे एक बोर्ड के अनुसार मन्दिर 100 मीटर की दूरी पर था। यहीं बोर्ड के बगल में गाड़ियों के पार्किंग की भी व्यवस्था भी की गयी थी जहाँ पर एक महिला पुलिसकर्मी मौजूद थीं। यह पार्किंग शायद सैलानियों को लेकर आने वाली गाड़ियों के लिए थी।
चाय की दुकान से खींचा रास्ते का फोटो |
चल झुट्टा!!
सड़क से सटा हुआ है बैजनाथ तक जाने का रास्ता था। सड़क से सीढ़ियाँ उतरकर हम लोग मन्दिर की तरफ बढ़ गये। जब आप मंदिर की तरफ बढ़ते हुए तो रास्ते के बायें तरफ लोगों के घर पड़ते हैं और दायें तरफ एक खाली जगह है जिसके बगल में एक नदी बह रही है। नदी के दूसरी तरफ खेत और फिर गाँव के घर पड़ते हैं। बहती धारा की ध्वनि किसी संगीत की तरह लगती है और आपको आनन्दित कर देती है। यह सब देख कर मैं सोच रहा था कि इधर रात गुजारना कितना अच्छा होगा। मैं कभी इधर रात गुजारना चाहूँगा।
क्योंकि यह मंदिर है तो एक दो जरूरतमंद भी मन्दिर के रास्ते में दिखते हैं। हम चलते चलते जल्द ही मंदिर के गेट के नजदीक पहुँच गये थे। मन्दिर के प्रांगण के नजदीक एक रास्ता बना हुआ है जो इस नदी की तरफ जाता है। हमने पहले बाहर से ही मन्दिर की फोटो खींची और मैं फिर इस रास्ते में बढ़ा और नदी और गाँव की फोटो खींचने लगा। राकेश भाई भी इधर से ही विभिन्न कोणों से मन्दिर को अपने कैमरे में उतारने लगे थे।
मन्दिर की दूरी बताता बोर्ड और सामने मंदिर की तरफ जाने का रास्ता। जहाँ से फोटो खींची हुई है उधर ही गाड़ियाँ लगी हुई थीं |
पेड़ों से आच्छादित यह जगह एक अच्छा पिकनिक स्पॉट हो सकती है |
बगल में बहती धारा |
कदम कदम बढ़ाये जा, ख़ुशी के गीत गाये जा |
घर की कुर्सियाँ और सामने दिखता बैजनाथ मंदिर का प्रांगण |
नदी पार बसा गाँव और खेत |
मंदिर प्रांगण के बाहर से तस्वीर निकालते राकेश भाई |
बैजनाथ मंदिर समूह बाहर से दिखता हुआ |
मंदिर के गेट के सामने से मंदिर समूह दिखाई देता है। एक बड़ा सा प्रांगण है जिस पर लोगों के लिए बैठने की भी जगह है। गेट पर मैंने यह सब अपने कैमरे में उतारा। मंदिर के गेट के निकट ही शिलालेख मौजूद हैं जिन पर मन्दिर का इतिहास दर्ज है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की ओर से लगाये गये इन शिला लेख से मंदिर के विषय में निम्न जानकारी मिल जाती है:
1. नागर शैली में निर्मित यह प्राचीन मंदिर समूह बैजनाथ(बैद्यनाथ) के नाम से प्रसिद्ध है
2.इस मन्दिर समूह में मुख्य मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है तथा अन्य 17 गौण मन्दिरों में केदारेश्वर, लक्ष्मीनारायण तथा ब्राह्मणी देवी प्रमुख है
3. इस मन्दिर का प्रमुख आकर्षण सिस्ट पत्थर से निर्मित देवी पार्वती की स्थानक प्रतिमा है, जो अन्य 26 लघु मूर्तियों से सुशोभित है
4. वास्तु शैली के आधार पर इन मन्दिरों की संरचना सम्भवतः 9 वीं शती ईसवीं से 12 वीं शती ईसवीं के मध्य प्राचीन कार्तिक्यपुर के कत्यूरी शासकों द्वारा की गयी है
यह सब जानकारी लेकर हम लोग भीतर दाखिल हुए। मंदिर के प्रांगण में कई श्रद्धालु और सैलानी पहले से मौजूद थे। कुछ हमारे बाद भी आ रहे थे। कुछ पूजा कर रहते थे और कुछ फोटो और सेल्फियाँ खींच रहे थे। मैं भी इधर उधर टहल रहा था। धूप धूप खिली हुई थी। मौसम खुशनुमा था और ऐसे मौसम में घूमने का अपना अलग मज़ा था।
मंदिर के प्रांगण में दाखिल होने से पहले मौजूद शिलालेख |
मंदिर में बैठे सैलानी और सामने दिखती झील |
यहाँ बेंच पर बैठकर झील की खूबसूरती का आनन्द भी ले सकते थे |
मंदिर प्रांगण से झील को जाती सीढ़ियाँ |
दिन के इस वक्त झील बेहद खूबसूरत लग रही थी। झील के बीच में एक टापू नुमा चीज भी थी जिसमें कुछ पेड़ पौधे उगे हुए थे। ऐसी ही झील और झील के बीच का छोटा सा टापू मैंने भीमताल में भी देखा था। यह एक राजमा के शेप की झील थी जिसके चारो और पैदल चलने के रास्ता मौजूद था। मैं उस पर चलने लगा। इस रास्ते के किनारे वृक्ष मौजूद थे और इन वृक्षों लाल, पीली हरी पत्तियों के रंग बिरंगे प्रतिबिम्ब झील पर पड़ रहे थे और एक खूबसूरत नजारा पेश कर रहे थे। यह पत्तियाँ ऐसे लग रही थी जैसे पेड़ों में सोने की पत्तियाँ हो या इन पेड़ों ने सैकड़ों शोलों को अपनी टहनियों में जगह दे दी हो। परियों के देश में शायद ऐसे ही पेड़ चारों तरफ होंगे जहाँ खूबसूरत परियाँ इन पत्तियों के साथ हँसती,मुस्कराती, इठलाती, फुदकती होंगी। झील का वह हिस्सा कल्पनाओं का लोग सा प्रतीत हो रहा था। मैं उनके तरफ खिंचा हुआ बढ़ता चला जा रहा था।झील के किनारे ही कुछ महिलाएं सीढ़ियों पर कपड़े धो रही थीं। वहीं छात्रों का एक समूह भी आज झील के किनारे इस रास्ते पर चल रहा था। इन छात्रों ने विद्यालय की वर्दी पहनी हुई थी और कई शिक्षक भी इनके साथ साथ चल रहे थे। बच्चे शरारतें करते हुए इधर उधर निकल जाते तो वह उन्हें डाँटकर एक साथ ले आते थे। इन्हें शायद आज भ्रमण के लिए लाया गया था। हम भी अपने स्कूल के दिनों में ऐसे जाते थे। कभी बाल फिल्म दिखाने हमे ले जाया जाता तो कभी संग्राहलय या चिड़ियाघर। उस समय हम जो जो मस्ती करते वो दृश्य मेरी आँखों के सामने इन बच्चों को देखकर चलने लगे। कुछ देर मैं उन्हीं यादों में खोया रहा।
झील के दूसरे कोने में वह बैराज था जिससे पानी रोककर इस झील का निर्माण शायद किया गया था। चलते चलते मैं उस बैराज तक पहुँच गया। यहाँ भी तीन चार युवक युवतियाँ थे जो कि शायद घूमने आये थे। वे लोग फोटोग्राफी कर रहे थे और सेल्फियाँ ले रहे थे। धूप जरूर थी लेकिन यह जगह मुझे शांति दे रही थी। बैराज पर खड़े होकर मैंने सामने देखा तो वह नदी दिखाई दी जिसका पानी रोका गया है। यह दिसम्बर का वक्त था शायद इसलिए पानी की मात्रा कम थी। बारिश के वक्त यह जगह बेहद खूबसूरत लगती होगी। वही कुछ और लोग भी कपड़े धोते हुए दिखे। यह नदी गाँव वालों का पोषण करती थी। उनके खेतों को पानी देती थी। उनके कपड़ों की गंदगी बहा देती थी। इसीलिए तो हमारी संस्कृति में नदियों को माँ का दर्जा दिया गया है। इस नदी का नाम क्या था मैं नहीं जानता था लेकिन मैं जानना जरूर चाहता था। एक पल को मन किया कि बैराज पर मौजूद लड़कों से पूछूँ। वो स्थानीय ही लग रहे थे लेकिन फिर वह जिस तरह अपनी दुनिया में तल्लीन थे उसे देखते हुए मुझे उसमें खलल देने का मन नहीं किया। अगली बार आऊँगा तो इस नदी के विषय में जानकारी लूँगा मैंने सोचा। अगली बार के लिए भी तो कुछ छोड़कर रखना था न?
कुछ देर तक मैं खड़ा यहाँ मौजूद नजारों को देखता रहा। मैंने मुड़कर देखा तो पेड़ और उनकी पत्तियाँ बेहद खूबसूरत लग रही थी। कुछ तस्वीरें मैंने इधर से उन जादुई पेड़ों की ली।
फिर बैराज पर जो पुल था उसके दूसरे तरफ उतर गया। वहाँ भी ज्यादा कुछ तो नहीं था लेकिन उधर से एक रास्ता गाँव की तरफ जाता था। उस रास्ते से एक आदमी आते दिखे तो उनसे मैंने पूछा तो उन्होंने बताया कि वह रास्ता सड़क तक जाता है। एक पल को सोचा कि उधर से होकर ही वापस जाता हूँ लेकिन उधर से जाकर मुझे घूमकर मंदिर तक आना पड़ता तो मैंने उधर जाने का विचार त्याग दिया। मुझे तो वैसे भी राकेश भाई के पास वापस जाना था तो मैं वापस बैराज की सीढ़ियाँ चढ़ा और पुल पार करके नीचे उतरकर झील के किनारे बने हुए रास्ते पर चलते हुए मंदिर प्रांगण की तरफ बढ़ने लगा।
आराम से टहलते हुए मैं आखिर प्रांगण तक पहुँचा। सुबह सुबह इधर आना सचमुच सुकून देता होगा। जब मैं विरार में रहता था तो उधर विरार लेक थी। वह इससे छोटी थी लेकिन उसके चारों तरफ भी ऐसा ही रास्ता बना हुआ था। सप्ताहंत में मैं और मेरा रूम मेट अक्सर इधर पहुँच जाया करते और झील के चक्कर लगाते। मजा आता था। यही सोचकर मैं इधर घूमने के विषय में सोचने लगा। अद्भुत लगेगा। मन्दिर का सकारात्मक वातावरण, झील की खूबसूरती, सुबह सुबह पक्षियों की चहचहाट और सूर्योदय का अनुभव करना सचमुच अलौकिक होगा। यही सब सोचते हुए मैं मंदिर के प्रांगण तक पहुँच गया।
राकेश भाई कहीं फोटो खींचने में व्यस्त थे तो मैंने भी इक्का दुक्का फोटो ली और फिर गेट की तरफ बढ़ते हुए सामने बहती नदी को देखने लगा। कुछ देर नदी की तरफ देखकर सोचा कि क्या हो कि आज की शाम इधर ही बिताई जाए लेकिन फिर ग्वालदम का ख्याल मन में आ गया और वापस प्रांगण की तरफ बढ़ चला। वैसे यह ऐसी जगह है जहाँ पूरा दिन आराम से बिताया जा सकता है। मैंने मन में फैसला कर लिया कि कभी आराम से यहाँ आऊँगा। ढंग से रहूँगा।
सामने दिखता बराज वाला पुल और झील के किनारे लगे सुन्दर पेड़ |
झील के बीच में उगे पेड़ और झाड़ियाँ जो टापू जैसे दिखते हैं |
राजमा के आकार की झील |
बैराज का पुल |
बैराज के पीछे दिखती नदी |
झील के किनारे मौजूद सुंदर पेड़ ऐसे लगते हैं मानों शोले हों |
पेड़ों का प्रतिबिम्ब |
प्रांगण में मौजूद शिवलिंग और अन्य मूर्तियाँ |
अब मैं राकेश भाई को ढूँढने लगा। इधर उधर नजरे फिराने लगा।
“खींच लिए फोटो?” राकेश भाई मुझे दिखे तो मैं उनके पास जाकर उनसे बोला।
“हाँ”, राकेश भाई ने मुस्कराते हुए बोला।
“उधर बैराज है? देखा आपने? उधर से ही गाँव का भी रास्ता है। पता है आपको।” मैंने अपने भ्रमण करके अर्जित किये हुए ज्ञान को बघारते हुए उनसे कहा।
“हाँ, पता है मैं हो आया उधर”, राकेश भाई ने आराम से कहा।
“चल झुट्टा,” मेरी जबान पर था लेकिन आते आते रह गया। राकेश भाई झील तक तो गये थे लेकिन बैराज तक नहीं गये थे। गये होते तो मैं उन्हें उधर ही मिलता। लेकिन उनके पास लेंस वाला कैमरा था तो शायद उन्हें वहाँ तक जाने की जरूरत नहीं थी।
“चलें या और घूमेंगे?” मैंने उनसे पूछा तो उन्होंने चलने की ही इच्छा दिखाई।
हम लोग साढ़े बारह बजे करीब यहाँ उतरे थे और अब एक बजकर बीस मिनट पर यहाँ से वापस सड़क की तरफ
चल दिए।
सोते सोते कट जाएँ रास्ते!!
सड़क पर पहुँच कर हम लोग एक बार फिर चाय की दुकान के समक्ष थे। मैंने इधर एक बार फिर एक चाय का आर्डर दिया और चाय का लुत्फ़ लेते हुए हम लोगों(राकेश भाई ) ने पता किया कि ग्वाल्दम के लिए गाड़ी किधर मिलेगी। हमे पता चला कि वहीं से हमे गाड़ी मिलनी थी। चाय खत्म हुई, उसके पैसे हमने अदा किये ही थे कि गाड़ी आ गयी। एक ट्रैकर था जो कि ग्वालदम जा रहा था। पीछे सीट मौजूद थीं और मैं और राकेश भाई उसमें बैठ गये। गाड़ी चल पड़ी।
बैजनाथ से ग्वालदम 22 किलोमीटर की दूरी पर है। पीछे बैठकर आस पास की इतनी चीजें तो नहीं दिखती हैं लेकिन जिस तरह से ट्रैकर घूम रहा था और हम उसके साथ घूम रहे थे उससे हमे पहाड़ की घुमावदार सड़कों का पता चल रह था। सड़कें पहाड़ी थी जिनके दोनों तरफ जंगल थे। कुछ देर तक मैंने फोन पर डायरी लिखने का फैसला किया। काफी हद कट चीजें दर्ज भी की लेकिन फिर नींद सी आने लगी। गाड़ी में गीत बज रहे थे और गाड़ी जिस तरह झूले की तरह हिलडुल रही थी वह सोने के लिए बहुत ही अनुकूल वातावरण पैदा कर रही थी। मुझे भी नींद आई और राकेश भाई भी इससे बचे न रह सके। ऐसे ही सोते हमने लगभग एक घंटे का सफर पूरा कर लिया। डेढ़ बजे से थोड़ा पहले हम बैजनाथ से निकले थे और ढाई बजे के करीब हम लोग ग्वालदम में थे।
राकेश भाई ग्वालदम की तारीफ़ कर रहे थे। देखना था कि इधर हमे क्या मिलता।
बहुत घूम लिया अब सोते हैं…. बस गिरे नहीं इसलिए हैंडल पकड़ कर सोते हैं |
आखिर में राकेश भाई की कैमरे से कौसानी। राकेश भाई बेहतरीन फोटोग्राफर हैं। उनका इन्स्टाग्राम हैंडल फॉलो कीजिये काफी कुछ अच्छा मिलेगा।
राकेश भाई का इन्स्टा हैंडल:
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राकेश भाई के कैमरे से दिखता बैजनाथ |
क्रमशः
कौसानी यात्रा की सभी कड़ियाँ:
कौसानी ट्रिप 1
कौसानी ट्रिप 2
कौसानी ट्रिप 3
कौसानी ट्रिप 4
कौसानी ट्रिप 5
कौसानी ट्रिप 6
कौसानी ट्रिप 7
कौसानी ट्रिप 8
#फक्कड़_घुमक्कड़ #हिन्दी_ब्लॉग्गिंग #पढ़ते_रहिये_लिखते_रहिये
मुझे भी चाय का शौक है और आपके जैसे ही….अगर किसी और काम और चाय पीने का मौका मिले तो में भी चाय ही पियूँगा….बैजनाथ बढ़िया मंदिर है जो आपने घूम लिया
इंतजार ग्वालदम का है जहाँ से राकेष भाई ने एक शानदार फोटो खिंचा है त्रिशूल का…
जी, चाय की बात ही यही है बिना पिए रहा ही नहीं जाता है। जल्द ही ग्वालदम वाली पोस्ट को लगाता हूँ।
सुन्दर तस्वीरों के साथ बेहतरिन यात्रा बृतांत।
तसवीरें और वृत्तांत आपको पसंद आया यह जानकर अच्छा लगा। आभार मैम।
पहाड़ मुझे हमेशा से ही पसन्द रहे हैं। ऐसा अच्छा यात्रा वृत्तांत लिखने के लिये धन्यवाद।
पहाड़ मुझे हमेशा से ही पसन्द रहे हैं। ऐसा अच्छा यात्रा वृत्तांत लिखने के लिये धन्यवाद।
नीरज पुण्डीर
जी आभार नीरज भाई… ब्लॉग पोस्ट आपको पसंद आई यह जानकर अच्छा लगा…ब्लॉग पर आते रहियेगा….