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मेरा अधकचरा पन
मुझे बनाता है मैं
मेरा बेढंगापन
मुझे बनाता है मैं
इनके बिना क्या रहूँगा मैं, मैं?
मैं हूँ ऊबड़ खाबड़
जैसे होती है
पहाड़ी जमींन
जिससे निकलते हैं फूटकर
पेड़, झाड़ियाँ और जंगली फूल
जो न बंधे हैं नियमों में
जो न सजे हैं करीने से
जो हैं स्वतंत्र, बिखरे हुए से
और इसी स्वंत्रता और बिखराव में ही है उनकी खूबसूरती
मैं न बनना चाहता हूँ
चिकना कंक्रीट सा
या रोंदे गये सीने वाले खेत सा
जो दिखाई तो देते हैं खूबसूरत
सजे हुए करीने से
पर जिसके नीचे होती है
दफन कई लाशें
सम्भावनाओं की
इच्छाओं की
जो कि मार दी गयी
बनाने के लिए उन्हें वो
जो चाहती थी दुनिया
अपने खुद के स्वार्थ के लिए
इसलिए
‘गर चाहते हो तुम किसी को
तो स्वीकार करो
उसे उसके ऊबड खाबड़ से
स्वरूप के साथ
क्योंकि
इन ऊबड़ खाबड़ सी सतहों को समतल बनाने के चक्कर
में न जाने कितनी बार मार दिया जाता है
उसे जिसे ही शायद तुमने
चाहा था
©विकास नैनवाल ‘अंजान’
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 08 दिसंबर 2020 को साझा की गई है…. "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा….धन्यवाद!
सुन्दर सृजन
जी सांध्य दैनिक मुखरित मौन में मेरी रचना को शामिल करने के लिए हार्दिक आभार।
जी आभार,सर….
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (09-12-2020) को "पेड़ जड़ से हिला दिया तुमने" (चर्चा अंक- 3910) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर…!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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चर्चाअंक में मेरी रचना को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार।
बेहद खूबसूरत और हृदयस्पर्शी सृजन ।
जी आभार, मैम।
वाह!बहुत सुंदर अनुज सराहनीय सृजन।
सादर
बहुत सुंदर
वाह!बहुत खूब !
बेहतरीन
जी आभार
जी आभार…
जी आभार….
जी आभार…
जी शुक्रिया….
सुन्दर रचना।