‘द आईज हेव इट’ विज्ञान गल्प लेखक फिलिप के डिक की लिखी एक लघु-कथा है। यह लघु-कथा सर्व प्रथम साइंस फिक्शन स्टोरीज नामक पत्रिका में 1953 में प्रकाशित हुई थी।
आज दुईबात में पढ़िए फिलिप के डिक की कहानी द आईज हेव इट का हिन्दी अनुवाद वो आँखें। उम्मीद है कहानी और अनुवाद आपको पसंद आएगा।
मूल कहानी आप निम्न लिंक पर जाकर पढ़ सक ते हैं:
द आईज हेव इट
यह बात मुझे दुर्घटनावश ही मालूम चली थी कि धरती में परग्रहियों की घुसपैठ हो चुकी है। इस जानकारी से वाकिफ होने के बाद मैंने अभी तक इस विषय में कुछ किया नहीं है। सच बताऊँ तो मुझे अंदाजा भी नहीं है कि मैं इस विषय में क्या कर सकता हूँ। मैंने सरकार को इस बात की जानकारी देने के लिए पत्र लिखा था लेकिन उन्होंने जवाब के बदले में मुझे फ्रेम हाउसेस की म्र्रम्म्त कैसे की जाए के ऊपर लिखा एक पर्चा भेज दिया था। खैर, अब तक यह बात खुल ही चुकी है। मुझे लगता है मैं अकेला नहीं हूँ जिसे इस विषय में जानकारी है। शायद सरकार का इस पर कुछ नियंत्रण भी हो।
एक बार मैं अपने घर में मौजूद कुर्सी पर आराम से बैठकर एक किताब, जिसे किसी ने बस में छोड़ दिया था, के पन्ने उलट पलट रहा था कि मुझे पहली बार धरती में परग्रहियों के होने का सबूत मिला। पहले तो मुझे समझ ही न आया कि क्या हो गया। असल बात क्या है यह समझने में मुझे थोड़ा वक्त भी लगा था। लेकिन एक बार जब मैं सब कुछ समझ गया तो मुझे यह अजीब लगा कि मैं आजतक इस बात से अनजान कैसे रह सकता था। सब कुछ मेरे सामने ही तो मौजूद था।
किताब में एक ऐसी प्रजाति का जिक्र था जिसके अन्दर इतनी आश्चर्यजनक खूबियाँ थी जो कि धरती में मौजूद किसी प्रजाति में नहीं हो सकती हैं। एक ऐसी प्रजाति जो कि धरती में आम इनसानों की तरह विचरण कर रही हैं। लेकिन लेखक ने उनके विषय में जो बातें इधर दर्ज की हैं उन बातों से उनका यह बहुरूप अब सामने आ चुका है। मेरे लिए यह चीज पानी की तरह साफ थी कि लेखक को इन परग्रहियों के विषय में सब कुछ पता था। न केवल वह सब कुछ जानता था बल्कि वह इस जानकारी से जरा भी विचलित नहीं था। किताब में लिखी वह पंक्ति (आज भी उस पंक्ति के विषय में रोचता हूँ तो मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं) यह थी:
… उसकी आँखें कमरे के चारों तरफ धीमी गति से घूमने लगीं।
यह पढ़कर ही मेरी रीढ़ की हड्डी में सिहरन दौड़ गयी थी। मैंने ऐसी आँखों की कल्पना करने की कोशिश की। क्या वह आँखें कंचों की तरह लुढ़क रही थीं? किताब में ऐसा तो कुछ नहीं लिखा था। किताब में जो अनुच्छेद लिखा था उसे पढ़कर यही समझ आ रहा था जैसे वह आँखें हवा में तैर रही थीं न कि किसी सतह पर लुढ़क रही थीं। यह भी अंदाजा लगता था कि वह आँखें शायद बड़ी तेजी से घूम रही थी। लेकिन फिर भी उस कहानी में ऐसी घटना के होने पर भी किसी ने कोई आश्चर्य व्यक्त नहीं किया था। इसके बाद तो यह स्थिति और ज्यादा विस्मयकारी हो गयी। आगे लिखा था..
…उसकी आँखें अब एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति की तरफ जा रही थीं।
अगर संक्षिप्त में मुझे कहना पड़े तो बात यह थी कि उसकी आँखें उसके बाकी शरीर से अलग हो गयी थीं और अब अपने आप इधर उधर घूम रही थीं। यह पढ़कर मेरे दिल की गति बढ़ गयी और मुझे अपनी साँस रूकती सी महसूस हुई। मैं अचानक ही किसी अनजान प्रजाति के जीव का विवरण पढ़ रहा था। यह बात तो तय थी कि यह धरती में रहने वाले जीवों की प्रजाति नहीं थी। लेकिन फिर भी किताब के अन्य किरदारों के लिए वह व्यक्ति और उसके द्वारा की गयी यह हरकत आम सी थी। इससे मुझे यह तो अंदाजा हो ही गया था कि वह लोग भी उसी की प्रजाति के हैं।
और लेखक? मेरे दिमाग में उस लेखक को लेकर भी एक संशय उभरा। लेखक भी तो इस बात को आम बातों की तरह ले रहा था। ऐसे जैसे यह कोई प्राकृतिक बात हो। उसने अपनी इस जानकारी को छुपाने का कोई भी प्रयास तक न किया गया। क्या वह भी इस प्रजाति का तो नहीं था? खैर, कहानी आगे बढ़ी:
….और फिर इधर उधर घूमने के पश्चात उसकी आँखें जूलिया पर आकर रुक गयीं।
जूलिया, चूँकि एक महिला थी, तो उसके अन्दर इतने संस्कार थे कि वह इस बात से रुष्ट हुई। यह बताया गया है कि उसकी आँखों के इस बर्ताव से वह शरमाई और गुस्से से उसकी भृकुटी तन गयी। यह पढ़कर मुझे थोड़ी सी राहत मिली। इसका मतलब सभी के सभी परग्रही नहीं है। कहानी आगे बढ़ी:
… धीरे धीरे उसकी आँखों ने उसके शरीर के हर एक इंच का निरीक्षण किया।
हे खुदा! लेकिन फिर यहीं पर लड़की मुड़ी और दूसरी दिशा में बढ़ गयी और मामला समाप्त हो गया। मैं डर के अतिरेक से हाँफता हुआ अपनी कुर्सी पर पसर गया। मेरी पत्नी और मेरे परिवार ने मेरी इस हरकत पर मुझे आश्चर्य से देखा।
“क्या हो गया जी?”, मेरी पत्नी ने मुझसे पूछा।
मैं उसे कुछ बता नहीं सकता था। एक आम आदमी के लिए यह जानकारी नहीं बनी थी। वह शायद इसे झेल नहीं पाती। मैंने असलियत को अपने तक ही रखने का फैसला किया।
“न..नहीं कुछ नहीं”, मैं अपने पर काबू पाता हुआ सा बोला। इसके बाद मैं तेजी से उठा, किताब उठाई और कमरे से बाहर निकल गया।
मैं गैराज में गया और वहाँ जाकर किताब को पढ़ना जारी रखा। काँपते हुए मैंने अगला अनुच्छेद पढ़ा:
… उसने जूलिया को अपनी बाँह के घेरे में ले लिया। लेकिन जूलिया ने उससे कहा कि क्या वह अपनी बाँह हटा देगा। और उस व्यक्ति ने मुस्कराते हुए अपनी बाँह हटा दी।
अब यहाँ ये नहीं बताया गया कि उसने अपनी बाँह हटाने के बाद क्या किया। शायद उसने बाँह हटाकर बगल में खड़ी करके रख दी या फिर उसने अपनी बाँह को कहीं दूर फेंक दिया। मुझे इस बात से कोई मतलब नहीं है। जहाँ तक मेरा ताल्लुक है अब सच मेरे सामने मुँह बायें खड़ा था।
वह एक ऐसी प्रजाति का जीव का था जो कि अपनी इच्छानुसार अपने शरीर के अंगों को हटाने की काबिलियत रखता था। आँखें, हाथ और शायद दूसरे अंग भी। यह सब करना उसके लिए मामूली बात थी। मुझे जीव विज्ञान का थोड़ा बहुत ज्ञान है और उसी की बदौलत मुझे पता है कि धरती में कई जीव ऐसे हैं जो कि यह कारनामा कर सकते हैं। लेकिन यह जीव बड़े साधारण होते हैं, ज्यादातर ये एककोशिकीय जीव होते हैं जो कि एक तारामीन (स्टार फिश) से ज्यादा विकसित नहीं हुए होते हैं। आपको पता है एक स्टार फिश भी अपने अंग अपनी मर्जी से हटा सकती है।
मैंने आगे पढ़ना जारी रखा और फिर मुझे एक बहुत ही ज्यादा विस्मयकारी जानकारी मिली। ऐसी जानकारी जिसे लेखक ने बस यूँ ही लिख दिया था जैसे कि आम सी बात हो:
…. सिनेमा हॉल के बाहर हम दो हिस्सों में बँट गये। कुछ अन्दर चले गये और कुछ कैफ़े में खाने के लिए चले गये।
यह तो द्वियंगी विखण्डन ही था। दो हिस्सों में बँटकर अलग अलग जीव बन जाना। मुझे लगता है शायद नीचे का हिस्सा कैफ़े तक गया होगा क्योंकि वह दूर था और ऊपरी हिस्सा सिनेमा हॉल तक गया होगा। मेरे हाथ काँप रहे थे लेकिन फिर भी मैंने पढ़ना जारी रखा। मुझे यहाँ न चाहते हुए भी बहुत ही खतरनाक बातें पता चल रहीं थीं। जब मैंने अगला अनुच्छेद पढ़ा तो मुझे मेरे होश खोते से लगे:
…मुझे इस बात में कोई शक नहीं है। बेचारे बिबने का एक बार फिर से माथा फिर गया था…
और इसके बाद लिखा था:
..और बॉब कहता है कि बिबने के पास जिगर भी नहीं था।
लेकिन इसके बावजूद भी बिबने आम आदमियों की तरह जी रहा था। माथा फिरने और जिगर के न होने के बाद भी कोई व्यक्ति कैसे जिंदा रह सकता था? इसके बाद जिस व्यक्ति के विषय में लिखा था वह भी इतना ही अजीब था। उसका विवरण कुछ यूँ दिया गया था:
…. उसके पास तो दिमाग ही नहीं था।
बिना दिमाग के व्यक्ति कैसे ज़िंदा रह सकता था? परन्तु इसके बाद जो चीज आगे बताई गयी उससे तो रही सही कसर भी चली गयी। जिस जूलिया को मैंने साधारण व्यक्ति समझा था उसने भी सभी की तरहअपने परग्रही होने का सबूत दे दिया:
…जानबूझर, जूलिया ने अपना दिल उस जवान व्यक्ति को दे दिया था।
यह तो नहीं बताया गया था कि उस दिल का आखिरकार क्या हुआ लेकिन सच बताऊँ तो मुझे भी उससे कुछ लेना देना नहीं था। यह बात तो साफ थी कि दिल निकालकर देने के बाद भी जूलिया,किताब में मौजूद अन्य किरदारों की तरह, आराम से अपना जीवन जी रही थी। बिना दिल के, हाथों के, आँखों के, जिगर के, दिमाग के और जब मर्जी आये तब दो भागों में बँटकर भी ये लोग जी रहे थे। और उन्हें इस बात का कोई पछतावा होता भी नजर नहीं आ रहा था।
…और उसके बाद उसने उस लड़के को अपना हाथ भी दे दिया।
उफ्फ! मुझे उबकाई सी आई। उस कमीने के पास अब जूलिया के दिल के अलावा उसका हाथ भी था। मैं सोच भी नहीं सकता था कि उसने जूलिया के इन अंगों के साथ आख़िरकार क्या किया होगा।
… उसने उसका हाथ ले लिया।
वह कमबख्त इन्तजार नहीं कर सकता था इसलिए वह खुद ही उसके हिस्से अलग अलग करने लगा था।मैं अब गुस्से से लाल हो चुका था। मैंने किताब को गुस्से में बंद किया और उछलकर अपने कदमों पर खड़ा हो गया। लेकिन यह सब करने के बाद भी एक आखिरी वाक्य मेरी नजरों के सामने रह ही गया:
.. उस लड़की की आँखें नीचे सड़क और फिर बुग्याल के पार तक उस लड़के का पीछा करती रही।
मैं गेराज से भाग कर निकला और तेजी से भागता हुआ इस तरह अपने घर में दाखिल हुआ जैसे मेरे पीछे वही परग्रही पड़े हुए हों। मेरी पत्नी और बच्चे किचन में बैठे मोनोपोली खेल रहे थे। मैं उनके साथ बैठकर पूरे जोशो खरोश से खेल खेलने लगा था। मेरी तबियत खराब हो रही थी और मेरे दाँत किटकिटा रहे थे।
मैं उन परग्रही के विषय में और अधिक नहीं सोचना चाहता था। अगर वो धरती पर आ चुके हैं तो उन्हें आने दो। उन्हें धरती पर आक्रमण करने दो। मुझे इन बातों से कोई लेना देना नहीं है।
मैं जानता हूँ कि मैं इन परग्राहियों के साथ लड़ने के काबिल नहीं हूँ।
– लेखक: फिलिप के डिक, अनुवाद: विकास नैनवाल ‘अंजान’
नोट: ‘द आईज हेव इट’ पहली बार जब मैंने पढ़ी तो मुझे यह एक हास्यकथा लगी थी। थोड़ी बचकानी भी लगी थी। लेकिन फिर जब दोबारा पढ़ी तो आज के समय के साथ इसकी प्रासंगिकता का अहसास हुआ और मुझे इसे पढ़कर डर भी लगा। इस कहानी के नायक का एक सच है जिसे वह पूरे विश्वास के साथ मानता है। हो सकता है हम लोग जो इसे पढ़ रहे हैं शायद नायक के सच पर विश्वास न करते हो लेकिन फिर हमारे अपने ऐसे सच हैं जिन पर हमें हर दिन विश्वास कराया जा रहा है। ऐसे सच जिनके लिए हम अपने जानकारों की लानत मलानत करने से भी नहीं चूकते हैं। हम लड़ने भिड़ने यहाँ तक किसी को मारने काटने के लिए भी तैयार हो जाते हैं। यह सब देख मैं सोचता हूँ कि क्या हमारे में और इस कथावाचक के सच में बहुत ज्यादा फर्क है? सोचने की बात है।
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©विकास नैनवाल ‘अंजान’
आपका अनुवाद स्तरीय है विकास जी।
आभार सर….
रोचक कहानी।
आभार मैम….
रोचक बना कर अनुवाद किया है आपने … अच्छी कहानी …
जी आभार सर….
बहुत ही रहस्यमयी कहानी का रोचक अनुवाद…।
आभार, मैम…